हाल ही में, घृणित छल-कपट का एक आश्चर्यजनक प्रदर्शन करते हुए, दिलीप मंडल ने न केवल कम चर्चित, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण मुस्लिम महिला, फातिमा शेख, जो सामाजिक समानता और लैंगिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध थी, की यादों को मिटाने का न केवल बीड़ा उठाया है, बल्कि वास्तव में उसके अस्तित्व को ही नकार दिया है। उन्होंने यह बेतुका दावा किया है कि फातिमा शेख उनकी अपनी कल्पना की उपज है, जिसे उन दिनों धर्मनिरपेक्षता के महत्व को बढ़ावा देने के लिए गढ़ा गया था, जब वे खुद एक प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे!
अशिक्षा को दलित, पिछड़ों और महिलाओं की गुलामी के प्रधान कारण के रूप में उपलब्धि करनेवाले जोतिराव फुले ने वंचितों में शिक्षा प्रसार एवं शिक्षा को ऊपर से नीचे के विपरीत नीचे से ऊपर ले जाने की जो परिकल्पना की उसी क्रम में भारत की पहली अध्यापिका सावित्री बाई फुले का उदय हुआ। मान्यवर कांशीराम का शुक्रगुजार होना चाहिए, जिन्होंने इतिहास की कब्र में दफ़न किये गए बहुजन नायक/नायिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को सामने ला कर समाज परिवर्तनकामी लोगों को प्रेरणा का सामान मुहैया कराया, जिनमें से वह सावित्रीबाई फुले भी एक हैं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के सहयोग से देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। आज माता सावित्री बाई फुले की 194 वीं जयंती है। इस उपलक्ष्य में आज की शैक्षिक और सामाजिक स्थितियों से तुलना से तुलना करते हुए पढ़िए यह लेख।
महात्मा जोतीबा फुले ने अपने वक्तव्य में कहा है कि ‘उच्च वर्गों की सरकारी शिक्षा प्रणाली की प्रवृत्ति इस बात से दिखाई देती है कि इन ब्राह्मणों ने वरिष्ठ सरकारी पदों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। यदि सरकार वास्तव में लोगों का भला करना चाहती है, तो इन अनेक दोषों को दूर करना सरकार का पहला कर्तव्य है। अन्य जातियों के कुछ लोगों को नियुक्त करके, ब्राह्मणों के प्रभुत्व को सीमित किया जाना चाहिए जो दिनोंदिन बढ़ रहा है। कुछ लोग कहते हैं कि इस स्थिति में यह संभव नहीं है।
एक सावित्री पुराणों में हैं, जहां उनके द्वारा अपने पति के प्राण तक वापस लाने की कहानी बचपन से ही सुनते आ रहे हैं। यह आधुनिक युग की सावित्री, जिसने स्त्री-शूद्र तथा पददलित लोगों के लिए शिक्षा की शुरुआत की, जिसने निष्ठा के साथ जो काम किया। इन्हीं सावित्री बाई फुले की आज 139वीं पुण्य तिथि है।
आशालता कांबले सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका, कवियत्री, कहानीकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। महात्मा फुले और अंबेडकरवादी साहित्य सृजन में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। वह एक कुशल वक्ता हैं जिन्होंने मराठी सामाजिक, सांस्कृतिक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। आशालता की अनेक पुस्तकें छप चुकी हैं। बहिनाबाई चौधरी, सावित्रीबाई फुले, रमाबाई, अहिल्याबाई होल्कर और कवि कुसुमाग्रज पर उनकी उल्लेखनीय किताबें हैं। अपनी माँ के जीवन पर उनकी एक किताब ‘आमची आई’ बहुत प्रसिद्ध हुई थी। इनके अलावा जनजागृति के लिए आशालता जी ने एक दर्जन से अधिक पुस्तिकाएँ लिखी हैं। पेशे से वह अध्यापिका रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर शुरू किए जा रहे कॉलम ‘मेरा गाँव’ में उन्होंने अपने गाँव कांदलगाँव के अनुभवों को प्रस्तुत किया है। इस आलेख में कोंकण इलाके में दलितों के जीवन और उस पर डॉ अंबेडकर के प्रभावों का बहुत सघन परिचय मिलता है।