Saturday, July 27, 2024
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स्त्री सशक्तीकरण और जागरुकता के लिए स्त्री विमर्श एक कारगर औजार है

बातचीत का दूसरा हिस्सा • अपनी कहानियों या किताबों में से आप किसे अधिक सफल मानती हैं और क्यों? एक किताब आयी है–आम औरत: ज़िदा सवाल। पिछले बारह– चौदह सालों में लिखे गए आलेखों और टिप्पणियों का संग्रह। मेरे लिए वह एक महत्वपूर्ण किताब है। सफलता तो पाठक तय करेंगे। स्त्री मुद्दों पर लिखी हुई […]

बातचीत का दूसरा हिस्सा

• अपनी कहानियों या किताबों में से आप किसे अधिक सफल मानती हैं और क्यों?

एक किताब आयी है–आम औरत: ज़िदा सवाल। पिछले बारह– चौदह सालों में लिखे गए आलेखों और टिप्पणियों का संग्रह। मेरे लिए वह एक महत्वपूर्ण किताब है। सफलता तो पाठक तय करेंगे।

सम्मान प्राप्त करते हुए सुधा अरोड़ा

स्त्री मुद्दों पर लिखी हुई पढ़कर सुनाई जाने वाली छोटी-छोटी कहानियों के साथ साथ मेरे नियमित स्तंभों ने आम पाठिकाओं को उद्वेलित और प्रेरित किया हैं, जिनमें जनसत्ता का मेरा साप्ताहिक कॉलम ‘वामा’ जो एक साल तक चला और युवा लड़कियों में भी काफी उत्साह से पढ़ा जाता रहा। ‘अन्यथा’ पत्रिका से जुड़ी डॉ. भवजोत ने हाल ही में बताया कि उन दिनों मुंबई के मेडिकल कॉलेज में वह छात्र थीं और सब छात्राएं मेरा कॉलम ज़ेरॉक्स करवाकर आपस में सर्क्युलेट कर पढ़ती और उस पर चर्चा करती थीं। प्रशंसा और तारीफ़ से हौसला तो बढ़ता है पर लेखक के विकास के लिए आलोचना और उसके लेखन की कमियों पर उंगली रखना ज़्यादा ज़रूरी होता है क्योंकि लेखक उम्र के उत्तरार्द्ध तक अपने को तराशता और संशोधित करता चलता है। ज़्यादा से ज़्यादा पाठको तक पहुचने के लिए ज़रूरी है कि वह अपने लेखन के नकारात्मक पक्ष को जाने और वहां से आगे बढ़ने की कोशिश करे। लेखन पर प्रतिक्रियाएं सकारात्मक हों या नकारात्मक, पहली कोशिश अपने प्रति ईमानदारी बरतने की है और लेखन में मेरी पूरी कोशिश अपने प्रति ईमानदार होने की है। सच बोलने का खामियाज़ा मैंने कई बार भुगता है। सच बोलना आज के ज़माने में संकट में डालने वाली आदत है, उससे परेशानी तो होती है पर मूसलों से घबराकर आप सच बोलना बंद तो नहीं कर देते।

कथादेश में औरत की दुनिया स्तंभ की शुरुआत कैसे? इसकी सफलता का श्रेय किसे देंगी?

