जो लोग पचास लोगों से प्रेम करते हैं, उनके पास खुश होने के पचास कारण हैं।
जो किसी से प्रेम नहीं करता उसके पास, खुश होने की कोई वजह नहीं होती।
महात्मा बुद्ध
बुद्ध और गांधी मुझे बहुत आकर्षित करते हैं। गांधी ने संभवत; बुद्ध की अहिंसा और करूणा को अपने जीवन व राजनीति का हिस्सा बनाया था। गांधी की हत्या 1948 में हुई, एक उन्मादी ने उनके जीवन का अंत किया, उसके बाद मेरा जन्म हुआ था। गांधी के बारे में उन लोगों से जाना जिन्होंने उन्हें देखा था, उनके साथ जेल गए थे फिर मैंने उनके जीवन से संबंधित किताबों को पढ़कर उन्हें जानने की कोशिश की। बुद्ध हजारों साल पहले पैदा हुए थे, लेकिन वे हमारी स्मृति का हिस्सा बने हुए हैं। बुद्ध धर्म दुनिया का चौथा बड़ा धर्म है। इस धर्म के अनुयायी चीन, जापान, श्रीलंका, म्यांमार जैसे देशों के नागरिक हैं। सनातन (हिन्दू) के बाद बौद्ध धर्म का उदय हुआ। यह अपने समय का लोकप्रिय धर्म था। हिन्दू धर्म में जो कुरीतियाँ और कर्मकांड थे, बुद्ध ने उसका विरोध किया। सनातन धर्म में बलि और सामिष की परंपरा थी। अश्वमेघ यज्ञ इसका उदाहरण है। इस आयोजन में अश्व की बलि दी जाती थी तब जाकर यज्ञ पूर्ण होता था। बुद्ध इस तरह की हिंसा के विरूद्ध थे। मौर्य काल के बाद बौद्ध धर्म धीरे-धीरे पतन होने लगा था, उसे राजाश्रय नहीं मिल पा रहा था। बाहरी आक्रांताओं ने बौद्ध मठों को काफी नुकसान पहुंचाया, इतिहासकार यह भी बताते हैं बौद्ध मठों की पवित्रता पहले जैसी नहीं रह गयी थी, उसमें धतकर्म भी होने लगे थे।
कोई धर्म आलोचना के परे नहीं है, लेकिन बौद्ध धर्म में कुछ ऐसे तत्व हैं कि यह धर्म अब भी प्रासांगिक बना हुआ है। बुद्ध ने अहिंसा और करूणा को एक मूल्य की तरह स्थापित किया। वे ईश्वर और आत्मा पर विमर्श से बचते थे। उनका दिया हुआ एक उदाहरण याद आता है। वे कहते थे कि पाँव में कांटा गड़ जाए तो हमें तो कांटे के इतिहास के बारे में जानने का कोई अर्थ नहीं है, बल्कि उसे पाँव से निकालने की कोशिश करनी चाहिए। वे बताते थे कि मनुष्य जीवन में दुख है तो उसका समाधान भी है। वे दुख के समाधान को बताते थे, इसके लिए उन्होंने चार आर्य सिद्धांत प्रतिपादित किए। उन्होंने तृष्णा और लालच से बचने के उपदेश दिए और कहा- स्वयं अपना दीपक बनो। वे अपने उपदेशों में नैतिक नियमों के पालन पर जोर देते थे। उनके सारे उपदेश जनभाषा (पालिभाषा) में सुरक्षित हैं, जबकि हिन्दू धर्म की तमाम ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं जो आम जनों की भाषा नहीं थी। इसी कारण बुद्ध धर्म को यथार्थवादी दर्शन कहा जाता है।
[bs-quote quote=”चीना बाबा रामाभार स्तूप के ऊपर वट वृक्ष के खोंखल में रहते थे। वहीं उनका घर था बरगद के जड़ों के फैलाव के कारण जब स्तूप क्षतिग्रस्त हो रहा था तो उन्हें उस वट से उतार कर एक कमरे में रखा गया लेकिन वह उनका घर नहीं था इसलिए वे बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके। घर छूटने की यंत्रणा में वे निर्वाण के पथ पर चले गये।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
