Friday, August 23, 2024
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ग्राउंड रिपोर्ट

सत्ता में बने रहने के लिए हर हद से गुजरने वाले जनता के मोर्चे पर शून्य हैं

खबर है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पूर्व सलाहकार बोल्टन ने अपनी किताब द वाइट हाउस मेमोयर में लिखा है कि ट्रम्प ने दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए 2019 मे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से प्रार्थना की थी। बकौल बोल्टन, ‘मेरे कार्यकाल में उन्होंने (ट्रम्प ने) एक भी ऐसा फैसला नहीं किया… जो उन्हें […]

खबर है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के पूर्व सलाहकार बोल्टन ने अपनी किताब द वाइट हाउस मेमोयर में लिखा है कि ट्रम्प ने दोबारा राष्ट्रपति बनने के लिए 2019 मे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से प्रार्थना की थी। बकौल बोल्टन, ‘मेरे कार्यकाल में उन्होंने (ट्रम्प ने) एक भी ऐसा फैसला नहीं किया… जो उन्हें दोबारा चुने जाने के लिए न हो…।’

यथोक्त वाक्यांश को पढ़ने के बाद यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि लोकतांत्रिक देशों की सरकारें चाहें जो भी काम करती हैं, वो केवल और केवल चुनाव जीतकर हमेशा सत्ता में बने रहने के लिए करती हैं… राजनेताओं का यही एक भाव है कि सत्ता में बने रहने के लिए वो जो भी अच्छे-बुरे कार्य करते हैं, वो ऐसे होते हैं कि उनसे भूल से ही जनता का कुछ भला हो जाए तो ठीक… अन्यथा अपने कुकर्मों को छुपाने के लिए सभी लोकतांत्रिक देशों के सभी सत्ता प्रमुख जनहित में दिखने वाली एक के बाद एक अनेक लोभ-लुभावन योजनओं की जो घोषणाएं करते रहतें हैं।… वो नितांत अपने आप को सत्ता में बनाए रखने के भाव से होती हैं, यह बात अलग है कि उन घोषणाओं का कुछ भाग गलती से जनता के पक्ष में दिखता रहता है और जनता विकास के मुगालते में सरकार की पक्षधर बनी रहती है। यह भी कि घोषणाओं के क्रियांवयन का होना न होना… सफलता असफलता को प्रशासन के सिर मढ़ दिया जाता है। इस प्रकार सत्ता अपने आप को अपनी जवाबदेही से मुक्त बनाए रखती है।

यथोक्त के आलोक में अपनी बात कहने से पूर्व, मैं इतना स्पष्ट कर देना अपना दायित्व समझता हूँ कि इस लेख में प्रस्तुत विषय वस्तु पूरी तरह मेरी ही विचारधारा की देन नहीं है, अपितु मैंने अपने विचारों/ सोच से मेल खाते विचारों को अपनी वैचारिक सोच के तहत प्रतिक्रिया देते इस लेख में प्रस्तुत किया है। संक्षेप में इस लेख को संदर्भ के रूप में लिया जा सकता है। गौरतलब है कि काफी अरसे से बीमार होने के कारण प्रस्तुत लेख में प्रतिक्रिया का स्तर उतना उभर कर नहीं आ पाया जितना होना चाहिए था। इसके लिए पाठकों से क्षमा चाहता हूँ। यह सब होने के बाद भी मुझे विश्वास है कि प्रस्तुत लेख में इतना सब कुछ तो है ही जिससे पाठकों को समाहित विषयों की गम्भीता को समझने में किसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा। कम से कम व्यापक संदर्भों की जानकारी जरूर मिलेगी। रुग्णावस्था के कारण, मैं इस लेख में अपनी बात के समर्थन में कुछ सीमित किंतु आवश्यक कथ्य ही दे पा रहा हूँ, शेष सुधी पाठकों को समझने के लिए छोड़ रहा हूँ।

