संवाद का दूसरा और अंतिम हिस्सा
श्री के वीरामणि द्रविड़ आन्दोलन के सबसे वरिष्ठ सदस्य हैं। 2 दिसंबर 1933 को कड्डलूर तमिलनाडु में जन्मे वीरमणि आज भी दलितों-पिछड़ों के हक के लिए शेर की तरह दहाड़ते हैं। अपने गुरु थान्थई पेरियार के सिद्धांतों और पदचिन्हों पर चलते हुए उन्होंने राजनीति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप भी किये लेकिन सत्ता की राजनीति से बहुत दूर रहे। उनके लिए संसद की राह बहुत आसान होती और वह बहुत महत्वपूर्ण ओहदा भी संभाल रहे होते लेकिन यदि वह इन सबमें उलझे होते तो पेरियार के स्वाभिमान आन्दोलन को वह मज़बूती नहीं मिल पाती जितना आज वह है और फासीवादियों के दाँत खट्टे कर रहा है।
आज तमिलनाडु में प्रमुख राजनीतिक पार्टियाँ द्रविड़ियन विचारधारा की ही हैं। तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ पूरे तरह से हाशिये पर हैं। तमिलनाडु भारत में अकेला ऐसा राज्य है जहा पिछड़े वर्ग के लिए 50% आरक्षण है, दलितों के लिए 18% और आदिवासियों के लिए 1% और इस प्रकार राज्य का कुल आरक्षण 69% है। यह कोई आसान बात नहीं थी। यहीं पर पेरियार की बातों को समझना पड़ेगा कि राजनीतिक दल समझौतापरस्त होते हैं और सत्ता में रहने के लिए उन्हें समझौता करना पड़ता है। लेकिन सामाजिक आन्दोलन ही असली क्रांति ला सकते हैं। पेरियार ने बिना सत्ता में रहते हुए तमिलनाडु के सामाजिक, राजनैतिक जीवन में जो क्रांतिकारी बदलाव संभव किया है उसके विषय में उत्तर भारत में सही जानकारी का अभाव दिखता है। उत्तर भारत में अक्सर बहुजन डिस्कोर्स में पेरियार को भगवानों की आलोचना करने वाला या उनका ‘हिंसक’ विरोध करने वाला बताया जाता है जो जीवनपर्यंत किये गए पेरियार के कामों और आन्दोलनों का पूरी तरीके से गलत विश्लेषण है।
पेरियार के सच्चे वारिस वीरमणि
दरअसल, हम लोग यह बात बहुत चटखारे लेकर सुनते हैं कि पेरियार ने कैसे राम और कृष्ण की आलोचना की और सच्ची रामायण लिखी। पेरियार को मात्र सच्ची रामायण के जरिये जानना बहुत बड़ी भूल होगी और उनके जिंदगी भर के क्रांतिकारी संघर्ष को बहुत कम करके आंकना होगा। पेरियार नास्तिक थे और तर्कवादी थे, इसलिए उन्होंने सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मणवादी व्यवस्था की न केवल आलोचना की अपितु लोगों को द्रविड़ संस्कृति की विरासत अपनाने का विकल्प भी मौजूद करवाया। श्री के. वीरामणि ने 10 वर्ष की आयु से पेरियार आन्दोलन में हिस्सेदारी शुरू की और लोगों के बीच बोलना शुरू किया। पेरियार ने उनके उत्साह और योग्यता को व्यक्तिगत तौर पर संवारा और बदले में वीरमणि ने अपनी पूरी जिंदगी पेरियार और द्रविड़ आन्दोलन को समर्पित कर दी। 1973 में पेरियार की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी अन्नाई मनिअम्मई ने द्रविड कझगम की कमान संभाली और 1978 में उनकी मृत्यु के बाद से के वीरामणि ही द्रविड़ आन्दोलन को पेरियार की दिशा दे रहे हैं। वीरमणि 50 से अधिक बार जेल जा चुके हैं।