कुछ जिस्म जले थे/कुछ लिबास जले थे। चीखें अब भी दीवारों पर/दौड़ती फिरती हैं। जाने किसने आग लगाई/जाने किसने रात जलाई
15 अगस्त सन 1947 को भारत आजाद हुआ, जिसका जश्न आज भी हमारा देश खुशी और गर्व से मनाता है। पर सन 1947 में जहां एक ओर आजादी जैसी खुशी मिली वहीं देश को टुकड़ों में बंटने का दर्द भी झेलना पड़ा था। अंग्रेज जाते-जाते अपनी विभाजन कारी नीति से देश को भारत और पाकिस्तान में बांटने में सफल हो गये थे। दरअसल 1947 से पहले ही अंग्रेजों को यह समझ में आ गया था कि अब ज्यादा समय तक वह भारत में नहीं रह सकते तब उन्होने अन्तिम हथियार “फूट डालो” की नीति को बनाया। इस नीति के तहत जहां वह एक ओर कांग्रेस को अपने विश्वास में लिये रहे वहीं मुहम्मद अली जिन्ना को भी लगातार मुस्लिम हितों को लेकर उकसाते रहे। जिन्ना को जब यह समझ में आ गया कि भारतीय रजनीति में अपना कद बहुत नहीं बढ़ापायेंगे तब अंग्रेजों के सुझाव पर उन्होने मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग शुरू कर दी और कांग्रेस को चुनौती देने के लिये मुस्लिम लीग की स्थापना की। मुस्लिम लीग बनने के साथ ही पूरे भारत में सद्भावना की नीव हिल गई। अंग्रेजों से लोहा ले रहे हिन्दू मुसलमान अब खुद ही एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे। सन 1946 में मुस्लिम लीग ने अपनी मांग को लेकर तेज आन्दोलन छेड़ दिया । सिन्ध और बंगाल में हिन्दुओ का बड़ी तादाद में कत्लेआम किया गया। कलकत्ता (अब कोलकाता) में भयानक दंगे हुये जिसमें दोनों कौमों के पांच हजार से ज्यादा लोग मारे गये।
इस दंगे ने हिन्दू मुस्लिम एकता को पूरी तरह से छलनी कर दिया। अब तक जहां बहुत से भारतीय नेता, जो देश के बंटवारे के समर्थन में नहीं थे, वह भी हिल गये थे। उन्हें डर लगने लगा था कि अगर बंटवारा नही माना गया तो देश गृहयुध्द की स्थिति में आ जायेगा। 1947 तक यह स्पष्ट हो गया कि देश भारत और पाकिस्तान नाम के दो मुल्कों में बिभाजित होकर रहेगा।
भारत का विभाजन माउंटबेटन योजन के अन्तर्गत, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम-1947 के आधार पर किया गया। जिसमे कहा गया कि 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य को मान्यता देकर ब्रिटिश सरकार सत्ता हस्तानांतरित कर देगी। अंग्रेजों ने यह पहले ही भांप लिया था कि,“भारत में विभाजन को लेकर कोई एक राय नहीं बन पायेगी” जिसका फायदा उठाते हुये उन्होने स्वतंत्रता अधिनियम के साथ एक खतरनाक मसविदा भी जोड़ दिया कि,“भारत के 565 रजवाड़े अपनी इच्छानुसार भारत या पकिस्तान के साथ जा सकते हैं या अपनी स्वतन्त्र सत्ता और प्रभुता बनाये रख सकते हैं”।
भारत के हिस्से में आये ज्यादातर रजवाड़ों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर भारत के साथ रहने की सहमति दे दी, पर हैदराबाद, भोपाल, त्रावणकोर, जूनागढ़ और कश्मीर ने उस वक्त भारत के साथ जाने के बजाय अपनी स्वतन्त्र सत्ता की बात शुरू कर दी।
यह भारत के लिये एक मुश्किल घड़ी थी जहां एक तरफ कई रियासतें साथ नहीं आ रही थी, वहीं दूसरी ओर पूरे भारतीय हिस्से में “मुसलमानों पाकिस्तान जाओ” का नारा गूंज रहा था और पाकिस्तान के हिस्से से हिन्दुओं को बेदखल करती हिंसक साजिशें चल रही थी। देश का विभाजन तय हो चुका था बस बाकी रह गई थी सबसे त्रासद कथा जिसे धर्मों की आग पर लिखा जाना था। दो धर्म जो सदियों की नफरत से निकलकर एक दूसरे के साथ मुहब्बत और सद्भावना की सीढ़ियां चढ़ने लगे थे, उस मुहब्बत और सद्भावना को मुस्लीम लीग के राजनीतिक षड़यंत्रों ने विभाजन के रास्ते पर धकेलकर अपाहिज बना दिया।