व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमारे देश में सत्ता के मुखिया भी सत्ता में बने रहने की भावना को पुष्ट करते नजर आते हैं। अब मसला एन. पी. आर., एन. आर. सी. का  हो, धारा 370 को हटाने का हो, आरक्षण का हो, तीन तलाक के निस्तारण का हो, मसला कोरोना का हो, मसला मणीपुर में जलती मानवता का हो, मसला हरियाणा के नूंह में वर्ग संघर्ष को हो, मसला पुलवावा का हो या फिर ऐसे ही अन्य मामलों का, आज तो सरकार संविधानिक स्वतंत्र जाँच इकाईयों का विपक्षी राजनीतिक दलों के खिलाफ संविधान को किनारे करके बिना किसी भय कई निरतर प्रयोग कर रही है। संविधान और न्यायालय तो जैसे सत्ता के लिए केवल और केवल कागजी होकर रह गए है।  सत्ता ने इन मसलों के समापन के लिए जो भी काम किये हैं, उनसे यह नहीं लगता कि वो समग्र जनता के हितों को साधने वाले रहे हैं। इन सारे मसलों को हवा देने और इनके समापन के पीछे सत्ता का एक ही मकसद रहा है, और वो है – सत्तापक्ष द्वारा दलितों/ दमितो/ ओबीसी और अल्पसंख्यकों के मन में मनोवैज्ञानिक डर बिठाने का मकसद ही रहा है ताकी राजनेताअओं को उनके वोटों को अपने पक्ष किया जा सके। …अब परिणाम जो भी हों। सत्ता का एक सूत्री कार्यक्रम भी प्रथमत: यही लगता है कि जनता को चाहे जैसे भी सत्ता के खिलाफ करने का होता है और फिर कोई बजने न बजने वाला राजनितिक झुनझुना जनता को थमाकर उसके मानसिक संतुलन को पुन: बनाए रखने का एक ऐसा ड्रामा किया जाता है…जिसे नाक काटकर रुमाल से पौंछने की संज्ञा दी जा सकती है। और जनता है कि मार खाने वाले से ही दो शब्द संवेदना के सुनकर सरकार का गुणगान करने लगती है।…यहां मुझे एक अपना ही शेर याद आ रहा है जो निरिह जनता और मजदूर वर्ग की मानसिकता का सटीक चित्रण करने को काफी है…

देखकर वादों की मणिका मालिकों के हाथ में,

भुखमरी की मांग में सिन्दूर-सा भर जाता है।

पिछले कुछ सालों से यह भी देखा जा रहा कि सत्ता पक्ष के समर्थन में अनेक अन्धभक्तों का प्रादुर्भाव हुआ है। उससे पहले भी ऐसा होता था किंतु इतना विभत्स नहीं। वैसे तो समाज और अमुक राजनीतिक दल में अन्धभक्तों की कोई पैठ ही नहीं होती किंतु सत्ता पक्ष के चाटुकार बनके कुछ होने का दावा करना उनका तकिया-कलाम बन जाता है। और वे थोड़ी बहुत राजनीतिक जमीन के हिस्सेदार होने का दम भरने लगते हैं। आज के संचार युग मे कुछ चाटुकार ऐसे भी हैं जो राजनीतिक दलों के हित में आईटी सेल के जरिए उनके पक्ष में कुछ न कुछ अनाप-शनाप, झूठ और प्राप्त काल्पनिक उपलब्धियों के प्रचार की बदौलत अमुक राजनीतिक दल के चमचे बनके राजनेताओं की नज़र से गुजरना चाहते हैं अर्थात किसी न किसी तरह आकाओं की नजरों में बने रहने का प्रयास करते हैं। जातिगत विवाद, हिन्दू मुसलमान करना, जनता को आपस में लड़ाना जैसे कार्य इनकी  दिनचर्या का एक अहम हिस्सा बन जाता है?

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सत्ता पक्ष द्वारा यह सब क्यों किया जाता है… जाहिर है… केवल और केवल सता में बने रहने के लिए, और कुछ नहीं। किंतु आज इस प्रकार की जालसाजी से जनता रूबरू हो चुकी है। इतना ही नहीं, जनता राजनीतिक दलों की इस राजनैतिक मंशा से पूरी तरह अवगत हो चुकी है। किंतु अफसोस यह है कि जनता का यह आक्रोश चुनावी दौर वोट में नहीं बदल पाता ।

आज के दौर में पराभव हर क्षेत्र में ही हुआ है… चाहे वह क्षेत्र धार्मिक हो, सामाजिक हो, शैक्षणिक हो, राजनैतिक हो या फिर कोई और। राजस्थान के एक शायर हैं… संजय झालाजी…उनकी एक-दो कविता इस राजनैतिक दौर में… मेरे दिमाग में अनायास ही आ गईं। वह इसलिए भी कि संजयजी की ये कविताएं किसी न किसी तरह यथोक्त भावना को पुष्ट करती हैं। स्पष्ट कर दूं कि उनकी काव्य गद्य/ गद्य-नाट्य को काव्य के रूप में ज्यादा जाना जाता है। वैसे वो हास्य-व्यंग्य के नौजवान कवि हैं। उनकी भाषा/ बोली में अजीब-सा ओज होता है। उनकी पहली कविता है…..