1978 में इमरजेंसी में उन्हें मीसा कानून के तहत एक साल की जेल हुई थी। और 1962 से वे तमिल दैनिक विदुथालाई ( मुक्ति) के सम्पादक हैं। इसके अलावा वह उन्माई ( पाक्षिक ) और पेरियार पिंजू ( मासिक) पत्रिकाओं के सम्पादक भी हैं। पेरियार के समय से ही महिलाओं और बच्चों में तर्क और सामाजिक प्रश्नों पर ये पत्रिकाएँ तमिल भाषा में निकाली जाती रही हैं। अंग्रेजी में वह मॉडर्न रेशनलिस्ट नामक मासिक पत्रिका के सम्पादक हैं। इस प्रकार पेरियार के विचारों के प्रसार के लिए शुरू से ही साहित्य और राजनैतिक चिंतन पर विशेष जोर दिया गया। कई पुस्तकों के रचयिता के वीरमणि शुरू से ही पेरियार के साथ साए की तरह रहते थे और यही कारण है कि द्रविड़ आन्दोलन और पेरियार की विचारधाराओं के प्रश्न पर वह सबसे अधिक ऑथेंटिक आवाज माने जाते हैं।
“बिना राजनीति के भी पेरियार ने राजनीति को प्रभावित किया। फलस्वरूप संविधान का पहला संशोधन 1951 में हुआ जिसके तहत राज्य अपने यहाँ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए स्वतंत्र रूप से आरक्षण का प्रावधान कर सकते हैं। आज तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों के लिए जो 50% आरक्षण है। वह पेरियार के संघर्ष का ही परिणाम है।”
1944 में पेरियार ने द्रविड कझगम की स्थापना की और जनता और समाज से सीधे संवाद करके तमिलनाडु में बड़े-बड़े परिवर्तन किये। पेरियार की मृत्यु के बाद भी उनका नाम लेकर ही सरकारें आईं और कोई भी पिछड़ों और दलितों का विरोध करके सरकार नहीं बना पाया। तमिलनाडु में 69% आरक्षण है जिसमें पिछड़े वर्ग के लिए 50% आरक्षण है और इन सबमें द्रविड़ कझगम की बहुत बड़ी भूमिका है।
तमिलनाडु के पेरियार द्वारा स्थापित द्रविड़ आन्दोलन ने मुझे बहुत प्रभावित किया है और समय-समय पर उन आन्दोलनों के प्रमुख लोगों से मैं बातचीत करता रहा हूँ और तमिलनाडु के एक बड़े हिस्से को मैंने देखा है। 2005 में सुनामी के उपरांत पैदा हुये हालात को देखने के लिए मैंने तमिलनाडु और पुदुचेरी का एक विस्तृत दौरा किया था। श्री के वीरामणि से मैंने 2015, 2019 और 2020 में तीन बड़े साक्षात्कार किये जिनमें से दो उनके कार्यालय पेरियार थिदाल में और एक ऑनलाइन बातचीत थी। एक साक्षात्कार ऑनलाइन उपलब्ध है और बाकी दो भी भी शीघ्र ही उपलब्ध होंगे। अभी का साक्षात्कार 28 अक्टूबर 2015 को पेरियार थिदाल चेन्नई में लिया गया। दरअसल, इंटरव्यू के एक दिन बाद ही चेन्नई में भयंकर बारिश हुई थी जिसके कारण पेरियार थिदाल में भी भयंकर पानी भर गया था और फिर बहुत समय तक यह रिकॉर्डिंग भी लगभग फाइलों में दबकर रह गयी। फिर वहाँ मित्रो की मदद से इसे ढूंढ निकाला गया।
आत्मसम्मान आंदोलन तमिल अस्मिता का नहीं सामाजिक न्याय का पर्याय है
यह साक्षात्कार आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत आवश्यक है क्योंकि इस समय उत्तर भारत की पिछड़ी राजनीति के सामने बहुत बड़ा संकट है। सवाल इस बात का नहीं है कि वे सत्ता में आएँगी या नहीं, अपितु इस बात का है कि क्या वे दलित-पिछड़ों के सवालों को चुपचाप हाशिये पर रखते रहेंगे ताकि ब्राह्मण या सवर्ण नाराज न हों? मेरा सबसे पहला सवाल यही था कि आखिर पेरियार को क्यों ऐसा लगता था कि सामाजिक आन्दोलन बदलाव के लिए अधिक जरूरी है? क्योंकि सत्ता तो आती और जाती है और सत्ता में बने रहने के लिए अक्सर लोग समझौता कर लेते हैं लेकिन पेरियार ने समझौता नहीं बल्कि संघर्ष का रास्ता चुना । ऐसा क्यों?