मुल्क नहीं मन बांट दिया गया था। लोगों की अदला-बदली शुरू हुई। जाने ही कितने लोग अपनी मातृभूमि की जड़ों से काट दिये गये। ज़िन्दा लाशों की तरह लोग आजादी के आंसू बहाते हुये विभाजक रेखा पार कर रहे थे।
इस पलायन में तकरीबन पांच लाख से ज्यादा लोग मारे गये और लगभग डेढ़ करोड़ लोग अपनी जमीन से विस्थापित हुये। यह विस्थापन इतना भयानक था कि विस्थापित लोगों की ज़िन्दा पीढ़ियां आज भी उस वाक्ये पर भावुक हुये बिना नही रह पाती।
इस दर्द को कई बार और कई-कई तरह से हिन्दी सिनेमा के साथ पाकिस्तानी सिनेमा ने भी पर्दे पर उतारा है। इतिहास यात्रा की इस परिघटना ने हिन्दी सिनेमा को कुछ महत्वपूर्ण फिल्में दी हैं। जिनमें विस्थापन की व्यथा-कथा बहुत ही मार्मिक तरीके से दर्ज है। आंखो में इतना खौफ़ है कि स्वतन्त्रता के लिये लड़ी गई हर लड़ाई उनके लिए बेमानी बन चुकी है, कहीं यह आवाजें दर्ज हैं कि “हम अपनी पुश्तैनी जमीन छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे, मरना ही आजादी का सबब है तो क्यों ना यहीं बाप-दादा की कब्र के साथ जमींदोज हो जायें” तो कहीं यह भी दर्ज है कि “जो मजहब के हिसाब से सीमा नहीं बदलेगा उसे मारना ही अब राष्ट्रधर्म होगा” । लाहौर में हिन्दू और सिक्ख काटे और जलाये जा रहे थे तो भारत में मुसलमान नफरतों की धार पर कत्ल हो रहे थे। विभाजक रेखा मरघट बन चुकी थी ।
कुछ फ़िल्मों ने किसी जरूरी गवाह की तरह इस भयावह इतिहास को समेटने की कोशिश की है। जिनमें से कुछ ने क्लासिक कल्ट होने का दर्जा पा लिया है तो कुछ तथ्यात्मक रूप सेइतिहास को समझने के लिए जरूरी हैं, जिन फ़िल्मों में उस विभाजन के दर्द की परछांइयां आज भी सरगोशियां कर रही हैं, आइये उनसे आपका तआरूफ करवाते हैं –
1-लाहौर (1949)-एमएल आनंद निर्देशित लाहौर पहली फिल्म है जिसमें विभाजन का दर्द दिखता है। नर्गिस और करन दीवान इस फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। इस फिल्म में नायक अपनी अपहृत पत्नी को लाने के लिये पाकिस्तान जाता है। इस फिल्म में सिनेमा के पर्दे पर पहली बार विभाजन के बाद उपजे हालातों को रेखांकित किया गया है ।
2- बेली (पाकिस्तान -1950)– विभाजन के साथ ही लाहौर की फिल्म इण्डस्ट्री भी लगभग उखड़ चुकी थी। लाहौर में विभाजन से पहले दो स्टूडियो थे लेकिन उन दोनों के मालिक हिन्दू थे, जिन्हें सिर्फ़ पाकिस्तान से बेदखल ही नहीं किया गया बल्कि उनके स्टूडियो भी जला दिये गये थे। भारत से पाकिस्तान जाने वाले सिनेकारों ने फिर से फिल्म की उखड़ी सांसों को ना सिर्फ़ सम्भालने की कोशिश की बल्कि सन 1950 में हीफिल्मबेली बनाकर विभाजन की त्रासदी को दिखाने की कोशिश भी की । इस फिल्म को सआदत हसन मंटो ने लिखा और मसूद परवेज़ ने निर्देशित किया था। मंटो जो भारत से ही गये थे उन्होनें दोनों मुल्कों को आइना दिखाने के लिये यह फिल्म लिखी थी पर यह विभाजन के तुरन्त बाद बनी थी, जिस वजह से यह मरहम बनने के बजाय जख्म कुरेदने वाली फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में शाहिना गज़नवी, मो॰ इस्माइल, साबिहा खानूम, सन्तोष आदि थे।
