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मनरेगा की अकथकथा : गाँवों में मशीनों से काम और भ्रष्ट स्थानीय तंत्र ने रोज़गार गारंटी का बंटाढार किया

मनरेगा की शुरुआत सौ दिन की मजदूरी के गारंटी के साथ हुई थी लेकिन बीस वर्ष भी नहीं बीते कि अब यह योजना मजदूर विरोधी गतिविधियों में तब्दील हो गई। गाँव में ज्यादातर काम मशीनों से कराया जा रहा है, जिसके बाद मस्टर रोल में नाम मजदूरों के चढ़ाए जा रहे हैं और उनसे अंगूठा लगवाकर मजदूरी प्रधान और रोजगार सेवक हड़प रहे हैं। इस तरह मजदूरों को काम से वंचित किया जा रहा है। हमने वाराणसी के कपसेठी ब्लाक के नवादा नट बस्ती में पता किया, जिसमें यह बात सामने आई कि वर्ष भर में मुश्किल से उन्हें 10 दिन ही काम मिलता है और मजदूरी आने में महीनों लग जाते हैं। इस तरह देखा जाए तो मजदूरों के लिए मनरेगा दु:स्वप्न बनकर रह गया है। नवादा नट बस्ती से लौटकर अपर्णा की रिपोर्ट

कपसेठी ब्लॉक के नवादा नट बस्ती में रहने वाला हर एक व्यक्ति काम के लिए परेशान है। नवादा नट बस्ती के सबसे अनुभवी और जानकार रासो को अपने समुदाय की समस्याओं का समाधान की पहल करने के कारण बस्ती के लोग अपना मुखिया मानते हैं। रासो ने बताया कि ‘कुछ वर्षों से मजदूरी मिलना बहुत मुश्किल हो गया है। गाँव में जब मनरेगा आता है तब साल भर में 5-6 दिन ही काम मिल पाता है। उसके बाद हमें काम खोजना पड़ता है।’

रासो बताते हैं कि ‘हमारे खाते में मजदूरी 2-3 महीने से पहले आती ही नहीं है। इंतज़ार और भी लंबा होता जाता है। कभी-कभी तो 5-6 महीने भी हो जाते हैं। हम रोज कमाने-खाने वाले लोग हैं, काम के बाद यदि पैसा तुरंत नहीं मिलता तब गुजारा करना बहुत ही कष्टकारी हो जाता है। जॉब कार्ड बना हुआ है इसलिए जब काम आता है तब करते हैं। समय पर मजदूरी नहीं मिलने के बाद भी काम करना मजबूरी है अन्यथा हमारा जॉब कार्ड निरस्त हो सकता है।’

क्या ऐसा हो सकता है कि वर्ष में केवल 5-6 दिन मजदूरी मिले? यह आश्चर्य की बात है। लेकिन आधारहीन नहीं है। गाँवों में मशीनों से काम हो रहा है और लोगों को काम ही नहीं दिया जाता है।

मैंने पूछा ‘बाकी दिनों में क्या करते हैं?’ इस पर रासो ने बताया कि ‘बाकी दिनों में जहां 300 रुपये की मजदूरी मिल जाए, वहाँ काम करते हैं। लेकिन यह काम भी रोज नहीं मिलता। हफ्ते में बस 2 या 3 दिन ही मिल पाता है। यहाँ के ठाकुरों के खेत में ‘चौथइया’ पर काम करते हैं। चौथइया का मतलब यह कि अनाज होने के बाद तीन दाना उनका और एक दाना हमारा होता है। लेकिन यह काम भी खेती के मौसम में ही मिलता है।’

नट समुदाय में जानवरों के तमाशे वाला पुश्तैनी काम अब नहीं दिखाया जाता लेकिन सावन के महीने में सांप के जोड़े का दर्शन करा कुछ नट थोड़ा मोड़ा कमा लेते हैं

नट समुदाय की आजीविका पर चौतरफा मार पड़ी है। एक समय वह अपने पुश्तैनी काम बंदर-भालू नचाकर और साँप का तमाशा दिखाकर गुजारा लायक कमा लेता था लेकिन इधर जब से सरकार ने पेटा अधिनियम लागू किया है, तब से सर्कस ही नहीं जानवरों के साथ छोटे-मोटे तमाशे दिखाने पर रोक लग गई है। इस वजह से इन्हें अपनी आजीविका चलाने में बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

