जनवरी 26 को मैं भी औरों की तरह गणतंत्र दिवस का जश्न मनाने में व्यस्त था जश्न के मूड में ही व्हाट्सप पर अचानक मेरी दॄष्टि चर्चित विद्वान उग्रनाथ श्रीवास्तव द्वारा भेजी गई देश के एक बड़े अंग्रे़जी अखबार की एक खबर के शीर्षक पर स्थिर हो गई। शीर्षक था, ‘यूएस एजेंसिज टोल्ड टू फायर डायवर्सिटी स्टॉफ’ अंदर की खबर ठीक से पढ़ी नहीं जा रही थी पर, यह अनुमान लगाने में दिक्कत नहीं हुई कि ट्रम्प ने डायवर्सिटी पॉलिसी के विरुद्ध कुछ आदेश जारी कर दिया है। उनके अतीत को देखते हुए पहले से ही अंदेशा था कि वह अपने दूसरे कार्यकाल में जरुर डायवर्सिटी पर जोरदार हमला करेंगे पर, राष्ट्रपति के रुप में दूसरी बार शपथ लेते ही कर देंगे, इसका अनुमान नहीं था। बहरहाल खबर की विस्तृत जानकारी के लिए जब गूगल पर गया तोपाया कि 2017 से 2021 तक अमेरिका के 45 वें राष्ट्रपति के रुप में काम कर चुके डोनाल्ड ट्रम्प 20 जनवरी, 2025 को 47 वें राष्ट्रपति के रुप में शपथ लेने के साथ-साथ कई ऐसे निर्णय लिए हैं, जिससे पूरी दुनिया उद्भ्रांत हो गई है। उन्होंने 150 सालों से चला आ रहा जन्मजात वीजा खत्म करने, विदेशी सहायता के कार्यक्रमों पर रोक लगाने, दक्षिणी सीमा पर नेशनल इमरजेंसी लगाने, कैपिटल हिल के हमलावरों को क्षमादान करने, गाजा को साफ करने, अवैध अप्रवासियों के खिलाफ कार्रवाई तेज करने, गुरुद्वारे-चर्च इत्यादि जैसे पूजा स्थलों में घुसकर आव्रजन, सीमा शुल्क और सीमा सुरक्षा प्रवर्तन संबंधी कार्रवाइयों की अनुमति नहीं देने के पूर्ववर्ती बाइडन सरकार के फैसले को पलटने जैसे ढेरों फैसले लेकर दुनिया को हैरान-परेशान कर दिया है लेकिन उनके जिस फैसले को लेकर विशेष तौर से चर्चा हो रही है, वह डीईआई(डायवर्सिटी, इक्वालिटी और इंक्लूजन) से जुड़ा फैसला है।
डायवर्सिटी पॉलिसी पर ट्रम्प का अभूतपूर्व हमला
उन्होंने एग्जक्यूटिव आदेश जारी करते हुए विविधता, समानता और समावेशी प्रोग्राम से जुड़ी सभी एजेंसियों पर रोक लगाते हुए इनके कर्मचारियों को सैलेरी देकर 31 जनवरी तक के लिए छुट्टी पर भेज दिया है। एक फरवरी को इससे जुड़े कर्मचारियों के भविष्य के बारे में फैसला किया जायेगा। सभी फेडरल कार्यालयों से इस प्रोग्राम को लेकर रिपोर्ट भी मांगी गयी है। डीईआई प्रोग्राम का उद्देश्य महिला, अश्वेत, अल्पसंख्यक, ट्रांसजेंडर और अन्य कम प्रतिनिधित्व वाले ग्रुप्स के लिए अवसरों को बढ़ावा देना है। अमेरिका के निजी क्षेत्र को भी डीईआई प्रोग्राम के तहत जॉब देने की बाध्यता रहती है। ट्रम्प के नए आदेश के बाद मेटा, बोइंग, अमेजन, वालमार्ट, फोर्ड, हार्ले डेविडसन, मैकडोनाल्ड इत्यादि ने भी डीईआई प्रोग्राम बंद करने की घोषणा कर दिया है।
डिपार्टमेंट ऑफ गर्वनमेंट एफिसिएंसि के नेता एलन मस्क ने भी डीईआई को रेसिज्म यानी नस्लवाद का दूसरा रुप बता दिया है। डीईआई एजेंसियों पर ट्रम्प समर्थकों सहित गोरे नस्ल के अधिकांश लोगों का आरोप है कि इसकी आड़ में एक नये ढंग का नस्लभेद होता है, जिसमें श्वेत अमेरिकी लोगों को टारगेट किया जाता है। बहरहाल जानकारों के मुताबिक डीईआई संबंधित आदेश की वजह से एक लाख भारतीयों की नौकरियों पर खतरा पैदा हो गया है. अमेरिका में कुल 32 लाख फेडरल( केंद्रीय)कर्मचारी हैं। इनमें