गोंडी महाराष्ट्र के आदिवासियों की एक भाषा है। पिज़्ज़ा एक खाद्य पदार्थ है। परंतु महाराष्ट्र के एक आदिवासी गाँव में गोंडी भाषा पढ़ने वाले स्कूल को प्रतिदिन दस हज़ार रुपये जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई गई है। इसी तरह नासिक क्षेत्र में पिछड़े वर्ग के छात्रावास में रहने वाली एक लड़की को पिज़्ज़ा खाने के कारण निलंबित कर दिया गया है। क्या इन बातों पर कोई यक़ीन कर सकता है? मगर ये दोनों घटनाएँ प्रगतिशील (?) महाराष्ट्र में यथार्थ में घटित हुई हैं।
पिछड़े वर्गों और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर परिवारों के बच्चों के लिए शासन के सामाजिक न्याय विभाग द्वारा समूचे राज्य में छात्रावास संचालित किए जाते हैं। नाशिक ज़िले के मोशी नामक स्थान के 250 छात्राओं वाले एक छात्रावास की यह घटना है। एक कमरे में चार लड़कियाँ रहती थीं। उनमें से एक लड़की ने ऑनलाइन पिज़्ज़ा मँगवाया। छात्रावास-प्रमुख मैडम को यह बात नागवार गुज़री। उन्होंने चारों लड़कियों के अभिभावकों को बुलवाया और महीने भर के लिए चारों छात्राओं को छात्रावास से निलंबित कर दिया। अभिभावकों ने काफ़ी मिन्नतें कीं। लड़कियों ने न तो कोई मादक पदार्थ मँगवाया था और न ही अस्त्र-शस्त्र। लड़कियों की ओर से इस बात की शिकायत भी दर्ज़ करवाई गई कि इस सज़ा के कारण उन्हें काफ़ी बदनामी झेलनी पड़ी।
गढ़चिरौली ज़िले की धानोरा तहसील के मोहगाँव में एक स्कूल है। इस स्कूल में आदिवासी बच्चों को गोंडी भाषा पढ़ाई जाती है, मगर शासकीय तंत्र को यह बात पसंद नहीं आई। शिक्षा विभाग ने इस स्कूल को सज़ा सुना दी – प्रतिदिन दस हज़ार रुपये जुर्माना भरने की! इस घटना के परिप्रेक्ष्य में आदिवासी और ग्रामसभा के अधिकारों संबंधी कुछ मूलभूत सवाल पैदा होते हैं। इन सवालों के आईने में सरकार की आदिवासी संबंधी नीतियों की पड़ताल करनी होगी।
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2014 में केंद्र में भाजपा सरकार के सत्ता में आने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर आदिवासी-संबंधी अनेक बातें अमल में लाई गईं। एक ओर ‘उपेक्षित समूहों’ को समाज की ‘मुख्य धारा में लाने’ का राजनीतिक लाभ लिया गया और दूसरी ओर भाजपा की विचारधारा के अनुकूल अनेक योजनाएँ लागू की गईं। उदाहरण के लिए, 1947 के स्वाधीनता आंदोलन के लगभग एक शताब्दी पहले से आदिवासियों ने ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ किस तरह संघर्ष किया, इसका लिखित इतिहास सामने लाने का काम हाथ में लिया गया। देश भर की सभी शिक्षण संस्थाओं-विश्वविद्यालयों के माध्यम से यह सचित्र इतिहास नई पीढ़ी तक पहुँचाया गया।
दूसरा उदाहरण है, भाजपा द्वारा 2020 से देश में नई शिक्षा नीति को लागू किया जाना। इस नीति का केंद्र-बिंदु ‘भारतीय ज्ञान परम्परा’ (इंडियन नॉलेज सिस्टम) है। भाजपा और उसकी पार्टी की मातृसंस्था का यह उद्देश्य तो एकदम स्पष्ट है। साथ ही इस आरोप से भी सभी परिचित हैं कि, पूर्व सरकारों द्वारा इन उद्देश्यों के विपरीत नीतियाँ अपनाई गई थीं। इसीलिए फलज्योतिष, पुरोहितशास्त्र और वैदिक विज्ञान जैसे विषय अब उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किए गए हैं। इनसे संबंधित विषय-विशेषज्ञ भी अब विश्वविद्यालयों के परिसर में मँडराते हुए नज़र आने लगे हैं। इसी सिलसिले में भारत की सभी बोली-भाषाओं का सम्मान करना, उन भाषाओं का अध्ययन तथा प्रादेशिक भाषाओं के माध्यम से सर्वस्तरीय शिक्षा का अभूतपूर्व कार्यक्रम धूमधड़ाके से शुरू किया गया था। फलस्वरूप आदिवासी भाषाओं के विकास की अपेक्षा भी बलवती हो गई।