मार्च 2004 से प्रारंभ कथादेश में औरत की दुनिया स्तंभ की शुरुआत का श्रेय इसके सम्पादक हरिनारायण को जाता है। कई सालों से वह कह रहे थे और मैं टाल रही थी। लेखन और वह भी नियमित लेखन के मामले में मैं बेहद आलसी जीव हूं। मैंने कभी रोज़ दस से पांच की रूटीन बनाकर लेखन नहीं किया। सन् 2004 में पुस्तक मेले में वसुंधरा के स्टॉल पर ही कथादेश का स्टॉल था। उन्हीं दिनों दो संपादित किताबें-दहलीज़ को लांघते हुए और पंखों की उड़ान आई थी। उस किताब में उन्होंने सावित्रीबाई फुले पर नाटक पढ़ा और दो अंकों में धारावाहिक नाटक छाप कर स्तंभ की शुरुआत कर दी। स्तंभ का नाम औरत की दुनिया मैंने ही दिया था। सोचा था–एक डेढ़ साल चलाकर देखती हूं। चारेक किस्तों के बाद ही इसे पाठक–पाठिकाओं का जैसा रिस्पॉन्स मिला, फिर इसे बंद करना संभव नहीं हो पाया। अक्टूबर 2005 में ‘औरत की दुनिया’ स्तंभ में सुभद्राकुमारी चौहान पर की जन्मशती पर विशेष सामग्री देने की शुरुआत हमने की थी, उन्हीं दिनों मैं इन्दौर, भोपाल, जबलपुर गई थी। तब मुझे पता चला कि आम पाठिकाएं इस स्तंभ को कितनी गंभीरता से पढ़ती हैं। इस स्तंभ का उदेश्य सनसनी फैलाना या स्त्री विमर्श के नाम पर देह की आज़ादी के राग गाना नहीं है। ईमानदार और बेलाग सरोकार देर सबेर अपनी जगह खुद बना लेते हैं।

[bs-quote quote=”सच पूछें तो यह एक बहाना था– जिसके कारण हमने उन हज़ारों औरतों की तकलीफ को शब्द दिए, जो आज भी बच्चों की वजह से, सामाजिक भय के कारण, अपने माता–पिता, भाई–बहन की प्रतिष्ठा के डर से इससे बहुत ज़्यादा झेलती चली जा रही हैं। पुरुष समाज निश्चिंत है। जानता है, बोलेगी नहीं क्योंकि विकल्पहीनता की स्थिति है। एक ने मुंह खोला तो थोड़ी सी घबराहट भी है- कहीं हमारी पत्नी ने मुंह खोल दिया तो? पर अपने गिरेबान में नहीं झांकेंगे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

इसकी सफलता का कारण क्या लगता है आपको?

स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष बतौर फैशन भी चल रहा है। हंस की पुरस्कार योजना में देहवादी कहानियां इसी फैशन का नमूना हैं। लेखिकाएं हंस की फितरत जानती हैं। मांग के अनुरुप कहानियां गढ़ती हैं। स्त्री विमर्श को लेकर राजेंद्र यादव की भ्रमित दृष्टि से कौन परिचित नहीं, वह बीच-बीच में शगूफे छोड़ते रहते हैं। इस स्तंभ में न लफ्फाजी है, न बौद्धिक उलझाव वाला वाक् विलास। सबसे बड़ी बात यह है कि आम पाठिकाएं भी इस स्तंभ में रचनात्मक योगदान देकर इसका हिस्सा बनना चाहती हैं। इस स्तंभ में कई ऐसी महिला रचनाकारों की भी रचनाएं हैं, जिन्होंने पहली बार कलम पकड़ी। हमारा फोकस स्त्री यातना की अलग-अलग परतों का विश्लेशण और सशक्तीकरण के प्रयास पर है। इस स्तंभ को मिले पाठिकाओं के समर्थन ने मुझे भी बहुत ताकत दी है जिसकी मुझे ज़रूरत थी। कुछ लोगों को हमने नाराज़ भी किया है क्योंकि सामंती पुरुषों और उनके थोथे अहं को दुलारने वाली पुरुष सोच तले पनपने वाली वाली औरतों को आईना देखने की आदत नहीं होती। कड़वा सच ऐसे लोगों को परेशान तो करता ही है ।

कथादेश में एक प्रतिष्ठित कवि की पत्नी के बयान ने बहुत हलचल पैदा की? आप तक भी इसकी लपटें पहुंची होंगी? इसका अंदेशा था आपको?