वीरमणि बताते हैं कि पेरियार को अगर मुख्यमंत्री बनना होता तो वे मद्रास प्रेसीडेंसी के मुख्यमंत्री आजादी से पहले बन सकते थे। दरअसल, द्रविड़ आंदोलन मूल रूप से साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन के रूप में शुरू हुआ था जिसका एक अंग्रेजी भाषा में दैनिक मुखपत्र था जस्टिस जो बहुत ही लोकप्रिय था। साउथ इंडियन लिबरल फेडरेशन को अधिकांश लोग जस्टिस के नाम से ही जानते थे इसलिए लोग उन्हें जस्टिस पार्टी कहकर ही बुलाते थे। इसलिए यह बात ध्यान रखने की है कि पेरियार ने जस्टिस पार्टी नहीं बनाई अपितु कांग्रेस छोड़ने के बाद 1944 में वह इसके अध्यक्ष बने और यहीं से पेरियार ने स्वाभिमान आन्दोलन की नींव रखी। एक पार्टी और आन्दोलन में फर्क होता है। पार्टी एक उद्देश्य विशेष के लिए बनती है जबकि आन्दोलन की कोई सीमा नहीं होती और वह सततशील होता। पेरियार कहते थे पार्टियाँ आएँगी-जायेंगी लेकिन आन्दोलन चलता रहेगा। डीएमके द्रविड़ आन्दोलन से निकली पार्टी है, उसमें भी मतभेद होनेपर एडीएमके बनी। अब तो बहुत-सी पार्टियाँ हैं जो वोट की खातिर पेरियार का नाम लेती हैं और अपने को द्रविड़ भी कहती हैं लेकिन वह द्रविड़ आन्दोलन नहीं है। वे पेरियार के मूवमेंट से नहीं निकली हैं। पेरियार के आन्दोलन और विचारधारा को आगे ले जाने का काम डीएमके कर रही है।
पार्टियाँ अपने वोटों की खातिर समझौता करती हैं जबकि आन्दोलन समाज से जुड़े हुए होते हैं इसलिए जब मीडिया राजनैतिक दलों की मौक़ापरस्ती को पेरियार के आन्दोलन या द्रविड़ आन्दोलन से लिंक करता है तो वास्तव में वह झूठ होता है। सच में यह पेरियार को बदनाम करने की साजिश होती है। द्रविड़ आन्दोलन राजनैतिक दल नहीं चलाते अपितु द्रविड़ कझगम ने ही उसे ज़िंदा रखा है। याद रखिये कि पेरियार ने अपने आन्दोलन को क्यों द्रविड़ आन्दोलन कहा! क्योंकि अगर यह मात्र तमिल अस्मिता का प्रश्न होता तो तमिलनाडु में ब्राह्मण भी हैं। वे भी इसमें शरीक होते लेकिन वे इसमें कतई नहीं हैं। यह याद रखना जरूरी है कि पेरियार द्रविड़ समाज के अन्दर स्वाभिमान और उनके अधिकारों के लिए लड़ रहे थे इसलिए उन्होंने द्रविड़ कझगम की स्थापना भी की।
निजी जीवन को कभी आंदोलन के आड़े नहीं आने दिया
पेरियार आन्दोलन की अभूतपूर्व लोकप्रियता के चलते उनके बहुत से शिष्यों में राजनीति के प्रति आशक्ति हो गयी और उन्होंने पेरियार के मनिअम्मई से विवाह के प्रश्न को मुद्दा बनाकर डीएमके नाम के राजनैतिक दल की स्थापना कर अपने को आन्दोलन से अलग कर लिया। वीरमणि कहते हैं कि पेरियार के पास बहुत सम्पत्ति थी और वह सब कुछ एक ट्रस्ट के नाम कर अपने को आजाद रखना चाहते थे। मनिअम्मई उनके आन्दोलन से हमेशा जुड़ी रहीं और दोनों एक-दूसरे को बहुत अच्छे से जानते थे। बहुत वर्षों से वह पेरियार की सचिव बनकर उनके साथ खड़ी