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मनरेगा: रोजगारसेवक को खर्चा-पानी दिए बिना भुगतान नहीं

2010 में गाँव सैदपुर में उनका एनरोलमेंट मनरेगा में हुआ और तब से औसतन प्रतिवर्ष दो महीने का काम मिलता रहा है । 2010 में उन्हें 65 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलती थी जो अब बढ़कर 120 रुपये हो गई है। मनरेगा के अपने अनुभवों को साझा करते हुए रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने अब तक गाँव के आस-पास पुलिया लगाने, सड़क और नाली की मरम्मत करने और नई नालियां बनाने के काम में लगे रहे। उनका अब कोई बकाया नहीं है लेकिन तमाम मनरेगा मजदूरों की तरह वे भी कहते हैं कि जब भी वे बैंक से पैसा निकालते हैं तो तुरंत ही प्रधान का आदमी आकर अपना हिस्सा ले जाता  है। 

 

मनरेगा की हजारों चित्र-विचित्र कहानियां हैं जो बताती हैं कि जनसाधारण की रोजी-रोटी की गारंटी देने वाली इस परियोजना ने कितने खतरों और दुरभिसंधियों के बीच अपनी यात्रा जारी रखी है. इसके भ्रष्टाचार और अनियोजित तरीके से काम लिए जाने की कहानियां तो जगजाहिर हैं. फ़र्जी इनरोलमेंट से लेकर मजदूरी के भुगतान तक अनेक बातें मनरेगा का नाम आते ही वातावरण आकार लेने लगती हैं. लेकिन लाख कमियों के बावजूद मनरेगा ने ग्रामीण समाजों में न्यूनतम मजदूरी का मानक फिक्स किया है जो पारंपरिक नियोक्ताओं को सर्वथा नागवार गुजरी है. सरकारी कर्मचारी को महीना ख़त्म होते ही वेतन मिलता है . तमाम इलाकों में मजदूरों को पसीना सूखने से पहले ही मजदूरी मिलती है लेकिन मनरेगा के मजदूरों को मजदूरी कब मिलेगी इसका कोई निश्चित दिन नहीं है . मिलती भी है तो मुश्किल से और काट-कटौती करके जिसे देहाती मुहावरे में ‘मछरी की बेच’ कहते हैं . यानी मनरेगा परियोजना में प्रधानमंत्री से लेकर रोजगार सेवक तक यह मानते हैं कि मजदूरों के ऊपर बहुत बड़ा अहसान किया जा रहा है . और इस प्रकार अभी भी देश के लाखों मजदूरों की मजदूरी बकाया रह जाती है . इंतजार , जरूरत और बेचैनी के बीच कभी कभी वे मुट्ठियाँ तानकर उठ खड़े होते हैं. इन दृश्यों के बीच इनके अनकहे दुखों को बातचीत के माध्यम से शब्दबद्ध कर रहे हैंI

रोजगारसेवक को खर्चा-पानी दिए बिना भुगतान नहीं

पचास साल की लीला देवी निरक्षर हैं और चिरईगाँव वाराणसी की रहनेवाली हैं . इस समय उनके सर पर पांच लोगों के जीवन का भार है . चिरई गाँव अपने अचार-मुरब्बों के लिए दुनियाभर में मशहूर है . पति की मृत्यु के बाद बच्चों के भरण-पोषण के लिए लीला को मजदूरी की शरण में जाना पड़ा . 2009 में चिरई गाँव में उनका इनरोलमेंट हुआ और 130 रूपये प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिली लेकिन साल भर में काम प्रायः तीन महीने से भी कम ही मिला .

