यह चौंकने की बात नहीं कि आज की बीएसपी का जमीनी कार्यकर्त्ता हवाई यानी गली-कूचे की नेतागीरी करने में ज्यादा रुचि लेने लगा है, काम करने मे कम। यहाँ तक कि वोटरों के घरों तक वोटर-पर्चीयाँ तक नहीं पहुँचा पाते। नतीजा ये होता है कि बीएसपी के वोटरों का लगभग 10-12 प्रतिशत वोट ही नहीं पड़ पाता। यहाँ तक कि बहुत से वोटरों को अपने पोलिंग बूथ का भी पता नहीं होता। इलाकाई कार्यकर्त्ताओं से पूछने पर भी कोई सकारात्मक उत्तर नहीं मिलता। बूथ पर व्यवस्था के नाम पर तो कुछ भी दिखाई नहीं देता। दिक्कत एक और भी है कि दलितों में शामिल कुछेक जातियां अपने आपको दलित मानने को ही तैयार नहीं हैं। संविधान के आर्टिकल 16.4 के तहत अन्य पिछड़ा वर्ग भी दलितों में आता है। किंतु अफसोस कि वो अपने आप को ब्राह्मण ही मानने पर उतारू है जिसके चलते समूचे दलित समाज का अनहित हो रहा है।
इस संबन्ध में डा. विवेक कुमार कहते हैं, ’इस प्रकार हिन्दूत्व बहुजनवाद पर भारी पड़ गया। 1978 के पश्चात जातीय अस्मिताओं का प्रयोग कर जिस उत्तर प्रदेश में बामसेफ, डीएस-4 तथा बहुजन समाज पार्टी के सहारे ‘बहुजन’ का एक बड़ा समीकरण बना था, उस समीकरण को बीजेपी ने अपने तौर पर चुनौती दी। इस जातीय अस्मिता के नवीन समीकरण का सूत्रपात करने वाले स्वयं नरेन्द्र मोदी थे। मोदी ने उप्र की जनसभाओं में अपनी अस्मिता को खूब उछाला। उन्होंने अपने आपको पिछड़े वर्ग का बताया। उन्होंने एक रैली में यहाँ तक कहा कि आने वाला दशक पिछड़ों एवं दलितों का होगा। मैं समझता हूँ कि मोदी यहाँ दलितों और पिछड़ों के नाम एक अप्रत्यक्ष सवाल भी छोड़ जाते हैं, और वह सवाल है कि अब दलितों और पिछड़ों को सोचना होगा कि वो परम्परागत जातिगत और धार्मिक व्यवस्था अर्थात साम्प्रदायिकता का हिस्सा बनकर जीना चाहते हैं अथवा दलितों और पिछड़ों के तमाम राजनीतिक घटक मतभेदों को भुलाकर एक होकर समाज के दमित और वंचित वर्ग को आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। जाहिर है कि मोदी तो यही चाहेंगे कि दलित और पिछड़े लोग बीजेपी के साथ ही बने रहें। आखिर मोदी के भी तो अपने निजी हित निहित हैं। अब यह दलितों और पिछड़ों को सोचना है कि उनका भला कहाँ है। यह भी जाहिर है कि यदि दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले तमाम नेता अपने-अपने निजी स्वार्थों और जातीय अहम को छोड़कर पिछले चुनावों में प्राप्त मतों के प्रतिशत के आधार पर एक होकर चुनाव लड़ते हैं तो 2019 के आम चुनावों के नतीजे कुछ अलग ही होंगे। यदि ऐसा हो पाता है तो उम्मीद की जा सकती है कि भारत में मानवाधिकारों की किसी हद तक रक्षा हो सकती है, अन्यथा नहीं।
आज जबकि मायावती ने अपने भतीजे आनंद को बहुजन समाज पार्टी का अध्यक्ष बनाया है, तब से बहुजनों के हृदय में भाँति-भाँति की आशंकाए व्यक्त होने लगी हैं। वैसे तो बसपा स्थापना के समय से ही आशंकाओं से घिरी रही है। विदित हो कि बहुजन समाज पार्टी का गठन 14 अप्रैल 1984 को कांशीराम जी ने किया था। वे खुद सिखों के उस समुदाय में पैदा हुए थे जिनको अछूत माना जाता था। कांशीराम दलितों को सशक्त करना चाहते थे, उनके पिछड़ेपन को दूर कर उनको मजबूत बनाना चाहते थे। कांशीराम मानते थे कि सरकार बनाकर और सरकारी नौकरियों में ऊंचे ओहदों पर जाकर ही दलित और पिछड़े अपने समुदाय के हित को आगे बढ़ा सकते हैं। इसी विचार को लेकर