थीं। उनके परिवार के लोगों को भी इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं थी। दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता थी। समाज को भी उनकी जरूरत थी। इस रिश्ते को लेकर पेरियार से अलग होने वाले दरअसल अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना चाहते थे और उन्होंने यह सवाल खड़े कर अलग होने का बहाना ढूंढ लिया। बिना राजनीति के भी पेरियार ने राजनीति को प्रभावित किया। फलस्वरूप संविधान का पहला संशोधन 1951 में हुआ जिसके तहत राज्य अपने यहाँ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए स्वतंत्र रूप से आरक्षण का प्रावधान कर सकते हैं। आज तमिलनाडु में पिछड़ी जातियों के लिए जो 50% आरक्षण है। वह पेरियार के संघर्ष का ही परिणाम है।
आज पेरियार पहले से अधिक सामयिक हो गए हैं। क्या कारण है कि ब्राह्मणवादी लोग अब बाबा साहेब आंबेडकर का नाम तो ले लेते हैं लेकिन पेरियार का नहीं? दरअसल वे बाबा साहेब को भी नहीं चाहते पेरियार से तो दूर-दूर भागते ही हैं। वीरामणि कहते हैं कि हिंदुत्व ने देश के बहुत से राज्यों को अपना गढ़ बना लिया है लेकिन तमिलनाडु हिंदुत्व को हमेशा अस्वीकार करता रहेगा। और इसका कारण है यहाँ के सामाजिक, राजनितिक और सांस्कृतिक जीवन में द्रविड़ आन्दोलन और पेरियार की विचारधारा का असर। वीरमणि बाबा साहेब को हिमालय कहते हैं और पेरियार को ज्वालामुखी। उपमा देकर वह बताते हैं कि हिमालय के पास लोग जाते है लेकिन ज्वालामुखी के पास जाने से तो भस्म होने का खतरा है।
पेरियार और बाबा साहेब के विषय में वह बताते हैं कि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। बाबा साहेब की धर्म में आस्था थी, वह राजनीति को बदलाव का हथियार मानते थे इसलिए संसदीय चुनावों में हिस्सा भी लिया। पेरियार पूरी तरह से नास्तिक थे और सामाजिक क्रांति को राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए एक आवश्यक शर्त मानते थे। यानी राजनीतिक बदलाव तब तक संभव नहीं है जब तक सामाजिक बदलाव नहीं आ जाता। इसको बाद में बाबा साहेब ने भी माना। पेरियार ने भी बुद्ध धम्म की सराहना की और बुद्ध को प्राचीन भारत में तर्कवाद का प्रणेता बताया। बहुत से लोगों ने पेरियार को भी 20वीं सदी का बुद्ध बताया। वे कहते हैं कि सभी तर्कशील व्यक्ति अपने आप में बुद्ध हैं। बाबा साहेब और पेरियार दोनों तर्कवादी थे, दोनों ने ब्राह्मणवाद का विरोध किया और वैज्ञानिक चिंतन के पक्षधर थे।
“यदि आप पेरियारवादी हैं तो पहले स्वयं को पूर्वाग्रहों से मुक्ति लेनी होगी, तभी दूसरों को सही दिशा दे पाएंगे। जो लोग मात्र जाति के आधार पर पेरियार का विरोध करते हैं उन्हें सोचना होगा कि वायकम का सत्याग्रह पेरियार ने किसके लिए किया था? यह कोई ब्राह्मणों के लिए तो नहीं था और न ही सवर्णों के लिए?”