इतने कम दिनों के काम से आपका परिवार कैसे पलता होगा ? पूछने पर लीला देवी बताती हैं कि जब मनरेगा में काम नहीं मिलता तब शहर जाकर मजदूरी करती हूँ और इस तरह बड़ी मुश्किल से घर चलता है . यह पूछने पर कि मनरेगा की मजदूरी समय पर मिल जाती है ? लीला देवी बताती हैं कि पूरी मजदूरी मुश्किल से मिलती है . पहले एक महीने का बकाया किये थे परन्तु अब कुछ रुपये काटकर वापस कर दिए हैं .  क्या यह भुगतान बैंक द्वारा हुआ था ? लीला देवी ने बताया कि बैंक द्वारा ही भुगतान होता है . हम लोगों के साथ रोजगार सेवक भी जाते हैं . वे अपना खर्चा-पानी ले लेते हैं . मैंने कहा यह तो बहुत बुरी बात है . आप प्रधान के यहाँ नहीं शिकायत की ? लीला देवी ने मुझे ऐसे देखा जैसे मेरी नासमझी पर समझ न पा रही हूँ कि क्या कहें क्या न कहें . फिर बोलीं – जब बकाया था तो ग्राम प्रधान के यहाँ गयी . ग्राम प्रधान कहते हैं कि ऊपर के लोगों को कुछ देना पड़ता है . अब हम क्या कहें . उनकी ही कृपा से काम मिलता है तो हाँ कह दिए . मजदूरी में से कुछ रूपये काटकर भुगतान किया .

वे बताती हैं कि यूँ तो मनरेगा के माध्यम से बहुत कम दिनों का ही काम मिल पाता है लेकिन इसकी सबसे बड़ी खूबी  यह है कि इससे गाँव में ही काम मिल जाता है . अगर अधिक दिन तक काम मिले और मजदूरी में भी बढ़ोत्तरी हो तो हम मजदूरों का जीवन भी आसानी से चल पाता .

काम पाने के लिए चापलूसी बहुत बुरी लगती है

बनारस ज़िले के पिंडरा ब्लाक के गाँव देवराई के रहनेवाले त्रिभुवन लाल की उम्र 41 साल है और वे दसवीं पास हैं . परिवार में सदस्यों की संख्या दस है और आजीविका के लिए अधिया पर खेती और मजदूरी करते हैं . जिन दिनों मजदूरी नहीं मिलती उन दिनों उधार लेकर काम चलाना पड़ता है .

त्रिभुवन लाल मनरेगा में सन 2010 से काम कर रहे हैं . उनके गाँव देवराई में ही उनका एनरोलमेंट हुआ लेकिन वे बताते हैं कि पिछले सात वर्षों में कभी भी सौ दिन का काम नहीं मिला बल्कि अधिकतम एक महीने का ही काम मिलता रहा है .  वे अपने गाँव में तालाब की मरम्मत , नदी के पास साफ़-सफाई , नाली बनाने और सड़क बिछाने का काम करते रहे हैं और 110 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी पाते रहे हैं . एक ही अच्छी बात है कि उनका कोई बकाया नहीं है . मेरे पूछने पर कि भुगतान कैसे होता है ? त्रिभुवन लाल बताते हैं कि भुगतान बैंक द्वारा होता है . भुगतान के लिए ग्राम प्रधान द्वारा नियुक्त एक व्यक्ति साथ जाता है जिसे कुछ पैसा देना पड़ता है . पैसा देने पर ही दुबारा काम मिलता है .

जब मैंने यह पूछा कि मनरेगा से आपको क्या फायदा हुआ तो त्रिभुवन लाल ने उदास होकर कहा कि मुझे कोई ज्यादा फायदा नहीं हुआ . लेकिन नुक्सान की एक फेहरिस्त है . वे कहते हैं कि ग्राम प्रधान से लेकर रोजगार सेवक तक बहुत चक्कर काटना पड़ता है तब जाकर काम मिलता है . इसमें बहुत दिक्कत होती है . भले ही इससे ज्यादा मेहनत वाला काम हो लेकिन इतनी चापलूसी न करनी पड़े .

त्रिभुवन कहते हैं कि मनरेगा की मजदूरी में वृद्धि तो होनी ही चाहिए लेकिन काम भी अधिक बल्कि साल भर काम मिले  . ज्यादा तामझाम न हो बल्कि हमारी मजदूरी के पैसे समय से और आसानी से मिले तो मेहनत करने के बावजूद हमें इधर-उधर न भटकना पड़े .

कल का पता नहीं !

