Friday, July 5, 2024
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चाँद को छूता अमेरिकी आरक्षण का दायरा

कुछ दिन पूर्व फेसबुक पर विचरण करते समय मेरी दृष्टि अन्तरिक्ष यात्रियों की एक तस्वीर पर अटक गई। इस तस्वीर में चार व्यक्ति थे, जिनमें एक अश्वेत पुरूष और एक महिला भी थी। जब मैं इस तस्वीर से जुड़ा पोस्ट पढ़ा तो उसे शेयर किये बिना न रह सका। यह पोस्ट नितिन त्रिपाठी की थी। […]

कुछ दिन पूर्व फेसबुक पर विचरण करते समय मेरी दृष्टि अन्तरिक्ष यात्रियों की एक तस्वीर पर अटक गई। इस तस्वीर में चार व्यक्ति थे, जिनमें एक अश्वेत पुरूष और एक महिला भी थी। जब मैं इस तस्वीर से जुड़ा पोस्ट पढ़ा तो उसे शेयर किये बिना न रह सका। यह पोस्ट नितिन त्रिपाठी की थी। इस फ़ोटो में अमेरिका के चार अंतरिक्ष यात्री थे, जो अगले साल चंद्रमा पर जाने वाले हैं। पचास वर्षों बाद फिर से चंद्रमा पर मनुष्य टहलेंगे, इस बार उनका उद्देश्य भविष्य की कॉलोनी बनाने का है। इस फ़ोटो में एक महिला और एक ब्लैक पुरुष है। ऐसा नहीं है कि यह दोनों सबसे काबिल थे, पर डायवर्सिटी दिखाते हुए इस बार चंद्रमा पर एक महिला और एक ब्लैक पर्सन को भेजा जाएगा, ताकि  इतिहास रचा जा सके।

आप अक्सर पढ़ते होंगे, लोग अमेरिका इस लिए जाते हैं क्योंकि वहाँ आरक्षण नहीं है। हक़ीक़त में वहाँ यद्यपि आरक्षण जैसा शब्द नहीं है, पर अफर मेटिव एक्शन, डायवर्सिटी के नाम पर सरकारी नौकरियों छोड़िए, अंतरिक्ष में भेजने तक में आरक्षण होता है। प्राइवेट में भी हर कंपनी पर प्रेशर होता है कैसे भी कर वह डायवर्सिटी मैंटेन रखे, कंपनी के अंदर हर रंगों के और हर जेंडर के लोग दिखें। हक़ीक़त में उच्च शिक्षा में भारतीय मूल के लोग पिसते हैं। सबसे ज्यादा नंबर कम्पटीशन में यही लाते हैं, पर यूनिवर्सिटी पूरी ब्राउन कलर की नहीं होनी चाहिए। डायवर्सिटी होनी चाहिए। तो ऐसा भी हो सकता है कि भारतीय छात्र नब्बे प्रतिशत लाये एडमिशन न मिले और ब्लैक स्टूडेंट पचास में एडमिशन पा जाये. हाँ वर्ग बदलते रहते हैं. कभी ब्लैक के लिए विशेष सुविधाएँ थीं, फिर भारतीय, चीनी के लिये आईं, फिर महिलाओं के लिए, अब एलजीबीटी के लिये।  भारतीय- चीनी तरक़्क़ी कर अब इस आरक्षण की दौड़ से बाहर हैं अपर क्लास हो गये हैं