पेरियार ने वह किया जो दूसरे सोच भी नहीं पाते
मैंने उनसे कुछ तथाकथित प्रगतिशील पत्रकारों, लेखको की बात की जो अम्बेडकरवाद की आड़ में पेरियार पर हमला कर रहे थे और उन्हें दलित विरोधी करार दे रहे थे। एक ने तो यहाँ तक लिख दिया कि तमिलनाडु में पेरियार की मूर्तियों को अब कोई पूछता नहीं है।
वीरमणि मेरा इशारा समझ गए। उन्होंने कहा पेरियार और आंबेडकर दोनों ने ही ब्राह्मणवाद का विरोध किया। पेरियार ने तमिलनाडु में सभी गैर ब्राह्मण जातियों को एक किया जिसमें दलित और पिछड़े शामिल थे। केरल में वायकम में दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए पेरियार ने सबसे बड़ा आन्दोलन किया और इसके बाद ही उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा भी दिया। वह कहते हैं कि अगर केवल एक सीट आरक्षण में बची है तो वह सीट पहले दलितों को मिलनी चाहिए। आज हर एक जाति पेरियार का नाम लेकर राजनीति कर रही है। वह कहते हैं कि जातीय अस्मिता केवल आरक्षण तक ही सीमित रहनी चाहिए, क्योंकि हर समय इसका इस्तेमाल केवल हमारी एकता को कमजोर करेगा। वह यह भी बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति यदि अपने आप को पेरियारवादी कहता है तो उसे दलितों की सुरक्षा के सवाल पर न केवल आगे खड़ा होना होगा अपितु उनके आरक्षण के प्रश्न पर भी समर्थन करना होगा। यदि आप पेरियारवादी हैं तो पहले स्वयं को पूर्वाग्रहों से मुक्ति लेनी होगी, तभी दूसरों को सही दिशा दे पाएंगे। जो लोग मात्र जाति के आधार पर पेरियार का विरोध करते हैं उन्हें सोचना होगा कि वायकम का सत्याग्रह पेरियार ने किसके लिए किया था? यह कोई ब्राह्मणों के लिए तो नहीं था और न ही सवर्णों के लिए? जिन लोगों ने पेरियार और आंबेडकर को पढ़ा नहीं है वे उन्हें भगवान बना देना चाहते हैं ताकि लोग उनकी विचारधाराओं और कार्यो पर चर्चा न करें। जस्टिस पार्टी ने शुरुआती दिनों से ही दलितों के लिए स्कूल खोले और पिछड़ी जातियों के विकास की बात की। यह बात भी समझने की है कि हम सोये हुए लोगो तो जगा सकते हैं लेकिन जो सोने का बहाना कर रहे हैं उन्हें नहीं।
मैं हिंदुत्व के खतरे के विषय में पूछता हूँ तो वे कहते हैं कि अपने बचपन से ही वह द्रविड़ आन्दोलन जुड़े रहे है। पेरियार ने आन्दोलन को मज़बूत करने के लिए विरुथालाई नामक दैनिक समाचार पत्र की स्थापना 1935 में की। मुझे 55 वर्ष से अधिक हो गए इसके संपादक बने क्योंकि पेरियार ऐसा चाहते थे। एक आन्दोलन, एक झंडा, एक कमीज। सेमिनार, विचार गोष्ठियाँ, आन्दोलन, सम्मेलन, जनसभाएँ, रास्ता रोको सभी तो था। हाँ, पेरियार समझते थे कि आन्दोलन को हर किस्म के लोग चाहिए इसलिए उन्होंने डीके ( द्रविडा कझगम) के अलावा रेशनलिस्ट फोरम की स्थापना भी की क्योंकि हमारे साथ सरकारी लोग भी जुड़े थे और वे लोग सीधे-सीधे राजनैतिक गतिविधियों में भाग नहीं ले सकते थे इसलिए उन्हें जोड़ने के लिए रेशनलिस्ट फोरम या तर्कवादी फोरम बनाया गया ताकि उनकी भी भागीदारी हो सकें।