सांप का तमाशा दिखाकर आजीविका चलाने वाले अंतू नट कहते हैं कि ‘और भी बातें हैं जिनसे हम बेरोज़गार होते जा रहे हैं। सरकारी कानून तो हमारे खिलाफ है ही लेकिन दूसरा कारण यह है कि लोगों के लिए मनोरंजन के साधन घर पर ही उपलब्ध हो गए हैं। इस वजह से जानवरों का तमाशा देखने में उनकी कोई रुचि नहीं रह गई है।’

जिनके लिए मनरेगा बनाया गया

मनरेगा ऐसे समुदायों में आजीविका का आधार था जहां पिछड़ी हुई उत्पादन व्यवस्थाएं थीं। लेकिन इसे लागू करने की अनिवार्यता इतनी लुंज-पुंज रही है कि अब यह एक मज़ाक बनकर रह गया है। भारत के अलग-अलग राज्यों में इसकी अलग-अलग स्थिति है। फिलहाल हम इस रिपोर्ट में वाराणसी जिले की एक नट बस्ती के अनुभवों को आधार बनाकर यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि मनरेगा का महत्व उनके जीवन में कितना रह गया है?

आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि नट, मुसहर, बिन्द, बियार, चमार जैसे दर्जनों समुदाय शिक्षित न होने के कारण बुरे हालात में जीने को विवश हैं लेकिन यह पूरा सच नहीं है। ज़मीन एक बड़ी भौतिक सम्पदा है जो इन समुदायों के पास नहीं है। इसके कारण उनका आवासीय स्थायित्व लगातार प्रभावित होता रहा है। यह एक केंद्रीय मुद्दा है जिसके कारण उनका वर्तमान जीवन ही नहीं बल्कि भविष्य भी बुरी तरह प्रभावित रहता है। शिक्षा के नज़रिये से देखें तो इन्हीं कारणों से इन समुदायों में पढ़ाई का प्रतिशत बहुत कम रह जाता है।

ऐसे ज़्यादातर समुदायों का ज़मीन पर मालिकाना हक न होने के कारण ऐतिहासिक रूप से इनको सामाजिक उत्पीड़न और शोषण झेलना पड़ा है। इनके हर क्रिया-कलाप पर इसका गहरा असर है और इन्हीं कारणों से ये सत्ता की राजनीति के सबसे आसान शिकार होकर रह जाते हैं। इस बात के बहुत गंभीर अध्ययन की जरूरत है कि भारत की संसदीय राजनीति के ये कितने बड़े और मजबूत आधार हैं? इसके बावजूद इनको केवल वादों का झुनझुना थमाया जाता रहा है।

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तस्वीर, नट बस्ती की सच्चाई बताती है

भू-स्वामित्व की जातिवादी संरचना के बीच ये समुदाय निरंतर धौंस, धमकी और दबदबे के बीच जीने को अभिशप्त रहे हैं। नट जैसे समुदाय आदतन अपराधी मान लिए गए हैं। मुसहरों के ऊपर सामाजिक और पुलिस उत्पीड़न की हजारों हृदय-विदारक कहानियाँ हैं। ज़्यादातर अपने ऊपर हुये अन्याय के खिलाफ रिपोर्ट तक नहीं दर्ज़ करा पाते। पुलिस महकमे में जिस तरह की जातीय संरचना है उसमें इनके लिए कोई सहानुभूति दुर्लभ है। इन समुदायों के बच्चे शायद ही पुलिस महकमे में नौकरी पाने में सफल हो पाते हों।

गाँवों में जिस तरह की अर्थव्यवस्था होती है उसी तरह की संस्कृति भी विकसित होती है। इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि जिनके पास भू-स्वामित्व और रोजगार की ताकत है वे सर्वाधिक हाशिये पर रहने वाली जातियों के प्रति विद्वेष से भरे होते हैं और उनके द्वारा उठाए गए जरूरी सवालों से भी बौखला उठते हैं। वे उनकी श्रमशक्ति को बहुत कम दाम में हड़प लेने की हर जुगत करते हैं। अधिकतर झगड़े इन्हीं कारणों से पनपते हैं कि वहाँ की मेहनतकश आबादी भूमिहीन और अधिकारहीन है और मेहनत-मजदूरी के लिए भू-स्वामियों पर निर्भर हैं।

