वाराणसी। कई बार उजड़ और उखड़ कर, बस अभी पाँव थमे ही थे कि फिर से उखड़ जाने का आदेश पारित हो गया है। यह दर्द वाराणसी के कज्जाकपुरा के मलिन बस्ती का है, जिसे आईडीएच भी कहा जाता है। तकरीबन सत्रह साल पहले, 2005 के आस-पास यह बस्ती बसी थी। 17 साल के संघर्ष के बाद इस बस्ती के लोग सिर्फ दीवार बना पाये हैं, जिसकी ऊंचाई सात फीट से ज्यादा नहीं है। इन्हीं दीवारों पर कुछ परिवारों ने सीमेंट की चादरें डाल ली हैं तो कुछ परिवारों ने बांस की खपच्चियों पर प्लास्टिक डालकर खुद को आभासी छत से ढँक लिया है। तकरीबन 40 परिवार यहाँ पर आबाद हैं और यह सभी परिवार बाल्मीकि समाज से हैं। ज़्यादातर परिवारों के सदस्य नगर निगम से सफाईकर्मी के रूप में सम्बद्ध हैं तो कुछ लोग स्वतंत्र संस्थानों में भी सफाईकर्मी के रूप में जुड़े हैं। कुछ युवा शादी-ब्याह में ढोल बजाने का काम भी करते हैं। यह दोनों ही काम जातीय विरासत के रूप में इस समाज को मिले हैं। जिससे यह बहुत चाहकर भी अब तक बाहर नहीं आ पाये हैं।
दिन के दो बजे के आस-पास जब यहाँ पहुंचा तो कुछ पुरुष और महिलाएं अलग-अलग जगहों पर बैठी हुई थी। बस्ती में लोग थे, बावजूद ऐसा लग रहा था कि यह किसी मातम में डूबी हुई है। वहाँ बैठे सागर से बात-चीत शुरू हुई, जब उन्हें पता चला कि हम पत्रकार हैं तो उन्होंने दो लड़कों से कहा कि जाओ सबको बुला लाओ। इसके साथ ही बहुत से महिला और पुरुष हमारे आस-पास इकट्ठा होने लगे। तभी एक्टिविस्ट प्रभात बाल्मीकि सरकारी नोटिस दिखाने लगे। प्रभात ने बताया कि सात तारीख को एक गाड़ी आई थी, जिससे अनाउंस किया गया कि इस बस्ती को खाली कर दें, यह बस्ती अवैध तौर पर बसी हुई है। यह भी कहा गया कि 23 नवंबर तक यह बस्ती खाली न करने पर सरकारी तौर पर इसे गिराया जाएगा और उसका हर्जाना भी वसूला जाएगा। प्रभात बताते हैं कि 16 नवम्बर को वापस नोटिस चस्पा कर दी गई। तब से बस्ती के लोग डरे हुए हैं कि अब हम यहाँ से कहाँ जाएँगे?
प्रभात कुमार ने कज्जाकपुरा से दलित बस्तियाँ उजाड़ने के मामले पर कहा कि ‘समाज हमें हेय दृष्टि से देखता है। सीवर की सफाई करने वालों का दर्द कोई नहीं समझ सकता। कड़ी धूप हो या बारिश, हमें हमारा काम करना ही पड़ता है। सबसे ज़्यादा दिक्कत बारिश में होती है, जब इलाके जलमग्न हो जाते हैं। कूड़े के डम्पिंग ग्राउंड के आसपास कैंटीन या चेंजिंग रूम जैसी सुविधाएं नहीं हैं, ताकि सफाईकर्मी अपने कपड़े बदल सकें या आराम कर सकें। अधिकतर कूड़ाघर बदबू और गंदगी से बजबजा रहे हैं। इन कूड़ा घरों में क्षमता से अधिक गंदगी भरी रहती है। कड़ी मेहनत के बावजूद हमें इतना वेतन या मानदेय नहीं मिलता कि अपने परिवार की ठीक से पोषण कर सकें। बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकें। नगर निगम के स्थायी सफाई कर्मियों का जीवनयापन तो हो जाता है लेकिन संविदाकर्मियों को परिवार पालने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।’
कैसे बसी कज्जाकपूरा की मलिन बस्ती जिसे आईडीएच कहते हैं
