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मिट्टी और चाक ने कुम्हारों के जीवन को जहाँ का तहाँ रोक दिया है

[सामाजिक न्याय की भावना ने सदियों से ‘परजा-पौनी’ कहकर अपमानित की जानेवाली जातियों में भी अपने पेशे को बदल देने और अपनी अगली पीढ़ियों को पढ़ा-लिखाकर मुख्यधारा में एक सम्मानजनक जीवन देने की अन्तःप्रेरणा भरी है और इसी कारण से हर जाति से कुछ लोग राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा और व्यवसाय जैसे लाभजनक क्षेत्रों में […]

[सामाजिक न्याय की भावना ने सदियों से ‘परजा-पौनी’ कहकर अपमानित की जानेवाली जातियों में भी अपने पेशे को बदल देने और अपनी अगली पीढ़ियों को पढ़ा-लिखाकर मुख्यधारा में एक सम्मानजनक जीवन देने की अन्तःप्रेरणा भरी है और इसी कारण से हर जाति से कुछ लोग राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, चिकित्सा और व्यवसाय जैसे लाभजनक क्षेत्रों में गए हैं जो वास्तव में सामाजिक न्याय का एक चरण है। इसके बावजूद भारत की श्रमजीवी और शिल्पकार जातियों के मौके लगातार छीने जा रहे हैं और उन्हें किसी न किसी रूप में उनके पुराने पेशों में ढकेलने का वृहद षड्यन्त्र चल रहा है और ये जातियाँ इसका शिकार भी हो रही हैं। लाभार्थी लोकतंत्र की पूरी की पूरी अवधारणा ही इस षड्यन्त्र की पृष्ठभूमि है। कोई भी व्यवस्था या सत्ता अगर किसी समाज की पुरानी स्थिति को बनाए रखने के प्रलोभन, प्रेरणा या परिस्थिति पैदा करती है तो वह दरअसल भारत की जातिव्यवस्था बनाए रखने का एक नैतिक अपराध करती है। भारत में मिट्टी के काम करने वाले कुम्हार समाज में भी पुराने काम को अपनाए रखने की प्रेरणा पैदा की जा रही है जबकि असलियत यह है कि मिट्टी का बर्तन बनाने वाला चाक अब उनका भला करने वाला नहीं है। उन्हें शिक्षा और अन्य अवसरों की अधिक जरूरत है ताकि वे पुराने हालात से निकल सकें। चाक चलानेवालों की ज़िंदगी कितनी कठिन और अनिश्चितताओं से भरी है उसे अमन विश्वकर्मा की इस रिपोर्ट से  पढ़ा और समझा जा सकता है: संपादक]

वाराणसी। समय के साथ काफी चीजें बदली हैं, लेकिन मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की ज़िंदगी जस की तस है। इनकी आर्थिक स्थित आज भी ज़्यादा नहीं बदली। समय का पहिया रफ्तार पकड़ रहा है, लेकिन कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी होती गई है। त्योहार आने से कुम्हारों चेहरे पर थकान के साथ उम्मीद भी है। कोहराने (कुम्हारों की बस्तियाँ) का माहौल व्यस्त है और मोलभाव की आवाजें भी सुनाई देने लगी हैं। हाथों से बने बर्तन, दीए, मूर्तियाँ और अन्य समानों से घरों में बनी दुकानों का यही हाल है। दस साल पहले जिस दाम पर दीया बिकता था, बढ़ती महंगाई के साथ उसके भी दाम भले ही दोगुने हुए हैं लेकिन उसे बनाने की प्रकियाएँ और भी जटिल हो गईं हैं। दिवाली में मिट्टी का दीया समेत अन्य बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की अपनी पीड़ाएँ हैं। सरकारी योजनाएँ उनके पास पूर्णरुपेण नहीं पहुँच पाईं हैं। पुराने चाक, मिट्टी, लकड़ी का जुगाड़ कर दीया, भड़ेहर, ग्वालिन, चाक-बर्तन बनाने में मेहनताना आज भी नहीं निकल पा रहा है। बाजार में सस्ते दीए के कारण उनकी कमाई फीकी पड़ गयी है। वे कहते हैं कि सरकार से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाती है।

बाप पूत रइहन त लोहरई, घरो-बरो कोहरई।

ठेठ बनारसी अंदाज़ में इस कहावत को बोलते हुए 65 वर्षीय लल्लन प्रजापति इसका मतलब बताते हैं। वह कहते हैं, ‘लोहारों के घर में बाप और बेटे लोहरई करते हैं लेकिन कोहारों के घर में पूरा परिवार कोहरई करता है।’

