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बूढ़े ने बैंक के सहयोग से कई बकरियाँ खरीद ली

दूसरा और अंतिम हिस्सा   भोजन में ठेठ राजस्थानी स्वाद था, दाल बाफले के साथ कढ़ी थी और प्याज तथा मिर्ची के भजिये थे। अमूमन राजस्थान के नजदीक के इलाके में यह भोजन किया जाता है लेकिन ये लोग मिर्ची और मीठा बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। जैसे ही हमने दाल को चखा, खांसी आने लगी […]

दूसरा और अंतिम हिस्सा  

भोजन में ठेठ राजस्थानी स्वाद था, दाल बाफले के साथ कढ़ी थी और प्याज तथा मिर्ची के भजिये थे। अमूमन राजस्थान के नजदीक के इलाके में यह भोजन किया जाता है लेकिन ये लोग मिर्ची और मीठा बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। जैसे ही हमने दाल को चखा, खांसी आने लगी और आंख तथा नाक से पानी गिरने लगा, दाल बहुत ज्यादा तीखी थी और बड़ी मिर्च के भजिये मानो और डरा रहे थे। खैर कढ़ी ने थोड़ी राहत दी और हम लोग बमुश्किल एक बाफले दाल और कढ़ी के साथ खा पाए। बस भजिये खूब सारा खाया गया क्योंकि मिर्च के साथ-साथ सादे भजिये भी थे और उनको खाने में बहुत आनंद आया। अक्सर ऐसे समय में जो होता है, वही हुआ और ढेर सारा भोजन बच गया। फिर हम लोगों ने वहां खेल रहे बच्चों को आवाज देकर बुलाया और उनको भोजन दे दिया कि वह जहाँ चाहें इसे खा लें। बच्चों ने भोजन लिया और उसे लेकर दूसरी तरफ निकल गए जहाँ उन्होंने तसल्ली से बैठकर खाया होगा। इस बीच बकरियों को देखकर सोबो भौंक रहा था जिसके चलते कुछ कुत्ते भी वहां पहुँच गए लेकिन किसी ने भी सोबो को डराने का प्रयास नहीं किया। भोजन करने के बाद तथा सारा कूड़ा एक बड़े से बैग में भरकर हमने गाड़ी में डाल लिया और उस पहाड़ी पर कम से कम 20-25 पेड़ अपनी तरफ से लगाने का प्रण लेकर हम लोग नीचे उतरे।

नीचे सड़क के पास एक झोपड़ी थी, जहाँ आते समय कोई मौजूद नहीं था लेकिन इस समय एक बुजुर्ग किसान बढ़िया पगड़ी बांधे बैठा हुआ था और कुछ दूर पर उसकी बकरियां चर रही थीं। मैंने अपनी आदत के मुताबिक उस किसान से बात करने की सोची और मुझे लगा कि इस झोपड़ी में रहने वाला और अपनी बकरियां चराने वाला किसान कोई छोटा मोटा किसान होगा। जब मैं उसके पास पहुंचा तब वह जमीन पर बैठकर बीड़ी पी रहा था। मैंने जब उनसे पूछा कि क्या मैं आपसे बातचीत कर सकता हूँ? तो वह हड़बड़ा कर अपनी बीड़ी फेंकने के लिए उद्यत हुआ।

[bs-quote quote=”वापस आते समय दिल एक तरफ तो बहुत प्रसन्न था कि आज प्रकृति के पास सचमुच वक़्त गुजारने का मौका मिला था लेकिन वह समय इतना कम था कि हमने भविष्य में एक बार और वहां जाने और एक रात उस आदिवासी क्षेत्र में बिताने के बारे में भी सोच लिया। अब देखते हैं कि वह मौका कब आता है लेकिन उम्मीद है कि जरूर आएगा और फिर उस यात्रा संस्मरण को शब्दों में ढालने का प्रयास किया जाएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