भारत के परिप्रेक्ष्य में भी आरक्षण कहीं जाने वाला नहीं है। बस वर्ग बदलते रहेंगे। पहले एससी,एसटी था, फिर ओबीसी आया, फिर महिला फिर ईडब्लूएस, भारत की तो बड़ी समस्या संवैधानिक आरक्षण नहीं, ग़ैर संवैधानिक आरक्षण है। आप डोनेशन देकर एडमिशन पाते हैं – आरक्षण है। नेता जी, उनके चमचे, उनके फ़ोन करने पर आपको सुविधा मिलती है, आरक्षण है। आप सरकारी कर्मी हैं, पुलिस में हैं, आप जुगाड़ कर ले जाते हैं, आरक्षण है। आप रिश्वत देकर काम कराते हैं, आरक्षण है। ग़ैर संवैधानिक आरक्षण और यह आरक्षण जाने वाला नहीं है।  दुनिया में किसी देश में नहीं गया, यहाँ तो अभी आरंभ है। तो जो बच्चे आरक्षण का रोना रोते हैं, उन्हें समझ लेना चाहिए मानवीय समाज और आरक्षण एक सिक्के के दो पहलू हैं। लाइक इट ऑर  हेट इट ये जाने वाला नहीं, अपने को इस योग्य बनाइए कि जिस लेवल पर हैं, उन्नति कर सकें। यही एकमात्र तरीक़ा है। धरती पर सारी दुनिया के मनुष्य ऐसे ही जीते हैं- नितिन त्रिपाठी’

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बहरहाल मेरे शेयर किये गए पोस्ट पर पर सिर्फ दो-तीन कमेंट आया, जिनमें  सबसे खास कमेंट रहा मेरे विद्वान मित्र सुब्रतो चटर्जी का,जो  मेरे किसी भी पोस्ट पर अपनी राय देने से नहीं चूकते हैं। चटर्जी साहब का कमेंट रहा,’ ‘ब्लैक होने के कारण नहीं भेज रहा है, योग्यता के लिए भेज रहा है। जवाब में मैंने लिखा,’ और अगर विविधता नीति के तहत एक ब्लैक और एक महिला को भेजा जा रहा हो, तब आपकी राय क्या होगी?  ऐसी नीति बनाने वाले अव्वल दर्जे  के बेवकूफ कहलायेंग , जो कि अमेरिकन लोग नहीं हैं,’ जवाब रहा चटर्जी साहब का। दरअसल प्रतिनिधित्व में कम, मेरिट में अतिशय विश्वास करने के कारण मुख्यधारा के भारतीय विश्वस ही नहीं कर सकते कि अमेरिका जैसा  देश अपने देश के वंचितों के बहिकार के दूरीकरण एवं अपने लोकतंत्र की बेहतरी के लिए कथित मेरिट पर डायवर्सिटी के रूप में क्रियाशील आरक्षण को तरजीह दे सकता  हैं। ऐसे लोग इसलिए भी नासा जैसे सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्थान में आरक्षण की कल्पना नहीं कर सकते क्योंकि भारत की शान बार्क(भामा एटमिक रिसर्च सेंटर) और इसरो (इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाईजेशन) में आरक्षण कठोरता पूर्वक निषिद्ध है। भारतीय  वैज्ञानिक संस्थानों में  मेरिट के समक्ष विविध सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व पूरी तरह उपेक्षित है.लेकिन नासा (नेशनल एयरोनॉटटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्टरेशन), जिसके समक्ष बार्क और इसरों की स्थिति प्राइमरी स्कूल जैसी है, मेरिट की जगह वंचित नस्लीय समूहों के प्रतिनिधित्व को तरजीह देता है।

वर्तमान में नासा 1972 के बाद चाँद पर फिर से मानव को भेजने के लिये ‘आर्टेमिस कार्यकम’ चला रहा  है। जानकारों का मानना है आर्टेमिस मिशन स्पेस एक्सप्लोरेशन के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत करने वाला है। इस मिशन को भेजने से पहले नासा दो और मिशन को चांद पर रवाना करेगा, जिनका काम मून लैंडिंग में उपयोग होने वाली जरूरी तकनीकों का टेस्ट करना है। इन दोनों की सफलतापूर्वक टेस्टिंग के बाद नासा की योजना आर्टेमिस मिशन के जरिए सफलतापूर्वक एस्ट्रोनॉट को सतह पर उतारना है। इसके पश्चात चांद की सतह पर लूनर बेस या लूनर विलेज को तैयार किया जाएगा।बहरहाल आर्टेमिस मिशन के तहत जिन चार लोगों को चांद पर भेजने के लिए चयन किया गया है, उनमे से एक महिला और एक अश्वेत यात्री हैं, जिन्हें लेकर आज दुनिया भर में फिर अमेरिका की डायवर्सिटी अर्थात आरक्षण नीति चर्चा में है।