लल्लन प्रजापति

पांडेयपुर की नई बस्ती में लल्लन अपने चार भाइयों के साथ बाप-दादा के समय से रहते आ रहे हैं। दो भाई अब सब्जी बेचने का काम करते हैं। लल्लन और खंजाटी लाल प्रजापति आज भी अपने पारम्परिक काम में रमे हुए हैं। आधा बिस्वा से भी कम ज़मीन पर सूखी-गिली मिट्टी, कच्चे-पके दीए-पुरवे, लकड़ी के लम्बे-लम्बे पटरे (इन पर मिट्टी के बर्तनों को धूप दिखाया जाता है) सहित लकड़ी की चाक और एक ट्रॉली इधर-उधर रखे गए हैं। एक खटिया भी है जिसमें पर दोनों भाई बारी-बारी से अपनी बूढ़ी कमर को सीधा कर लेते हैं।

लल्लन हैं कि दीवाली के लगभग एक-डेढ़ महीने पहले ही हमारे चाक की गति बढ़ जाती है। मनमाफिक मौसम न मिलने का भी असर रहता है। दीयों और पुरवों को सूखने में लगभग दो दिन लग जाते हैं। तीसरे दिन इन्हें कोयले की भट्ठी बनाकर पकाया जाता है। चार से पाँच हजार दीयों और पुरवों को सुखाने के लिए लगभग 25 किलो कोयला लगता है। उसमें चार से पाँच सौ दीए-पुरवे टूट भी जाते हैं, जिनकी मरम्मत दोबारा कर दी जाती है।

दिनोंदिन बढ़ती महंगाई पर खंजाटी प्रजापति बताते हैं कि हम कोयले से कोयला बनाते हैं। वह बताते हैं कि बाजार के कोयलों को लकर हम उसे पीसकर महीन कर लेते हैं। उसमें गोबर, राख और पानी डालकर उसका चकौड़ (कोयले की आकार का) बना लेते हैं। ऐसा करके हम पाँच किलो कोयले से 15 किलो चकौड़ बना लेते हैं। इस चकौड़ से आग अच्छी बनती है। इस काम के लिए हम लोग सुबह छह बजे से लग जाते हैं और अंधेरा होने तक काम करते हैं। आमदनी के सवाल पर वह बताते हैं- यह आमदनी सिर्फ मेरी नहीं बल्कि पूरे परिवार की है, छह से सात सौ रुपये।

कुम्हारों के पूर्वज जिस तकनीक (चाक) से मिट्टी का दीया, पुरवा, हड़िया, कलशा, गुल्लक, भड़ेहर, कसोरा, चारबाती, घरिया, घंटी, लरी समेत अन्य बर्तन भी बनाते थे। वे लोग भी उसी पुराने चाक से काम कर रहे हैं। आधुनिक युग में भी हाथ से चाक चलाना पड़ रहा है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है कि वे बिजली से चलने वाला इलेक्ट्रिक चाक ले सकें। अपनी दुर्दशा बताते हुए नईबस्ती के दिनेश प्रजापति अपना देशी चाक चलाने लगते हैं। दीवाली में मिट्टी के बर्तनों की तेजी के कारण वह ज़्यादा बात नहीं कर पाते।

दिनेश प्रजापति, रेनू और गौतम

उनके भाई गौतम प्रजापति की पत्नी और बच्चे भी इस समय काफी व्यस्त हैं। पूरा परिवार इस काम में लगा हुआ है। फिर भी परिवार की कुल आए छह से सात सौ रुपये ही हो पाती है। रेनू प्रजापति बताती हैं कि मैं दीयों पर नक्काशी गोदने का काम करती हूँ। बच्चे सूखे हुए दीयोें और अन्य बर्तनों को सहेजकर एक जगह एकत्रित करते हैं। परिवार का हर सदस्य मिल-बाँटकर इस काम में लगा रहता है। महिलाएँ अधिकतर दोपहर में ही इस काम को करती हैं। तीन से चार घंटे में वह काफी काम कर लेती हैं। उन्हें खाना भी बनाना पड़ता है।

नई बस्ती के ही राजेश प्रजापति 455 वर्षों से इस काम को करते चले आ रहे हैं। वह बताते हैं कि युवा पीढ़ी इस काम को नहीं करना चाहती है। मेरी उम्र के अधिकतर लोग अपने इस पारम्परिक काम को आगे बढ़ा रहे हैं। मेहनत न कर पाने के कारण युवा पीढ़ी इस कला को नज़रअंदाज कर रही है। इलेक्ट्रिक मशीनों के कारण विद्युत बिल इतना है कि हम वहन नहीं कर सकते।