आठ लाख डीईआई प्रोग्राम के तहत काम करते हैं, जिनमें लगभग एक लाख भारतीय नागरिक हैं। इसमें अमेरिकी नागरिकता प्राप्त और वर्क वीजा जैसे एच–1बी पर काम करने वाले शामिल हैं। लेबर डिपार्ट के मुताबिक ट्रम्प ने 1965 में राष्ट्रपति लिंडन बी जॉन्सन की तरफ से जारी किए गए उस आदेश को भी रद्द कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि फेडरल कॉन्ट्रेक्ट में नस्ल, रंग, धर्म, जेंडर और राष्ट्रीयता के आधार पार कोई भेदभाव नहीं क़िया जायेगा। ट्रम्प के डीईआई प्रोग्राम विरोधी फैसलों के बाद आज दुनिया मार्टिन लूथर किंग जूनियर और खासतौर से लिंडन बी जॉन्सन को शिद्दत के साथ याद कर रही है। ट्रम्प ने डीईआई प्रोग्राम विरोधी निर्णय के जरिए लिंडन बी जॉन्सन के उस महान विचार को ही खत्म करने की घोषणा कर दिया है, जिसके तहत अमेरिका में उस डायवर्सिटी का विचार विकसित हुआ जो न सिर्फ उसकी समृद्धि में सहायक बना, बल्कि दूसरे देशों के वंचितों में भी हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ने का प्रेरणा का स्रोत बना। डीईआई विरोधी फैसले के दूरगामी असर को समझने के लिए अमेरिका के छह दशक पूर्व के इतिहास का सिंहावलोकन कर लेना होगा जब लिंडन बी जॉन्सन के प्रयासों से अमेरिकी प्रभु वर्ग के विवेक ने नए सिरे से करवट ली।
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अमेरिकी प्रभुवर्ग के सामाजिक विवेक से विकसित हुआ डायवर्सिटी का समावेशी विचार
काबिलेगौर है कि शिक्षार्जन के सिलसिले में लम्बे समय तक अमेरिका में रहे बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर ने अमेरिकी सामाज के जिस बात की प्रशंसा की है, वह वहाँ के गोरों का सामाजिक विवेक है। उन्होंने भारत के प्रभुवर्ग से अमेरिकी प्रभुवर्ग की तुलना करते हुए कहा था अमेरिकियों में सामाजिक विवेक रहा, जिस कारण वे कभी दलितों से भी बदतर हालात में रहे नीग्रो लोगों की बेहतरी के लिए साहित्य रचने के साथ उनके कल्याण के लिए विपुल अर्थदान कर सके। भारतीय प्रभुवर्ग में इसका नितांत अभाव रहा इसलिए वे दलितों की बेहतरी के लिए अमेरिकियों जैसा योगदान न कर सके।
उन्होंने अमेरिकियों के जिस सामाजिक विवेक को सराहा उसका चरम प्रतिबिम्बन सबसे पहले अमेरिकी श्वेतांगी लेखिका हैरियट बीचर स्टो में दिखा, जिन्होंने 1851 में ‘अंकल टॉम्स केबिन’ लिखकर गोरों में सामाजिक विवेक उभारने का जो उद्योग लिया था, उसका असर ऐतिहासिक रहा। उस किताब में दास-प्रथा के तहत अश्वेतों की दुर्दशा का करुण चित्र देखकर संगदिल गोरों में मानवता का झरना फूट पड़ा। उसका ऐसा असर हुआ कि दास-प्रथा के अवसान के मुद्दे पर अमेरिका में जो ऐतिहासिक गृह-युद्ध हुआ, उसमें विवेकवान गोरों ने हाथों में उठा लिया था बंदूक, अपने ही उन भाइयों के खिलाफ, जिनमेंवास कर रही थी अपने ही उन पुरुखों की आत्मा, जिन्होंने कालों का पशुवत इस्तेमाल कर मानवता को शर्मसार किया था। किन्तु गृह-युद्ध के बाद दास-प्रथा की गुफा से निकलने के सौ साल बाद भी अफ्रीकी मूल के अश्वेत तमाम मानवीय अधिकारों से शून्य थे, जिसके खिलाफ मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने 1960 के दशक में शांतिपूर्ण तरीके सेसिविल राइट्स मूव्हमेंट‘ चलाया, जो परवर्ती चरणों में दंगों का रूप अख़्तियार कर लिया। नागरिक अधिकारों के महान नायक मार्टिन लूथर किंग जू की 4 अप्रैल, 1968 को गोली मारकर हत्या कर दी गयी, जिसके फलस्वरूप वहाँ उग्रतम आंदोलन भड़क उठा। बहरहाल मार्टिन लूथर के जीवितावस्था में सिविल राइट्स मूव्हमेंट से उभरे दंगों पर काबू पाने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉन्सन नें 27 जुलाई,1967 में जो कर्नर आयोग गठित किया था, उसकी रिपोर्ट 2 मार्च, 1968 को प्रकाशित हो गयी। उस रिपोर्ट में सुझाए दिशा निर्देशों का अनुसरण करते हुये जॉन्सन नें वंचित नस्लीय समूहों को राष्ट्र के संपदा-संसाधनों में भागीदार बनाने का निर्णय लिया। इसके लिए उन्होंने नारा दिया, ‘अमरीका हर जगह दिखना चहिए!’ इस बड़े लक्ष्य के लिए उन्होंने ‘भारत की आरक्षण प्रणाली’ से आइडिया उधार लेकर विभिन्न नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व सिर्फ नौकरियों में ही नहीं, उद्योग-व्यापार मे भी सुनिश्चित कराने के लिए विविधता नीति(डाइवर्सिटी पॉलिसी) अख़्तियार किया, जिसका अनुसरण उनके बाद के सभी राष्ट्रपतियों-निक्सन, कार्टर, रीगन इत्यादि ने भी किया। उसके फलस्वरूप अमेरिकी अल्पसंख्यकों( कालों, रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स, एशियन पैसेफिक मूल के लोगों) को धीरे-धीरे नहीं, बड़ी तेजी सेडीईआई प्रोग्राम के तहत सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों सहित ज्ञान- उद्योग, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-टीवी इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में ही भागीदारी सुनिश्चित होने लगी। इसी डाइवर्सिटी पॉलिसी के गर्भ से वहाँ अश्वेतों में बड़े-बड़े फिल्म एक्टर-एक्ट्रेस, डायरेक्टर-प्रोड्यूसर, टीवी एंकर, सप्लायर, डीलर, सीईओ इत्यादि का उदय हुआ.डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत अमेरिका अपने देश का अधिकतम मानव संसाधन तथा विभिन्न देशों की असाधारण प्रतिभाओं का उपयोग करने मे समर्थ हुआ, जिसके फलस्वरूप उसे अपने प्रतिद्वंदी रुस को पछाड़ कर विश्व महाशक्ति में तब्दील होने का अवसर मिला।
बहरहाल जॉन्सन की जिस विविधता नीति के फलस्वरूप अमेरिका में सुखद बदलाव आया, उसे सफल बनाने में सबसे बड़ा योगदान वहां के उस प्रभुवर्ग का रहा। गृह-युद्ध में वंचित अश्वेतों के प्रति अभूतपूर्व सदाशयता का परिचय देने वाला अमेरिकी प्रभुवर्ग राष्ट्रपति जॉन्सन के आह्वान का सम्मान करते हुये अपने निजी नुकसान को दरकिनार कर वंचित नस्लीय समूहों को देश के संपदा-संसाधनो और नौकरियों इत्यादि में भागीदार बनाने के लिए स्वतःस्फूर्त रूप से सामने आया। उसके जाग्रत विवेक के चलते ही सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी नीति परवान चढ़ सकी। लेकिन डाइवर्सिटी पॉलिसी को अनुकरणीय बनाने के बावजूद अमेरिका के प्रभुवर्ग को अपने जाग्रत विवेक का चरम दृष्टांत स्थापित करना बाकी था और उसने अश्वेत बराक ओबामा को अमेरिका का राष्ट्रपति बनाकर वह कर दिखाया। जिन कालों का पशुवत इस्तेमाल कर वहां के गोरों ने रंगभेद का काला इतिहास रचा था, उन्हीं में से किसी एक की संतान ओबामा को राष्ट्रपति बनाकर उसने अपने सारे पापों