तमिल और अंग्रेजी की लेखिका सी एस लक्ष्मी अंबई के साथ सुधा अरोड़ा

दरअसल, इस पूरे प्रसंग पर आई प्रतिक्रियाएं ने एक बार फिर पुरुषप्रधान सत्ता का चेहरा बेनकाब कर दिया है। अफसोस इस बात का है कि तथाकथित प्रगतिशील सोच वाली कितनी औरतें भी इसी सामंती पुरुष प्रवृत्ति को प्रश्रय देती हैं। अधिकांश लोग महिला को दोष देते हैं कि जिसने बयान दिया है–वह खुद बहुत एग्रेसिव थी। माना, थी। तो आप मानते हैं न कि एग्रेसिव होने का अधिकार सिर्फ पुरुषों का है। यानी उसने अपना परम्परागत मान्य सहनशीला का रोल नहीं निभाया। आज बोल पाने की स्थिति तक पहुंचने से पहले एक औरत कितना झेलती है, उसका बयान आपके रोंगटे खड़े कर देगा।

सच पूछें तो यह एक बहाना था– जिसके कारण हमने उन हज़ारों औरतों की तकलीफ को शब्द दिए, जो आज भी बच्चों की वजह से, सामाजिक भय के कारण, अपने माता–पिता, भाई–बहन की प्रतिष्ठा के डर से इससे बहुत ज़्यादा झेलती चली जा रही हैं। पुरुष समाज निश्चिंत है। जानता है, बोलेगी नहीं क्योंकि विकल्पहीनता की स्थिति है। एक ने मुंह खोला तो थोड़ी सी घबराहट भी है- कहीं हमारी पत्नी ने मुंह खोल दिया तो? पर अपने गिरेबान में नहीं झांकेंगे। थोड़ा सा मानवीय होने की कोशिश नहीं करेंगे। एक तो पुरुष, फिर रचनाकार–कवि, लेखक, कलाकार। करेला और नीमचढ़ा!

पिछले वर्ष ही भोपाल के भारत भवन में एक नामी गिरामी ‘मटुकनाथ’ का व्याख्यान था। कहते हैं – प्रेम तो दुर्लभ वस्तु हो गई है। तो प्रेम जहां से मिले, उसे स्वीकार करना चाहिए, उसे नैतिकता–अनैतिकता के तराज़ू पर क्या तोलना? सारे श्रोता मंत्रमुग्ध से सुनते जा रहे थे। किसी ने कुछ नहीं कहा। उनकी बासठ वर्षीया पत्नी भी बैठी थीं। उन्हें उठकर बोलना चाहिए था–पतिदेव, प्रेम के लिए मनाही नहीं है, पर यह कैसा प्रेम है जो घर से बाहर बंद कमरों में या दूसरे शहरों के होटलों में ही होता है? और यह कैसा प्रेम है जो घर के बाहर प्रेम से लथपथ रहता है और घर के भीतर अपनी पत्नी पर पूरी की पूरी कुर्सी उठाकर हिंसा करने दौड़ता है? प्रेम तो मन को बड़ा बनाता है, यह कैसा प्रेम है जो मन को संकीर्ण बना देता है, जो दूसरे को रास्ते से हट जाने को कहता है, दूसरे से गाली गलौज के बिना बात नहीं करता, दूसरे को देखना भी गवारा नहीं करता और सत्तर साल की उम्र में तलाक की धमकी देता है!

पर वे चुप रहीं। औरत की इस चुप्पी की पूरे पुरुष जमात को आदत पड़ गई है। उसका मुंह खोलना लोगों को नहीं सुहाता!

[bs-quote quote=”आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। आज भी वे समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही हैं। पुरुश सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं। इसे तोडना, बदलना या संवारना एक लम्बी लड़ाई है। हर क्षेत्र में स्त्रियां अपनी- अपनी तरह से अपनी लड़ाई लड़ रही हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

आपकी दृष्टि में स्त्री विमर्श क्या है? क्या आपने अपने कथा साहित्य में स्त्री विमर्श को स्त्री सशक्तीकरण का पर्याय माना है?