नन्हा कुम्हार आशु, रोहित और राजेश प्रजापति

नन्हा कुम्हार आशु

नई बस्ती के कुम्हारों ने बताया कि सात से आठ साल होते ही हम बच्चों को अपने इस काम से जोड़ने का प्रयास शुरू कर देते हैं। जो बच्चा पढ़ाई करना चाहता है, उस पर हम कोई दबाव नहीं बनाते। सात वर्षीय आशु इन्हीं कुम्हारों में सबसे छोटा कलाकार है। वह इस कला को अभी सीख रहा है लेकिन दो से तीन सौ दिए या कुल्हड़ प्रतिदिन बना ही लेता है। अन्य बर्तन बनाने में उसे अभी काफी समय लगेगा। आशु बताता है कि उसे यह काम उसके पिता गणेश ने सिखाया है। पिताजी जब आराम करते हैं तो अपनी माई (माँ) के साथ वह इस काम को करता है। वह बताता है कि चलते चाक से नए दिए-कुल्हड़ को काटकर अलग करने में उसे सबसे ज़्यादा समय लगता है। उसे अभी छेवन (छोटी सी लकड़ी में बंधा हुआ एक धागा) का उपयोग सही तरीके से करने नहीं आया है।

गणेशपुर के रामसकल, गीता और नितिन प्रजापति

नहीं वहन कर सकते बिजली बिल

वाराणसी के लगभग 17 जगहों पर कुम्हारों की बड़ी आबादी रहती है। भरलाई के गणेशपुर, शिवपुर, पांडेयपुर के नई बस्ती, आशापुर, सलारपुर, पुरानापुल, चंदुआ सट्टी, कोनिया, बौलिया आदि क्षेत्रों में इनकी ठीकठाक आबादी है। प्रदेश सरकार भले ही कुम्हारों के लिए माटी कला बोर्ड के माध्यम से टूलकिट दे रही है। लेकिन इस टूलकिट को चलाने के लिए सबसे बड़ी समस्या बिजल का बिल है। नई बस्ती के सत्रह वर्षीय मोनू प्रजापति, गणेशपुर के रामू, गीता, नितिन, कल्लू, मोहन, रामराज प्रजापति ने बताया कि 2019 में उन्हें सेवापुरी में प्रशिक्षण के लिए बुलाया गया था। उस समय हमें कोई भत्ता नहीं दिया गया। प्रशिक्षण के बाद उन्हें इलेक्ट्रिक चक्का दिया गया। साथ ही 15 या 20 लोगों के समूह के लिए एक पगमिल (मिट्टी चालने और गूथने वाली मशीन) दी गई थी। वे लोग बताते हैं कि इन मशीनों में जब पानी का उपयोग हुआ तो इनमें करंट उतरने की समस्या होने लगी। कई बार हम लोग हादसे का शिकार भी हो चुके हैं। बिजली का लम्बा-चौड़ा बिल भी आ गया। हमारी कमाई भी नहीं बढ़ी और चपत भी लग गए। इसलिए हम लोगों ने बिजली मिस्त्री से उस मशीन से मिलता-जुलता एक अलग मशीन बनवा लिया। इस मशीन में काफी कम हॉर्स पॉवर का मोटर लगा हुआ है फिर भी महीने के 14 से 17 सौ रुपये आ ही जाते हैं। सरकार द्वारा दिए गए इलेक्ट्रिक चक्के के उपयोग से आठ घंटे में ढाई से तीन हजार रुपये बिजली बिल आ जाते थे। पगमिल भी इसी कारण बंद कर दिया गया है।

भरलाई की मालती, मुन्ना और दीपिका प्रजापति

बनारस के अधिकतर कुम्हारों ने ‘गाँव के लोग’ अपनी समस्याएँ बयां करते हुए बताया कि पहले की अपेक्षा उन्हें मिट्टी की व्यवस्था करने में ज़्यादा समस्या होने लगी है। देहात से शहर या गाँव में मिट्टी लाने पर सम्बंधित हर थाने-चौकी की पुलिस उन्हें परेशान करती है। एक ट्रक के पीछे उन्हें पाँच से छह सौ रुपये देने पड़ते हैं। कुम्हार बताते हैं कि यह पैसा उन्हें ट्रक वालों को देना पड़ता है। मिट्टी लदे ट्रक की एक मुश्त रकम हर तिराहे-चौराहे पर देनी पड़ती है। कभी-कभार तो मिट्टी सड़क पर गिरता देख ही पुलिस वाले नियम-कानून का भय दिखाकर दो-तीन सौ रुपये ले लेते हैं। गणेशपुर के रामसकल प्रजापति बताते हैं कि एक ट्रैक्टर मिट्टी उन्हें तीन हजार से 35 सौ रुपये में मिलती है। लगभग एक हजार रुपये पुलिस को ‘दान-दक्षिणा’ देने में चला जाता है। वह बताते हैं कि ठेकेदारों कुम्हारों के नाम पर ही मिट्टी के रेट बढ़ा देता है। अन्य लोगों को यही मिट्टी दो से ढाई हजार रुपये में मिल जाते हैं। क्यों? के सवाल पर रामसकल कहते हैं कि तब यह मिट्टी व्यावसायिक हो जाती है, इसलिए।