लेकिन अब बहुत सी चीजें बदल रही हैं। हाशिये के लोग भी संविधान के बारे में जान गए हैं। उनको अपने मौलिक और संवैधानिक अधिकारों के बारे में पता चल गया है। नट समुदाय संघर्ष समिति के संयोजक प्रेम नट कहते हैं कि ‘यह समय की जरूरत है कि उत्पीड़ित समुदाय अपने अधिकार ही नहीं इतिहास के बारे में भी जानें।’

प्रेम नट (संयोजक,) नट समुदाय संघर्ष समिति,

मजदूरों के हित में होने के बावजूद जमीनी स्तर पर फेल

नवादा नट बस्ती की संतारा जानती हैं कि संविधान उन्हें सम्मान से जीने का अधिकार देता है। वह ऐसी बहुत-सी व्यावहारिक बातों के बारे में सचेत हैं जिनसे किसी भी अन्याय के खिलाफ वे लड़ सकें। हालाँकि वर्ष भर रहने वाली अर्ध बेरोज़गारी के कारण वह क्षुब्ध और निराश भी हैं।  उनका कहना है कि ‘सरकार ने मजदूरों के लिए अपने गाँव के 5 किलोमीटर के दायरे में 100 दिन तक काम मिलने की जो योजना शुरू की थी वह भले ही हमारे फायदे के लिए लागू की गई थी लेकिन इसके बावजूद हम लोगों को पूरे वर्ष भर में काम 6-7 दिनों से ज्यादा काम नहीं मिल पाता है। जब कभी मनरेगा के अंतर्गत काम आता है तो सभी जॉब कार्डधारी काम के लिए जाते हैं। कोई बड़ा काम (प्रोजेक्ट) आने के बाद भी वह काम 10से 15 दिनों के अंदर खत्म हो जाता है क्योंकि काम कभी-कभी ही आता है। मजदूरों की संख्या ज्यादा होने के कारण काम जल्दी खत्म हो जाता है।’

संतारा बताती हैं कि ‘इसके बाद काम के लिए भटकते रहना होता है। कहाँ और कब मजदूरी मिलेगी इसका कोई ठिकाना नहीं। नवादा ठाकुर बहुल गांव है। हम उनके खेतों में मजदूरी करने जाते हैं, जहां 200 से 300 रुपये की मजदूरी मिलने की उम्मीद होती है। हम उनके खेत में चौथइया पर भी काम करते हैं। बुआई से कटाई तक का सारा काम हमें करना होता है। निराई करने और खेत में पानी भरने जैसे सारे काम हम करते हैं। अनाज होने के बाद तीन दाना उनका और एक दाना हमारा होता है। लेकिन यह काम भी केवल खेती के मौसम में मिलता है। एक दिन काम मिल जाने के बाद आने वाले दिन की चिंता होती है कि कल कहाँ काम मिलेगा? मिलेगा भी कि नहीं?’

खेती के मौसमी कामों के बाद फिर बेरोज़गारी आ खड़ी होती है। ऐसे में नई-नई जगहों पर काम खोजने की बाध्यता होती है। मनरेगा एक अच्छा विकल्प है। संतारा बताती हैं ‘मनरेगा से जितना भी काम मिलता हो लेकिन मजदूरी का कोई भरोसा नहीं। हम मजदूर काम के बाद तुरंत मजदूरी चाहते हैं लेकिन मनरेगा के अंतर्गत खाते में मजदूरी कई-कई महीनों नहीं आती है। जबकि नियमानुसार काम करने के बाद 7 से 15 दिन के भीतर पैसा खाते में आ जाना चाहिए। लेकिन काम करने के बाद 2-3 महीने पर या और अधिक समय बीत जाने पर पैसा आता है। उसमें भी पूरी मजदूरी नहीं आती। 2-4 दिन कम की ही जमा होती है। प्रधान या रोजगारसेवक से पूछने पर उनका जवाब होता है, ‘अभी तो इतना ही फंड आया है। आते ही बाकी भी जमा करा दिया जाएगा, लेकिन वह बाकी कभी नहीं आता।’