थोड़ी देर के लिए यह कल्पना करने में हर्ज नहीं है कि अगर बुद्ध धर्म देश का मुख्य धर्म होता तो इस देश की स्थिति भिन्न होती। बुद्ध के बाद अगर किसी ने देश की आत्मा को जाना है, तो उस आदमी का नाम महात्मा गांधी है। उनके जाने के इतने वर्षों बाद यह बात तसदीक हो रही है। राहुल ने कहा है कि बुद्ध की तुलना गांधी से ही की जा सकती है…।
बुद्ध के बारे में मैंने प्राइमरी स्कूल की किताबों में पढ़ा था कि किस तरह बालक गौतम ने बूढों, विकलांगों और मृतकों को देखकर जीवन के बारे में उनकी धारणा बदल गयी थी? उनके जीवन के प्रश्न उसी समय से उन्हें विकल करने लगे थे। दूसरा उदाहरण, उनके चचेरे भाई देवदत्त का था, जिसने एक पक्षी को मारा था, गौतम ने उसे बचाया था। पक्षी पर जब अधिकार की बात आयी तो राजसभा ने यह निर्णय दिया कि पक्षी को मारनेवाले से ज्यादा अधिकार बचानेवाले का है। ये सब घटनाएं गौतम के भीतर बीज की तरह मौजूद थीं, जब समय आया तो वह एक रात को अपनी पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को सोते हुए छोड़कर बोधि की खोज में चले गये। राज-पाट, धन-वैभव को ठुकराना एक अदम्य साहस की बात थी। महाभारत में राज्य के अधिकार को लेकर कौरव और पांडव के बीच एक लंबा युद्ध हुआ, जिसमें हजारों लोग मारे गये। विधवाओं, अनाथ बच्चों को इस युद्ध ने जन्म दिया और कितने लोग लापता हुए। इसका विवरण इतिहास में दफ़न है। युद्ध में विजेता को कुछ नहीं हासिल होता। अंत में उसे बर्फ के पहाड़ों में गलना पड़ता है। युद्ध से कोई सबक नहीं लेता, बस जीत का नशा उसकी आत्मा को नष्ट करता रहता है, उसे विजय के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है।
सम्राट अशोक ने राज्य विस्तार के लिये कलिंग का युद्ध लड़ा था, जिसमें भयानक हिंसा हुई थी लेकिन इस हिंसा ने उसे बौद्ध बनाया। उसने बुद्ध धर्म को राजधर्म की तरह स्वीकार किया। देश के बाहर बुद्ध धर्म को केवल कीर्ति को नहीं पहुंचाया वरन धर्म के विस्तार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को देश के बाहर भेजा था। उनके बाद के सम्राटों ने बुद्ध धर्म को उस रूप में प्रतिष्ठा नहीं दी, जिसके कारण इस धर्म का उन्नयन नहीं हो सका। किसी धर्म को जनसहयोग के साथ अगर सत्ता का सहयोग नहीं मिलता तो वह धर्म भले ही मुकाम मिल जाए, लेकिन वह लक्ष्य तक नही पहुँच पाता।
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बचपन से बुद्ध की कहानी पढ़कर उनके प्रति मेरा राग पैदा हुआ। बुद्ध से संबंधित स्थलों को जानने और समझने की ललक पैदा हुई और ये स्थल किसी न किसी रूप में मेरे पास आने लगे। हमारी अदम्य इच्छाएं हमें रास्ता दिखाती हैं लेकिन उसके लिए दीवानगी की ज़रूरत होती है।सहज कुछ नहीं मिलता, उसके लिए कीमत अदा करनी पड़ती है। बुद्ध की जीवनी में गौतम के जन्मस्थल लुम्बिनी का उल्लेख किया गया था और मुझे वहाँ जाने का मार्ग मिल चुका था। बड़ी बुआ का विवाह नेपाल की तराई में हुआ था। बुआ के गाँव से लुम्बिनी पैदल की दूरी पर था।थोड़ा बड़ा हुआ तो वहाँ आना-जाना शुरू हुआ और लम्बिनी के प्रति मेरा अनुराग बढ़ता ही गया। जब मैं बुआ से बुद्ध के बारे में चर्चा करता था तो वह कहती थीं- क्या तुम भी बुद्ध की तरह अपना घर-द्वार छोड़ कर सधुआ जाओगे? अपना दिमाग खराब न करो-पढ़ो-लिखो और नौकरी करके शादी-ब्याह करो।