साथियो!…हमारा अपराध यही है

कि हम पढ़-लिख गए

तब ही तो गवर्न्मेंट के सरवेंट हैं…

और…न पढ़ते-लिखते तो गवर्न्मेंट होते।

इस कविता से नेताओं की शैक्षिक योग्‍यता और मानवीय दृष्टिकोण का स्वत: ही खुलासा हो जाता है। मैं समझता हूँ कि इस कविता का अर्थ जितना गूढ़ है, इस कविता के शब्द उतने ही सरल हैं  जो आम आदमी की समझ में आसानी से आ जाएं। इस कविता के जरिए उन्होंने शायद यही सिद्ध करने का प्रयास किया है कि जनता का शिक्षित होना और राजनेताओं का अशिक्षित होना देश को उस अंधेरे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है, जहां उजाले के लिए जगह ही नहीं बचती। मौजूदा राजनीति इसी का जीता-जागता प्रमाण है। उनकी दूसरी कविता है…

डाकुओं का एक शीष्टमंडल

अपनी जनसेवा से निवृत्त होकर

सिविल लाइन स्थित अपने आवास जा रहा था

बीच में एक तवायफ का कोठा आ रहा था

यह देखकर कई शरीफों का मन पिघला था

क्योंकि वो कोठा शरीफों की कोठियों निकला था

इस पर एक जूनियर डाकू ने सीनियर डाकू से कहा

सरदार…सरदार…यहाँ…एक करारी…कटारी रहत है

ग़र हुक्म होए तो एक रात यहाँ काटी जाए

सीनियर सरदार ने जूनियर डाकू के कंधे पर धौल जमाया

और कहा –

शंभू तुम तनिक यहाँ ठहरो

हम अभी आत हैं

सरदार ऊपर गया और

दो मिनट में ही लौट आया

और शम्भू से बोला

अरे! शम्भू तुम्हारी जेब के कुछ पैसा है का… निकाल तो

यह सुनकर शम्भू को गुस्सा आया और

बोला…इस छिनाल ने हमारे सरदार से पैसा मांगा

(तवायब ऊपर से देख रही थी)

…ईका अपनी जान प्यारी नाही है का?

जिन्दगी की हेटी है का?

सरदार बीच में ही बोल पड़ा…

सही कहा रे शम्भू…ये जिन्दगी की हेटी है

पर हम इसे कुछ भेंट देना चाह रही

क्योंकि ये हमारे गाँव की बेटी है

शम्भू बोला-

कहा कहत तो सरदार

ये कलियुग है… कलियुग… त्रेता नाही

सरदार बोला….ठीक कहा रे शम्भू

किंतु…हम…डाकू हैं डाकू

साधु…या…नेता नाही।

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हरियाणा के ही चिरपरिचित कवि हैं… अरुण जैमनी जी… उनकी अधोलिखित कविता सोशल मीडिया पर अच्छी-खासी वायरल हो रही है। उस कविता एक अंश कुछ इस प्रकार हैं :-

अभी वो कह रहे थे…

एक जापानी वैज्ञानिक ने कहा कि

हमने एक जापानी की किडनी बदली थी

और वो छह घंटे में ही काम-धन्धा ढूंढने लगा…

जापानी की बात सुनकर जर्मनी का वैज्ञानिक बोला…

हमने तो एक आदमी का हर्ट बदला था

और वो दो घंटे मे ही काम-धन्धा… ढूंढने लगा

इतना सुनकर, एक भारतीय बोला…

…हमने तो एक आदमी बदला था बस…

…पूरा देश काम-धंधा ढूंढ रहा है।

यह मेरा आकलन है कि इस लेख में प्रस्तुत सभी संदर्भ जैसे यथोक्त वैचारिक भूमि से ही जन्में हैं। मेरे लेख का एक-एक शब्द/ विचार उपरोक्त वर्णित शब्दों/ विचारों से ठीक वैसा ही संबन्ध है, जैसा की आज के आम आदमी का राजनीति, धर्म, सामाज और राजनीति का आपस में एक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साजिशाना संबंध है यानी ‘मुँह में राम, बगल में छुरी।’

गाँव के लोग
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