कांशीराम ने आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को संगठित करने का काम शुरू किया था और इसमें अल्पसंख्यकों को भी जोड़ा था। बहुजन समाज पार्टी का गठन तो 1984 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को हुआ था लेकिन इस राजनीतिक पार्टी को जन्म देने वाले सामाजिक संगठन बामसेफ (BAMCEF-ऑल इंडिया बैकवॉर्ड एंड माइनॉरिटी कम्यूनिटीज एंप्लॉइज फेडरेशन) की स्थापना 1978 में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को दिल्ली में की गई थी।
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इसी संगठन के प्रचार के दौरान सात राज्यों में कांशीराम ने 3000 किलोमीटर की साइकिल यात्रा की। बसपा बनाकर पूरी तरह राजनीति के मैदान में उतरे 1984 के अप्रैल में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनाकर डीएस4 का उसमें विलय कर दिया और चुनावी राजनीति में सत्ता तक पहुंचने का संघर्ष शुरू किया। कांशीराम ने इसके बाद खुद को बामसेफ से अलग कर लिया और पूरी तरह बसपा को आगे बढ़ाने में लग गए। इसमें उन्होंने सिविल सेवा की तैयारी कर रही मायावती को साथ लिया और उत्तर प्रदेश में दलित महिला को मुख्यमंत्री बनाने के अभियान में जुट गए। कांशीराम का मानना था कि राजनीतिक सत्ता की चाभी से सभी ताले खोले जा सकते हैं। कांशीराम के इस राजनीतिक अभियान को मजबूत करने के लिए बामसेफ संगठन ने उसी तरह से काम किया जैसे भारतीय जनता पार्टी के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है। कांशीराम ने जो कहा उसे करके दिखाया। वो दलित मायावती को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। पहले उन्होंने मुलायम का साथ लिया और उनको समाजवादी पार्टी बनाने का आइडिया दिया। मुलायम-कांशीराम ने मिलकर राम मंदिर आंदोलन की लहर पर सवार होकर 1991 में सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी का रास्ता रोक दिया। 1993 में सपा-बसपा की सरकार बनी, मुलायम मुख्यमंत्री बने। 1995 में गेस्ट हाउस कांड के बाद जब यह गठबंधन टूटा तो कांशीराम भाजपा के समर्थन से मायावती को मुख्यमंत्री बनाने में कामयाब हो गए। इसके बाद भी भाजपा के समर्थन से दो बार और मायावती मुख्यमंत्री बनीं। 2007 में यूपी में बसपा की पूर्ण बहुमत से सरकार बनी थी। कांशीराम की विचारधारा से भटक गई मायावती की बसपा कांशीराम ने एक नारा दिया था- बाबा तेरा मिशन अधूरा, कांशीराम करेगा पूरा। कांशीराम दलितों के मूवमेंट की बात करते थे। उनका मानना था कि छत्रपति शाहूजी महाराज ने जो मूवमेंट किया था वही अपने-अपने समय में महात्मा ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब अंबेडकर ने किया। इन तीनों ने एक ही मूवमेंट को 1848 से लेकर 1956 तक जारी रखा था। कांशीराम का कहना था कि वे इसी मूवमेंट को आगे ले जाना चाहते थे। मूवमेंट (आंदोलन) के जरिए ही परिवर्तन लाया जा सकता है। इसलिए अंबेडकर के बाद दलित आंदोलन को जमीन पर मजबूत करने के लिए कांशीराम को आज भी याद किया जाता है।