रामचंद्र की उम्र 60 वर्ष है . वे चंदौली जिले की चकिया तहसील के गाँव सैदपुर के निवासी हैं। आठवीं पास रामचंद्र के परिवार में 5 लोग हैं . घर में एक गाय और दो भैंस हैं जिनके दूध बेचकर और मजदूरी करके घर का खर्च किसी तरह चलता है। 2010 में गाँव सैदपुर में उनका एनरोलमेंट मनरेगा में हुआ और तब से औसतन प्रतिवर्ष दो महीने का काम मिलता रहा है । 2010 में उन्हें 65 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलती थी जो अब बढ़कर 120 रुपये हो गई है। मनरेगा के अपने अनुभवों को साझा करते हुए रामचंद्र बताते हैं कि उन्होंने अब तक गाँव के आस-पास पुलिया लगाने, सड़क और नाली की मरम्मत करने और नई नालियां बनाने के काम में लगे रहे। उनका अब कोई बकाया नहीं है लेकिन तमाम मनरेगा मजदूरों की तरह वे भी कहते हैं कि जब भी वे बैंक से पैसा निकालते हैं तो तुरंत ही प्रधान का आदमी आकर अपना हिस्सा ले जाता  है।

जैसे कोई आदमी खटते-खटते मुसलसल थकी हुई मानसिकता में चला जाय और फिर जीवन की बेहतरी के हर सपने पर संदेह करने लगे कुछ वैसे रामचंद्र जी इस बात से निस्पृह हैं कि मनरेगा में कल क्या होगा ? क्या होना चाहिए ? बस उनके चेहरे पर यही भाव दीखता है कि मिलेगा तो कर लेंगे . नहीं मिलेगा तो कौन सा आसमान टूटने वाला है !

आने वाले दिनों में स्थिति सुधरेगी

शिवपुर बाइपास वाराणसी के निवासी मुन्ना गुप्ता 35 साल के हैं . पढाई-लिखाई नहीं हुई लिहाज़ा जीवन मजदूरी पर निर्भर है . घर में सात सदस्य हैं जिनके भरण-पोषण का जिम्मा मुन्ना के कंधों पर है . 2016 में उनका इनरोलमेंट शिवपुर में हुआ और तब से उन्हें हर साल चार महीना काम मिल जाता है और प्रतिदिन 140 रुपए की मजदूरी मिलती है .  मेरे पूछने पर कि चार महीने के बाद कैसे काम चलता है ? मुन्ना का कहना है कि जब काम नहीं मिलता तो उधार मांगकर या कहीं अन्यत्र काम करके परिवार चलाना पड़ता है .

मुन्ना गुप्ता ने मनरेगा के तहत शिवपुर के आस-पास नाली-नाला और सड़क बनाने का काम किया है और उनका बकाया अब नहीं है . मजदूरी का भुगतान बैंक के माध्यम से होता है . मुन्ना ने खुलकर नहीं बताया कि पैसा निकालते समय उनको कमीशन देना पड़ता है लेकिन इस बात को उन्होंने स्वीकार किया कि मनरेगा में प्रधान का हस्तक्षेप बहुत अधिक है . वे इस बात से बहुत निराश दिखे और अंततः कह भी दिया कि ऐसे हालात में मुझे मनरेगा से कोई फायदा नहीं हुआ . रोज मजदूरी मिलती तो कुछ बात भी थी लेकिन यहाँ तो मिली तो मिल गई नहीं मिली तो नहीं मिली .  हालाँकि मुन्ना का पैसा अब बकाया नहीं है लेकिन वे कहते हैं कि उसे पाने के लिए भी कम कबड्डी नहीं खेलनी पड़ी . वे उम्मीद करते हैं कि आने वाले दिनों में स्थिति सुधरेगी !

अपनी मेहनत की कमाई किसी और को देने को मजबूर

फूलचंद्र पाल की उम्र 45 है और वे आयर मुर्दहा गाँव के रहने वाले हैं . वे दसवीं पास हैं . परिवार  में तीन सदस्य हैं और आजीविका के लिए पशुपालन और छोटी सी काश्त के अलावा मजदूरी का सहारा है .  उनकी पत्नी भी मनरेगा में काम करती है . जिन दिनों कोई काम नहीं होता फूलचंद्र जी शहर में काम करने चले जाते हैं .