स्त्री विमर्श–स्त्री सशक्तीकरण और स्त्री जागरुकता का प्रसार करने के लिए एक कारगर औजार है। नारीवादी लेखन आज के समय की ज़रूरत है। आधुनिकता और उदार सोच के तमाम दावों के बावजूद स्त्री की सामाजिक स्थिति या उत्थान में कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन नहीं आया है। आज भी वे समझौतों और दोहरे कार्यभार के बीच पिस रही हैं। पुरुश सत्ता की नीवें हमारे समाज में बहुत गहरे तक धंसी हुई हैं। इसे तोड़ना, बदलना या संवारना एक लम्बी लड़ाई है। हर क्षेत्र में स्त्रियां अपनी- अपनी तरह से अपनी लड़ाई लड़ रही हैं। कथा साहित्य में भी स्त्री चेतना ने अपनी उपस्थिति पूरी गहराई और शिद्दत से दर्ज़ करवाई है पर हिन्दी साहित्य में तथाकथित स्त्री विमर्श इतने बौद्धिक स्तर पर है कि आम औरतों तक या उन औरतों तक–जिन्हें जागरूक बनाने की ज़रूरत है–यह पहुंच ही नहीं पाता। यह काम साहित्य के स्त्री विमर्शकारों से कहीं अधिक महिला संगठन और ज़मीनी तौर पर उनसे जुड़ी कार्यकर्ताएं कर रही हैं।

यह भी पढ़ें: भाग एक 

मैं कभी किसी कहानी आंदोलन का हिस्सा नहीं रही

वैचारिक रूप से स्त्री विमर्श के इस दौर में एक समानांतर छद्म भी चल रहा है। स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री की देह की स्वतंत्रता और देह पर अपने अधिकार की ओट में एक उच्छृंखल माहौल को स्वीकृति देना भी पुरुषसत्तात्मक समाज का शतरंजी खेल है जिसका मोहरा इस स्थिति से अनजान स्त्रियां ही हैं।

कथा साहित्य में आप कहानी के कथ्य से अलग जाकर स्त्रियां सशक्तीकरण के संदेश नहीं दे सकते। कहानी लेखन की अपनी सीमाएं हैं। कहानी में हम ‘जैसा है’ या ‘जैसा होता है’ की स्थितियां ही अधिक दिखाते हैं, जबकि आलेखों में, टिप्पणियों में या छोटे-छोटे एक पृष्ठीय स्तंभों में हम स्त्रियों को ‘जैसा होना चाहिए’ की प्रेरणा, हौसला या नारा भी दे सकते हैं। हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श के साथ दिक्कत यह है कि यह विमर्श विमर्शवादियों के लायक बनकर ही रह गया है। बोझिल वाक्विलास और अव्यावहारिक सैद्धांतिक नज़रिया– पहले से पढ़े लिखों को कुछ और साक्षर बनाने का उपक्रम बनकर रह जाता है । जो औरतें पहले से सशक्त हैं, उन्हें आप सशक्तिकरण की क्या सीख देंगे?

जब स्त्रीवाद का नारा नहीं था तब भी कई लेखिकाएं सक्रिय थीं, अब उनकी कहानियों को पढ़ने पर क्या कोई स्त्रीवाद–स्त्री चेतना दिखाई देती है?