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संतारा, जिनकी छोटी सी उम्मीद है कि मनरेगा में काम मिलता रहे ताकि जीवन चलता रहे (नवादा नट बस्ती)

मनरेगा में सौ दिन के  काम का दावा केवल लफ्फाजी

वर्ष 2006 में जब यूपीए सरकार ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार योजना (नेशनल रुरल इंप्लायमेंत स्कीम) अधिनियम लागू किया जिसे पहले नरेगा और बाद में महात्मा गांधी की स्मृति में इस योजना को अंत्योदय से जोड़ देने के कारण मनरेगा कहा जाने लगा। इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के लिए बनाई गई ताकि वहाँ के लोगों को काम की तलाश में पलायन न करना पड़े। मनरेगा में गाँव से 5 किलोमीटर के दायरे के अंदर ही 100 दिन के काम की गारंटी तय की गई।

शहर से लगे हुए गाँवों में वहाँ के लोगों के लिए मनरेगा एक बड़ा आसरा है, लेकिन हर गाँव में 5 किलोमीटर के दायरे में 100 दिन काम मिल जाए यह जमीनी तौर पर आज तक संभव नहीं हुआ है। अभी तक एक साल में अधिकतम 35 दिन से अधिक काम किसी को नहीं मिल पाया है। अर्थात घोषित उद्देश्य का एक केवल तिहाई की पूर्ति हो पाई है।

यूपीए सरकार में मनरेगा के बजट को यथावत रहने दिया गया लेकिन एनडीए सरकार ने उसके बजट में भारी कटौती की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पूँजीपतियों के विकास के लिए किए गए उपाय के बरक्स मनरेगा के बजट में की गई कटौती एनडीए सरकार के मजदूर और गरीब विरोधी प्रवृत्ति को दर्शाता है। इसके साथ ही ग्राम पंचयतों की मनमानी के चलते गाँव के मजदूरों को कभी भी सौ दिन काम नहीं मिलता है। यदि कुछ दिन काम मिल भी गया तो समय से भुगतान नहीं होता और परिवारों को आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।

इस तरह मनरेगा में किए जाने वाले 100 दिन के काम के दावे की वास्तविकता सामने आती है। वाराणसी जिले के सभी गांवों की यही स्थिति है। वाराणसी के आसपास के गांवों का शहरीकरण बहुत ज़ोर-शोर से हो रहा है। विकास की गति बढ़ी है लेकिन इसके बाद भी यहाँ रहने वाले मजदूर काम से वंचित हैं क्योंकि सरकारें काम का ठेका बड़ी-बड़ी कंपनियों और कॉर्पोरेट को देती हैं और ये ठेकेदार अपने मजदूर बाहर से बुलवाते हैं। ज़्यादातर काम मशीनों से ही किए जाने लगे हैं। ऐसे में गाँव के स्थानीय लोग काम की तलाश में भटकते रहते हैं।

रोजगार का विकल्प नहीं हो सकता है पाँच किलो राशन

इधर लगातार गाँव-गाँव में घूमने के दौरान जो एक बात सबसे अधिक सामने आई वह है रोजी-मजदूरी को लेकर लोगों की चिंताएँ और गहरी बेचैनी। गाँवों में रोजगार को लेकर एक विकल्पहीनता की स्थिति बनती जा रही है। मनरेगा द्वारा दी गई सौ दिन के रोजगार की गारंटी अतीत की बात बनती जा रही है।

बढ़ैनी गाँव में मजदूरी डेढ़ वर्ष से बकाया है। मजदूर लगातार अपनी मजदूरी के लिए प्रधान और रोजगारसेवक से कह रहे हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं है। कारण पूछने  पर पता चला कि वास्तव में 15 मजदूरों ने काम किया था लेकिन मस्टर रोल 25 मजदूरों का बना दिया गया। ऐसे में जो 10 मजदूर अधिक जोड़े गए हैं, जब उन्हें पैसा गया तो बाकी मजदूरों के काम के पंद्रह दिन की मजदूरी में से केवल 8 दिनों का ही भुगतान किया गया। बकाया मांगने पर उन्हें आश्वासन दिया जा रहा है।

