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मिर्ज़ापुर : ढोलक बनानेवाले परिवार अच्छे दिनों के इंतज़ार में हैं

मिर्ज़ापुर के चुनार कस्बे में ढोलक बनानेवाले तीन परिवार बताते हैं कि हमारी दाल-रोटी चल जाती है लेकिन पहले वाली बात इसमें नहीं रही। इसलिए नई पीढ़ी के बच्चे अब इस काम में कोई दिलचस्पी नहीं रखते और दूसरे काम करते हैं। सामान्य आमदनी के चलते इनमें शिक्षा के प्रति ललक भी नहीं पैदा हुई इसलिए ज़्यादातर कारीगरी से विमुख हो मजदूरी की ओर जा रहे हैं।

ढोलक की दुकान पर बैठी रेशमा बेगम से हमने यह पूछा कि रोजी-रोटी कैसे चल रही है? तब उन्होंने बताया कि ‘बहुत कठिनाई से जीवन चल पा रहा है। जितना कमाते हैं उतने में बहुत मुश्किल से गुजारा हो पाता है। बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं। लेकिन आगे जब उनकी पढ़ाई के लिए ज्यादा फीस की जरूरत होगी तब उनकी पढ़ाई छूट जाएगी। अभी तो चिंता ही दूसरी है। अगर सड़क चौड़ी हुई तब हमारा घर उसमें चला जाएगा और हमारे पास रहने को जगह न बचेगी।’

रेशमा का घर चुनार-जमुई मार्ग के किनारे है। उन्होंने बताया कि सड़क के को चौड़ा करने की बात चल रही है। हम लोग पुरानी ज़मीन पर बसे हैं। हमारे पास कागज़ नहीं है इसलिए बेघर हो जाने का डर लगा रहता है।

चुनार के सरैया मोहल्ले में रहनेवाले तीन मुस्लिम परिवारों में लंबे समय से ढोलक बनाने का काम होता आ रहा है। हालांकि पूरी तरह से ढोलक के काम पर निर्भर रहकर उनकी आजीविका नहीं चल पाती इसलिए घर के पुरुष बाहर मजदूरी के लिए जाते हैं। रेशमा बेगम के पति भी दैनिक मजदूर के रूप में अलग-अलग जगहों पर मजदूरी के लिए जाते हैं।

अपनी दुकान पर रेशमा बेगम

ढोलक के काम के बारे में रेशमा बेगम बताती हैं कि शादी के बाद यहाँ आईं तो उनकी ससुराल में ससुर ढोलक बनाने का काम करते थे। यहीं पर उन्होंने भी यह काम सीखा। सबसे पहले उन्होंने चमड़ा साफ करना सीखा। फिर ढोलक के ढांचे पर चमड़ा मढ़ना सीखा और धीरे-धीरे वह इसमें कुशल हो गईं।  हालाँकि ढोलक बनाने का काम उनके पति ही करते हैं लेकिन तैयारी की सारी प्रक्रिया रेशमा बेगम पूरी करती हैं। अब बनाने के साथ ही दुकान भी संभालती हैं। इन्हीं की तरह बाकी दो दुकानों पर भी पुरुषों की अनुपस्थिति में स्त्रियाँ दुकान संभालती हैं।

सरैया के ढोलक मिर्ज़ापुर, बनारस, चंदौली, सोनभद्र और आसपास के जिलों तक प्रसिद्ध हैं और इन जगहों से कलाकार यहाँ से ढोलक खरीदते हैं। ज़्यादातर पुरानी ढोलक भी मरम्मत के लिए यहाँ आती हैं। इस प्रकार इन तीनों परिवारों की आमदनी का जरिया बचा हुआ है लेकिन बढ़ती महंगाई ने इन्हें गरीबी की हालत में जीने को मजबूर बना दिया है।

रेशमा के चार बच्चे हैं। दो लड़कियाँ और दो लड़के। सबसे बड़ी लड़की चौदह साल की है। बेटों की उम्र बारह और दस साल है। सबसे छोटी बेटी आठ साल की है। इनके सभी बच्चे पढ़ रहे हैं। छह लोगों के परिवार में आर्थिक दिक्कतों का एक जखीरा है और उसे कम करने के लिए पति-पत्नी दोनों मेहनत करते हैं।