लुम्बिनी के पास मधेनगर में बुआ की पाही थी। वहाँ उसके खेत थे जहां खूब जड़हन पैदा होते थे। वहाँ के कालानमक चावल खूब महकते थे।वहाँ से हम चावल लाते थे जब वे रसोई में बनते थे तो उसकी महक गाँव में फैल जाती थी। लोग जान जाते थे कि बुआ के घर से लाया हुआ चावल बन रहा है। उस समय लुम्बिनी बहुत छोटी जगह थी। बुद्ध के जन्मस्थल के पास पीपल का पेड़ और तालाब था। पीपल के पेड़ पर लाल पताकाएं हवा में लहरा रही थीं। उसके आसपास छोटे-छोटे कई मंदिर बने हुए थे। उनमें बुद्ध के अनुयायी और उनके दर्शन के लिए आये हुए लोग ठहरते थे। वहाँ लंबे-लंबे घास के मैदान और झाड़ियाँ थीं, जिसमें खरहे कूदते रहते थे। पड़ों पर विभिन्न तरह के परिंदे थे, जिन्हें मैनें पहली बार देखा था। बुआ बताती थीं- ‘ये परिंदे पहाड़ों से आते हैं।’ बुआ ने बताया था- ‘जब गौतम की माँ गर्भवती हुईं तो वे बच्चे के जन्म के लिए अपने मायके देवदह जा रही थीं, जब उन्हें प्रसव पीड़ा हुई तो वहीं रुक गईं, वहीं पर गौतम का जन्म हुआ। बुद्ध के जीवन को लेकर मेरे मन में तमाम जिज्ञासायें थीं, जिसे बुआ इस ताकीद से साथ बताती थी कि मैं इन किस्सों को किस्सा ही समझूं, उसमें रमूं नहीं।
पाही के पास खेतों के देखभाल के लिए एक झोपड़ी थी। फसलों को चरने के लिए वहाँ जंगली जानवर आते थे, इसलिए वहाँ रहना जरूरी था।कभी फूफा और कभी फुफेरे भाई वहाँ डेरा डालते थे। पाही की रातें बहुत सुहानी होती थीं। पेड़-पौधों में जुगनू चमकते थे, जैसे पेड़ों पर बिजली की झालर लटका दी गयी हो। रात के सन्नाटे में सियारों की हुआँ-हुआँ सुनाई पड़ती थी। सियारों की आवाज बहुत बीभत्स होती थी। बाद में जब लुम्बिनी का विस्तार हुआ तो बुआ की जमीन छिन गयी। बुआ ने मुझसे कहा कि जिस बुद्ध ने दुनिया का दुख दूर किया, उस बुद्ध ने मुझे दुख में डाल दिया। जमीन छिनने का दुख आदमी के जीवन का सबसे बड़ा दुख होता है, इसे बेजमीन के लोग अच्छी तरह से जानते हैं। बुआ इस सदमे से बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सकीं। जब भी मैं लुम्बिनी जाता हूँ उस जगह ठहर कर सोचता हूँ तो बुआ बहुत याद आती हैं। केवल बुआ ही लुम्बिनी की जमीन से बेदखल नहीं हुई थीं, सैकड़ों परिवार इस यंत्रणा के शिकार हैं। वे बुद्ध को इस तरह नहीं याद कर सकते हैं जैसे हम करते हैं। बुद्ध मूर्ति पूजा के विरूद्ध थे। वे निरंतर श्रवण में रहते थे। उन्होंने अपना कोई ठिकाना नहीं बनाया और किसी राजा के दरबार से ही जुड़े हुए थे लेकिन उनके अनुयायियों ने उनकी स्मृति में स्तूप और मूर्तियाँ बनाईं।