3– करतार सिंह (पाकिस्तान 1959)– पाकिस्तान में विभाजन पर बनी यह सबसे महत्वपूर्ण फिल्म है। पंजाबी भाषा में बनी इस फिल्म में एक सिक्ख द्वारा एक मुस्लिम परिवार को सुरक्षित रखने की कोशिश है। त्रासद समय में यह एक बुरे आदमी के हृदय परिवर्तन पर भी शिद्दत और संवेदनशील तरीके से अपनी बात रखती है। सैफ़ुद्दीन सैफ़ निर्देशित इस फिल्म ने विभाजन के मुद्दे पर काफी सुर्खियां हासिल की थी। इस फिल्म में अलाउद्दीन, मुसर्रअत नाज़िर और सुधीर मुख्य भूमिकाओं में हैं।
4– छलिया (1960)- मनमोहन देसाई की इस फिल्म में राज कपूर, नूतन, प्राण और रहमान मुख्य भूमिका में थे।इन्द्रराज आनन्द की लिखी इस फिल्म में एक परिवार के लाहौर से दिल्ली आने की यात्रा और उसके जीवन संघर्षों की दास्तां दर्ज है।
5- धर्मपुत्र (1961)– यश चोपड़ा निर्देशित इस फिल्म में मुख्य भूमिका में अशोक कुमार, शशी कपूर, रहमान, माला सिन्हा और मनमोहन कृष्णा थे । आजादी के पहले और बाद की परिस्थितियों को दर्शाती इस फिल्म में एक बिनब्याही मुस्लिम मां और उसके पुत्र की दास्तां दर्ज है । मन के सूक्ष्म विश्लेषण करती यह फिल्म दिखाती है कि समय की त्रासदियां किस तरह से जिन्दगी को आराजक और हिंसक बना देती हैं।शशी कपूर इस फिल्म में एक कट्टर हिन्दू चरित्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। यह फिल्म आचर्य चतुरसेन के एक उपन्यास पर बनी थी।
6- लाखों में एक (पाकिस्तान 1967 ) – रज़ा मीर की फिल्म “लाखों में एक” पाकिस्तान में विभाजन पर बनी प्रमुख फिल्मों में से एक है। लाखों में एक की मुख्य कहानी विभाजन के 20 साल बाद की हैलेकिन इस प्रेम कहानी के पार्श्व में 1947 की घटनाएं ही कथानक का मुख्य हिस्सा हैं।
7- गरम हवा (1973) – एम॰ एस॰ सथ्यू निर्देशित इस फिल्म में बलराज साहनी, फारुख शेख, गीता सिध्दार्थ, बदर बेगम, दीनानाथ जुत्सी आदि मुख्य भूमिका में हैं। इस्मत चुग़ताई की एक अप्रकाशित लघु कहानी पर आधारित इस फिल्म को कैफी आजमी और शमा जैदी ने लिखा है।
यह फिल्म 1947 में भारत के विभाजन के बाद के एक उत्तर भारतीय मुस्लिम व्यापारी और उसके परिवार की दुर्दशा पर केन्द्रित है। फिल्म के नायक और परिवार के मुखिया सलीम मिर्जा, पाकिस्तान जाने के लिए दुविधा में हैं जहांउनके कई रिश्तेदार हैं। विभाजन की त्रासदी में घुटते सिहरते परिवार की यह पीड़ा विचलित कर देने वाली बन पड़ी हैऔर यह भारत में विभाजन पर बनी सबसे जरूरी फिल्मों में से एक है।
8-गांधी (यू के / भारत-1982)– रिचर्ड एटनबरो निर्देशित यह फिल्म महात्मा गांधी पर निर्मित बायोपिक है। जिसमें गांधी को केन्द्र में रखते हुये भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को देखने और गांधी के नजरिये को समझने का प्रयास किया गया है। इस फिल्म में विभाजन की त्रासदी को संक्षिपत रूप में किन्तु महत्वपूर्ण तरीके से दिखाया गया है। विभाजन से गांधी किस तरह से आहत होते हैं और भारत में रह गये मुसलमानों को सुरक्षा देने और भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाये रखने का उनका जो प्रयास था वह दुनिया के सामने उन्हें शान्ति दूत और महामानव तो बनाता है पर उनकी हत्या का कारण भी यह विभाजन ही बनता है। इस फिल्म में गांधी की भूमिका बेन किंगस्ले ने निभाई है। यू के की फिल्म कम्पनी द्वारा अंग्रेजी में बनाई गई यह फिल्म भारत के लिये भी एक जरूरी फिल्म की तरह है।