लकड़ी और चमड़े की गुणवत्ता के आधार पर ढोलक का दाम तय होता है। अधिकतर ढोलक कटहल की लकड़ी के बनते हैं लेकिन उच्च गुणवत्ता वाले ढोलक विजयसाल की लकड़ी के होते हैं। लकड़ी, डोरी, कड़ी, पेंट आदि सामग्री और डिजाइन आदि के अलावा चमड़े का खर्च लगाकर एक ढोलक तैयार होता है। कटहल की लकड़ी से तैयार ढोलक की लागत एक हज़ार से ऊपर बैठती है। ऐसी ढोलक दो से ढाई हज़ार रुपये तक बिक जाती है। आकार-प्रकार और बनावट के आधार पर कीमत में फर्क होता है।

लेकिन विजयसाल से बनी ढोलक महंगे होती हैं और वे पाँच से सात हज़ार तक बिकती हैं। ऐसे ढोलक प्रायः बड़े लोक कलाकार ऑर्डर देकर बनवाते हैं। रेशमा बेगम की दुकान में अधिकतर ढोलक कटहल की लकड़ी से बने हैं। आकस्मिक ग्राहकों के लिए कुछेक विजयसाल के ढोलक भी मौजूद हैं। घरों में काम-परोजन के लिए लोग सस्ते ढोलक खरीदते हैं।

वह बताती हैं कि कभी-कभी सड़क से गुजरनेवाला कोई ग्राहक ढोलक खरीद ले जाता है। इक्का-दुक्का लोग अपने पुराने ढोलक का चमड़ा और डोरी-कड़ी आदि बदलवाने भी आते हैं। महीने भर में ज़्यादातर दिन खाली ही चला जाता है जबकि किसी-किसी दिन दो तीन लोग नया खरीदने या पुराना ढोलक ठीक करवाने आ जाते हैं।

अधिकतर लोग सस्ते में खरीदने के लिए मोलभाव करते हैं। कुछ लोग तो इतना कम दाम बोलते हैं कि वह लागत से भी कम होता है। ऐसे में उन्हें यह समझाना बहुत कठिन होता है कि महंगाई बढ़ने से मैटेरियल महंगा हो गया है। इसमें कारीगरी और मजदूरी भी लगती है। अगर हमें दो पैसा फायदा नहीं होगा तो हमारा पेट-पर्दा कैसे चलेगा। इसीलिए हमलोग विजयसाल की ढोलक एक-दो से अधिक नहीं रखते क्योंकि उतना महंगा कोई लेता ही नहीं है। इसलिए जब उसका ऑर्डर मिलता है तभी हम बनाते हैं।

रेशमा बताती हैं कि एक साल में बीस-पचीस ढोलक बिक जाते हैं। कुछ आमदनी मरम्मत से भी हो जाती है। दैनिक मजदूरी से पति भी चार-पाँच हज़ार कमा लेते हैं। इस प्रकार बहुत मुश्किल से घर चलता है। यह काम इसी तरह लस्टम-पस्टम चल रहा है। अगर कोई और काम करने के लिए लोन आदि लेंगे तो काम नहीं चला और पैसे डूब गए तब कहाँ से भरेंगे। यही सब सोचकर आगे कदम नहीं बढ़ता।

पहली ढोलक मढ़ने पर ग्राहक की डांट खानी पड़ी थी

रेशमा के पड़ोसी मोहम्मद जलील दावे के साथ बताते हैं कि ‘मैं रोज पीता हूँ लेकिन घर चलाने के लिए कड़ी मेहनत करता हूँ। मेरा पिता ढोलक बनाते थे लेकिन जब मैं छोटा था तभी उनका इंतकाल हो गया और घर की ज़िम्मेदारी मुझपर आ गई। तब से ही मैं इस काम को कर रहा हूँ।’