इसी साल यानी सन 2017 में मुर्दहा में उनका इनरोलमेंट मनरेगा में हुआ .  तब से दो महीना काम मिला और 180 प्रतिदिन की दर से मज़दूरी मिली .  मुर्दहा और बेनीपुर आदि गाँवों में उन्होंने सड़क , नहर और नाली का निर्माण और मरम्मत किया . फूलचंद्र कोई बकाया अब नहीं है और उनके पैसे का भुगतान बैंक द्वारा होता है लेकिन वे कहते हैं कि उसमें से कुछ पैसा प्रधान जी को देना पड़ा था जिससे आगे काम मिल सके .

मनरेगा से उन्हें क्या फायदा हुआ ? यह पूछने पर उन्होंने बताया कि गाँव के पास ही काम होने दूर जाने की दिक्कत नहीं थी .  लेकिन काम इतने कम दिनों का ही मिला कि फिर वही है-है खट-खट . वे कहते हैं कि इसमें पैसा लेने में किसी दूसरे का हाथ न हो इसको रोकने के लिए कुछ शिकायत केंद्र होना चाहिए , मजदूरी बढाई जाय . काम रोज मिले और हमलोग अपनी मेहनत की कमाई किसी और को देने को मजबूर न किये जाएँ !

हमारी मजदूरी से किसी को खर्चा-पानी क्यों ?

अमन गाँव छोटा लालपुर वाराणसी के निवासी हैं . वे आठवीं पास हैं और इस समय उनकी उम्र 65 साल है . उनके पास थोड़ी सी खेती है . दो भैंसें हैं और घर के तीन सदस्य मनरेगा में काम करते हैं . घर में सदस्यों की संख्या आठ है . जिन दिनों मनरेगा में काम नहीं मिलता उन दिनों दूसरी जगहों पर जाकर काम करना पड़ता है . और अक्सर ही गल्ले की दुकान पर उधारी हो जाती है .

सन 2011 में मनरेगा में उनका इनरोलमेंट हुआ .  और लालपुर में उन्हें चार महीने काम मिला . जिसके तहत सीवर ठीक करने और सड़क बनाने का काम मिला . डेढ़ सौ रुपए प्रतिदिन मजदूरी मिली . हालाँकि अब उनका कोई बकाया नहीं है लकिन जब भी उन्हें बैंक से पैसा मिला तो प्रधान या उसके द्वारा नियुक्त कोई आदमी आकर अपना खर्चा-पानी काटकर बाकी मजदूरी वापस कर देता है .

मैंने पूछा कि क्या उन्हें मनरेगा से कोई फायदा हुआ तो उन्होंने कहा कोई खास फायदा नहीं हुआ . ग्राम प्रधान ने वादा किया था कि सायकिल मिलेगी लेकिन वह आजतक नहीं मिली . वे कहते हैं कि रोजगार सेवक और ग्राम प्रधान का चक्कर काटने में ज्यादा समय बर्बाद करना पड़ता है . इस बात को लेकर अमन के मन में बहुत आक्रोश है और वे कहते हैं कि ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक की भूमिका समाप्त होनी चाहिए . बैंक द्वारा हमारी मजदूरी मिलने पर उसमें किसी को खर्चा-पानी न देना पड़े . मजदूरी बढ़ाई जाय और काम रोज मिले !

ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक द्वारा परेशान न किया जाय

विजय मौर्या एक युवा मनरेगा श्रमिक हैं जो बसनी वाराणसी में रहते हैं  . उनकी उम्र फिलहाल 25 वर्ष है और उन्होंने बी ए पास कर लिया है . उनका परिवार बड़ा है जिसमें छोटे-बड़े कुल तेरह सदस्य हैं . उनके परिवार के पास थोड़ी सी खेती भी है लेकिन उससे खर्च पूरा नहीं पड़ता और मजदूरी करनी पड़ती है . मनरेगा में काम न मिलने की सूरत में उन्हें सब्जी मंडी में पल्लेदारी अथवा दूसरों के खेतों में कम करना पड़ता है .

