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देश में टूटते समाज और बेरोजगारी का भयावह परिणाम है आत्महत्या की बढ़ती दर

किसी भी आत्महत्या के समाचार मिलने के बाद, कुछ देर आत्महत्या के कारणों के कयास लगाए जाते हैं लेकिन आत्महत्या करने के लिए जिन मानसिक व आर्थिक दबावों का सामना व्यक्ति करता है, उससे उबरने की कोशिश करने का माद्दा उसमें बचा नहीं होता। देश में आत्महत्या के आंकड़ें जिस गति से बढ़ रहे, उसके लिए बढ़ते मानसिक दबाव के साथ अवसाद प्रमुख है। भले यह लोगों को व्यक्तिगत कारण लगे लेकिन इसके लिए सरकार द्वारा लागू नीतियाँ पूर्णत: जिम्मेदार है।

इस महीने आत्महत्या की दो खबरें मीडिया में राष्ट्रीय स्तर पर देखी गईं। पहली घटना गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से थी। हरीश और संचिता दो युवा जोड़ों ने अलग-अलग शहरों में आत्महत्या की। दोनों ने प्रेम किया और अंतरजातीय विवाह किया था। इस आत्महत्या का प्राथमिक कारण हरीश की बेरोजगारी बताया गया। दूसरा कारण यह कि उनके विवाह को उसके  परिवार में स्वीकृति नहीं किया गया था। वह संचिता के पिता के घर पर रह रहा था। संचिता के पिता गोरखपुर के जाने माने डाक्टरों में से एक हैं। हरीश की आत्महत्या की खबर सुनने के बाद संचिता ने छत से कूद कर अपनी जान दे दी। इस खबर को ‘एक खूबसूरत प्रेम के दर्दनाक अंत’ की तरह मीडिया में पेश किया गया। खबर को महाकाव्यों के दुखांत की गाथाओं के साथ जोड़कर आत्महत्या को रोमैंटिसाइज कर आत्महत्या की सतह के नीचे दरक रहे समाज की सच्चाई को ढंक दिया।

दूसरी खबर, मुंबई के भायंदर रेलवे स्टेशन पर सीसीटीवी फुटेज का वह हिस्सा थी, जिसमें पिता और पुत्र एकसाथ  प्लेटफार्म पर चलते हुए इसके अंत तक जाते हैं और वहां से उतरकर एक आती हुई ट्रेन के सामने उसकी पटरियों के बीच लेटकर एक साथ आत्महत्या कर लेते हैं। यह फुटेज दोनों के प्लेटफार्म से चलते हुए, पटरियों पर पहुंचने तक जारी किया था। बाकी मीडिया में कमेंट्री के माध्यम से दिखाया गया। इस मामले में उनकी आत्महत्या का कारण उनकी आर्थिक अवस्था खराब होना बताया गया।

दोनों ही मामलों में आत्महत्या के पहले का भावनात्मक उद्वेक और आवेश नहीं दिखता है। ये घटनाएं एक सोचे हुए निर्णय की तरह सामने आती हैं। जीवन का इस तरह से अंत करने के निर्णय तक पहुंचना एक भयावह सच्चाई को हमारे सामने लाती है। लेकिन, यदि इन दोनों घटनाओं को प्रेम और पिता-पुत्र के रूमानी रिश्ते की तरह पेश किया जाये, तब यह भयावह सच्चाई इसके नीचे दबी रह जाएगी। 1990 के दशक में जब किसानों की आत्महत्या की दर में तेजी से वृद्धि हुई, तब भी इस भयावह सच्चाई को सामने लाने से बचते रहे। जबकि दशकों तक आने वाले समय में यह भयावह सच्चाई   बनी रही, बल्कि यह और भी बदतर होती गई। इसे हम किसानों की मौत के बढ़ते आंकड़ों में देख सकते हैं।

वर्ष 2023 में जारी किए गये राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों में आत्महत्या का रिकार्ड देखें तो बेहद डरा देने वाला है। इसके अनुसार 2017 में प्रति लाख पर 9.90 लोगों ने आत्महत्या की, जो वर्ष 2022 में बढ़कर 12.40 प्रति लाख की दर हो गई। संख्या में यह 2022 में 1.71 प्रति लाख था। यह भारत में अब तक रिकार्ड में सर्वाधिक आत्महत्या की घटना है। इन आत्महत्याओं में सबसे डरावनी स्थिति युवाओं की है।

पिछले पांच सालों में इन आत्महत्याओं में हिस्सेदारी 7.5 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है। कोटा में परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्रों की आत्महत्या की खबरें, अब सुर्खियों, फिल्मों और धारावाहिकों का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन कोटा  छात्रों की आत्महत्या की दर आज भी ऊंची बनी हुई है। यही स्थिति सुदूर दक्षिण में त्रिचूर और चेनैई की भी है। इस मामले में दिल्ली में पिछले पांच सालों आत्महत्या की दर में 22 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है।