जलील कहते हैं कि ‘मैंने जब से होश संभाला तभी से काम कर रहा हूँ। पहले मैं केवल थामता था। मुझे इसके लिए पाँच नया पैसा मिलता था। उसका मैं टाफी वगैरह खरीदकर खा लेता था। मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो पिताजी चल बसे। तभी से मैं बनाने का काम कर रहा हूँ। पिताजी के समय में ग्राहक बहुत आते थे। तब डोरी वाला ढोलक चलता था। बाद में पिताजी बीमार हो गए। उस समय जब ग्राहक आते थे तब उनसे काम हो नहीं पाता था। एक दिन उन्होंने मुझे पास बुलाया और बताया कि ऐसे-ऐसे करो। उसी दिन मैंने पहला ढोलक बनाया। उसके दो दिन बाद ही मेरे पिताजी गुजर गए।’

ढोलक मढ़ते हुये मोहम्मद जलील

जलील के बड़े भाई गलत संगत और आदतों के शिकार हो गए। उनसे घर चलाने के लिए किसी तरह कि उम्मीद करना बेमतलब था। वह उन दिनों बनारस चले गए। उनका एक बच्चा था जो जलील से कुछ ही वर्ष छोटा था। इस प्रकार घर में जलील अपने उस भतीजे और छोटी बहन के साथ रह गए।

एक दिन भरेहटा गाँव के एक पंडीजी ढोलक बनवाने आए। जलील ने अपने हिसाब से ढोलक बनाया। लेकिन वह जलील को डांटने लगे। इस पर अगल-बगल वाले हंसने लगे कि इसको सहूर नहीं है। लेकिन जब पंडीजी उस ढोलक को ले गए तो कुछ ही दिनों बाद वह बढ़िया ढंग से बजने लगा। एकदम वैसे ही जैसे उनके पिता के बनाए ढोलक बनाते थे। इस पर पंडीजी वापस जलील की दुकान पर आए और उनकी तारीफ़ करने लगे। इससे जलील का हौसला बढ़ा और वह लगातार मन लगाकर काम करने लगे।

लेकिन बाद में वह जयपुर चले गए। वह बताते हैं कि उनके भाई जलालुद्दीन ढोलक बनाते थे। उन्होंने कहा कि अब मैं ढोलक बनाऊँगा। इससे दोनों भाइयों में मनमुटाव हुआ। जलील ने उन्हें ढोलक बनाना सिखा दिया और स्वयं यह काम छोडकर जयपुर चले गए और वहाँ सात साल रहे। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि उनके ग्राहक टूट गए।

वापस चुनार लौटने के बाद जलील ने अपने पैतृक काम की बुरी हालत देखी। सारी व्यवस्था ही उलट-पुलट हो गई थी। उन्होंने फिर से पुराना काम संभाला और नए सिरे से सबकुछ ठीक किया। वह कहते हैं कि अब इस काम में सबलोग सहयोग करते हैं। इसी से पूरे गाँव कि आजीविका चलती है। दो महीने पहले उनका हाथ टूट गया था। लेकिन इसी काम से ही उनका खर्चा चलता रहा।

सरैया की ढोलक मिर्ज़ापुर के आसपास के जिलों में बहुत मशहूर है लेकिन अब पहले की तरह काम नहीं रहा

अब काम पहले की तरह नहीं रहा। इसलिए आर्थिक दिक्कतों की बात आसानी से समझी जा सकती है लेकिन जलील कहते हैं कि ‘यह ऐसा काम है जो कभी बंद नहीं होगा। यह कारीगरी का काम है। गाना-बजाना कभी कम नहीं होगा। इसलिए इससे हमारी दाल-रोटी चलती रहेगी। मैं अपने कारोबार से खुश रहता हूँ।’ उनकी दो छोटी-छोटी बेटियाँ हैं और वह उनको स्कूल भेजते हैं। वह कहते हैं कि ‘बच्चों में जो दिलचस्पी होगी वह उन्हें बनाने की कोशिश करूंगा। हम लोग कलाकार के वंशज हैं। अगर कोई बच्ची इस काम में आना चाहेगी तो मैं रोकूँगा नहीं।’