ज्ञात हो कि कांशीराम दलित आंदोलन को सत्ता में भागीदारी तक ले गए, किंतु बहुजन समाज पार्टी का ग्राफ मायावती के नेतृत्व में निरंतर कमजोर होता हुआ दिखाई देने लगा । इसके पीछे की वजह यह मानी जाने लगी कि बसपा कांशीराम की विचारधारा की लाइन से भटकती जा रही हैं। बहुजन हिताय की जगह सर्वजन हिताय ने ले लिया और इसने पार्टी का बड़ा नुकसान किया। ऊपर बहुजन समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग बसपा से छिटकता गया। मायावती का सियासी सफर कैसा रहा, मैं समझता हूँ, किसी से छिपा हुआ नहीं है। बड़ी सोच थी कि उत्तर प्रदेश में बसपा की सोच बनी थी कि सूबे की सियासत दिल्ली की कुर्सी की सबसे मजबूत कील रही है। याद रहे कि सबसे ज्यादा आबादी वाले इस राज्य की राजनीति जितनी अलग, अहम और असरदार है उतनी ही उलझी, मजेदार और हैरत भरी होती है।
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आनंद को बसपा को अध्यक्ष बनाने के बाद लोग बसपा की उस महिला नेता के गुजरे कल की बातों को याद करने पर उतर आए है जबकि मायावती ने 21 साल की उम्र में देश के सबसे बड़े नेता की सार्वजनिक मंच से बोलती बंद कर दी थी। जिसे उसके पिता ने घर से बाहर निकाल दिया था। यह भी कि पूर्व पीएम नरसिंह राव का कहना था कि वह भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी चमत्कारी नेता हैं। 1977 में एक समय ऐसा भी आया जब मायावती ने राजनीतिक हीरो राजनारायण को एक जनसभा में मंच से बोलते हुए जमकर कोसा। यहां तक कहा कि आपकी हिम्मत कैसे हुई हरिजन हरिजन शब्द दोहराने की। बस फिर क्या था मंच से नीचे जब मायावती उतरीं तो बधाइयों का ताता लग गया। बस वहीं मौजूद कई दलित नेताओं को लग गया कि ये लड़की अब देश की आवाज बन सकती है। फिर ये खबर काशीराम तक पहुँची ।
शायद उस समय कांशीराम को लगा होगा कि उन्होंने मायावती को राजनीति में लाकर कोई गलती नहीं की है। क्योंकि पंजाब के होशियारपुर के रहने वाले कांशीराम तब तक दिल्ली में अपनी जड़े लगभग जमा चुके थे। पंजाब में उनका सियासी रुख दिखने लगा था। लेकिन यूपी उनके लिए दूर की कौड़ी साबित हो रही थी। क्योंकि कांशीराम पंजाब से थे। उन्हें तलाश थी तो एक ऐसे चेहरे की थी जो बेझिझक हो। अब उन्हें मायावती में चंद्रगुप्त का संघर्ष दिखने लगा था।
1984 में जब बहुसजन समाज पार्टी बनी तो मायावती यूपी के कैराना से पहला चुनाव लड़ीं। लेकिन उन्हें इस चुनाव में सिर्फ 44 हजार वोट मिले और वो तीसरे नंबर पर रहीं। लेकिन हार ने उन्हें और मजबूत बनाया। 1985 में बिजनौर में उपचुनाव हुए तो फिर मायावती ने ताल ठोकी और फिर हारी 1987 में हरिद्वार में उपचुनाव में फिर वो हारी लेकिन लगातार तीन हार के बाद उन्हें इसका इनाम मिला 1989 में हुए लोकसभा चुनाव में। जब देश में बीपी सिंह की लहर थी उस लहर में बिजनौर की सीट से पहली बार मायावती ने जीत हासिल की। बसपा की पहली सांसद मायवती। फिर उसके बाद का इतिहास सारा देश जानता है।
1994 में वह बीएसपी से ही राज्यसभा सांसद चुनी गई। इसके बाद 1995 में वह पहली दलित महिला के रूप में यूपी की मुख्यमंत्री बनी। इसके बाद 1997, 2002 और 2003 में भी वह कुछ समय के लिए सीएम बनी। 15 दिसंबर 2001 को कांशीराम ने मायावती को बीएसपी प्रमुख के तौर पर घोषित किया। इसके बाद वह लगातार 2003, 2006 और 2014 में लगातार बीएसपी के अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध चुनी गई। किन्तु आज उन्होंने बसपा के अध्यक्ष पद को सौप कर राजनीतिक जगत में जाने कितनी भ्रांतियों को जन्म दे दिया है।