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उस जगह पहुँच कर फूफा के बड़े भाई के बेटे काशी प्रसाद श्रीवास्तव की भी बहुत याद आती है। वे नेपाल में नेता थे। उनकी पढ़ाई बीएचयू में हुई थी। वे भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल हुए थे और उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा मिला हुआ था, उन्हें पेंशन भी मिलती थी। बीएचयू में पढ़ते हुए उन्हें गांधी के दर्शन हुए थे। उन्होंने मुझे बताया था कि एकबार जब गांधी वहाँ आये थे तो उन्होंने उनके पाँव पर सिर रख दिया था, उसके बाद वे रूपांतरित हो गए थे। वे जीवन भर गाँधीवादी बने रहे। खादी के कपड़े और पैर में मामूली चप्पल पहनते थे। वे मुझे बताते थे कि नेपाल में जिस तरह का रंगभेद है, उस तरह का रंगभेद दुनिया में कहीं नही है। नेपाल के बड़े ओहदों पर पहाड़ी काबिज हैं। मैदान और तराई के लोगों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। भारत की सीमावर्ती जगहों पर बसे हुए लोगों को व्यंग्य से मंदेसी कहा जाता है। वे नेपाल के पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी नेपाली नेता थे, वे गाँधीवादी विचारों वाले नैतिक व्यक्ति थे। अगर तिगड़मी और जोड़तोड़ की राजनीति में दक्ष नहीं थे अन्यथा वे बड़ी जगह पर पहुंचते। अपनी इसी छवि के कारण वे नेपाल से निर्वासित कर दिए गए थे और वे गोरखपुर में रहने लगे थे।पहली पत्नी की देहांत के बाद उन्होंने पचास साल की उम्र में नेपाल के राणा परिवार की लड़की से विवाह किया।
मधेनगर में भी उनकी पाही थी, जहां वे यदा-कदा आकर रहते थे। उनकी जमीन का मामूली मुआवजा मिला, लेकिन उन्होंने लेने से इनकार कर दिया। वे घुमंतू आदमी थे, अक्सर यात्रा में रहते थे। वे हमारे बीच काशी भैया के नाम से मशहूर थे। उन्होंने नेपाल के इतिहास के नाम से बहुत अच्छी किताब लिखी है।
[bs-quote quote=”शाम होते ही लोग शहर से विदा हो रहे थे। उसके बाद मैं परिनिर्वाण स्थल पहुँच चुका था। बौद्ध अनुयायी उस स्थल की ओर मद्धम गति से बढ़ रहे थे। उनके हाथों में फूल और सुगंधित सामग्री थी। वे कुछ बुदबुदा रहे थे। उनकी आवाज इतनी धीमी थी कि कुछ सुना नहीं जा सकता था। वे मूर्ति तक पहुँच कर मूर्ति के चारों तरफ फैल चुके थे। वाद्य यत्र धीरे-धीरे बजने लगे और वह स्थल सुगंधित हो चुका था। मैं उनके बीच पहुँच चुका था। वे धम्म पद का गायन कर रहे थे। वे कंठ से नहीं ह्रदय से गा रहे थे। उनके बीच मैं अभिमंत्रित हो चुका था। यह जीवन का अवर्चनीय अनुभव था। लगा कि बुद्ध मेरे भीतर उतर चुके हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
पिता देवरिया के एक घूसर कस्बे में नौकरी करते थे, जहां चीनी की दो मिले धुआँ उगलती रहती थीं। सड़कें कच्ची थीं, जब लोग बैलगाड़ी में गन्ना लादकर मिल की तरफ जाते थे तो खूब धूल उड़ती थीं। धुंए और धूल से आसमान भर जाता था, उसी के बीच मिल का घंटा और सूटर बजता रहता था। कस्बे में बिजली की आमद नहीं हुई थी। बस चौराहों और गलियों में लैंपपोस्ट जलते थे। वे किसी जासूसी फिल्म की याद दिलाते थे। वह बीस साल बाद जैसी जासूसी फिल्म का जमाना था। दूर से लैम्पोस्ट को देखना अच्छा लगता था। कभी-कभी हम उसकी रोशनी के नीचे आकर ठहर जाते थे। बचपन ढिबरी और लालटेन की रोशनी में बीता। यहाँ आकर यह जरूर तरक्की हुई कि हम लैंप के प्रकाश में पढ़ने लगे।