आर्थिक क्राइटेरिया इस्तेमाल कर आप पिछड़े वर्ग की अवधारणा नहीं बना सकते
पेरियार के समय तमिलनाडु में आरक्षण 41% था जिसमे पिछड़े वर्ग के लिए 25% और अनुसूचित जातियों के लिए 16% जिसमें आदिवासी भी शामिल थे क्योंकि यहाँ आदिवासियों की आबादी 1% से भी कम है। लेकिन सरकार होने के अपने लाभ है। पेरियार ने करुणानिधि को सलाह दी के पिछड़ों का आरक्षण 25% से बढ़ाकर 31% कर दिया जाए और दलितों आदिवासियों के आरक्षण को 18% किया जाए ताकि सुप्रीम कोर्ट की 50% की सीलिंग के नीचे रहे और करुणानिधि ने उनकी बात मान ली। जब तमिलनाडु में एमजीआर के नेतृत्व में एआईडीएमके की सरकार बनी तो किसी ने उनके दिमाग में ज़हर भर दिया और एमजीआर ने पिछड़े वर्ग के आरक्षण में 9 हज़ार रुपये मासिक की आय से कम की शर्त लगा दी। मतलब यह कि जिनकी मासिक आय 9000 रुपये प्रति महीने से कम की होगी उन्हें ही पिछड़े वर्ग का माना जाएगा। तो डीके ने इसके विरुद्ध आन्दोलन किया। एमजीआर तो बहुत जनप्रिय नेता थे क्योंकि सिनेमा के स्टार भी थे लेकिन डीके ने उनके विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया। हमने कहा कि आपने सामाजिक न्याय को नहीं समझा है। यह साफ़ तौर पर कहता है सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े वर्ग के लोग और कहीं पर भी इसमें आर्थिक शब्द का प्रयोग नहीं है। पिछड़ी जातियों को आप सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर ही निर्धारित कर सकते हो, आर्थिक क्राइटेरिया इस्तेमाल कर आप पिछड़े वर्ग की अवधारणा नहीं बना सकते।
सभी ब्राह्मण आर्थिक आधार पर आरक्षण चाहते है, मोहन भागवत भी वही कहते हैं। 1978 पेरियार का जन्म शताव्दी वर्ष था इसलिए हमने एमजीआर से कहा कि क्या आप पेरियार के सिद्धांतों को जमीन में गाड़ देना चाहते है। हमने सार्वजनिक तौर पर उस जी ओ की प्रतियाँ जलाई। आन्दोलन मजबूत हो रहा था और तमिलनाडु में डीएमके, कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी इस बिल का जमकर विरोध करना शुरू किया। मुख्यमंत्री ने एक मीटिंग बुलाई जिसका डीएमके ने बायकाट किया लेकिन मै वहा गया। मुख्यमंत्री बार-बार पिछड़े वर्ग के गरीब लोगों की बात कर रहे थे। मैंने उन्हें मजबूती से बताया के आर्थिक आधार को सामाजिक न्याय से न जोड़े। धीरे-धीरे उनके समझ में बात आ गयी और उनको पता चल गया कि तमिलनाडु में पिछड़े वर्ग का विरोध कर आप कुछ नहीं कर पायेंगे। एमजीआर ने अपना आदेश वापस ले लिया और पेरियार की मृत्यु के बाद उनके आन्दोलन की यह एक बहुत बड़ी जीत थी।
इसका बहुत सुखद परिणाम रहा