दूसरी तरफ मनरेगा तंत्र में शामिल लोग नए-नए तरीके से भ्रष्टाचार की जुगत करते रहते हैं। इधर लगातार मनरेगा का मशीनीकरण किया जा रहा है। इसका सीधा असर मजदूरों की रोजी पर पड़ रहा है। नवादा गाँव के नट बस्ती के रासो ने बताया कि ग्राम प्रधान और रोजगारसेवक सीधे-सीधे भ्रष्टाचार में शामिल हैं। गाँव में कई बार मनरेगा का काम जेसीबी मशीन से कराया जाता है।

मशीन से काम कराने के बावज़ूद मस्टर रोल में यहाँ के मजदूरों का नाम चढ़ा दिया जाता है। खाते में मजदूरी आ जाने के बाद अंगूठा लगवाने अपने मातहत को घर भेज देते हैं। जितनी मजदूरी खाते में आती है, उसमें से 200-400 रुपए मजदूरों के हाथ में पकड़ाकर बाकी प्रधान और रोजगारसेवक के हाथ में चला जाता है। जबकि यहाँ के लोग काम चाहते हैं।

प्रधान और रोजगारसेवक द्वारा फर्जी हाजिरी लगाए जाने की खबरें बाहर आने के बाद इधर फर्जी हाजिरी रोकने के लिए नया सेटअप लाया गया है जिसे एनएमएमएस (नेशनल मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम) कहते हैं। लेकिन यह मजदूरों के लिए ही जी का जंजाल साबित हुआ है। इसका दबाव मजदूरों को सहना पड़ रहा है। इसमें मजदूरों को दोनों समय ऑनलाइन हाजिरी लगाना पड़ता है। यदि काम 5 घंटे में खत्म हो जाए तो भी मजदूर को हाजिरी लगाने के लिए शाम तक बैठना पड़ता है या दुबारा कार्यस्थल पर जाना पड़ता है।

इसके बाद भी प्रधान और रोजगारसेवक खेल कर रहे हैं। भ्रष्टाचार रोकने के लिए प्रधान और रोजगार सेवक पर कार्यवाही करने के बजाए मजदूर को ही निशाना बनाया जा रहा है।

एनएमएमएस की ही तरह आधार बेस भुगतान के माध्यम से भुगतान करने के लिए मजदूरों का खाता खोला गया। मजदूरी भेजने के बाद भी उनके खाते में पैसा नहीं पहुंचता है। कारण पता करने पर अनेक महिला मजदूरों ने बताया कि उनका एक खाता उनके मायके में था और पैसा उस खाते में चला जाता है, जिसकी जानकारी उन्हें नहीं हो पाती। जिन्हें जानकारी होती है, बैंक को सूचना देने के बाद उनका भी काम नहीं किया जाता। इस तरह सब तरफ से मजदूर ही पिस रहा है।

वाराणसी का जिस तरह शहरीकरण तेजी से हो रहा है, लेकिन इसमें भी मनरेगा मजदूरों को सौ दिन काम की गारंटी नहीं दी जा सकती है। जबकि निर्माण काम तेजी से हो रहा है। इन निर्माण कार्यों के लिए ठेकेदार बाहर से मजदूरों को लाते हैं, जिसके कारण यहाँ के मजदूरों को काम नहीं मिलता।

मध्यवर्गीय मानसिकता के लोग सोचते हैं कि सरकार द्वारा 5 किलो मुफ्त अनाज देने से गाँव के गरीब मजदूर कामचोर हो गए लेकिन उन्हें उन लोगों की आवाज भी सुननी चाहिए जिसमें मुफ्त राशन से अधिक उनके रोजगार की मांग होती है। यही नहीं बल्कि आगे बढ़कर उनके रोजगार के लिए सरकार से मांग भी करनी चाहिए।

न्यूनतम मजदूरी और बढ़ोत्तरी के पैमाने पर मनरेगा मजदूर

मनरेगा में दी जाने वाली मजदूरी न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत नहीं आती है। उत्तर प्रदेश में मनरेगा मजदूरी 230 रुपए तय थी लेकिन अब इसमें 3.04 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी कर 237 रुपए कर दी गई है। यह बढ़ोत्तरी हास्यास्पद है क्योंकि पिछले साल 2023 के सितंबर महीने में महंगाई दर 5.02 फ़ीसदी थी। वर्ष 2024 के सितंबर महीने में महंगाई दर 5.49 फ़ीसदी रही, जो पिछले नौ महीनों में महंगाई का सबसे ज़्यादा स्तर था।