इसी वर्ष 2017 में बसनी में उनका इनरोलमेंट हुआ और तीन महीने काम मिला . 190 रुपए प्रतिदिन की मजदूरी पर बसनी में ही कुआँ और तालाब खोदने तथा मेडबंदी आदि का काम करना पड़ा .  एक महीने की मजदूरी मिली . बैंक द्वारा भुगतान हुआ लेकिन साथ में ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक भी जाते हैं और अपने हिस्से का खर्चा-पानी ले लिए . लेकिन अभी उनकी दो महीने की मजदूरी बाकी है . बकाये के भुगतान के लिए क्या किया ? जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक के पास गए लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया तब थाने में गए लेकिन कोई माकूल हल नहीं निकला . ग्राम प्रधान ने कहा कि सरकार के पास पैसा नहीं है . रोजगार सेवक ने भी यही कहा . थानेदार ने कहा कि देखूंगा .

विजय के मन में इस रवैये को लेकर भारी आक्रोश है . वे कहते हैं मजदूरी करके इनसे पैसा मांगने से अच्छा है दूसरी जगह काम काम कर लूं . तो क्या मनरेगा से कोई फायदा ही नहीं हुआ ? मेरे पूछने पर विजय ने बताया कि ऐसी बात नहीं है . जब काम मिलता था तो फायदा था . गाँव में ही या अगल-बगल के इलाकों में काम मिल जाता था . काम नहीं मिलने से घर का खर्चा चलाना मुश्किल हो जाता है .

विजय कहते हैं कि रोज काम मिलना चाहिए . पैसा बकाया न हो और मजदूरी में बढ़ोत्तरी हो . सबसे अधिक जरुरी है ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक द्वारा परेशान न किया जाय !

बाहरी हस्तक्षेप और नाज़ायज वसूली बंद हो

पतालू की उम्र 51 वर्ष है . वे मड़वा , बड़ा लालपुर , वाराणसी के रहनेवाले हैं . पढाई-लिखाई नहीं हुई है . आजीविका के लिए मजदूरी पर निर्भर हैं . पत्नी भी मजदूरी करती हैं . परिवार  के सदस्यों की संख्या पांच है . जिन दिनों मनरेगा में काम नहीं रहता उन दिनों शहर जाकर मजदूरी करते हैं .

सन 2014 में उनका इनरोलमेंट मड़वा गाँव में हुआ . प्रतिवर्ष औसतन तीन महीना काम मिला और डेढ़ सौ रुपए प्रतिदिन मजदूरी मिली . उन्होंने मड़वा , चांदमारी और बड़ा लालपुर में सड़क , नाला एवं तालाब  बनाने का काम किया . क्या आपकी सारी मजदूरी मिल गई ? जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि इस वर्ष की अभी एक हज़ार रुपया बकाया है .  मजदूरी का भुगतान बैंक द्वारा होता है . जिस दिन पैसा मिलना होता है उस दिन ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक साथ जाते हैं . बकाये के लिए मजदूरों ने इन्हीं दोनों से संपर्क किया . ग्राम प्रधान ने कहा कि अभी ऊपर से पैसा नहीं आया है . रोजगार सेवक ने बताया कि सरकार के पास पैसे की समस्या है .

मैंने पतालू से पूछा कि आप ब्लॉक स्तर पर क्यों नहीं गए ? उन्होंने कहा कि ये बड़े लोग हैं . इनके खिलाफ कहाँ जायेंगे . हमारी कौन सुनेगा इसलिए चुपचाप दूसरा काम करेंगे जहाँ से नगद पैसा मिलेगा . पतालू कहते हैं सामान्यतया मनरेगा से कोई फायदा नहीं हुआ . यह भर्ती का रोजगार है . सरकार छूत छुड़ा रही है . नीचे मनमानी चलती है . रोजगार न मिलने पर मजबूरी में काम करना पड़ता है . एक फायदा यह है कि गाँव के पास ही काम मिल जाता है . दूर भागना नहीं पड़ता .

पतालू कहते हैं कि मजदूरी की दर कम होने से परिवार का खर्च उठाने में दिक्कत होती है . सरकार को चाहिए कि मजदूरी बढ़ाये . ग्राम प्रधान और रोजगार सेवक का हस्तक्षेप ख़त्म किया जाय . रोज काम मिले . तभी मनरेगा से वास्तव में लाभ होगा !

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