एमजीआर ने उसके बाद एक कदम आगे बढ़कर पिछड़ी जातियों का आरक्षण 50% कर दिया, दलितों 18% और आदिवासियों को 1%। इस प्रकार तमिलनाडु ने वह कर दिखाया जो देश के किसी भी हिस्से में नहीं है। फिर ब्राह्मणवादी ताकतें इसके विरोध में आ गयी। जब डीएमके भाजपा के साथ थी तो हमने जयललिता का साथ निभाया। ये ताकतें सुप्रीम कोर्ट के मंडल निर्णय का हवाला देने लगीं कि आरक्षण की कुल सीमा 50% है इसलिए तमिलनाडु सरकार का निर्णय अवैध हो जाएगा। तब हमने संविधान के अनुच्छेद 31सी का हवाला देते हुए एक पेटीशन तैयार की और तमिलनाडु की सभी पार्टियों में एकमतता कर केंद्र सरकार पर दवाब डाला गया और विधानसभा ने सर्वसम्मति से तमिलनाडु में 69%आरक्षण को 9वीं अनुसूची का प्रस्ताव पारित कर दिया। तमिलनाडु के सभी राजनितिक दलों और सामाजिक संगठनों ने संयुक्त रूप से केंद्र सरकार पर जबरदस्त दवाब बनाना शुरू किया जिसके कारण संविधान का 76वाँ संशोधन 31अगस्त 1994 को पारित हुआ। फलस्वरूप तमिलनाडु में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों और पिछड़े वर्ग के लोगो के लिए राज्य सरकार द्वारा प्रदान किया गया आरक्षण 69% है जो सुप्रीम कोर्ट की निर्धारित सीमा के ऊपर है। इसको संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया ताकि विधान सभा द्वारा लिए गए सर्वसम्मत निर्णय की वैधानिकता को किसी भी न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। इसे समझिये कि जयललिता ब्राह्मण थी, प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव भी ब्राह्मण थे और भारत के राष्ट्रपति भी उस समय ब्राह्मण थे लेकिन सभी ने इस संशोधन को पारित हो जाने दिया। इसका अर्थ यह है कि आन्दोलन में बहुत ताकत होती है और हमने पेरियार के कथन को सही साबित किया है। वास्तव में यदि केवल इसे पार्टियों के हवाले कर दिया जाता तो तमिलनाडु में इतना ऐतिहासिक निर्णय नहीं हो पाता। पार्टियों को ऐसा सोचने पर मजबूर किया पेरियार के द्रविड़ आन्दोलन ने।
वीरमणि बताते है कि आज भी तमिलनाडु में वी पी सिंह बहुत सम्मान के साथ याद किये जाते है। उनके नाम से कई बच्चों का नामकरण हुआ है। मंडल लागू करने के उनके ऐतिहासिक निर्णय में डीके ने बड़ी भूमिका निभाई और रामविलास पासवान ने मुझे वीपी सिंह से मिलवाया और फिर हमने उन्हें तमिलनाडु के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के विषय में बताया था जिसे उन्होंने अपने संसदीय वक्तव्यों और भाषणों में स्वीकार भी किया। पिछड़े वर्ग के लोगों को वी पी सिंह को कभी नहीं भूलना चाहिए। डीके और तमिलनाडु में अन्य राजनितिक दलों के लोग वी पी सिंह जन्म दिन और पुण्यतिथि पर उन्हें हमेशा याद करते हैं।
जब पेरियार लखनऊ आए
एक प्रश्न जो मेरे दिमाग में हमेशा से आता था और वह यह कि पेरियार उत्तर प्रदेश जब आये थे तो क्या हुआ क्योंकि अब तो सामाजिक न्याय का नाम लेने वाली पार्टियां भी पेरियार का नाम नहीं लेना चाहते। वीरामणि मुझे उस ऐतिहासिक दौर की बात बताते हैं जब पेरियार लखनऊ आये। ये 1968 की बात है। वीरामणि पेरियार के साथ थे और उनकी बातों का अंग्रेजी में अनुवाद करते थे। पेरियार तमिल में बात रखते थे और वह उसे अंग्रेजी में कहते और फिर