इसका कारण समझ आता है कि यदि सरकार मनरेगा में न्यूनतम मजदूरी का मानक निर्धारित कर देगी, तब कॉर्पोरेट को सस्ते दर पर मजदूर उपलब्ध नहीं हो पाएंगे। यह सरकार का कॉर्पोरेट को खुला सपोर्ट है। यदि मनरेगा में मजदूरी 300 या 400 कर दी जाएगी तो काम मांगने वाले मजदूर कम से कम इतनी मजदूरी मांगेंगे।

दूसरी बात यह कि मनरेगा मजदूरी की राशि न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के अंतर्गत तय राशि से भी कम है। इसका मतलब है कि सरकार मनरेगा मजदूरों को मजदूर नहीं समझती और इनके लिए तय मानक न्यूनतम मजदूरी अधिनियम से अलग है।

एक दुखद पहलू यह है कि काम करने के बाद मनरेगा मजदूरों का भुगतान खाते में नियमानुसार 7 से 15 दिन के भीतर आ जाना चाहिए, लेकिन काम करने के बाद 2-3 महीने पर या और अधिक समय बीत जाने पर आता है।

मनरेगा से नाम हटाने का भयावह आँकड़ा

वाराणसी के मनरेगा मजदूर संघ के अध्यक्ष सुरेश राठौर ने बताया कि ‘शहंशाहपुर के बढ़ैनी गाँव में एक-डेढ़ वर्ष से मनरेगा का बकाया मजदूरी का भुगतान नहीं किया गया और चौखंडी गाँव में कुछ मनरेगा मजदूरों के नाम काट दिए गए हैं।’

राठौर का कहना है कि ‘वाराणसी के दो गाँवों क्रमशः छिंउली में 12 और चौखंडी में 9 मजदूरों का नाम जॉब कार्ड से काट दिया गया है। जब समिति ने इस बारे में रोजगारसेवक से बात की तब उन्होंने बताया कि नाम जोड़ने के लिए पूरी सूची को लखनऊ भेजना होगा। वहाँ से स्वीकृत होने के बाद वाराणसी कार्यालय में सूचना आएगी। इसके बाद फिर से नाम जोड़ा जाएगा।’

मतलब दुबारा नाम जुड़वाने की प्रक्रिया लंबी है। यह केवल दो गांवों की सूचना है लेकिन वाराणसी में लगभग 40 हजार मजदूरों के मनरेगा जॉब कार्ड बने हुए हैं, उसमें से कितने लोगों के नाम काटे गए हैं, इसका अभी पता नहीं चला है।

सुरेश राठौर (मनरेगा मजदूर संघ के अध्यक्ष,वाराणसी)

जनवरी 2023 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने MGNREGA के लिए ABPS का राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन अनिवार्य कर दिया। इसके तहत श्रमिकों को कई शर्तें पूरी करनी होती हैं, जैसे कि उनका आधार उनके जॉब कार्ड से जुड़ा होना और बैंक खाता भी आधार से लिंक होना चाहिए। लिब टेक की एक रिपोर्ट के अनुसार सभी रजिस्टर्ड श्रमिकों में से 27.4% (6.7 करोड़ श्रमिक) और 4.2% सक्रिय श्रमिक (54 लाख श्रमिक) ABPS के लिए अयोग्य हैं।

रिपोर्ट में एक और बड़ा खुलासा यह है कि 6.70 करोड़ श्रमिकों को भुगतान में देरी हुई है, जिन्हें इस साल अप्रैल से उनके श्रम के लिए कोई राशि नहीं मिली है। हटाए गए खातों को आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के अंतर्गत अयोग्य माना गया।

रिपोर्ट में बताया गया है कि सबसे ज्यादा 14.7% नाम तमिलनाडु में हटाए गए हैं। इसके बाद छत्तीसगढ़ 14.6% के साथ दूसरे स्थान पर है। लिब टेक की पिछले साल की एक रिपोर्ट में भी उल्लेख किया गया था कि वित्तीय वर्ष 2022-23 और 2023-24 के दौरान 8 करोड़ लोगों को MGNREGS रजिस्ट्री से हटा दिया गया था।