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आमतौर पर आत्महत्या को मानसिक, शारीरिक और भावानात्मक मसलों के साथ जोड़कर देखा जाता है। उपरोक्त रिपोर्ट में आत्महत्या के 50 से 60 प्रतिशत यही कारण बताए गए हैं। इसमें अवसाद एक बड़ा कारण था। मानसिक और भावनात्मक अवस्था शरीर और समाज से अलग नहीं है। इसे प्रभावित करने वाले  कारकों में अर्थव्यवस्था एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। इसके साथ ही राजनीतिक माहौल भी एक बड़ी भूमिका में होता है।  हाल में मीडिया से आ रही खबरों में मुस्लिम समुदाय में बढ़ती मानसिक समस्या की पड़ताल की बेचैन करने वाली रिपोर्ट्स सामने आई हैं। इसमें आर्थिक कारणों के साथ साथ राजनीतिक कारण को भी रेखांकित किया गया है।

राष्ट्रीय अपराधा रिकार्ड ब्यूरों के 2023 के आंकड़ों में आर्थिक तौर पर तबाह हुए लोगों की आत्महत्या की संख्या में 2021 में 6361 थी जो 2022 में 7034 हो गई थी। इन्हीं आकंड़ों में एक लाख रुपये से कम आमदनी वाले लोगों की कुल आत्महत्या में हिस्सेदारी 64.3 प्रतिशत थी। वहीं 1-5 लाख रूपये वार्षिक आय वालों का हिस्सा 30.7 प्रतिशत दिखता है। साफ है कि कम आय या दिहाड़ी पर जी रहे लोगों में आत्महत्या की दर ज्यादा है।

रोजगार और आत्महत्या के बीच के रिश्तों में सामाजिक पृष्ठिभूमि की भूमिका अब भी बनी हुई है। जहां पर सामाजिक असुरक्षा बढ़ी है वहां उपरोक्त रिश्ता समानुपाती बनते हुए दिखता है। इसी तरह बाजार में रोजगार की संभावना भी इस दिशा में आत्महत्या की दर को कम करने में भूमिका निभा सकती है लेकिन, यह उम्मीद सिर्फ अखबारी सुर्खियों की तरह हो और जमीन पर न दिखे, तब इस स्थिति में कोई फर्क नहीं आने वाला है।

रोज़गार की स्थिति 

10 जुलाई को जब अखबार की खबरों में रिजर्व बैंक के आंकड़े सामने आये कि पिछले महीनों से रोजगार के हालात सुधर रहे हैं और करोड़ों लोगों को रोजगार हासिल हो रहा है, तब किसी को भी इसके आंकड़ों पर भरोसा नहीं हुआ। जिस समय यह आंकड़े सामने आये, उसी समय अकादमिक क्षेत्र के कई संस्थानों से ‘स्टॉफ’ की छंटनी की भी खबर थी। इस दौरान यह भी खबर आई की जीएसटी की वसूली में गिरावट आई है।

12 जुलाई को सरकार की ही एक संस्था सांख्यिकी  और कार्यक्रम कार्यान्वयन विभाग  (मीनिस्ट्रि ऑफ स्टेटिस्टिक एण्ड प्रोग्राम इम्पिलमेंटेशन) ने 2015-16 और 2022-23 का आंकड़ा पेश किया। इसके अनुसार अकेले 2022-23 में ही अनौपचारिक क्षेत्र 16.45 लाख रोजगार खत्म होने की बात स्वीकार की पिछले 10 सालों में मोदी सरकार ने युवाओं को करोड़ों की संख्या में रोजगार देने का वायदा पूरा करने के बजाय नोटबंदी कर जीएसटी लागू किया। कोविड महामारी के दौरान घातक ढंग से किये गये लॉकडाउन ने भारत के उद्यम और कृषि को तबाही के कगार पर पहुंचाया और रोजगार की स्थिति को बदतर बना दिया।

शहरों की कामगार आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा तबाही से जूझ रही खेती पर आ टिका। आज भी कृषि की अतिरिक्त आबादी में हुई बढ़ोत्तरी में कोई खास कमी नहीं आई है। खेती और मनरेगा की स्थिति सुधरती हुई नहीं दिख रही है। मोदी 3.0 में भी अब तक के उठाये गये कदमों से कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही है। राज्य सरकारों द्वारा विदेश में रोजगार के अवसरों को प्रचारित करना कोढ़ में खाज की तरह था। स्थिति बद से बदतर हो रही है।

हरियाणा के युवा के निराशा भरे शब्द, जिसमें इजरायल में नौकरी करने के संदर्भ में कहता है कि ‘यदि मैं वहाँ मरूंगा तब भी परिवार वालों को कुछ मुआवजा तो मिल जाएगा।’ इस कथन में जीने का आकांक्षा और मौत के बाद बची रह गई जिंदगी के प्रति आपर लालसा आज के हमारे समाज की बनती हुई सच्चाई है।

आत्महत्या इस लालसा में एक ऐसे चारा की तरह उपस्थित हो रहा, जिसे कब जिंदगी की मछली गटक ले, कहना मुश्किल है। हमारा समाज और उसमें जी रहे लोगों की जिंदगी इस ओर बढ़ चली है। इस टूटन में राजनीतिक बदलाव ही एक निर्णायक तत्व है जिस तरफ हर हाल में हमारे समाज को आगे जाना ही होगा।

अंजनी कुमार
अंजनी कुमार
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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