मराठी की बहुचर्चित दलित लेखिका उर्मिला पवार के साथ सुधा अरोड़ा

सच है, जब स्त्रीवाद नारे और आंदोलन के रूप में चर्चित नहीं था, तब भी स्त्रीवादी लेखन किया गया है। रुकैया सखवत हसन की कहानी ‘सुलताना का सपना’ देखें। बंग महिला, सुमित्रकुमारी सिन्हा, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानियों के बाद महादेवी वर्मा की ‘श्रृंखला की कड़ियां’ के आलेख अभूतपूर्व हैं – उन दिनों संस्मरण विधा का भी इतना चलन नहीं था पर महादेवी जी ने अपने आलेखों में कितनी सशक्त शैली में अपने समय की स्त्री की हर क्षेत्र में यातना का सटीक चित्रण किया– उसमें लछमा का चरित्र बहुत कुछ कह जाता है। महादेवी स्त्री को लेकर अपने समय की सोच पर या स्थितियों पर कोई बयान नहीं देतीं पर उस समय से उठाए गए एक स्त्री पात्र का जैसा रोंगटे खड़े कर देने वाला चित्रण वह करती हैं, वह अपने आप में एक बयान है। कृष्णा सोबती की मित्रे मरजानी, उषा प्रियंवदा की पचपन खंभे–लाल दीवारें, मन्नू भंडारी की कहानियां–बंद दराज़ों का साथ, तीन निगाहों की एक तस्वीर, नई नौकरी, स्त्री सुबोधनी में जो स्त्री विमर्श है, इन कहानियों का विश्लेषण करें तो उस समय की स्त्री की सामाजिक स्थिति को बखूबी पहचाना जा सकता है ।

 स्त्री ही स्त्री लेखन करे, यह क्यों जरुरी है?

सुधा अरोड़ा द्वारा लिखित पुस्तकें

ज़रूरी तो नहीं है क्योंकि कई बार स्त्रियां भी बतौर फैशन ही स्त्री संघर्ष की बात करती हैं। वे जेनुइन नहीं होतीं। लेकिन इसमें संदेह की गुंजाइश नहीं है कि भुक्त भोगी ही अपनी बात ज्यादा प्रामाणिकता के साथ कर सकता है। बहुत सी महिला रचनाकार, अपने सुखद घरौंदों में बैठकर स्त्री की यातना की कहानी नहीं कह सकतीं। पर इसका यह अर्थ नहीं कि वे अच्छी रचनाकार नहीं हैं। औरों को छोड़ें, मैं अपना उदाहरण देती हूं। मेरा 1964 से 1980 तक का लेखन देखें, उसके बाद बारह साल की चुप्पी और 1993 से लेखन की दूसरी पारी में मेरा स्वर ही बिल्कुल बदल गया। मैंने ही बलवा, दमनचक्र, युद्धविराम, सात सौ का कोट लिखी थी। मेरी बहुत प्रिय कहानियां हैं यह पर आज मैं चाहकर भी इस बड़े सामाजिक फलक की कहानियां नहीं लिख पाती। मैंने क्यों अपने आप को इस सीमित फलक में समेट लिया है। मुझे लगता है, लेखकों की एक बड़ी जमात इस परिदृश्य पर दमदार तरीके से सक्रिय है–स्वयंप्रकाश, प्रियंवद, उदयप्रकाश, संजीव, असगर वजाहत की कहानियां या कुछ कम चर्चित नाम प्रेमरंजन अनिमेष, हरिचरन प्रकाश, एस–आर–हरनोट, नवनीत मिश्र की कहानियों को देखें। मैं उन्हीं विषयों को उठाती हूं, जो मेरे मन के करीब हैं या जिन पर मैं प्रामाणिकता से लिख सकती हूं। एक बार एक लेखक मित्र ने मेरे दूसरी पारी के लेखन को लेकर व्यंग्य किया था कि आपका लेखन रिवर्स गिअर में जा रहा है। मुझे न समीक्षकों की तारीफ से फर्क पड़ता है, न परिवार के सदस्यों की आपत्ति या करीबी मित्रें की आलोचना से। कलम उठाने के मामले में वैसे ही बहुत आलसी हूं। किसी कहानी को लिखना तबतक टालती रहती हूं, जब तक वह मेरे भीतरी सिस्टम से खुद ही हाथ पैर पटकती हुई बाहर आने पर आमादा न हो जाए इसलिए फरमाइश या मांगपूर्ति के लिए मैं कभी लिख नहीं सकती। मेरी अपनी सीमाएं हैं और इस मामले मे मुझे कोई मुग़ालता नहीं है ।