अब मोहगाँव की स्कूल वाले मूल मुद्दे पर आते हैं। इस स्कूल के बच्चों को गोंडी भाषा की शिक्षा दी जाती थी। परंतु इस स्कूल को शिक्षा विभाग द्वारा मान्यता न देकर इस पर प्रतिदिन दस हज़ार रुपयों के जुर्माने की सज़ा सुना दी गई है। तथ्य यह है कि, इस प्रकार की स्कूल शुरू करने का निर्णय स्थानीय ग्रामसभा ने 2019 में लिया था। इस स्कूल का नाम ‘पारंपरिक कोया ज्ञानबोध संस्कार गोटुल स्कूल’ है। ग्रामसभा का कहना है कि भारतीय संविधान की पाँचवीं अनुसूची में इस तरह का प्रावधान है। चूँकि महाराष्ट्र शासन की ‘बालभारती’ प्रकाशन संस्था गोंडी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित नहीं करती, इसलिए इस स्कूल ने छत्तीसगढ़ से गोंडी भाषा की पुस्तकें मँगवाई थीं। गणित, अंग्रेज़ी, मराठी आदि शेष सभी विषय राज्य शिक्षा मण्डल के पाठ्यक्रम के अनुसार ही पढ़ाए जाते थे। गोंडी संस्कृति के प्राचीन ज्ञान से छात्र परिचित हो सकें, उससे नई पीढ़ी वंचित न रह जाए इसी उद्देश्य से ग्रामसभा ने इस स्कूल की स्थापना की थी। बताया जाता है कि संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार ग्रामसभा को जो अधिकार प्रदत्त किए गए हैं, उनकी औपचारिकताओं को पूरा कर इस स्कूल की स्थापना की गई थी। इसके लिए बाक़ायदा प्रस्ताव पारित किया गया था। साथ ही, ग्रामीणों का कहना है कि उनका यह काम ‘पेसा’ क़ानून पर आधारित है। कक्षा पहली से छठवीं तक का यह स्कूल 20 बच्चों से शुरू किया गया था, जिनकी संख्या आज बढ़कर 70 छात्र-छात्राओं तक जा पहुँची है। मगर ग्रामसभा के अधिकार को नकारकर, इस स्कूल को अवैध बताते हुए शिक्षा विभाग ने सन् 2022 में इस बंद करने की नोटिस जारी कर दी। ग्रामसभा ने इस नोटिस को चुनौती देते हुए मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ में एक याचिका दायर की है। न्यायालयीन कार्यवाही के दौरान ही, शिक्षा मंडल ने अपनी कार्रवाई कर स्कूल को तत्काल बंद करने का आदेश दे दिया, तथा बंद न करने पर दस हज़ार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से जुर्माना ठोंक दिया है।
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यह समाचार 18 जनवरी के ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित हुआ। पिछले दिनों मराठी लेखक अवधूत डोंगरे ने अपने ब्लॉग ‘रेघ’ (लकीर) में इस पर और जानकारी प्रकाशित की है। उन्होंने लिखा है, “बालभारती अभी मराठी सहित अंग्रेज़ी, हिन्दी, उर्दू, गुजराती, तेलुगू, कन्नड़, सिंधी, तमिल, बांग्ला जैसी दस भाषाओं में पाठ्यपुस्तकें प्रकाशित कर रही है। 