नयी पीढ़ियाँ अब इस काम से बचती हैं

नगीना बानो नाम की हंसमुख लड़की कहती है कि मैंने आठवीं तक पढ़ाई की और अब घर में रहती हूँ। आगे पढ़ने के बारे में पूछने पर वह कहती है कि मेरा पढ़ने में मन नहीं लगा। उसकी माँ बोल पड़ीं कि आगे पढ़ाने के लिए हमारे पास रुपया कहाँ है। शादी-ब्याह हो गया। अब कहाँ पढ़ेंगी। नगीना ने बताया कि ढोलक का काम मुझे बिलकुल नहीं रुचता।

नगीना की माँ नसीबुन ढोलक बनाने के काम में हिस्सेदारी करती हैं और अपनी दुकान पर बैठती हैं। वह बताती हैं कि ढोलक बनाने का काम उनकी ससुराल में बाप-दादा के जमाने से होता आया है। उनके मायके में यह काम नहीं होता था। जब वह ससुराल आयीं तो इस काम को सीखा।

अपनी बेटी के साथ नसीबुन

घर के लोग ढोलक मढ़ते थे तब वह चमड़ा साफ करने, पकाने आदि का काम करतीं। लकड़ी की सफाई करने, रेगमाल मारने, रंग चढ़ाने और उस पर पालिश करने तथा अन्य सामग्री की तैयारी करने का काम उनका ही होता है। चमड़े को सही आंच पर पकाना बहुत कौशल का काम है। उसे अच्छी तरह सिझाना पड़ता है। फिर उसका रोआं छुड़ाकर तैयार करते हैं। यह चार-पाँच दिनों की प्रक्रिया है। जब वह अच्छी तरह सूख जाता है तब उससे ढोलक मढ़ी जाती है। अच्छे पके चमड़े का टेक्सचर हल्के पीले रंग का होता है और उसकी ढोलक बहुत अच्छी बजती है।

वह कहती हैं कि अब ढोलक की बड़ी मार्केट बनारस है इसलिए ज़्यादातर लोग वहीं जाते हैं लेकिन पुराने ढोलक की मरम्मत के लिए लोग यहाँ आते हैं। लेकिन इस काम से बहुत पैसा नहीं कमाया जा सकता। वह बताती हैं कि किसी तरह दाल-रोटी चल जा रही है इसी में हम संतुष्ट हैं।

अपनी दुकान में नसीबुन

वह बताती हैं कि उनके बच्चे इमारतों में चूना-पेंट और पुट्टी लगाने का काम करते हैं। अब उनकी दिलचस्पी इस काम में नहीं हैं। उनको चमड़े से बदबू आती है। कई बार साबुन से हाथ धोने के बावजूद वे कहते हैं कि हाथ से बदबू आ रही है। इसीलिए किसी बच्चे ने इस काम को सीखा भी नहीं।

चुनार एक छोटा कस्बा है जिसमें सरैया ग्रामसभा के ढोलक बनाने वाले ये तीन परिवार अपनी कारीगरी के लिए जाने जाते रहे हैं। अब भी वे यह काम कर रहे हैं लेकिन बदलती आर्थिक परिस्थितियों ने उन पर भी दबाव बढ़ा दिया है। अब बड़े शहरों में वाद्य-यंत्रों के बड़े-बड़े स्टोर खुल गए हैं। उन सबका असर इनके कामों पर पड़ना स्वाभाविक है। जैसा कि इन परिवारों से बात करने पर पता चलता है कि अब घर चलाने के लिए वे मेहनत-मजदूरी के दूसरे काम भी करने लगे हैं।

इसके बावजूद कि उन्हें अपनी कारीगरी पर बहुत भरोसा है कि यह कभी बंद नहीं होगा लेकिन हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। अपनी दाल-रोटी को ही एक उपलब्धि मानने वाले ये लोग भले ही संतुष्ट दिखते हों लेकिन भविष्य में बढ़नेवाले दबावों के असर से बेखबर नहीं हैं।

जैसा कि जलील कहते भी हैं कि ‘हम बच्चों को कुछ बनाना चाहें तो उतना पैसा लाना एक बड़ी चुनौती होगी।’

 

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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