मैंने कहा कि आप तसल्ली से बीड़ी पी लो फिर बात करते हैं तो उसने बीड़ी के दो कस खींचे और बात करने लगा। मैंने उससे उसकी बकरियों के बारे में पूछा तो उसने बताया कि पहले एक बकरी थी और धीरे धीरे काफी हो गयीं। फिर उसने बताया कि कई बकरों और बकरियों को वह अच्छे दामों में बेच भी चुका है। मैंने जब पूछा कि बरसात में आपकी झोपड़ी तो टपकती होगी तो उसने हंसकर इंकार कर दिया। थोड़ी देर की बातचीत के बाद ही मेरा भ्रम चकनाचूर हो गया जब उसने बताया कि उसके पास काफी खेत है और उसकी पिकअप वैन भी चलती है। अब मैंने पूछ ही लिया कि अगर इतना कुछ है तो आप इस टूटी सी झोपडी में क्यों रहते हो? तो उसने बताया कि यह झोपड़ी तो बस यहाँ आकर लेटने के लिए है। उसका घर सड़क के उस पार थोड़ी दूर पर था जो उसने दिखाया। उसके बाद मैंने झोपड़ी के अंदर जाकर देखा, एक खटिया पड़ी हुई थी जो उसके लेटने के लिए थी। आखिर में जब मैंने उससे पूछा कि वह किस बैंक से अपनी बैंकिंग करता है? तो उसने हमारे बैंक का ही नाम लिया और हमारे साथ मौजूद एक स्टाफ को पहचान भी लिया। फिर उस स्टाफ ने भी बताया कि यह दादा बैंक आते रहते हैं और इनका हमारे यहाँ ठीक-ठाक खाता है। उन्होंने फसल ऋण तथा गाड़ी का ऋण भी हमारी बैंक से ही लिया था और यह बात मेरे लिए काफी सुकून पहुंचाने वाली थी। फिर हम लोग वहां से निकले और अपनी अपनी गाड़ी लेकर मुख्य मार्ग पर आ गए जहाँ से हमारी मंजिल आगे आने वाला गांव था।

एक बार फिर हम लोग हरे भरे रास्तों और पहाड़ों के बीच से निकलते हुए आगे बढे़, थोड़ी दूर आगे जाने पर एक घाटी जैसा नजारा था जहाँ से नीचे एक बड़ा सा तालाब जिसपर बांध बना हुआ था, नजर आया। दूर पहाड़ भी दिखाई दे रहे थे और एक तरफ जंगल भी था। लोगों ने बताया कि एक समय था जब प्रदेश के मुख्यमंत्री इसी जगह पर रात बिताने आते थे और ग्रामीणों से उनके दुःख दर्द भी सुनते थे। अब खैर दुःख दर्द तो क्या ही सुनते रहे होंगे लेकिन इसी बहाने इस जिले के अधिकारियों के लिए एक हफ्ते का हाड़तोड़ परिश्रम जरूर हो जाता रहा होगा। एक बार इच्छा हुई कि किसी तरह वहां से नीचे उतरा जाए और उस डैम को पास से देखा जाए लेकिन फिर लगा कि वहां तक पहुंचना मुश्किल होगा। दरअसल बरसात के चलते रास्ता बहुत अच्छा नहीं रह गया था और कुछ किलोमीटर शायद पैदल भी चलना पड़ता। हमारे साथ के एक व्यक्ति ने किसी परिचित को फोन लगाने का प्रयास किया जिससे कि उस डैम तक जाने में मदद मिले लेकिन उनके फोन में नेटवर्क गायब था। फिर मैंने अपने फोन से कॉल किया तो फोन लग गया लेकिन फोन उनके बच्चे ने उठाया और बताया कि उसके पिताजी कहीं गए हैं और फोन उसके पास है। खैर इस कोविड काल में पढ़ाई के लिए ये स्मार्ट फोन ही काम आये और बहुत से लोगों ने अपने फोन बच्चों को दे दिए जिससे कि वह पढ़ाई जारी रख सकें। बहरहाल वहां जाने का इरादा त्यागकर हम लोग आगे बढे़ और आगे जाकर एक जगह हमारी गाड़ी रुक गयी। सामने एक जगह थी जहाँ सड़क के ऊपर से पानी बह रहा था और वहां कोई छोटी सी पुलिया भी थी। अब हमें तो अंदाजा नहीं लग रहा था कि वास्तव में सड़क पर कितना पानी है और हम सोच ही रहे थे कि इतने में सामने से एक चरवाहा अपने गाय भैंस के साथ उस पानी भरे पुल को पार करते हुए हमारी तरफ आने लगा। इसी बीच में एक मोटरसाइकिल सवार भी उस पानी भरे सड़क से गुजर गया तो हमें तसल्ली हुई कि हम सब भी निकल सकते हैं। आगे कई गांवों से गुजरते हुए हम एक ऐसे इलाके में पहुंचे जहाँ सड़क के किनारे बहती हुई नदी बहुत छिछली थी और वहां आसानी से पानी में उतरा जा सकता था। वहां पर हम लोगों ने अपनी गाड़ियां रोकीं और फिर धीरे धीरे पानी में उतर गए। पानी में जो पत्थर थे उसपर फिसलन काफी थी और हम लोग कई बार फिसलने से बचे भी। लेकिन फिर हमने उसे पार किया और उस तरफ जाकर कुछ समय बिताया। इस बीच वहां कुछ बच्चे भी आ गए थे और वे हमें कौतूहल से देख रहे थे मानों हम किसी और गृह के प्राणी हों। वैसे उनका कौतूहल जायज ही था क्योंकि उनके लिए तो हम लोग सचमुच किसी अन्य लोक के ही निवासी थे जिनके पास सभी भौतिक सुख सुविधाएँ उपलब्ध थीं।

