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सीएम पीएम को हटाने वाला कानून, संविधान व संघीय ढांचे के लिए कितना खतरनाक

केंद्र सरकार ने 130वां संविधान संशोधन विधेयक पेश कर दिया है, जिसके तहत किसी भी मंत्री-मुख्यमंत्री को किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार कर 30 दिनों तक हिरासत में रहने पर पद से हटा दिया जाएगा।

केंद्र सरकार ने 130वां संविधान संशोधन विधेयक पेश कर दिया है, जिसके तहत किसी भी मंत्री-मुख्यमंत्री को किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार कर 30 दिनों तक हिरासत में रहने पर पद से हटा दिया जाएगा।

विधेयक अनुच्छेद 75 में संशोधन की बात करता है। इसमें प्रावधान है कि कोई भी पीएम सीएम मंत्री को पाँच वर्ष के दंडनीय अपराध के आरोप में अगर तीस दिनों तक हिरासत में रखा गया हो, तो उसे उसके पद से हटा दिया जाएगा। हालाकि संविधान में इन संशोधनों को लागू होने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी,जो कि मुश्किल है। बावजूद इसके यह तो साफ हो गया है कि सरकार की मंशा ठीक नही है। आने वाले समय में सरकार क्या चाहती है, इस पर विस्तार से बात करने की जरूरत है।

सबसे पहले यह समझना ज्यादा जरूरी है कि कौन सी सरकार ये तीनों कानून लेकर आ रही है, जब इस सवाल पर ध्यान दिया जाएगा तो बेहद स्पष्टता से इन कानूनों के असली मक़सद को समझा जा सकता है, मोदी सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड क्या रहा है जब हम इस पर ध्यान देते हैं तो देखते हैं कि यह सरकार संविधान के वर्तमान स्वरूप को पसंद नही करती है, उसे बदल देना चाहती है, एक खास तरह का कारपोरेट परस्त तथाकथित हिंदू राष्ट्र बनाने की वृहद परियोजना को लेकर किसी भी स्तर तक जाने के लिए तैयार है।

और इसके लिए शुरुआती ज़रूरत ये है कि संविधान प्रदत्त संस्थाओं के अंदरूनी चरित्र को ही पूरी तरह से बदल दिया जाए। उपर से लगे कि सब कुछ ठीक चल रहा है,पर अंदर से लगातार खोखला करते रहने के हजार रास्ते अपनाते रहा जाए।

दुनिया भर में इस तरह के नेताओं और सरकारों का लगातार उदय हो रहा है

भयानक मंदी के दौर में ही हिटलर या मुसेलिनी का उदय हुआ था और लोकतंत्र पर सवार होकर ही इनका आना भी हुआ था,वही राजनीतिक अर्थशास्त्र दुनिया भर में नए संदर्भों के साथ फिर से आ धमका है।

2008 की मंदी जो पूंजीवाद के केंद्र अमेरिका से शुरू हुई थी, पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले चुकी है। और इससे निपटने में नाकाम सरकारे एक तरफ बर्बर विचारों को नए सिरे से ज़िंदा कर रही हैं, नस्लीय,जातीय और धार्मिक पूर्वाग्रहों फिर से हवा-पानी दे रही है और दूसरी तरफ़ अघोषित तानाशाही को को भी रोज-ब-रोज विस्तार दिया जा रहा है।

यही वज़ह है कि मुल्क में 2014 के बाद से अल्पसंख्यकों से घृणा को अपने चरम पर पहुंचा दिया गया है, लिंचिग को सामान्य घटना में तब्दील कर दिया गया है,जातिवादी, मनुवादी नफ़रती मुल्यों की भी नए सिरे से वापसी हो रही है।

साथ ही विरोधी व भिन्न विचारों को संस्थाओं व ख़तरनाक कानूनों के ज़रिए दबाने के लिए अनगिनत तरिके अपनाए जा रहे हैं।

ईडी सीबीआई या एनआईए जैसे संस्थाएं आपराधिक गिरोह हैं 

यूएपीए या पीएमएलए जैसे स्पेशल कानूनों के ज़रिए आरोपियों को जमानत के बुनियादी अधिकार से भी वंचित कर दिया गया है। 2019 में ही संशोधन करके पीएमएलए कानून और सख्त बना दिया गया ईडी को गिरफ्तारी का भी अधिकार दे दिया गया।

ईडी सीबीआई जैसी संस्थाओं का अपने से भिन्न विचारों के खिलाफ कितना अनर्गल इस्तेमाल किया गया, इसको अगर हम आंकड़ों के ज़रिए समझें तो 2016 से 2024 के बीच ईडी ने 193 नेताओं को टारगेट किया,सब विपक्ष से थे और अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचने वाले मामले सिर्फ 0.01 ही थे, 25 बड़े विपक्षी नेताओं ने ईडी के छापे के बाद भाजपा ज्वाइन कर लिए,नतीजतन 23 के मामले या तो ख़त्म कर दिए गए या पेंडिंग में डाल दिए गए।

इसी तरह अगर 2016 से अब तक ईडी के द्वारा दर्ज मामलों को संज्ञान में लिया जाए तो उनकी संख्या 5 हजार के उपर है, जिनमें से सिर्फ 8 मुकदमे ही अपने अंत तक पहुंचे हैं।

इस दौरान यानि 2014 के यह भी देखा गया कि ईडी और पूंजी का इस्तेमाल के चलते सैकड़ों विधायकों-सांसदो को देश भर में पाला बदलना पड़ा,इतने बड़े पैमाने पर पार्टी बदल लेने की घटनाएं,किसी भी दौर में नही देखा गया।