एक तरफ नाम काटे जा रहे हैं और दूसरी तरफ सब्ज़बाग दिखाये जा रहे हैं

ट्रैक्टर जंक्शन वेबसाइट पर 25 अक्टूबर 2024 को यह खबर प्रकाशित हुई कि हिमाचल प्रदेश में मनरेगा मजदूरों को दीवाली से पहले घर बनाने के लिए 3 लाख रुपये दिए जाएंगे। ग्रामीण विकास विभाग की ओर से जारी इस अधिसूचना का फायदा केवल महिला मजदूरों को तब दिया जाएगा, जब उन्होंने वित्तीय वर्ष 2023-24 और 2024-25 में 100 दिन रोजगार प्राप्त किए हों।

लगता है यह योजना काम करने वाले मजदूरों के हित में है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या साल भर में भी ग्रामीण क्षेत्रों में 100 दिन की मजदूरी मिल पाती है? ऐसी कितनी महिलाएं हैं, जिन्होंने 100 दिन की मजदूरी पूरी की हो।

बताया गया कि इस योजना का लाभ ग्रामीण महिला श्रमिकों को प्रदान किया जाएगा। ग्रामीण विकास विभाग (Rural Development Department) की ओर से जारी अधिसूचना के मुताबिक ‘वित्तीय वर्ष 2023-24 तथा 2024-25 तक जिन महिलाओं ने मनरेगा के तहत 100 दिन का रोजगार पूर्ण किया है, उन महिलाओं को घर बनाने के लिए सरकार की ओर से तीन लाख रुपए की सहायता दी जाएगी। मनरेगा के तहत ग्रामीण इलाकों में सरकार की ओर से साल में कम से कम 100 दिन का रोजगार प्रदान किया जाता है। इस योजना के शुरू होने से ग्रामीण मनरेगा श्रमिकों के अपने मकान का सपना साकार हो सकेगा। इसके लिए महिला श्रमिकों को आवेदन करना होगा। आवेदन की स्वीकृति के बाद उन्हें नियमानुसार सहायता अनुदान की राशि प्रदान की जाएगी।’

नवादा नट बस्ती के बच्चे गरीबी में जीवन जीने को अभिशप्त

और अंत में उम्मीद ….

मनरेगा की वर्तमान हालत देखकर कोई भी उम्मीद करना बेमानी लगती है लेकिन उम्मीद पर उसके खरा उतरने के लिए कुछ बातों पर अनिवार्यतः विचार करना चाहिए। अगर मनरेगा अधिनियम सौ दिन के रोजगार की बात करता है तो केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अनिवार्यतः उसको लागू करवाना चाहिए।

इसके लिए सबसे पहले गाँवों में जेसीबी आदि मशीनों से काम करवाया बंद करना चाहिए ताकि मजदूरों के लिए काम बच सके और उन्हें अधिकतम दिनों तक काम मिल सके। सरकार और स्थानीय निकाय कोई मुनाफाखोर संस्थान नहीं हैं बल्कि उन्हें अपनी अधिकतम आबादी को रोज़गार देने का दायित्व पूरा करना चाहिए।

मनरेगा के कार्यान्वयन के लिए अलग-अलग स्तरों पर अधिकारियों और कर्मचारियों की पर्यवेक्षण कमेटियाँ बनाई जानी चाहिए जिससे इसमें पारदर्शिता बनी रहे। मजदूरी की भुगतान प्रक्रिया पर खास नज़र रखने की जरूरत है और लंबे समय तक मजदूरों का भुगतान नहीं रोका जाना चाहिए।

‘जैसी सरकार होती है वैसे ही उसके कर्मचारी हो जाते हैं।’ नट समुदाय संघर्ष समिति के संयोजक प्रेम नट कहते हैं ‘अगर सरकार की नीयत ठीक रहेगी तो तमाम ताम-झाम की जरूरत नहीं होगी बल्कि रोज़गार की अधिकतम गारंटी होगी। आज मनरेगा के लिए सरकार की ऐसी ही इच्छाशक्ति की जरूरत है।’

अपर्णा
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अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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