बाल्मीकि जिसे हेला जाति के रूप में भी जाना जाता है, के लगभग 40 परिवार यहाँ अपनी छोटी-छोटी झुग्गियाँ बनाकर रहते हैं। इन्ही के बीच रहने वाले राजकुमार बाल्मीकि बताते हैं कि इस जगह पर उनके समाज के लोग लगभग 45 साल पहले बसे थे। पहले सड़क के दोनों किनारों पर झुग्गियाँ बनाकर हमारे परिवार के लोग रहते थे। सन 2005 में जब सड़क चौड़ीकरण का कार्य किया जाने लगा तब हमारे परिवारों को वहाँ से उजाड़ दिया गया। ऐसे में हमारे लोग तत्कालीन नगर आयुक्त पुष्पपति सक्सेना के पास गए। उन्होंने हमारे लोगों को नगर निगम के अस्पताल परिसर में बसाया। तब से हमारे लोग यहाँ रहते आ रहे हैं। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनते थे तब लगता था कि शायद अब हम लोगों को भी रहने के लिए पक्का घर मिल जाएगा। कुछ भला हो जाएगा, पर पक्का घर मिलना तो दूर की बात है अब तो हमें हमारी झोपड़ी से भी बेदखल करने का फरमान सुना दिया गया है।
राजकुमार बाल्मीकि भारतीय जनता पार्टी अनुसूचित मोर्चा के मण्डल अध्यक्ष हैं। इस बात का जिक्र करने पर वह भड़क जाते हैं और कहते हैं कि ‘हमें लगा था कि मोदीजी को प्रधानमंत्री बनाकर भला हो जाएगा, इसीलिए हम पार्टी से जुड़े और अपने सभी लोगों को पार्टी से जोड़ा, पर आज खुद को ठगा हुआ पा रहा हूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि अपने लोगों को क्या जवाब दूँ?’ इतना कहते-कहते वह भावुक हो जाते हैं और प्रधानमंत्री से अपील करने लगते हैं और कहते हैं कि ‘प्रधानमंत्रीजी हम कोई मुहाजिर नहीं हैं, हम भी इस देश के नागरिक हैं। हमें भी वह हक मिलना चाहिए, जो देश के दूसरों लोगों को मिलने की बात कही जा रही है।’ राजकुमार कहते हैं कि ‘कभी सड़क चौड़ीकरण के नाम पर हमें सड़क से उजाड़ा गया था तबके आयुक्त साहब ने रहमदिली से हमें परिसर में जगह देकर बसाया था और इसका बकायदे उन्होंने लिखित आदेश भी जारी किया था, तब से किसी सरकार ने ना हमें इससे अच्छी जगह देने के बारे में सोचा ना हमें कोई सरकारी आवास ही दिया गया। जो नहीं मिला, उससे ज्यादा दुख इस बात का है कि जो है भी उसे भी अब हमसे छीना जा रहा है। सड़क से उजड़े थे, तो बस्ती में बसे थे अब बस्ती से उजड़कर कहाँ जाएँगे? यह चिंता सिर्फ राजकुमार की ही नहीं बल्कि पूरी बस्ती की है।’
स्त्रियों का डर से थरथराता मन और आक्रोश का नाद बनता तेवर
बनारस में विस्थापन का यह पहला मामला नहीं हैं, बल्कि यहाँ विकास के नाम पर विस्थापन की त्रासदकथा का इतिहास नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू हो जाता है। कभी पुलिस लाइन, राजातालब, मिर्जामुराद, चन्दापुर, बड़ा लालपुर, मवइया, लहरतारा, कैंट, नमो घाट, लहरतारा-चौकाघाट फ्लाईओवर, काशी-विश्वनाथ कारीडोर, खिड़किया बस्ती के लोग विकास के नाम पर उजाड़े गए। रेलवे की जमीन के नाम पर किला कोहना और सर्वसेवा संघ पर बुलडोजर चलाने के बाद कज्जाकपुरा के सफाईकर्मियों का आशियाना उजाड़ने की तैयारी है। कज्जाकपुरा के बस्ती के पुरुष जहां सरकार से अपने उजाड़े जाने के फैसले पर पुनर्विचार करने की बात कर रहे हैं। वहीं महिलाएं इस विस्थापन के बारे में सुनकर ही भावुक हैं और सरकार के खिलाफ बेहद आक्रोश में हैं। लक्ष्मी कहती हैं कि ‘हम जिस शहर को रोज संवारते