इस कस्बे में भी मैं बुद्ध का पीछा कर रहा था। इसी जनपद में कुशीनगर बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल था। कस्बे से बस सीधा कुशीनगर जाती थी। पहले वहाँ पिता के साथ जाते थे, फिर समय मिलते ही खुद जाने लगे। उस समय कुशीनगर बहुत विकसित नहीं था लेकिन धीरे-धीरे वह पर्यटनस्थल के रूप में उसकी विकास होने लगा। जब गोरखपुर में पढ़ने अथवा नौकरी पर आया तो कुशीनगर बहुत दूर नहीं था। समय मिलते हम पक्षी की तरह उड़ जाते थे। कुशीनगर के बारे में ऐसे ही अनेक स्मृतियाँ हैं।
कुशीनगर में मेरी मुलाकात दिल्ली से आयी हुई एक युवा कवियित्री से हुई, जिसने मुझे यह कहा था कि अगर युद्ध हो जाए तो मैं अपनी किताबें और डाक टिकट कहां रखूंगी। उसने मुझे यह भी बताया था कि दिल्ली एक प्रेमविहीन नगर है। उस लड़की से हुई विलक्षण मुलाकात के बाद मैनें बोधिसत्व नाम की कविता लिखी थी-
अपनी चिर निद्रा से उठो बोधिसत्व/ एक लड़की तुम्हें बुला रही है/ उसकी किताबें संकट में हैं/ उसके ऊपर मंडरा रहा है परमाणु युद्ध का खतरा/ वह अपनी बेहतर इच्छाएं/ और डाक टिकट कहां रखे।
वह अजीब लड़की थी, उसने मुझे सूर्य को देखने की विधि बताई थी। उसने कहा कि देर तक सूर्य को देखो फिर उसका गोला नजर आएगा। इस तरह सूर्य को देखने का अभ्यास करोगे तो तुम्हारी आँखों की ज्योति बढ़ जाएगी, तुम दूर तक देख सकोगे। कभी-कभी ट्रांस में पहुंच जाओगे। उसे कुशीनगर बहुत पसंद आया। वह अन्य लोगों की तरह कुशीनगर में बसना चाहती थी। यह अजीब बिडम्बना है कि लोग जहां बसना चाहते हैं वहाँ नहीं बस पाते, वे जहां बसते हैं, वह उनके पसंद की जगह नहीं होती है। कबीर बनारस में रहना चाहते हैं लेकिन अंत में उन्हें मगहर आना पड़ा। कवि केदारनाथ सिंह कुशीनगर बसना चाहते थे कि पडरौना से दिल्ली चले गये। दिल्ली उनके पसंद का नगर नहीं था।
वे यदा-कदा यहाँ आते रहते थे। उन्होंने कुशीनगर के चीना बाबा पर मंच और मचान नाम की कविता लिखी है। चीना बाबा रामाभार स्तूप के ऊपर वट वृक्ष के खोंखल में रहते थे। वहीं उनका घर था बरगद के जड़ों के फैलाव के कारण जब स्तूप क्षतिग्रस्त हो रहा था तो उन्हें उस वट से उतार कर एक कमरे में रखा गया लेकिन वह उनका घर नहीं था इसलिए वे बहुत दिनों तक जीवित नहीं रह सके। घर छूटने की यंत्रणा में वे निर्वाण के पथ पर चले गये। कवि केदारनाथ सिंह ने इस कविता में घर से बेघर होने की पीड़ा व्यक्त की है। प्रकारांतर से यह उनकी भी पीड़ा थी। इस कविता की कुछ पंक्तियां-
मैनें कितने शहर नापे/ कितने घर बदले/ और मैं हैरान हूँ, मुझे लग गया इतना समय/ इस सच तक पहुँचने में/ कि उस तरह देखो/ तो कोई हुक्म नहीं/ पर घर जहां भी है/ उसी तरह टंगा है।
हम सब अपने-अपने बनारस में रहना चाहते हैं लेकिन हम मगहर पहुँच जाते हैं। हमारी परिस्थितियाँ ही हमारी रिहाइस तय करती है। एक तरह से हम सब विस्थापित हैं। रोजी-रोटी और महत्वाकांक्षाओं के लिए अपने मूल जगहों से दूर जाते रहते हैं। जबसे दुनिया आधुनिक हुई है यह आवागमन बढ़ता जा रहा है।