[bs-quote quote=”मैं उन्हीं विषयों को उठाती हूं, जो मेरे मन के करीब हैं या जिन पर मैं प्रामाणिकता से लिख सकती हूं। एक बार एक लेखक मित्र ने मेरे दूसरी पारी के लेखन को लेकर व्यंग्य किया था कि आपका लेखन रिवर्स गिअर में जा रहा है। मुझे न समीक्षकों की तारीफ से फर्क पड़ता है, न परिवार के सदस्यों की आपत्ति या करीबी मित्रें की आलोचना से।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

क्या स्त्री रचित साहित्य और पुरुष रचित साहित्य भिन्न है  ?

कई बार रोल रिवर्सल भी होता है। कृष्णा सोबती का यारों के यार या मन्नू भंडारी का महाभोज या बहुत सी लेखिकाओं की ऐसी कहानियां हैं जो स्त्री के खांचे से बाहर मानवीय संवेदना से लिखी गयी रचनाएं हैं। ऐसे ही स्वयंप्रकाश की कहानी ‘अगले जनम में’ या नवनीत मिश्र की ‘देह भर नहीं’ या प्रेमरंजन अनिमेष की ‘लड़की जिसे रोना नहीं आता था’ स्त्री संवेदना से लिखी गयी अभूतपूर्व रचनाएं हैं। स्त्री का संवेदनात्मक धरातल पुरुष से अलग होगा ही। स्त्री को इस घरातल पर परखे जाने की रियायत नहीं चाहिए । और इस रियायत की उसे अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।

• आप एक काउंसिलिंग सेंटर हेल्प से सात साल जुड़ी रहीं। वहां से आपने खूब कहानियां कमाई । अब आप सीजंड तो नहीं हो गई?

काउंसिलिंग के दौरान कुछेक कहानियों के सूत्र तो ज़रुर मिले। पर मैंने काउंसिलिंग से कहानियां नहीं कमाईं । उन अनुभवों पर तो मैंने अभी लिखना शुरु भी नहीं किया। जिन कहानियों के सूत्र मुझे काउंसिलिंग से मिले–उनमें से मुख्यत: एक अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी और दूसरा ताराबाई चॉल… तीसरी आधी आबादी…। ऐसा मुझे लगा या मैंने शायद अपने आप को समझाया। अब देखती हूं तो इन कहानियों के लिए भी लगता है, कहीं आपका अवचेतन मन अपने जीवन की उन स्थितियों को भी पहचान रहा होता है जिसे आप नज़रअंदाज़ कर पीछे धकेल देना चाहते हैं। हां, काउंसिलिंग से जुड़ी केस हिस्ट्रीज को ज़रूर कभी लिखना चाहूंगी और वह एक बड़ा और महत्वपूर्ण काम होगा क्योंकि अब सैद्धांतिक और कार्यशालाओं की ट्रेनिंग के साथ-साथ व्यावहारिक स्तर पर भी उसे करीब से देखा, जाना और अनुभव किया है।  जिसे फर्स्ट हैंड एक्सपीरिएंस कहते हैं और जो सिर्फ आपका अपना अनुभव आपको देता है।

क्रमशः 

पल्लव जाने-माने युवा आलोचक और बनास जन  पत्रिका के संपादक हैं। फिलहाल वे हिन्दू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। 

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2 COMMENTS

  1. सुधा दी के बारे में और अधिक जानकारी मिल रही है। इस सार्थक और सारगर्भित शृंखला के लिए पत्रिका को हार्दिक धन्यवाद।

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