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नासा ने जो ‘डायवर्सिटी पालिसी’ बनाई है उसके तहत, उसके हर विभाग में अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले कर्मियों को बढ़ावा दिया जाता है। अपनी विविधता नीति के विषय में नासा का कहना है,’ हम विविधता को मोटे तौर पर भिन्नताओं और समानताओं के संपूर्ण ब्रह्मांड के रूप में परिभाषित करते हैं। इसके अतिरिक्त, हम समावेशन को संगठनों और व्यक्तियों की पूर्ण भागीदारी, संबद्धता और योगदान के रूप में परिभाषित करते हैं। सभी के लिए समावेशन और सम्मान के माहौल को बढ़ावा देकर, हम न केवल हमारे अंतर्निहित मतभेदों बल्कि प्रत्येक व्यक्ति की शैलियों, विचारों और संगठनात्मक योग दानों के बीच समानताओं और मतभेदों द्वारा प्रदान की जाने वाली शक्तियों को महत्व देना और सराहना करना जारी रख सकते हैं। यह बदले में नवाचार, रचनात्मकता और कर्मचारी जुड़ाव को बढ़ावा देगा।’ बहरहाल नासा डायवर्सिटी पालिसी के तहत अपने हर विभाग में में अलग-अलग पृष्ठभूमि वाले कर्मियों को बढ़ावा देने का जो उपक्रम चलाया, उसका अपवाद अन्तरिक्ष यात्री दल भी न हो सका।

1980 के दशक के दौरान इसने लगभग 90 अन्तरिक्ष यात्रियों को अन्तरिक्ष में भेजा, जिनमे लगभग 10 प्रतिशत अश्वेत रहे। 1990 के दशक में यह संख्या 11 प्रतिशत तक बढ़ गयी, जब नासा ने 100 से अधिक अमेरिकी अन्तरिक्ष यात्रयों को लॉन्च किया। बाद में 2000 के दशक में एक रिकॉर्ड ऊँचाई हासिल की, जिसमे इसके द्वारा लॉन्च किये गए लोगों में अश्वेतों की संख्या 20 प्रतिशत तक पहुंच गयी। इसके बाद अश्वेत अन्तरिक्ष यात्रियों की संख्या में गिरावट आने का क्रम शुरू हो गया और यह संख्या 16 प्रतिशत तक आ गयी। 2012 से 2019 के बीच नासा ने एक भी अश्वेत अन्तरिक्ष यात्री को स्पेस में नहीं भेजा। इसी दौर में डोनाल्ड ट्रम्प का कुख्यात दौर आया, जिसमे ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन ’ के नाम पर अश्वेतों की  भारी उपेक्षा हुई।  बहरहाल इस उपेक्षा पर जो बाईडेन की नजर पड़ी और अब चाँद पर भेजे जाने वाले अन्तरिक्ष दल में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन हो रहा है, जिसके तहत एक ब्लैक भी उस दल में दिखाई पड़ रहा है। किन्तु 2008 में ओबामा द्वारा चार्ल्स बोल्डेन के रूप में नासा का पहला प्रशासक बनने के बावजूद अन्तरिक्ष यात्री दल में बलैक्स की स्थिति उतना संतोष जनक नहीं जितना उद्योग – व्यापर, फिल्म-टीवी जैसे मनोरंजन उद्योग, खेल कूद में है।