इसी इलाके में गीतकार/ कवि देवेन्द्र कुमार पैदा हुए थे, जिन्होंने लोकजीवन को लेकर अद्भुत गीत लिखे हैं। कुशीनगर पहुँच उनके गीतों की याद आती हैं। कवि/ लेखक अज्ञेय कुशीनगर में पैदा हुए थे। जगह-जगह भटकते हुए वे दिल्ली पहुंचे। बुद्ध भटकते नहीं थे। भटके हुए लोगों को राह दिखाते थे। वे निरंतर भ्रमणशील रहते थे और जीवन के सत्य को खोजते रहते थे। घने-घने जंगलों को पार करते हुए वे प्रकृति के समीप रहते थे। वे राजदरबारों की अपेक्षा आम्रमंजरियों में रूकना पसंद करते थे।
आम्रपाली की कथा बुद्ध प्रेमियों को जरूर याद होगी। जब आम्रपाली का यहाँ उल्लेख हुआ तो बुद्ध का वाक्य याद आया। उन्होंने कहा था कि दुनिया में स्त्री ही मनुष्य की आत्मा को बांध सकती है। उन्हें अपने जीवन में स्त्रियों की करूणा मिली और इससे ज्यादा करूणा उन्होंने वापस की थी।
मैं कोई घुमंतू और भ्रमणशील नहीं था। नौकरी ने शहर-दर-शहर भटकाया। इसी भटकन में कुछ जगहें खोजी और कुछ जगहों ने मुझे खोज लिया था। इन्हीं जगहों ने मेरे भटकाव को रचनात्मक बनाया। यह संयोग ही था कि जीवन की यात्राओं मे मुझे सारनाथ और श्रावस्ती जैसी जगहें मिली और उन्हें जीभर के बार–बार देखा। इन यात्राओं से मेरे संवेदन का विस्तार हुआ। बीते हुए इतिहास में जाने की जिद्द पैदा हुई। मुझे यह पता लगा कि खंडहरों मे भी जीवन धड़कता है। ये जगहें मृत नहीं हैं। जब हम उनके इतिहास के बारे में सोचते हैं तो हमारी कल्पना को विस्तार मिलता है। इस अतीत-राग में हमारा वर्तमान छिपा हुआ है।
बुद्ध की उपस्थिति का पता तब चलता है जब हम दुख में होते हैं। उसी समय उनका दर्शन याद आता है। इक्कीसवीं सदी के शुरू में जब महाविपत्ति में पड़ा था- मेरा जीवन हिल गया था। उसी समय मेरा तबादला देवरिया हो गया था या लोकसत्य की शब्दावली में कहा जाय कि बुद्ध ने मुझे बुला लिया था। देवरिया के एक कस्बे से जो यात्रा शुरू हुई थी उसका विस्तार सदर देवरिया तक हो गया था। इस बीच जीवन में बहुत कुछ बदल चुका था। एक जीवन में कई जीवन के दुख एक साथ मिले। बुद्ध के जीवन और दर्शन से संबंधित कई किताबें थीं जिसे मैं पढ़कर बुद्ध के जीवन संदर्भों को जान रहा था- जैसे पाल कारूस की किताब गास्पेल आफ बुद्ध-महामानव बुद्ध (राहुल सांकृत्यायन) द हिस्ट्री एण्ड लिटरेचर आफ बुद्धइज़्म (टीडब्लू राइज डेविडस) लेकिन वियतनाम के आध्यात्मिक संत और विद्वान तिक न्यात हुनह की पुस्तक ओल्ड पाथ ह्वाइट क्लाउड अत्यंत जरूरी किताब है। लेखक ने बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थलों की यात्रा करके इस आख्यान को पूर्ण किया था।
यह सच है कि किताबों को पद्धकर हम किन्हीं जगहों के बारे में नहीं जान पाते। उन जगहों को जानने और अनुभव के लिए उनके तहखानों में उतरना पड़ता है और यही मैं बुद्ध और खुद को पहचानने के लिए कह रहा था। बुद्ध ने कहा था- अप्प दीपों भव लेकिन आदमी अपने भीतर के प्रकाश को नहीं देख पाता, बाहर के अँधेरों में भटकता रहता है।