9- तमस (1987)– भीष्म साहनी के उपन्यास “तमस” पर आधारित यह फिल्म एक टी वी सिरीज के रूप में गोविन्द निहलानी ने बनाई थी । पंजाब की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म विभाजन की त्रासदी और विभाजन को लेकर रजनीतिक रूप से खेले गये गन्दे खेल को तार-तार कर देती है। साम्प्रदायिकता की आड़ में महाविनाश का जो खेल हुआ उसे समझने के लिये यह फिल्म एक जरूरी किताब की तरह है। इस फिल्म में ओम पुरी, अमरीष पुरी, दीपा शाही, भीष्म साहनी, दीना पाठक, मनोहर सिंह, वीरेन्द्र सक्सेना, ए के हंगल, सईद जाफरी आदि हैं।
10- सरदार (1993) – केतन मेहता के निर्देशन में बनी इस फिल्म में परेश रावल, अन्नू कपूर, वेन्जामिन गिलानी, सुहासिनी मुले, रघुवीर यादव, गोविन्द नामदेव, श्री बल्लभ व्यास, एम के रैना आदि मुख्य भूमिका में हैं। स्वतन्त्रता सेनानी सरदार बल्लभ भाई पटेल की बायोपिक (ज़िन्दगीनामा) के रूप में बनाई गई यह फिल्मविभाजन के समय उपजे तनाव को दबाने में सरदार बल्लभ भाई पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका को सामने लाती है। खुद को स्वतन्त्र घोषित कर लेने वाली रियासतों को भारत में विलय कराने का श्रेय भी सरदार पटेल को ही जाता है। इतिहास को समझने में यह एक मददगार फिल्म है।
11- 1947 अर्थ (कनाडा/भारत 1998)– दीपा मेहता की यह फिल्म हिन्दी सिनेमा की एक जरूरी फिल्म की तरह है । इस फिल्म में उन्होने ज़मीन(Earth) के विभाजन के दर्द को बेहद मानवीय मूल्यबोध के साथ और मार्मिकता से दिखाया है। इस फिल्म में आमिर खान, नन्दिता दास, राहुल खन्ना, शबाना आज़मी आदि मुख्य भूमिका में हैं।
12-ट्रेन टू पाकिस्तान (1998)– खुशवन्त सिंह के उपन्यास “ट्रेन टू पाकिस्तान” के कथानक पर बनी यह फिल्मविभाजन के बाद उपजे एक गांव का दर्द बयान करती है जहां विभाजन से पहले सिक्ख और मुसलमानों में भाईचारा था पर विभाजन के मद्देनजर सब एक दूसरे के खून के प्यासे हो चुके हैं। प्रेम कहानी के माध्यम से चलती यह फिल्म भी विस्थापन के दर्द को सामने लाती है। इस फिल्म का निर्देशन पामेला राक्श ने किया है। निर्मल पाण्डेय, रजित कपूर, मोहन अगाशे, स्मृति मिश्रा फिल्ममें मुख्य भूमिकाओं में हैं।
13 शहीद-ए- मुहब्बत बूटा सिंह (1999) – विभाजक रेखा पर लिखी गई रूमानी त्रासदी। पंजाबी भाषा की इस फिल्म का निर्देशन मनोज पुन्ज ने किया है।फिल्म में गुरुदास मान, दिव्या दत्ता, रघुवीर यादव मुख्य भूमिका में हैं।
14- हे राम (2000)– कमल हासन की यह फिल्म महत्मा गांधी की हत्या पर सन्दर्भित है। विभाजन को यह फिल्म अलग नजरिये से सामने लाती है। भारत में इस फिल्म को दर्शकों ने गैर जरूरी फिल्म की तरह से ही देखा। इस फिल्म में कमल हासन, शाहरुख खान, रानी मुखर्जी के साथ एक लम्बी स्टार कास्ट थी। आस्कर तक के लिये प्रेषित इस फिल्म को सुपरफ्लाप फिल्म का दर्जा हासिल हुआ।
