भारत के पूंजीपति घरानों में से एक मुकेश अंबानी के बेटे अनंत अंबानी की शादी कई रस्मों रिवाजों को पूरा करते हुए शुक्रवार को अंततः संपन्न हो गई जिसमें वर-वधु को आशीर्वाद देने के लिए, देश-विदेश के जाने-माने कलाकार, धर्मगुरु, शंकराचार्य, कई राजनीतिक हस्तियां या राजपरिवारों ने हिस्सा लिया। मीडिया से ले करके सोशल मीडिया पर इस शादी में होने वाले खर्च, शान-शौकत एवं दिखावे को लेकर सुर्खियाँ चलती रहीं। हालांकि कॉर्पोरेट एवं फिल्मी दुनिया के गठजोड़ के जरिए शादियों की जैसी स्टीरियोटाइप (छवि गढी जा रही है) छवि परोसी जा रही है उसका भारत के मध्यवर्ग एवं गरीब जनमानस पर क्या असर पड़ेगा यह एक अलग विमर्श का विषय हो सकता है।
किंतु इस शादी के बहाने से कांग्रेस एवं लेफ्ट के एक छोटे से समूह द्वारा पर्सनल इज पॉलटिक्स, सब झुक गये लेकिन राहुल जी नहींं झुके, बंदा अडिग है जो बोल रहा है वो कर रहा है आदि-आदि फैंसी वक्तव्यों के जरिये जिस सैद्धांतिक बहस को उछालने की कोशिश की जा रहा है उस पर विचार करना यहाँ प्रांसागिक है। क्योंंकि हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भारत के दो पूंजीपति अंबानी-अडानी का नाम राजनीतिक रैलियों में उठता रहा है जिसमें वर्तमान राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन के नेता एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूंजीपतियों के साथ गठजोड़ तथा देश के संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथ में सौंपने को ले करके विपक्ष के नेता लगातार हमलावर थे।
कांग्रेस पार्टी के नेता एवं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी द्वारा मुखरता के साथ संसद से ले करके राजनीतिक रैलियों में उक्त पूंजीपतियों का नाम ले करके मुद्दा बनाया जाता रहा है, जोकि मेरी राय में बहुत जरूरी था। लेकिन देश के राजनीतिक गलियारों तथा मीडिया में बहस इस संदर्भ में ज्यादा हो रही है जब इस शादी समारोह में विपक्ष के कई समाजवादी दिग्गज नेताओं (विशेषकर समाजावादी पार्टी सुप्रीमों अखिलेश यादव एवं राजद सुप्रीमों लालू यादव) ने अपने परिवारों के साथ शिरकत किया। सवाल उछाले जा रहे हैं कि देखिए उनकी कथनी और करनी में कितना भेद है, मंच पर पूंजीपतियों के खिलाफ भाषण देंगे किंतु उन्हीं के साथ गलबहियाँ करने पहुँच जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर फोटो एवं वीडियो वायरल की जा रही है।
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सामान्य बुद्धि से सोचने पर यह राजनीतिक नैतिकता एवं सुचिता का सवाल प्रतीत हो रहा है जिसके जरिए उत्तर भारत की दो प्रमुख पार्टियों (सपा एवं राजद) को घेरने की कोशिश की जा रही थी। किंतु उपरोक्त सारे सवाल सैद्धांतिक या राजनीतिक न होकर के व्यक्तिगत इच्छा एवं धारणाओं से परिपूरित हैं, क्योंकि समाज में चाहे अमीर हो, गरीब हो या किसी भी वर्ग का व्यक्ति हो, राजनीतिक व्यक्ति या परिवार का उसके सुख-दुख में शामिल होना मानवता एवं मानवीय मूल्यों के अनुपालन को दर्शाता है। इसे राजनीतिक गठजोड़ या फिर सैद्धांतिक समर्पण समझना या घोषित करना नितांत बकवास एवं निरर्थक धारणा है।
इसी तरह मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद अंबानी परिवार का उनके श्रद्धांजलि समारोह में सैफई जाना और अखिलेश जी के परिवार को सांत्वना देना इसी मानवीय मूल्य का परिचायक था। किसी के निजी कार्यक्रम में शिरकत करना तथा उसकी नीतियों का समर्थन करना या राजनीतिक मंच साझा करना सैद्धांतिक रूप से दोनों भिन्न बातें हैं।
यद्यपि चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि क्या समाजवादी पार्टी या राष्ट्रीय जनता दल ने सैद्धांतिक रूप से अथवा सरकार में रहते हुए निजीकरण का समर्थन किया है कि नहीं? किसी पूंजीपति को सार्वजनिक संपत्तियों या उसके शेयर को सस्ते दामों पर बेचा है कि नहीं? सार्वजनिक क्षेत्र को एफडीआई लाने की कोशिश किया है कि नहीं? सरकारीकरण के बजाय ठेकाकरण प्रथा को बढ़ावा दिया है कि नहीं? यह मूलभूत सैद्धांतिक प्रश्न होना चाहिये जिस पर चर्चा न हो करके नैतिकता की चादर के नीचे समाजवादी विचारधारा एवं किसी पार्टी विशेष के प्रति अपनी कुंठित धारणाओं को प्रदर्शित करने की कोशिश मात्र है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता है।
दीगर बात यह है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की राजनीतिक तथा नीतिगत घनिष्ठता अंबानी-अडानी के साथ जगजाहिर है और उनकी पार्टी भाजपा हमेशा से निजीकरण एवं पूंजीपतियों की पैरोकार रही है। भारत के पूंजीपतियों के साथ राजनीतिक साठ-गांठ जो पिछली सरकारों में पर्दे के पीछे होता था नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चलने वाली भाजपा ने पूंजीपतियों के साथ अपने सैद्धांतिक व राजनीतिक रिश्ते को सरेआम कर दिया है।