देवरिया से कुशीनगर दूर नही था। इस कठिन समय में मुझे बुद्ध और कुशीनगर में शरण मिली। दफ्तर के काम कम बोझिल नहीं होते। वे दिल और दिमाग दोनों को थका देते हैं। जब हम त्रासद स्थितियों का सामना करते हैं, उस समय हमारे पास कोई राहत देनेवाला चेहरा जरूर होना चाहिए। इस शून्य को भरने के लिए मैंने अपने किराये के कमरे में बुद्ध की मूर्ति रख ली। जब परेशान होता था उनके चेहरे की ओर ध्यान लगाता था। उधर से आवाज आती थी- बुद्धम शरणंम गच्छामि। यह आवाज मुझे बहुत ताकत देती थी।
सप्ताह के छह दिन दफ्तर की मारा-मारी में बीत जाता था। रविवार का दिन मेरे लिए खाली होता था। कुशीनगर दस-ग्यारह बजे पहुँच कर विभिन्न स्थलों पर घूमता था। जैसे-जैसे साँझ घिरने लगती देवरिया पहुँचने की जल्दी रहती थी। देर होने के बाद कोई बस, जीप नहीं मिलती थी।कुशीनगर की तीन जगहें मुझे बहुत पसंद थी। पहली जगह बुद्ध का महापरिनिर्वाण स्थल। दूसरा हिरण्यवती नदी, जिसे पारकर बुद्ध ने कुशीनारा में प्रवेश किया था। तीसरा रामाभार स्तूप। बताया जाता है कि हिरण्यमयी नदी के तट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ था और उनकी अस्थियाँ रामाभार स्तूप में रखी गयी थी। दूसरा स्तूप परिनिर्वाण स्थल के पास था। वहाँ भी अस्थियां सुरक्षित थीं।
श्रद्धालु स्तूप की परिक्रमा करते थे और वहाँ पर लगे चक्र को घुमाते रहते थे। इस क्रिया से आत्मा को शांति मिलती थी, जब यहाँ बुद्ध आये होंगे तो यहाँ घने शाल–वन थे। अब भी इस जगह की स्वाभाविकता को बनाए रखने के लिए शाल-वन लगाए गए थे।फूलों की रंग-बिरंगी क्यारियाँ थी। उस भौरें और तितलियाँ मंडरा रही थी। वहाँ हरे-भरे घास के मैदान थे जहां पर्यटक अपने परिवारों और दोस्तों के साथ लुत्फ उठा रहे थे। ये वे सैलानी थे, जो बुद्ध के बारे में जानने के लिए जरा भी उत्सुक नहीं थे लेकिन जब यहाँ विदेशों से बुद्ध के अनुयायी आते थे तो वे बुद्ध के जीवन से संबंधित तथ्य को जानने के लिए जिज्ञासु रहते थे।
बुद्ध की मूर्ति को मैं घंटों निहारा करता था। यह मूर्ति नहीं एक रहस्य थी। जितनी बार उसे देखो उतनी बार उसकी छवि बदलती रहती थी।उनकी मूर्ति में जादुई आकर्षण था। इस जादू का पता लोगों को नहीं चलेगा, जो किसी जगह को छूकर चले जाते हैं। किसी मर्म तक पहुँचने के लिए डूबने की क्रिया आवश्यक है। मैंने सोचा कि एक रात वहाँ रुक कर इस नगर को महसूस करूं। रात की नीरवता में वे आवाजें सुनाई पड़ती हैं. जिसे हम दिन में नही सुन पाते। दिन के शोर-शराबे से रात का संगीत भिन्न होता है। सड़कें खामोश रहती हैं। उस पर धीमें-धीमें चलना अच्छा लगता है।
मैनें वहाँ के धर्मशाले में एक कमरा ले लिया, जिसकी खिड़की सड़क की तरफ खुलती थी। शाम होते ही लोग शहर से विदा हो रहे थे। उसके बाद मैं परिनिर्वाण स्थल पहुँच चुका था। बौद्ध अनुयायी उस स्थल की ओर मद्धम गति से बढ़ रहे थे। उनके हाथों में फूल और सुगंधित सामग्री थी। वे कुछ बुदबुदा रहे थे। उनकी आवाज इतनी धीमी थी कि कुछ सुना नहीं जा सकता था। वे मूर्ति तक पहुँच कर मूर्ति के चारों तरफ फैल चुके थे। वाद्य यत्र धीरे-धीरे बजने लगे और वह स्थल सुगंधित हो चुका था। मैं उनके बीच पहुँच चुका था। वे धम्म पद का गायन कर रहे थे। वे कंठ से नहीं ह्रदय से गा रहे थे। उनके बीच मैं अभिमंत्रित हो चुका था। यह जीवन का अवर्चनीय अनुभव था। लगा कि बुद्ध मेरे भीतर उतर चुके हैं।