कुम्हारों की इन समस्याओं पर बनारस के पत्रकार शिवदास बताते हैं कि सरकार ने भले ही माटीकला बोर्ड की स्थापना कर दी लेकिन लेकिन इलेक्ट्रिक मशीनों से उठने वाले विद्युत बिल गरीब कुम्हार कैसे दे पाएगा? यह सवाल अभी भी अधर में है। वह बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में कुम्हारों के घरों में मिट्टी के बर्तन, दिए, मूर्ति आदि चीजें बनाई जाती हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी मिट्टी से बने सामान को बनाने और बेचकर आजीविका कमाने वाले परिवार समय के साथ इस काम में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। बाजार के बदलते परिवेश में कुम्हारों के द्वारा बने बर्तन और सामान की जरूरत कम हो गई है। इस वजह से पारम्परिक तौर पर काम करते आ रहे लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत बेहतर नहीं है। जब से प्लास्टिक एवं अन्य धातु से सामान बनने शुरू हुए हैं, लोगों का रुझान भी इसकी तरफ हो रहा है। प्लास्टिक के सामान की अत्याधिक बिक्री की वजह से कुम्हार बिरादरी के लोग बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं।

इलेक्ट्रिक चक्का में बार-बार हो रही समस्या से कुम्हारों ने अपना चक्का बनवा लिया, इससे बिजली भी कम खपत होती है

सामाजिक कार्यकर्ता छेदीलाल निराला बताते है मिट्टी के बर्तन बनाना भारत में सबसे पुराना व्यापार माना जाता है। एक समूह के रूप में कुम्हार खुद को प्रजापति के रूप में पहचानते है। अतीत में कुम्हार अपना सामान बेचने के लिए एक-जगह से दूसरी जगह तक जाते थे। समय के साथ यह प्रथा खत्म हो गई और मिट्टी के बने बर्तनों की जगह टिकाऊ और प्लास्टिक जैसे चीजों ने ले ली है। पारम्परिक तौर पर काम करता आ रहा कुम्हार समुदाय आज हाशिए के वर्ग की एक ईकाई है। यही वजह है कि आज की पीढ़ी इस काम से अलग रोजगार के विकल्प तलाश रही है। छेदीलाल बताते हैं कि 26 दिसम्बर, 1969 में स्वतंत्रता संग्राम सेनानी खुशहाल प्रजापति ने चकबंदी विभाग (लखनऊ) से हर गाँव में ‘कुम्भार गड्ढा’ की व्यवस्था करवाई थी। बदलते समय के साथ इस पर ठेकेदारों का पहरा हो गया। मुलायम सरकार ने कुम्हारों के लिए प्रयास किया था लेकिन वह योजनाएँ ज़मीन पर नहीं उतर पार्इं। छेदीलाल बताते हैं कि मैंने बीते 2018 में वाराणसी के शास्त्री घाट पर इसके लिए धरना के साथ पैदल मार्च निकाला था। अभी हाल ही में जिलाधिकारी एस. राजलिंगम से मुलाकात कर कुम्हारों की समस्याओं से अवगत कराया गया है। वहाँ से आश्वासन दिया गया है कि जल्द ही कुम्हारों की समस्याओं पर विचार-विमर्श किया जाएगा।

क्या कहते हैं अधिकारी

उदय प्रताप सिंहइन समस्याओं के बावत वाराणसी के जिला ग्रामोद्योग अधिकारी उदय प्रताप सिंह कहते हैं कि प्रशिक्षणार्थियों का चयन जिलास्तर पर गठित चयन समिति द्वारा किया जाता है। इस दौरान कुम्हारों को दैनिक उपयोग की वस्तुएँ बनाना, सजावटी वस्तुएँ बनाना, खिलौने एवं मूर्तियाँ, मिट्टी के उत्पादों पर कटिंग, पच्चीकारी, चित्रकारी और नक्कासी आदि विधाओं से सम्बंधित प्रशिक्षण दिया जाता है। बीते जुलाई में ही सारनाथ में एक कार्यक्रम का आयोजन कर 40 इलेक्ट्रिक चाक वितरण किया गया था। प्रशिक्षणार्थियों को प्रमाण-पत्र भी दिए गए थे।