जिस तरह आरक्षण के देश भारत, जहां की अम्बेडकरी आरक्षण प्रणाली उधार लेकर ही अमेरिका ने अपनी रेसियल डायवर्सिटी के प्रतिबिम्बन के जरिये  रेड इन्डियंस, हिस्पानिक्स, एशियन और अफ़्रीकी मूल के कालों को  आरक्षण सुलभ कराया है उस भारत के बार्क और इसरो जैसे वैज्ञानिक संस्थानों में कोई आरक्षण नहीं है। ऐसे में बार्क और इसरों की स्थिति देखते हुए कहा जा सकता है अमेरिका ने अपने देश के अल्पसंख्यक के रूप में दर्ज  30 प्रतिशत वंचित नस्लीय समूहों के आरक्षण को चाँद पर पंहुचा दिया है। वहां हार्वर्ड यूनिवर्सिटी जैसी छोटी बड़ी सभी शिक्षण संस्थाएं वंचित नस्लीय समूहों के छात्रों के प्रवेश, टीचिंग स्टाफ की नियुक्ति में डाइवर्सिटी के तहत आरक्षण देती हैं। वहां हॉलीवुड में न सिर्फ एक्टिंग, बल्कि स्क्रिप्ट लेखन, डायरेक्शन, म्यूजिक, फोटोग्राफी इत्यादि फिल्म की सभी विधाओं में आरक्षण है। वहां वाल मार्ट स्टोर्स, ऑक्सन मोबाइल,  जनरल मोटर  जैसी ‘फार्च्यून -500’ की कम्पनियां न सिर्फ अपने वर्कफ़ोर्स, बल्कि सप्लाई, डीलरशिप इत्यादि में भी आरक्षण देती है। वहां के मीडिया संस्थान अल्पसंख्यकों को सम्पादकीय, फोटोग्राफी, रिपोर्टिंग इत्यादि समस्त प्रभागों में आरक्षण देते  हैं।

भारी दुःख की बात है कि आरक्षण के लिए बदनाम भारत के दलित, आदिवासी ,पिछड़े और अल्पसंख्यक अमेरिका के सर्वव्यापी आरक्षण से प्रेरणा लेकर आरक्षण का दायरा शक्ति के समस्त स्रोतों अर्थात नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप, सड़क-भवन निर्माण के ठेकों, पार्किंग-परिवहन, शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ के लिए बंटने वाली धनराशि, ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, संसद और विधान सभा की सीटों तक प्रसारित करने की लड़ाई नहीं लड़ सके। जबकि इस दिशा में लड़ाई लड़ने के लिए बहुजन डायवर्सिटी मिशन जैसे लेखकों के संगठन की ओर शताधिक किताबें और हजारों लेख लिखे गए। कुछ  बहुजन बुद्धि जीवियों और छोटे-छोटे नेताओं ने भी इसके लिए अलख जगाई। फलतः आज झारखण्ड में 25 करोड़ तक ठेकों में आरक्षण लागू  है, तमिलनाडु के 36 ,000 मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में दलित आदिवासी,पिछडो और महिलओं के आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो चुका हैं। उधर कुछ गैर दलित- आदिवासी आरक्षित वर्ग के लोग हैं जो सत्ता की शह पाकर दलित- आदिवासियों के आरक्षण में घुसने में सर्वशक्ति लगा रहें हैं। काश! ये अमेरिका की आरक्षण से प्रेरणा लेकर सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, पुरोहितगिरी, मीडिया, संसद- विधानसभाओं से लेकर बालीवुड- बार्क और इसरो तक में आरक्षण की लड़ाई में सर्वशक्ति लगाते।

अंत में! चाहे मोदी जैसे लोग आरक्षण के खात्मे में भले ही सारी ताकत लगा लें, प्रस्तुत पोस्ट के लेखक नितिन त्रिपाठी के शब्दों में आरक्षण रहेगा ही रहेगा। अपनी ओर से इसमें यही जोड़ना चाहूँगा कि कोई रोकने की लाख कोशिश कर ले भारत में भी एक दिन आरक्षण जमीन से आगे बढ़कर चाँद तक पहुंचेगा ही पहुचेगा। ऐसे में सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों, न्यायपालिका और प्रमोशन में आरक्षण के लिए उर्जा लगाने वाले बहुजन योद्धा सर्वव्यापी आरक्षण के लिए भी  स्वयं को तैयार करें।

 

गाँव के लोग
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