यही वह पवित्र जगह थी जहां बुद्ध ने अपने प्रिय शिष्य आनंद को अंतिम उपदेश दिया था। उन्होंने कहा था- “आनंद! शोक न मत रोओ। सभी प्रियजनों से बिछुड़ना पड़ता है, जो जन्मा है, जो बना है, उसका नाश होता है- “यह जीवन का ऐसा सत्य है जिस पर हम मुश्किल से यकीन कर पाते हैं। यही तो जीवन का यक्ष-प्रश्न है, जिसका उत्तर युधिष्ठिर के भाई नहीं दे पाये थे, जिसके कारण यक्ष ने उन्हें अचेत कर दिया था लेकिन युधिष्ठिर के उत्तर से वे जीवित हो गये थे। जीवन-मृत्यु का यह संघर्ष अनंतकाल से चल रहा है। यह जानते हुये कि जो इस दुनिया में आया है वह अपने विदा के साथ आया है। हम माया के साथ रहते हैं, इसलिए यह सच हमारे भीतर छिपा रहता है।
बुद्ध-भक्तों से धम्म पद का गायन सुन कर मैं सुध-बुध खो बैठा था। पतंग की तरह हल्का होकर मैं हवा में उड़ रहा था। वहाँ से मैं घूमते हुए रामाभार स्तूप तक गया जो शहर का अंतिम छोर था। मैं नितांत अकेला था, लेकिन मेरे साथ उन लोगों की स्मृतियाँ थीं, जिन्हें मैं गवां चुका था।स्मृतियाँ एकांत में साफ अनुभव की जा सकती थीं। मेरे साथ बुद्ध का यह वाक्य था कि जो इस दुनिया में आया है उसे बिछुड़ने का दुख तो सहना ही पड़ता है। इस सच को स्वीकार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
निर्वाण स्थल से जब धर्मशाला लौटा तो रात भर नींद नहीं आयी। मैं बुद्ध के सपने में भटकता रहा। जैसे मैं धरती पर नहीं किसी अन्य लोक में विचरण कर रहा हूँ।
प्रात: मैं निर्वाणस्थल पर पहुँच चुका था। वहाँ पर विदेशी सैलानी थे, जो बुद्ध की पूजा-अर्चना के लिए तैयार हो रहे थे। वे चीवर धारण किए हुए थे जो बौद्धों के परम्परागत परिधान थे। वे लंबी चादर तान कर उसके नीचे धीरे-धीरे बढ़ रहे थे। कुछ लोगों के हाथ में पुष्पगुच्छ थे। बुद्ध को कमल के फूल बहुत पसंद थे। वह भी कुछ लोगों ने ले रखे थे। उस समारोह में दो वियतनामी लड़कियां थीं, जिनके हाथ में फूल थे- वे बहुत प्यारी और युवा नन की तरह लग रही थी। मैंने जब फोटो के लिए उन्हें कैमरे के सामने आने का आग्रह किया कि तो वे सहर्ष तैयार हो गईं। मैंने कैमरे के शीशे उतार लिए थे। वे टूटी-फूटी अंग्रेजी में बात कर रही थी। जब मैनें उनसे पूछा कि वे किस देश से आयीं हुईं हैं तो उन्होंने वियतनाम का नाम लिया और कहा कि आप लोग भाग्यशाली हैं कि आप बुद्ध के देश में रहते हैं, जहां कण-कण में वे व्याप्त हैं। बुद्ध के जीवनी के लेखक तिन न्याह हुनह का देश वियतनाम था। मुझे उनकी कुछ मूल्यवान पंक्तियां याद आयी
अतीत का पीछा न करो/ भविष्य के भ्रम जाल में न फँसो/ अतीत व्यतीत हो गया/ भविष्य अभी अनागत है/ यहाँ और इसी क्षण जीवन जैसा है/ उसकी धारणा करो।
स्वप्निल श्रीवास्तव जाने-माने कवि और कथाकार हैं।
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