15- ग़दर – एक प्रेम कथा (2001)– रूमानी अफ़शाने और जबर्दस्त एक्शन वाली यह फिल्म भारत-पकिस्तान के बंटवारे पर बनी सबसे लोकप्रिय फिल्म है। अनिल शर्मा के निर्देशन में बनी इस फिल्म में सनी देयोल ने एक कम पढ़े लिखे सिक्ख की भूमिका निभाई है जो एक मुस्लिम लड़की की जान बचाने के लिये उससे शादी कर लेता है। विभाजन के साथ धर्म को लेकर बनी संकीर्णता और एक दूसरे के देश के प्रति उपजी घृणा को इस फिल्म ने बखूबी दिखाया है। सनी देयोल के साथ अमीषा पटेल, अमरीष पुरी फिल्म की मुख्य भूमिका में हैं।
16 – पिंजर (2003)– हिन्दी की चर्चित लेखिका अमृता प्रीतम के उपन्यास पर चन्द्र प्रकाश व्दिवेदी ने कलात्मक रूप से समृध्द सिनेमा बनाया है। यह फिल्म विभाजन की त्रासदी के साथ स्त्री विमर्श पर भी ध्यान खींचती है कि,“उस समय स्त्रियों को किस तरह से वस्तुगत ढांचे में जकड़ कर रखा गया था”। यह फिल्म आज भी उतनी ही जरूरी है जितनी 2003 में जरूरी लगी थी। फिल्म में मनोज बाजपेई और उर्मिला मातोण्डकर ने बेहतरीन अभिनय से फिल्म को और भी सार्थक बना दिया है।
17- खामोश पानी (पाकिस्तान 2003)– परोमिता बोहरा लिखित यह एक पाकिस्तानी फिल्म है पर विभाजन का फलसफ़ा समेटे इस फिल्म के ज्यादातर कलाकार भारत से ही हैं। इस फिल्म का निर्देशन सबिहा सुमर ने किया है। किरन खेर, शिल्पा शुक्ला, आमिर मलिक मुख्य भूमिकाओं में हैं। यह फिल्म अधेड़ उम्र की विधवा आएशा (किरन खेर) के बारे में है, जो बच्चों को क़ुरान पढ़ाती है। वह बेबसी के साथ नई हुकूमत में अपने युवा बेपरवाह बेटे सलीम (आमिर मलिक) को एक कट्टरपंथी में बदलते हुए देखती है।
18 – पार्टीशन (कनाडा 2007)– यह एक कनेडियन फिल्म है , जिसका निर्देशन विक श्रीन ने किया है। सिक्ख और मुस्लिम के बीच की घृणा और प्रेम के सहारे विभाजन के जख्म दिखाती है यह फिल्म। जिमी मिस्त्री, क्रिस्तीन क्रुक, नबे कैम्पबेल, और इरफ़ान खान मुख्य भूमिका में हैं।
19 – क़िस्सा (2013-2015)– अनूप सिंह की इस फिल्म ने दुनिया भर में चर्चा बटोरी थी, विभाजन की त्रासदी के साथ इसमे एक और भी कथालोक जुड़ा है। जिसमें एक पिता अपनी एक बेटी को पुत्र की तरह पालता है और बाद में उसकी एक लड़की से शादी भी कर देता है। पंजाबी में बनी इस फिल्म का कथानक राजस्थानी लेखक विजयदान देथा कि कहानी से मिलता जुलता है पर सिनेमा के पर्दे पर इसे अलग तरीके से दिखाया गया है।इरफ़ान खान, टिस्का चोपड़ा, तिल्लोत्मा सोम फिल्म के मुख्य कलाकार हैं।
20- बेगम जान (2017)- निर्देशक श्रीजीत मुखर्जी की नेशनल अवार्ड जीतने वाली फिल्म राजकहिनी का हिंदी रिमेक है बेगम जान। बंटवारे के समय की यह कहानी रेडक्लिफ लाइन बनाने की उस प्रक्रिया से गुजरती है जिसमें विभाजक रेखा को एक कोठे के बीच से गुजरना है।
कोठे की मालकिन बेगम जान को नोटिस थमा दी जाती है कि कोठे को भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा बनाने के लिए हटाना पड़ेगा। जब कोई विकल्प नहीं बचता है तब बेगम जान और उनकी पूरी टीम विद्रोह करती है। वह उस जगह को बचाना चाहती हैं जिसे वो अपना घर कहती हैं।वह किसी भी कीमत पर अविभाजित रहना चाहती हैं । महेश भट्ट के बैनर तली बनी इस फिल्म में विद्या बालन, इला अरुण, गौहर खान, पल्लवी शारदा, प्रियंका सेटिया, चंकी पाण्डेय, आशीष विद्यार्थी आदि मुख्य भूमिका में हैं।
इन फ़िल्मों के माध्यम से हम विभाजन की त्रासदी को मानवीय मूल्यों के साथ समझ सकते हैं।
Gajab ka likhte ho sar aap .
Bahut badiya likhte ho sar aap