राष्ट्रपति शासन को लागू करते हुए तो पहले की सरकारों के दौर में भी देखा गया था,पर चुनी हुई सरकारो को पूंजी और ईडी के बल पर गिरा देने की परिघटना बड़े पैमाने पर 2014 के बाद ही देखी गई है।

2014 बाद के इस पूरे पृष्ठभूमि को ठीक से देखने के बाद ही यह बात समझ में आयेगी कि अगर ये तीनों कानून वास्तव में पास हो गए तो भारतीय लोकतंत्र व संविधान के सामने कितना बड़ा संकट खड़ा होने वाला है।

इस कानून में बेहद ख़तरनाक बात ये है कि किसी आरोपी को ही अपराधी मान लिया जाएगा और सजा के बतौर किसी मुख्यमंत्री,मंत्री को पद छोड़ना भी पड़ेगा।

पर आरोपी को ही अपराधी मान कर यह कानून नेचुरल न्याय के बुनियादी सिद्धांत जिसके तहत आरोपी अंत समय तक, जब तक कोई अदालती फैसला नही जाता, आरोपी ही रहता है.पर अब इस बुनियादी बात को बदल दिया जाएगा।

अदालतें इस कानून के ज़रिए अप्रासंगिक बना दी जाएंगी,अदालतों के अंतिम फैसले का अब इंतजार नही किया जाएगा, हालांकि पहले से ही जनप्रतिनिधियों के लिए एक कानून है कि किसी भी अदालत द्वारा 2 साल से ज्यादा की सज़ा अगर होती है, जनप्रतिनिधि को पद छोड़ना पड़ेगा,पर अब इस कानून को अप्रासंगिक बना दिया जाएगा।

अब ईडी, सीबीआई और एनआईए जैसी सरकार नियंत्रित संस्थाएं खुद जज की भूमिका में आ जाएंगी, एक तरह से कार्यपालिका ने इस कानून के ज़रिए न्यायपालिका के प्राधिकार को सीमित कर देगा,यानि यह कानून अगर पास हुआ तो शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को भी संकट में डाल देगा।

चेक एंड बैलेंस का जो प्रावधान संविधान ने बना रखा है उसे भी इस कानून के ज़रिए अप्रासंगिक बना देने का ख़तरा पैदा हो सकता है।

हालांकि हमारे संघीय ढांचे को संविधान निर्माताओं ने काफी सावधानी से रचा है, और अनुच्छेद 245 से अनुच्छेद 263 तक संघ-राज्य संबंधों की विधिवत व्याख्या की गई है।

बावजूद इसके यह भी सच है कि अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय परिस्थितियों के चलते शक्ति संतुलन शुरुआती दौर से ही संघ के पक्ष में झुका हुआ रहा है, ये अलग बात है कि तमाम विधायी, प्रशासनिक व वित्तीय अधिकारों का संविधान में स्पष्ट बंटवारा किया गया है। पर 356 जैसे प्रावधान व ऐसे कुछ अनुच्छेदों के ज़रिए केंद्र की ओर से पहले भी अनुचित हस्तक्षेप होते रहे हैं।

अब अगर ये तीनों कानून वास्तव में पारित हो गए तो केंद्र का नियंत्रण अप्रत्याशित रूप से बहुत ज्यादा बढ़ जाएगा और ईडी और सीबीआई या एनआईए जैसी एजेंसियां व पीएमएलए व यूएपीए जैसे ख़तरनाक कानूनों का इस्तेमाल कर राज्य सरकारों, मंत्रियों, सांसदों व विधायकों को भारी संकट में बार-बार डाला जा सकता है।

यह विधेयक जनता के सरकार चुनने के अधिकार पर भी हमला करता हुआ दिखता है, भारतीय लोकतंत्र अपने नागरिकों को अभी भी बेहद सीमित अधिकार ही मुहैय्या करा पाया है.अभी भी आम भारतीय जनता सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र के दायरे से लगभग बाहर है। केवल वोट देने के अधिकार तक ही सीमित है, ऐसे में जहां SIR के ज़रिए वोट के अधिकार से भी जनता को वंचित करने की जबरदस्त कोशिश की जा रही है, वही इन तीनों नए कानूनों के ज़रिए नागरिकों द्वारा चुनी हुई सरकारों को जब-तब गिरा देने की ताक़त भी केंद्रिय एजेंसियों हाथ में चला जाएगा।

यानि आने वाले समय में वोट का अधिकार और सरकार चुनने के अधिकार को भी सीमित या कई मामलों में अप्रासंगिक बना देने की अभूतपूर्व किस्म की कोशिश के बतौर भी इसे देखा जाना चाहिए।

यह भी समझना चाहिए कि एक बेहद कमजोर सरकार इस तरह के कानून लेकर आ रही है। 400 पार का नारा देने वाली पार्टी 240 पर चली आयी है, वैश्विक स्तर पर भी ट्रंप के ख़ास रवैए के चलते बेहद अलगाव में है इसी के चलते भारत के पूंजीपति घरानों से भी इस सरकार के टकराव बढ़ रहे हैं।

घरेलू स्तर भी यह सरकार आपरेशन सिंदूर को लेकर दर्जनों सवालों से घिरी हुई है,वोट चोरी के भी गंभीर इल्ज़ाम उसके ऊपर लग रहे हैंऔर सबसे बड़ी बात ये कि संघ-भाजपा जिसकी मूल दिशा सामाजिक न्याय व संविधान विरोधी है,इसको नागरिकों के बड़े हिस्से ने ठीक-ठीक समझना शुरू कर दिया है।

असल में बेहद हताशा में ये तीनों कानून लाए गए हैं, और अगर ठीक से विपक्ष इस मसले को लेकर जनता के बीच में जाने की कोशिश करे तो ये ख़तरनाक कानून अंततः सरकार के ही खिलाफ जा सकता है।

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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