मायावती के इस निर्णय के तमाम निहितार्थ भी हैं। वह अक्सर बहुजन समाज से ही किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा भी करती रहीं, लेकिन बीते करीब एक दशक में उन नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया, जिन पर उन्हें बहुत भरोसा था। परिवार से किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाने का कभी दावा करने वालीं बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को विरासत सौंपने का निर्णय लेने के दौरान पार्टी पदाधिकारियों को सख्त संदेश भी दिया। उन्होंने कहा कि मैंने जब भी किसी को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी, वह खुद को मेरा उत्तराधिकारी समझने लगा। पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ वह इसी तरह पेश आता था। इसी वजह से उपजे कंफ्यूजन को खत्म करने के लिए मैंने आकाश आनंद को उत्तराधिकारी बनाया है। दरअसल, मायावती अक्सर बहुजन समाज से ही किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा भी करती रहीं, लेकिन बीते करीब एक दशक में उन नेताओं ने उनका साथ छोड़ दिया, जिन पर उन्हें बहुत भरोसा था। स्वामी प्रसाद मौर्या, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, लालजी वर्मा, रामअचल राजभर, नकुल दुबे जैसे अधिकतर बसपा के दिग्गज नेताओं ने भाजपा, सपा और कांग्रेस का दामन थामा, जिससे पार्टी को अंदरखाने खासा नुकसान सहना पड़ा।
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दरअसल आकाश आनंद बसपा प्रमुख मायावती के भतीजे हैं। मायावती के अपने परिवार में भाई आनंद कुमार से ही हमेशा अच्छे रिश्ते रहे। आकाश आनंद उनके ही बेटे हैं। आकाश आनंद 28 साल के हैं। उनकी शुरुआती शिक्षा नोएडा में हुई और फिर लंदन से एमबीए की पढ़ाई पूरी की। इसी साल मार्च में मायावती ने उनकी शादी बहुत धूमधाम से की थी। पार्टी के ही वरिष्ठ नेता अशोक सिद्धार्थ की बेटी प्रज्ञा उनकी पत्नी हैं।
उल्लेखनीय है कि आकाश पहली बार 2017 में सार्वजनिक मंचों पर नजर आए। सबसे पहली बार उनको मायावती के साथ सहारनपुर में एक सभा के दौरान देखा गया। उसके बाद मायावती ने लखनऊ में एक बैठक के दौरान उनका परिचय कराया था। इसके बाद से आकाश आनंद का कद पार्टी में धीरे-धीरे बढ़ता गया। उनको 2020 में राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर बनाया गया। आकाश को 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए युवाओं को पार्टी से जोड़ने की जिम्मेदारी दी गई। तब से वह विभिन्न राज्यों में संगठन को मजबूत करने का काम कर रहे हैं।
यूपी में चार बार सरकार बनाने वाली बसपा को वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में महज एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। तमाम नेताओं के दूसरे दलों में जाने से पार्टी के वोट बैंक पर भी असर पड़ा और कभी 28 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल करने वाली बसपा यूपी में करीब 12 प्रतिशत पर ही सिमट गयी। उसका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा भी खतरे में पड़ गया।