कोई दूसरा हिन्दी में उसका अनुवाद करके लोगो को बताता। कार्यक्रम लखनऊ विश्वविद्यालय में हुआ। पेरियार को छेदी लाल साथी ने आमंत्रित किया था। ललई सिंह यादव ने उनसे सच्ची रामायण को हिंदी में अनुवाद करने की अनुमति मांगी और उन्हें कानपुर आमंत्रित किया। पहले बहुत से ऐसे लोग थे जो काला झंडा लेगे उनका विरोध कर रहे थे। जब पेरियार ने बोलना शुरू हुए तो उन्होंने कहा कि मैं अपने आप उत्तर प्रदेश नहीं आया हूँ। आप लोगों ने मुझे यहाँ बुलाया है इसलिए यहाँ आया हूँ। उन्होंने छात्रो से कहा कि शांत हो जाएँ और मुझे सुनें। यह मेरी इच्छा नहीं थी लेकिन आप लोगो ने मुझे आमंत्रित किया। मैं आपका अतिथि हूँ। मैं बहुत स्वाभिमानी व्यक्ति हूँ। मैं आपको आत्मसम्मान के विषय में बताना चाहता हूँ। मैं यह नहीं कह रहा कि जो मैं कह रहा हूँ उस पर आप आँख मूँदकर विश्वास कर लें। अपने तर्क और विवेक का प्रयोग कर मेरी बातों को समझिए। आप शूद्र और दलित कैसे हो सकते हैं, यदि आप आत्मसम्मान आन्दोलन को नहीं समझते। क्या आप जानते हैं मैं किस जाति या वर्ग से आता हूँ। और जब लोगों ने पेरियार को सुनना शुरू किया तो फिर पेरियार की जय, पेरियार जिंदाबाद के नारे लगने लगे। कुछ असामाजिक तत्वों ने गड़बड़ करने की कोशिश की लेकिन लोगों ने उन्हें खदेड़ दिया। जब हम आये थे तो बहुत गलतफहमियाँ थीं लेकिन जब वापस गए तो एक अच्छी दोस्ती बन चुकी थी। जब पेरियार अपनी बातें रख रहे थे तो सभास्थल पर बिलकुल शांति थी। वह बताते हैं कि इस कार्यक्रम में चंद्रजीत यादव भी मौजूद थे।
आज पेरियार बहुत ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं
उत्तर भारत में पेरियार को समझने की आवशयकता है और ये इसलिए भी जरूरी है जब दलित-पिछड़े वर्ग के नाम पर काम कर रही पार्टियों ने आरक्षण और सत्ता में भागीदारी के प्रश्नों को बिलकुल एजेंडे से बाहर कर दिया है। 1940 से 1954 के बीच पेरियार और बाबा साहेब चार बार मिले थे जिनमें एक बार म्यांमार की राजधानी रंगून में विश्व बौद्ध सम्मेल्लन और बम्बई के धारावी में एक जनसभा का संबोधन जिसमें पेरियार के भाषण का अंग्रेजी अनुवाद सीके अन्नादुरई कर रहे थे। यही अन्नादुरई बाद में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने लेकिन पेरियार सत्ता से दूर जनता के प्रश्नों पर हमेशा सरकारों को आगाह करते रहे और उन्हीं के प्रयासों का आज परिणाम है कि तमिलनाडु में आरक्षण के प्रश्न पर सभी दलों में आम राय है और समाज कल्याण की बहुत सारी योजनाओं में तमिलनाडु देश में प्रथम स्थान पर है। आरक्षण के कारण तमिलनाडु में कहीं पर भी योग्यता और सरकार की कार्यक्षमता पर कोई असर नहीं पड़ा है अपितु यह अन्य राज्यों की तुलना में बहुत बेहतर है। काश, उत्तर भारत में पेरियार के विचारों को समझने और अपनाने की क्षमता होती तो पिछड़े वर्ग के लोगों के आरक्षण के प्रश्न पर पार्टियाँ धोखाधड़ी नहीं करतीं।
Super!
जबरदस्त लेखन