हैं इसके किसी कोने में हमें अछूत की तरह भी नहीं रहने दिया जाता है। हमें सरकार कोई स्थायी घर नहीं दे सकती है तो कम से कम हमें हमारी इस झोपड़ी से तो ना उजाड़े। फिर जाएँ तो कहाँ जाएँ? शहर में हमें किराए पर कोई कमरा देने को तैयार नहीं होता है। सब कहते हैं कि हम अछूत हैं। कहीं भी हम अपनी जाति का नाम ले लेते हैं, तो लोग ऐसे बगल हो जाते हैं, जैसे हमारा उनके आस-पास खड़ा होना भी अपवित्र कर दे रहा हो।’ बगल में खड़ी विमला बीच में पूरे गुस्से से कहती हैं कि ‘बड़ा मोदीजी सफाई कर्मियन का पाँव धुल रहे थे और आज शहर के यही सफाई कर्मियन को उनके घर से भी निकलवा रहे हैं। शहर में जब आते हैं, तब हमारी बस्ती को कनात से ढकवा देते हैं, तभी पीछे से कोई आवाज आती है- ‘कथरी तरे ऊँट नहीं छुपत, बाकी सरकार कुछव मूँद सकत है।’ विमला का बोलना नहीं रुकता है, वह पूरे आक्रोश में कहती हैं- ‘अरे मूँदे-तोपे से भल तो यही बा की हम लोगन का मुवा ही दें।’
यह आक्रोश किसी भी माँ का सहज भाव हो सकता है, जिसने अपने बच्चों के लिए तिल-तिल कर एक घर रचा हो जिसे दुनिया भले ही झुग्गी-झोपड़ी कहती हो पर यह इनका घर है। इस घर में इनके ब्याह की स्मृतियाँ हैं, प्रसव की वेदनाएं है, वात्सल्य के किस्से हैं। इन्हीं छोटी-छोटी कोठरियों में पति के कंधों पर सर रखकर देखे हुये सपने हैं। जिन्हें कभी भी बुलडोजर मिट्टी में मिला सकता है। जब विमला कहती हैं कि ‘घर नहीं छोड़ेंगे भले ही जान दे दें तब लगभग हर औरत यही बोल पड़ती है कि जान दे देंगे पर घर नहीं छोड़ेंगे।’
अपनी जमीन अपना घर बचाने के लिए जारी है पहल
कज्जाकपुरा व नक्खीघाट के लोगों ने अपनी बस्ती को बचाने के लिए बीते 21 नवंबर मौन मार्च निकालकर नाराजगी जताई थी। इसके बाद जिलाधिकारी एस. राजलिंगम को कलेक्टर को अपना मांग पत्र सौंपा था। पत्रक के माध्यम से उन्होंने मांग उठाई है कि उजाड़े जाने से पहले उन्हें स्थायी रूप से बसाया जाए। तीन किलोमीटर के दायरे में मकान, सफाईकर्मियों को फ्री इश्योरेंस, स्वास्थ्य सुविधा यानी आयुष्मान कार्ड, बच्चों को मुफ्त शिक्षा और संविदाकर्मियों को स्थाई नियुक्ति दी जाए। बस्तीवासियों के अनुसार, वैकल्पिक आवास की मांग को लेकर वो महापौर से भी मिले थे, लेकिन से उन्हें सिर्फ आश्वासन मिला। अपनी झुग्गी-झोपड़ियों को बचाने के लिए दलित समुदाय के लोग आखिरी कोशिश कर रहे हैं।
मौन मार्च में शामिल शंकर कुमार ने कहा था कि ‘हमारा दर्द आज तक किसी ने नहीं समझा। अब हमारी बस्तियाँ भी उजाड़ी जा रही हैं। शहर के बड़े-बड़े नालों में हम घुसकर उसकी सफाई करते हैं, कचरा निकालते हैं। बाहर निकलते हैं तो ठंड से सिहर जाते हैं। हम नालों में 15-20 सेकेंड तक श्वाँस रोकर उतरते हैं, चारों तरफ गंदगी के बीच रहते हैं। सीवर में जहरीली गैसों या अंदर बह जाने का खतरा भी बना रहता है। दुर्गंध के कारण कभी-कभार हम बेहोश भी हो जाते हैं। सीवर साफ करने के लिए विभागों की मशीनें भी अब शो-पीस बनकर रह गई हैं।’