खेद की बात यह भी रही कि बसपा की राजनीतिक सफलता को देखते हुए बहुजनों के दिमाग में राजनीति में कदम बढ़ाने की प्रेरणा को गलत तरीके से लिया। लोकसभा चुनाव 2024 में बहुजन समाज में बसपा के अतिरिक्त अनेक राजनीतिक दल भी मैदान उतरने का दम भर रहे हैं। विदित हो कि रिपब्लिक पार्टी के बाद बसपा ने बहुजनों के लिए जो काम किया, वैसा अन्य ने नहीं किया। अन्य बहुजन समाज के नेता राजनीतिक दल बनाकर बहुजनों के वोटों को छितराने का काम कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा यही चाहती भी हैं। यह भी कि बहुत से बहुजनों को कुछ न कुछ लोभ देकर बहुत सी जेबी राजनीतिक पार्टियों का सृजन कराने का काम करती हैं ताकी बहुजनों और ओबीसी के वोट बैंक कहीं एकजुट न हो जाएं। कमाल की बात तो ये है कि बहुजनों के राजनीतिक दल आपस में ही एक दूसरे की टाँग खीचने में लगे रहते है। या यूं कहे कि बहुजन समाज के जेबी राजनीतिक दल ही बहुजनों को बाँटने पर तुले हैं।
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बामसेफ द्वारा गठित ‘बहुजन मुक्ति पार्टी’ भारत में एक राजनीतिक पार्टी है जिसे 6 दिसंबर 2012 को लॉन्च किया गया था, लोकसभा चुनावों में अधिकतर सीटों पर चुनाव लड़ने का दम भर रही है। खबर है कि बीएमपी ने लोकतांत्रिक जनता दल (6 दिसंबर 2012 को स्थापित) के साथ एक विलय का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन यह प्रस्ताव व्यक्तिगत हित्तों के चलते कार्यरूप नहीं ले पाया। और इसे अखिल भारतीय पिछड़ा (एससी, एसटी, ओबीसी) और अल्पसंख्यक समुदाय कर्मचारी संघ (बामसेफ) के राजनीतिक विंग के रूप में स्थापित किया गया। भीम आर्मी के प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी, चंद्रशेखर आज़ाद रावण ने अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर प्रगतिशील जनतांत्रिक गठबंधन बना लिया है। अन्य अनेक जेबी बहुजन राजनीतिक दलों की गिनती करना भी टेड़ी खीर है।
खास बात यह है कि ऊपरी तौर पर तो इन दलों का उद्देश्य एक ही है किंतु एक मंच पर एकत्र होकर हिंदूवादी शक्तियों से टकराने का काम ये दल नहीं कर पाते। होना तो ये चाहिए कि इन सबको राष्ट्र के नाम पर भारत की अखंडता और गरिमा के लिए खतरा बने कट्टरपंथियों से टकरा कर समतावादी समाज बनाने का काम करना चाहिए। ये सभी के सभी दल यूं तो अम्बेडरकर वादी होने का दम भरते है किंतु बाबा साहेब के विचारों और आदशों को ठेंगा दिखाकर आपस में ही खींचतान पर लगे रहते हैं। इनके इस प्रकार के काम से बहुजन समाज का हित होने के बजाय अहित और ज्यादा हो जाता है।
परिणामत: संविधान के विरोध में हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले आरएसएस, बजरंग दल आदि संगठनों को बढ़ावा और मिल जाता है। कागजी तौर पर तो भारत के प्रत्येक नागरिक को समानता, स्वतंत्रता, आदि मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अपना सर्वांगीण विकास करने का अवसर प्राप्त है, पर व्यावहारिक तौर पर ऐसा नहीं है। और पिछले कुछ वर्षों से देश में कट्टरपंथी राजनीतिक दलों और अनुषांगिक संगठनों के राजनीति में बढ़े प्रभाव के कारण शोषित वर्गो, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम समुदाय और उनके धार्मिक स्थलों पर योजनाबद्ध हमले हो रहे है। बेकसूर मुस्लिम युवकों को झूठे मुकदमे बना कर जेलों में डाला जा रहा है।