जो काम पिछली सरकार में संकोचवश होता था या दबे पाँव हो रहा था वही काम बीजेपी डंके की चोट पर कर रही है। जिस पर चर्चा करने या आलोचना करने के बजाय कुछ बददिमागों की नीयत हमेशा समाजवादियों को घेरने, कोसने तथा उन्हें कटघरे में खड़ा करके उनकी छवि को धूमिल करने की होती है। ये नीयतखोरी अब पकड़ी जा रही है, परदे के पीछे रचे जाने वाले षडयंत्रों का पर्दाफाश किया जाने लगा है, मगर फिर भी कुछ लोग अपनी जातीय फितरत से बाज नहीं आते हैं।
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सच्चाई यह है कि पिछले 10 सालों में वर्तमान मोदी जी की सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के कई उद्यमों को निजी क्षेत्र को बेच दिया है जिनमें एयरलाइन्स, बीपीसीएल, सेंट्रल इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, ओएनजीसी, रेलवे, बीएसएनएल आदि शामिल हैं। इनके साथ सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य उद्योगों के लगातार निजीकरण करने की नीति अपनाई गयी है। जबकि पिछले 10 सालों में एक भी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम स्थापित नहीं किया गया।
सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को घाटे में दिखा करके उन्हें निजी हाथों में सौपने का आधार बनाया गया। जिसे वर्तमान सरकार पूरी बेशर्मी से कर रही है। यही नहीं, बल्कि 1999 से 2004 के बीच अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने भी पहली बार डिसइन्वेस्टमेंट पॉलिसी के तहत कई सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को निजी हाथों में बेच दिया था। अतः जब-जब देश में भाजपा की सरकार आई है उसके नीतिगत एजेंडे में देश की सार्वजनिक संपत्तियों को निजी हाथों में बेचने का एजेंडा रहा है।
विडंबना यह हेै कि जिन राज्यों में भाजपा शासन में नहीं रही है वहाँ भी अंबानी-अडानी की परियोजनाओं को लागू किया गया है जो कांग्रेस के नेतृत्व की सहमति हुआ है। 12 सितंबर 2023 की बीबीसी रिपोर्ट के अनुसार छ्त्तीसगढ़ में सरकार बनने के पाँच महीने के भीतर ही 1 मई 2019 को, भूपेश बघेल की सरकार ने छत्तीसगढ़ के हसदेव अरण्य की पतुरिया-गिदमुड़ी कोयला खदान, अदानी समूह को सौंपने के लिए अनुबंध किया था। इस कोयला खदान के लिए कोल-बेयरिंग एक्ट के तहत कांग्रेस सरकार ने ही 31 मई 2021 को भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया की अधिसूचना जारी की थी।
हसदेव अरण्य के ही इलाक़े में परसा कोयला खदान का एमडीओ भी अदानी समूह के पास है। छत्तीसगढ़ अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ अदानी समूह के दो बिजली संयंत्र हैं जिनमें एक रायपुर के रायखेड़ा में और दूसरा रायगढ़ में स्थापित है। ऐसे में जिस नैतिकता की छतरी तले बैठकर यह फलसफा पढ़ा जा रहा है कि फलां नेता नहीं झुका बाकी सब झुक गए, उसने अंबानी के बेटे की शादी में शिरकत करने से इंकार कर दिया आदि-आदि उन्हे पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
हालांकि यह राजनीति से अलग पारिवारिक कार्यक्रम में शामिल होने का निंमत्रण है, जाना और न जाना किसी राजनीतिक परिवार का निजी फैसला हो सकता है, लेकिन हाई मोरल ग्राउंड लेकर राजनीतिक मंशा से समाजवादी पार्टी के नेता या विचाधारा को टारगेट करना ओछापन है। मूल प्रश्न निजीकरण, बाजारीकरण, ठेकाकरण तथा एग्रीकल्चर क्षेत्र को निरंतर सरकार द्वारा हतोत्साहित करने का है जिस पर समाजवादियों का राजनैतिक पक्ष एकदम स्पष्ट है। समाजवादियों का ध्येय संविधान एवं आरक्षण को बचाना है। इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्रों को बढ़ावा देना जरूरी है अन्यथा आरक्षण का प्रावधान निर्थरक हो जाएगा। सार्वजनिक क्षेत्र गतिशील रहेंगे तभी जातिगत जनगणना एवं पीडीए की अवधारणा को नीतिगत आधार दिया जा सकता है।
मैं कहना चाहता हूँ कि किसी की शादी में शामिल होने से आप गलत या न शामिल होने से सही नहीं हो सकते। आपको साबित करना पड़ेगा कि आप काम किसके हित में कर रहे हैं? दशकों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस ने किनको मजबूत बनाया यह देखना होगा। हसदेव का जंगल किसने अदानी को दिया यह देखना होगा। कौन हमारे सार्वजनिक उपक्रमों को पूँजीपतियों के हवाले किया है यह देखना होगा। कौन आरक्षण, भागीदारी और संविधान के मुद्दे पर लड़ रहा है यह देखना होगा। शादी में जाने या न जाने से कोई छोटा और कोई महान नेता बन जाता है तो लोगों को अपने सोच पर पुनर्विचार करना चाहिए!