इसी क्रम में दलित फाउंडेशन के अनिल कुमार बताते हैं कि ‘जिस तरह से मणिकर्णिका घाट, खिड़किया घाट और किला कोहना में वंचित तबके के लोगों को विकास परियोजना की कीमत चुकानी पड़ी, वही हाल कज्जाकपुरा के दलित बस्ती के लोगों का भी हो सकता है। भाजपा भी सिर्फ बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर पैसे खर्च कर रही है। गरीब तबके का एक बड़े हिस्से इससे प्रभावित हो रहा है। उसकी रोजी-रोटी के मसले को सरकार पूरी तरह से अनदेखा कर रही है। खिड़किया घाट और किला कोहना से विस्थापित होने के बाद उनमें से कुछ लोग नालों, सड़क किनारें अथवा रेल लाइनों के किनारे गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। भाजपा सरकार और सम्बंधित विभागों के वायदों के बावजूद इन्हें आज तक कोई स्थायी ठौर नहीं मिला। बनारस शहर में बसने वाले इस समुदाय की सबसे बड़ी चिंता यह है कि विकास के नाम पर किसी भी दिन किसी को भी उजाड़ा जा सकता है।’
विभागीय सूत्रों की मानें तो कज्जाकपुरा-आईडीएच की दलित बस्ती इसलिए उजाड़ी जा रही है, क्योंकि अब वहाँ एक ‘यूनिटी मॉल’ बनाने की योजना है। बताया जा रहा है कि इस मॉल में सब कुछ बिकेगा। बलिया की बिंदी से लेकर भदोही की कालीन और बनारस की साड़ियाँ इस मॉल में बिक्री के लिए लाई जाएगी। मीडिया रिपोर्ट की मानें तो केंद्र सरकार ने बीते 12 सितम्बर को उत्तर प्रदेश के बनारस, लखनऊ और आगरा में ‘यूनिटी मॉल’ बनाने का ऐलान किया था। ‘यूनिटी मॉल’ में आने वाले लोगों को खाने-पीने की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए फूडकोर्ट भी खुलवाए जाएँगे। भारत सरकार ने केंद्रीय बजट 2023-24 में देश के समस्त राज्यों में यूनिटी मॉल की स्थापना का प्रावधान किया है। इस मॉल में वातानुकूलित शोरूम खोले जाएँगे। इसकी डिजाइन व डीपीआर का ब्लूप्रिंट बना लिया गया है। ‘यूनिटी मॉल’ में विभिन्न राज्यों द्वारा अपने ओडीओपी, जीआई और हस्तशिल्प उत्पादों की प्रदर्शनी और बिक्री की व्यवस्था होगी।
बनारस के एक्टिविस्ट और वकील प्रेम प्रकाश यादव कहते हैं कि कज्जाकपुरा ही नहीं बल्कि पूरे देश में दलित, अल्पसंख्यक और अति पिछड़ा समाज के लोगों को परेशान किया जा रहा है। भाजपा और आरएसएस के लोग भले ही अपनी विचारधारा का प्रचार दलित बस्तियों में कर रहे हैं, लेकिन इस समुदाय की चुनौतियाँ आज भी जस की तस कायम हैं। एक तरफ दलितों के घर में भोजन करने का ढोंग किया जा रहा है दूसरी तरफ उन्हें लगातार विस्थापित और प्रताड़ित किया जा रहा है।
वाराणसी के मानवाधिकार कार्यकर्त्ता मनीष शर्मा कहते हैं कि ‘बनारस शहर को चकाचक दिखाने के लिए जिस तरह से दलितों की बस्तियों पर बुलडोजर चलाया जा रहा है वह सरकार के उस अभियान की कलई खोलने वाला है जिसमें वह बढ़-चढ़ कर स्वच्छता अभियान चलाने की बात कर रही है।’
कज्जाकपुरा मलिन बस्ती के लोग फिलहाल इस भय के साये में जी रहे हैं की यदि उनके घर पर बुलडोजर चल गया तो वह अपने बाल-बच्चों को लेकर कहाँ जाएँगे। किसी को भान का ब्याह की चिंता है तो किसी को अपनी परीक्षा की चिंता है। इस डर से निकलने की कोई सड़क उन्हें मिलेगी या फिर क्ज्जाकपुरा के लोग वापस सड़क पर आ जाएँगे यह तो वक्त बताएगा, अभी डर है और डर के साये में जीते हुये कज्जाकपुरा मलिन बस्ती के लोग हैं ।