नवभारत टाइम्स में अनिल कुमार ने लिखा कि, ‘बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की अध्यक्ष मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है। लोकसभा चुनाव से पहले मायावती की तरफ से इस घोषणा का काफी अहम माना जा रहा है। बदलते दौर में बहुजन समाज पार्टी जिस दौर से गुजर रही है उसके बीच मायावती की घोषणा काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि, पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से परिस्थितियां ऐसी हैं जिसमें इस घोषणा को राजनीतिक हलको में उतनी अधिक तवज्जो नहीं मिल रही है जितना इसका महत्व है। मौजूदा दौर में पार्टी अपने आधार वोट दलितों के बीच भी पहले जैसी पैठ खो चुकी है। ऐसे में एक सवाल काफी अहम हो जाता है कि कांशीराम से मिली कमान थामने के बाद अब मायावती विरासत में आकाश आनंद को क्या सौंप रही हैं।‘ यहाँ सवाल यह भी उठता है कि अब बहुजन राजनीति किस ओर करवट लेगी।
चुनाव विश्लेषक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वीके राय का कहना है कि ज्यादातर नेता अपनी पार्टी को तब मजबूत करते हैं जब वे लंबे समय तक सत्ता से बाहर होते हैं। राय के अनुसार ऐसा लगता है कि मायावती ने वह मौका गंवा दिया है। उनकी पार्टी अपने मूल मिशन को भूल गई है। बसपा का गठन दबे-कुचले समुदायों के लिए लड़ने के लिए किया गया था। इसका मिशन देश भर में दलितों और गरीबों की चुनावी आवाज बनना था। स्थिति यह है कि बसपा अभी यूपी से बाहर सब जगह कमजोर दिखाई दे रही है। राजस्थान में थोड़ा बहुत जो सुधार हुआ था उसे कांग्रेस ही निगल गई।
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अब मूल बात फिर वही है कि आखिर मायावती विरासत के रूप में नए उत्तराधिकारी को क्या सौंप रही हैं। इसका जवाब है कि मायावती भविष्य की कमान थामने वाले नेता के हाथ में कमजोर संगठन, यूपी में खस्ता हालत के साथ ही उत्तर भारत में जमीनी रूप से मृतप्राय: हो चुके पार्टी के आधार की चुनौतियों को सौंप रही हैं। एक के बाद एक चुनाव में हार के बाद बसपा के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में नए उत्तराधिकारी को पार्टी के मूल दलित वोटरों के बीच पार्टी के प्रति फिर से भरोसा मजबूत करने की सबसे प्रमुख चुनौती होगी। इसके साथ ही पार्टी में नेताओं को जिम्मेदारी सौंप कर यह दिखाना होगा कि उन्होंने अपने पिछले प्रमुखों की गलतियों से सबक लिया है।
विदित हो कि दो दिन पूर्व ही मायावती ने लोकसभा चुनाव से पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती ने बड़ा फैसला लिया है। सांसद दानिश अली को पार्टी से शनिवार को बाहर का रास्ता दिखा दिया है। पार्टी से निष्कासन के पीछे पार्टी विरोधी गतिविधि बताया गया है। स्मरण रहे कि दानिश अली को भरी लोक सभा में भाजपा के सांसद रमेश विधूड़ी ने जातिगत टिप्पणियां कर अपमानित किया था जिस पर राहुल गांधी के अलावा किसी ने भी दानिश अली का हाथ नहीं थामा। भाजपा ने तो उल्टे रमेश विधूड़ी को राजस्थान में एक बड़ी भूमिका देकर सम्मानित ही किया।
यह सब देखते हुये यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि मायावती ने बहुजनों और मुस्लिमों को एक प्रकार से मुक्त कर दिया है कि जिसकों जहां जाना है, वह वहाँ अब बिना किसी उलझन के जा सकता है। इस प्रकार की मुक्ति निसंदेह बहुजन समाज को भारी पड़ने वाली है। वैसे इस सब के लिए बसपा अकेले जिम्मेदार नहीं है अपितु समूचा तथाकथित बुद्धिजीवी भी जिम्मेदार है। जो अपने सामाजिक हितों को किनारे करके निजी हितों के रक्षार्थ बहुजन समाज को जाति के स्तर पर निरंतर बांटने पर तुला हुआ है। ऐसे में मुझे लगता है कि बहुजन समाज को ‘एक और अम्बेडकर की तलाश’ करनी होगी।