[bs-quote quote=”यह दादा बैंक आते रहते हैं और इनका हमारे यहाँ ठीक-ठाक खाता है। उन्होंने फसल ऋण तथा गाड़ी का ऋण भी हमारी बैंक से ही लिया था और यह बात मेरे लिए काफी सुकून पहुंचाने वाली थी। फिर हम लोग वहां से निकले और अपनी अपनी गाड़ी लेकर मुख्य मार्ग पर आ गए जहाँ से हमारी मंजिल आगे आने वाला गांव था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेकिन जो चीज उनके पास थी, हम उसी की तलाश में उस क्षेत्र में भटक रहे थे और वह चीज थी ‘सुकून, शांति, प्रकृति का सानिध्य और स्वच्छ हवा’। खैर चलते समय हमने उन बच्चों को बिस्किट का पैकेट पकड़ाया जिससे हम यह महसूस कर सकें कि हमने उनको थोड़ा तो दिया। उसी दरमियान वहां पर एक ग्रामीण कुछ पूजन की सामग्री ले आया था और पूछने पर उसने बताया कि यहीं सड़क पर वह पूर्वजों के लिए पूजा पाठ करेगा।

वहां से जब हम आगे बढे़ तो जंगल शुरू हो गया था और साथ चल रहे लोगों ने बताया कि यहाँ पर जानवर भी मिलते हैं। खैर वहां ग्रामीणों के घर पर बहुत से मवेशी थे और कभी कभी एकाध बकरी इत्यादि जानवर उठा ले जाते थे। लेकिन ऐसा बहुत कम ही होता था, दरअसल जानवर भी सबसे ज्यादा हम इंसानों से ही डरते हैं और यथासंभव हमसे दूर ही रहने में अपनी भलाई समझते हैं। इसी बीच हमारे मित्र ने एक दिलचस्प लेकिन खतरनाक किस्सा सुनाया, खतरनाक उनके लिए था लेकिन हमें सुनने में बहुत दिलचस्प लगा। एक बार वह अपने एक साथी के साथ, ऐसे ही किसी गांव में जो जंगल के आसपास था, गया जहाँ पर किसान से मिलने के लिए उसके खेत पर जाना पड़ा। वहां उसने ध्यान दिया कि खेत के बीचोबीच एक गड्ढा जैसा इलाका है जहाँ सोयाबीन नहीं लगी है। उसे कौतूहल हुआ तो उसने उस किसान से पूछ लिया। जवाब में किसान ने जो बताया उसे सुनकर उसके होश उड़ गए ‘क्या बताएं साहब, यहाँ पर कुछ दिन पहले दो शेर लड़े थे जिसके चलते वहां की फसल नष्ट हो गयी’ और उसने उस जगह को वैसे ही खाली छोड़ दिया। अब हमारे मित्र की हालत खराब हो गयी कि कहीं वे शेर दुबारा जोर आजमाईस करने इसी जगह आ गए तो क्या होगा। उन्होंने किसान को सलाम किया और तुरंत नौ दो ग्यारह हो गए। अब ऐसे में हम भी रहे होते तो उस गांव की तरफ अगले एक साल भी अपना रुख नहीं करते।