2011 की जनगणना के अनुसार महाराष्ट्र में स्थाई रूप से निवास करने वाले बांग्ला भाषियों की संख्या 4,42,090 है तथा तमिल भाषियों की संख्या 5,09,887 है। वहीं राज्य में गोंडी भाषियों की संख्या है 4,58,806! अर्थात् यह संख्या बांग्ला से कुछ ज़्यादा और तमिल से कुछ ही कम है। भारतीय संविधान की आठवीं सूची के अनुसार 22 भाषाओं को अधिकृत मान्यता दी गई थी। हालाँकि इनके अतिरिक्त 38 भाषाओं को इस सूची में शामिल किए जाने की माँग उठाई गई है; इन 38 भाषाओं में गोंडी भी शामिल है। देश भर में गोंडी को मातृभाषा मानने वाले लोगों की संख्या 2011 की जनगणना के अनुसार 29 लाख से कुछ ज़्यादा ही है; इसमें भी यदि क्रम देखा जाए तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के बाद महाराष्ट्र में सर्वाधिक गोंडी बोलने वाले लोग रहते हैं। हालाँकि बालभारती द्वारा मराठी की पुस्तक में गोंडी कविता को शामिल करना जिस तरह प्रशंसनीय है, उसी तरह सीधे गोंडी माध्यम को मान्यता देना और उसी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित करना भी व्यावहारिक स्तर पर आवश्यक माना जाना चाहिए।”
आदिवासी समुदायों के प्रति सरकार की भूमिका और नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत देशी भाषाओं को दिये गये महत्व के परिप्रेक्ष्य में मोहगाँव के स्कूल पर की गई कार्रवाई विसंगतिपूर्ण प्रतीत होती है। जयपाल सिंह मुंडा संविधान सभा के सदस्य थे। वे ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के उपाधिधारक थे। ‘मैं अंग्रेज़ी बोल सकता हूँ, बावजूद इसके मैं प्रधानमंत्री के साथ अपनी पारंपरिक आदिवासी भाषा में ही बात करूँगा। इसके माध्यम से मुझे यह सूचित करना होता है कि मैं अपने लोगों का उचित प्रतिनिधित्व कर सकता हूँ।’ उनका यह वक्तव्य महज़ आदिवासी अस्मिता का निदर्शक नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की बहुसांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिकता के अस्तित्व का प्रतीक है।
सरकार की आदिवासी और भाषाविषयक नीतियाँ तथा संविधान में प्रदत्त ग्रामसभा के अधिकारों की पृष्ठभूमि पर मोहगाँव के स्कूल को मान्यता दिये जाने में कोई अड़चन नहीं दिखाई देती। मगर उन्हें अब न्यायालयीन संघर्ष करना पड़ रहा है, जो कब तक चलेगा कोई नहीं जानता। उल्लेखनीय है कि, मोहगाँव के पास के मेंढा (लेखा) गाँव के आदिवासियों को ग्रामसभा के संवैधानिक अधिकारों के तहत अपने निस्तारी-हक़ के लिए 25 सालों तक सर्वोच्च न्यायालय तक जाकर संघर्ष करना पड़ा था।
‘समानता’ को संविधान द्वारा स्वीकृत मूल्य घोषित किए जाने के कारण आर्थिक या जातीय स्तर पर पिछड़े वर्ग की किसी लड़की द्वारा पिज़्ज़ा मँगवाना क़तई ग़लत नहीं है। यह सही है कि छात्रावास में अनुशासन बनाए रखने के लिए कुछ नियम लागू किए जाते हैं। मगर पिज़्ज़ा मँगवाने पर बंदी का नियम न होते हुए भी उस लड़की को नोटिस देकर छात्रावास से महीने भर के लिए निलंबित करना – समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है।
सभी वर्गों के सभी समुदायों को सभी स्तरों पर, अपनी प्राचीन भाषा हो या आधुनिक खानपान, सबको समान न्याय और अधिकार मिलना चाहिए। अगर यह लागू हो पाता है, तभी संविधान में प्रदत्त स्वतंत्रता और समानता जैसे मूल्य सार्थक साबित होंगे। (मूल मराठी लेखक : प्रमोद मुनघाटे)
(मुंबई के मराठी दैनिक ‘लोकसत्ता’ के दि. 16 फ़रवरी, 2025 के ‘रविवार विशेष’ पृष्ठ 05 पर प्रकाशित लेख। ‘लोकसत्ता’ तथा लेखक के प्रति आभार।)