वरिष्ठ सहायक सजय कहते हैं कि कुम्हारों के लिए निर्धारित प्रारुप पर ऑनलाइन और ऑफलाइन आवेदन पत्र आमंत्रित किए जाते हैं। हमारे माध्यम से आधिकारिक रोजगार उपलब्ध कराने के उद्देश्य से माटीकला की उपयोगिता एवं महत्ता का प्रचार-प्रसार किया जाता है। समय-समय पर एक सर्वे भी करवाकर यह तय किया जाता है कि कितने लोगों को योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है। आगामी दिसम्बर या जनवरी महीने में प्रशिक्षण और टूलकिट का वितरण फिर किया जाएगा। इसके लिए अभी से ही सर्वे करवाया जा रहा है।

इंस्पेक्टर अमन जायसवाल ने बताया कि वाराणसी में पाँच वर्षों में अब तक 275 इलेक्ट्रिक चाक, लक्ष्मी-गणेश की 25 डाई, पाँच लोगों के समूह को क्रमश: पाँच पगमिल (मिट्टी गूथने वाली मशीन) वितरित की जा चुकी है। वाराणसी में कुम्हारों के 933 परिवार हैं। इनमें से कईयों को माटीकला योजना से जोड़ा जा चुका है। अन्य के चयन की प्रक्रिया चल रही है। अमन बताते हैं कि आजमगढ़ के आहोपट्टी ट्रनिंग के माध्यम से प्रत्येक लाभार्थी को 250 रुपये प्रतिदिन सहित टूलकिट दिया गया था। उसमें 20 ट्रेनर बनारस से गए थे। इस योजनों में यात्रा भत्ता की व्यवस्था नहीं है।

कब हुआ माटी कला बोर्ड का गठन

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने जुलाई 2018 में माटी कला एवं माटी शिल्प कला से संबंधित उद्योगों के विकास के लिए ‘माटी कला बोर्ड’ का गठन किया था। इसके जरिये प्लास्टिक कप के स्थान पर मिट्टी के कुल्हड़ों को प्रोत्साहित किए जाने की योजना है। उस समय सरकार ने कहा था कि मिट्टी के बने बर्तनों के उपयोग करने से कुम्हारों की आय में वृद्धि होगी, इसके साथ ही उन्हें रोजगार के नए अवसर भी मिलेंगे। वहीं, सरकार ने इस योजना के माध्यम से कुम्हारों को 10 लाख रुपये का ऋण बिना ब्याज के देने का ऐलान किया था। प्रदेश के कुम्हारों को इस तरह की आर्थिक सहायता देने और उन्हें मिट्टी के बर्तनों को बनाने के लिए प्रोत्साहन देने की बात कही गई थी। उत्तर प्रदेश में कुम्हारों की आबादी वर्तमान में लगभग 16 हजार हैं।

ग्राहकों के इंतजार में बुजुर्ग सुदामा

प्रदेश में माटीकला को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न योजनाओं के संचालन व अन्य जरूरी मदों में योगी सरकार द्वारा कुल 10 करोड़ रुपये की धनराशि दिए जाने का प्रावधान किया गया था। इसमें से फिलहाल केवल 1.66 करोड़ रुपये ही बोर्ड को पहली किस्त के तौर पर प्राप्त हुए थे, जबकि शेष 8.33 करोड़ रुपये की धनराशि का आवंटन लंबित है। ऐसे में, सीएम की मंशा के अनुरूप अब उत्तर प्रदेश माटीकला बोर्ड को कुल प्राविधानित धनराशि में से आर्थिक अनुदान के तौर पर दूसरी किस्त की अदायगी किए जाने की वित्तीय स्वीकृति दी थी। फिलहाल, इस विषय में कुटीर एवं ग्रामीण उद्योग निदेशालय को निर्देश भी जारी कर दिया गया है।

वहीं, सरकार द्वारा चलाई जा रही इस योजना के बारे में कुम्हार जाति के अधिकतर लोग आज भी अनजान हैं। सरकारी योजनाओं में हो रहे भ्रष्टाचार और राजनीति से अलग कुम्हार जाति के लोग अपनी मेहनत पर भरोसा कर अपने पारम्परिक काम में आज भी लगे हुए हैं।

अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग के सहायक संपादक हैं।

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