उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा जारी फ़रमानों ने अध्यापकों की फजीहत शुरू कर दी है। इनमें से एक फरमान डिजिटल हाजिरी का आतंक इस कदर बढ़ चुका है कि इस पर खरा उतारने के लिए अध्यापक-अध्यापिकाएँ जान की भी परवाह नहीं कर रहे हैं। उनका पहला उद्देश्य समय से पहले पहुँचकर हाज़िरी लगाना है। यह काम करते हुये उन्हें विद्यार्थियों के साथ दिखना अनिवार्य है।
इस प्रक्रिया में हड़बड़ी और गड़बड़ी होना स्वाभाविक है। सोशल मीडिया पर आज काफी वायरल हो रहा एक वीडियो इस फरमान के नतीजों की तरफ एक संकेत है। यह वीडियो आजमगढ़ जिले का है, जिसमें मूसलाधार बारिश में खड़ी तीन महिलाएं घबराई, हड़बड़ाई और रुआंसी दिखाई दे रही हैं। पूछने पर तीनों ने अपना नाम बताया सोनम, राशिदा बेगम और अमरीन बताया। ये तीनों ही बीएस रायपुरा में बेसिक शिक्षा विभाग में अध्यापिका हैं। तीनों अपने विद्यालय टोटो रिक्शा से जा रही थीं। डिजिटल उपस्थिति का पहला दिन था, इसलिए वे समय से पहले पहुँच जाना चाहती थीं। टोटो तेज गति से चल रहा था। अचानक वह पलट गया और तीनों अध्यापिकाओं का एक्सीडेंट हो गया।
यह खबर मिलने पर अनेक अध्यापकों को लगा कि यह आदेश भविष्य में उनके लिए एक फंडा साबित होनेवाला है लिहाज़ा उन्होंने इसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज़ कराया। पहले उन्होंने नारे लगाए और फिर बाँह पर काली पट्टी बाँधकर काम किया।
बेसिक शिक्षा विभाग में अध्यापकों की ऑनलाइन उपस्थिति क्यों अव्यावहारिक है?
डिजिटल हाजिरी की अनिवार्यता
विद्यालय खुलते ही उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद के अध्यापकों के लिए शासन ने डिजिटल उपस्थिति लगाने का नया आदेश लागू किया। यह 8 जुलाई से लागू हो गया है। जब से यह आदेश जारी हुआ है तभी से बेसिक शिक्षा विभाग के अध्यापक इसके खिलाफ विरोध दर्ज कर रहे हैं क्योंकि यह किसी भी तरह से व्यावहारिक नहीं है।
उनका कहना है ऑनलाइन उपस्थिति ली जाए लेकिन इसके उन्हें कुछ जरूरी छूट भी दी जाए, जिसमें महीने में तीन दिन देरी एक आकस्मिक अवकाश माना जाए। उन्होंने 15 सीएल, 30 ईएल और 15 हाफ सीएल की मांग रखी है। आज डिजिटल हाजिरी के आदेश को अमल में लाने का पहला दिन था। अनुपस्थिति न लग जाए इसके चलते सभी शिक्षक समय से पहले पहुँचना चाह रहे थे। बेसिक शिक्षा परिषद के ज्यादातर विद्यालय ग्रामीण और सुदूर इलाकों में हैं। जहां कुछ लोग अपनी निजी व्यवस्था से और कुछ सार्वजनिक वाहनों से पहुंचते हैं। जहां तक ग्रामीण इलाकों की सड़कें है, वे ज़्यादातर खस्ता हाल हैं और कई जगह स्कूल तक पहुँचने के लिए सड़क है ही नहीं।
सवाल यह उठता है कि शासन ने शिक्षकों पर नकेल कसने के लिए नियम लागू का दिया लेकिन क्या उनकी व्यवहारिक दिक्कतों का कभी आकलन किया? यदि डिजिटल आधार पर काम करने का आदेश लागू किया गया तो सबसे पहले सुदूर इलाकों में इंटरनेट की पहुँच की भी जांच की जानी चाहिए। यदि वहाँ इंटरनेट का कनेक्शन मजबूती से नहीं पहुँच पाता है, ऐसे में डिजिटल उपस्थिति कैसे दर्ज होगी? यदि डिजिटल उपस्थिति विद्यालय पहुँचने के बाद भी नहीं लग पाई तब उन्हें अनुपस्थित मान लिया जाएगा। शासन को चाहिए कि अध्यापक अपने को हर चिंता और दबाव से मुक्त रखे ताकि वे बच्चों को पढ़ाने को बेहतर तरीके से पढ़ा सकें।
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लेकिन अनेक राज्य सरकारें अध्यापकों को बँधुआ मजदूर समझती हैं। इसलिए उनसे पढ़ाई के अतिरिक्त वे सारे काम करवा लेना चाहती हैं जिनमें उनका इतना समय खर्च हो जाय कि वे पढ़ाने लायक बच ही न सकें। दुनिया भर के सर्वे, जनगणना, मंत्री-नेता के आने पर स्वागत के लिए भेजना, पोलियो ड्रॉप पिलाना आदि काम प्राथमिक अध्यापकों को सौंप दिया जाता है। आज यह शोध का विषय है कि शिक्षा विभाग द्वारा अध्यापकों पर लादे गए शिक्षणेतर कार्यों का प्राथमिक शिक्षा पर क्या असर पड़ा है? नए सत्र में बच्चों का पैर धोकर, माला पहनाकर, ताली बजाकर, खीर खिलाकर स्वागत करने की पक्षधर व्यवस्था बच्चों के पढ़-लिखकर कुछ बन जाने के प्रति कितनी ईमानदार है?
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उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा व्यवस्था के एक जानकार कहते हैं कि ‘इसे ऐसे समझिए कि अब सरकारी विद्यालयों में सिर्फ हरवाहे-चरवाहे समाजों के बच्चे जा रहे हैं। यानि अब केवल बहुजन बच्चे यहाँ पढ़ रहे हैं। ज़्यादातर अध्यापक भी बहुजन समाजों से ही आते हैं जबकि शिक्षा मंत्री से लेकर सचिव बीएसए तक सब सवर्ण जातियों के हैं। योगी आदित्यनाथ की जातिवादी समझ के प्रति यही लोग वफादार भी रहेंगे इसलिए इन्हें ही मौका है। अब आप सोचिए कि जिनके बाप-दादा पहले बहुजन समाज के बच्चों के स्कूल जाने पर इतना पीटते थे कि अधिकतर बच्चे डर के मारे स्कूल ही छोड़ देते थे क्या उनके वंशज आज बहुजन समाज का भला सोच सकते हैं? अध्यापकों को शिक्षणेतर कामों में फंसाने और बच्चों के आने पर उनके पाँव धोने, माला पहनाने और खीर खिलाने के बीच में उनकी पढ़ाई कहाँ हैं?’