बालम खीरा

पीछे दो घंटे में हम जहाँ भी थे वहां पर फोन का नेटवर्क भी नहीं था इसलिए बाहरी समाज से हमारा संपर्क बंद था। जैसे हम लोग थोड़ा बाहर आये, फोन के मैसेज टन ने बता दिया कि हमारी शांति भंग होने का समय वापस शुरू हो गया है। अब ऐसे इलाकों में जहाँ फोन का नेटवर्क भी नहीं आता हो, वहां बैंकिंग सेवा भी देना एक दुरूह कार्य है। इसलिए इन गांव के लोगों को नदी और पहाड़ पार करके मीलों दूर बैंक या अन्य सरकारी कार्यालय आना पड़ता है। इसका एक दूसरा पहलू भी है कि इन गांवों के ऐसे लोग जिनको सरकार द्वारा छोटी मोटी पेंशन जैसे वृद्धावस्था पेंशन इत्यादि लेने के बहाने ही गांव से निकल कर शहर या कस्बे में आते हैं और वापस जाते समय घर के बच्चों के लिए कुछ मिठाई या खिलौने ले जाते हैं। तभी हमारे एक साथी के फोन पर कोई कॉल आया और वह एक जगह के बारे में बात करने लगा जहाँ पर उस फोन करने वाले से मुलाकात हो सके। थोड़ी देर में हम कुछ अन्य गांवों को पार करते हुए एक और पुलिया के पास पहुंचे जहाँ एक सज्जन मोटरसाइकिल से हमारा इन्तजार कर रहे थे। उनके पास लौकी जैसी कोई सब्जी थी जिसके बारे में हमें बाद में पता चला कि इसे बालम खीरा कहते हैं। कोई भी व्यक्ति उसे पहले नजर में लौकी ही समझेगा क्योंकि वह लौकी जितना बड़ा होता है और उसका रंग भी बिलकुल वैसा ही होता है। इस सीजन में ही यह एक गांव बालम में खूब पैदा होता है और वहां से व्यापारी इसे थोक भाव में खरीदकर महानगर भेज देते हैं। वैसे हमारे लिए इस खीरे को देखने का यह पहला ही अवसर था, पढ़ा तो मैंने इसके बारे में पहले भी था।

कोटड़ा केदारेश्वर मंंदिर

अब हम सर्वं गांव से होते हुए अपनी आखिरी जगह की तरफ बढ़ चले जो कोटड़ा केदारेश्वर था। शाम होने लगी थी और वापस उज्जैन भी आना था इसलिए हम लोग जल्दी जल्दी वहां पहुंचे। यह भी एक मंदिर है जो पहाड़ी के बीच में जमीं से लगभग 500 मीटर नीचे स्थित है और इस मंदिर के सामने भी एक झरना अपनी पूरी खूबसूरती से गिर रहा था। नीचे एक गुफा थी और उसी में मंदिर था तथा मंदिर के दूसरी तरफ एक और झरना गिर रहा था। मंदिर के अंदर से गिरते हुए झरने के संगीत को महसूस करना बहुत अद्भुत अनुभव था और हम लोग काफी देर तक वहीं खड़े रहे। इसी बीच ढेर सारी तस्वीरें भी ली गयीं और हम लोगों ने खूब आनंद उठाया। हम लोग जब वापस मंदिर से निकलकर ऊपर आये तो एक साथी ने कहा कि हम लोग दूर बह रहे उस दूसरे झरने तक जा सकते हैं। अब ऐसा अवसर मिले तो भला हम उसे कैसे जाने देते इसलिए हम लोग तुरंत उस दूसरे झरने को नजदीक से देखने के लिए निकल गए। चारों तरफ पहाड़, बीच में खेत और झरने के जल द्वारा बानी हुई एक संकरी नदी, कुल मिलाकर एक अविस्मणीय दृश्य था और नखें इसे देखकर भरती नहीं थीं। यही सब निहारते हुए हम लोग उस दूसरे झरने तक पहुंचे और उसके जल में हाथ और पैर धुलने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। थोड़ी देर वहां बिताने के बाद यह एहसास हो गया कि अगर हम दिल की बात सुनेंगे तो यहाँ से जाने की इच्छा नहीं होगी। लेकिन दिमाग की बात सुनते हुए हम लोग वहां से वापस आये क्योंकि उज्जैन भी जाना था। वहां से निकलकर हम लोग लगभग दो कि.मी. आये और फिर वहां से हमारे रास्ते अलग हो गए, हम लोग उज्जैन के लिए रवाना हो गए और वे लोग सैलाना निकल गए।

वापस आते समय दिल एक तरफ तो बहुत प्रसन्न था कि आज प्रकृति के पास सचमुच वक़्त गुजारने का मौका मिला था लेकिन वह समय इतना कम था कि हमने भविष्य में एक बार और वहां जाने और एक रात उस आदिवासी क्षेत्र में बिताने के बारे में भी सोच लिया। अब देखते हैं कि वह मौका कब आता है लेकिन उम्मीद है कि जरूर आएगा और फिर उस यात्रा संस्मरण को शब्दों में ढालने का प्रयास किया जाएगा।

विनय कुमार कहानीकार हैं और फ़िलहाल बैंक में कार्यरत हैं ।

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