को धुल डाला। लेकिन ओबामा के हाथ में दोबारा अमेरिका की बागडोर सौंपने के बाद के वर्षों में जिस तरह छिटफुट घटनाओं के साथ अगस्त 2014 में फर्ग्यूशन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवंबर 2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाये जाने से इंकार करने एवं 18 मई, 2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने जैसी बड़ी घटनाएँ सामने आयीं, उसके बाद यह स्पष्ट हो गया कि विविध कारणों से अमेरिकी प्रभुवर्ग अश्वेतों के प्रति पहले जैसा उदार नहीं रहा. उसका विवेक शिथिल पड़ते जा रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण ऑस्कर 2015 और 2016 मे मिला।
अमेरिकी गोरों के साइक में आए बदलाव को हथियार बनाने की परिकल्पना
काबिलेगौर है कि ऑस्कर 2002 में डेंजिल वाशिंगटन और हैलेबेरी को एक साथ बेस्ट एक्टर और एक्ट्रेस से नवाजे जाने के बाद ऑस्कर पुरस्कारों में विविधता लगातार दिखने लगी अर्थात किसी न किसी श्रेणी में अश्वेतों को लगातार सम्मानित किया जाने लगा। लेकिन 2015 में यह सिलसिला अचानक थम गया, जिसे लेकर पूरी दुनिया में ऑस्कर देने वाली ज्यूरी की तीव्र भर्त्सना हुई, किन्तु 2016 में स्थिति और बदतर हो गयी. 2015 में तो मार्टिन लूथर किंग जू. के वोटाधिकार के लिए 1965 में हुये ‘अलबामा मार्च’ पर बनी ‘सेल्मा’ को को बेस्ट पिक्चर की कटेगरी में नामांकन मिला पर, 2015 के मुक़ाबले अश्वेतों द्वारा हॉलीवुड में और बेहतर किए जाने के बावजूद ऑस्कर – 2016 में फिल्मों की प्रमुख श्रेणियों-बेस्ट एक्टर, एक्ट्रेस, पिक्चर और डायरेक्शन – में किसी भी अश्वेत को नामांकन नहीं मिला। इन दोनों ऑस्कर पुरस्कार समारोहों ने साबित कर दिया कि गोरा समुदाय अश्वेतों के प्रति काफी हद तक अनुदार हो चुका है. अमेरिकी गोरों के साइक में अश्वेतों के प्रति आए बदलाव को नरेंद्र मोदी के क्लोन डोनाल्ड ट्रम्प नें पढ़ा और 2016 के राष्ट्रपति चुनाव मेंनारा उछाला , ‘अमेरिका फर्स्त’ और ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन!’ इन नारों के जरिये ट्रम्प ने संदेश दिया कि अल्पसंख्यकों की रोजगार और अवसरों पर भारी भरकम उपस्थिती के कारण अमेरिका महानता की श्रेणी से स्खलित हो गया है। मेक अमेरिका ग्रेट अगेन को परवान चढ़ाने के लिए उन्होंने सिर्फ और सिर्फ गोरों के हित में मुद्दे खड़ा किए। ऐसा कर ट्रम्प ने वर्षों से सुप्त पड़ी अमरीकी प्रभुवर्ग की नस्लीय भावना को नए सिरे से भड़का दिया। फलतः 8 नवंबर, 2016 को जब चुनाव परिणाम सामने आया, ट्रम्प का ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन ‘ हिलेरी क्लिंटन के ‘स्ट्रॉंगर टुगेदर’ नारे पर बहुत भारी पड़ा।
2020 के चुनाव में फिर विजयी हुआ अमेरिकी प्रभुवर्ग का सामाजिक विवेक
ट्रम्प ने अमेरिकी गोरों की सुप्त नस्लीय भावना को भड़का कर जिस तरह अमेरिका की बागडोर अपने हाथ में लिया, उससे अल्पसंख्यक विद्वेष के जरिये राजसत्ता पर कब्जा जमाने का उन्हें एक अचूक मंत्र मिल गया. उसके बाद भारत में जिस तरह नरेंद्र मोदी ‘मुस्लिम विद्वेष’ के जरिये राजनीतिक सफलता का नया-नया अध्याय जोड़ते गये, उसकी पुनरावृति अमेरिका मे करने के लिए ट्रम्प भी लगातार अमेरिकी अल्पसंख्यकों के खिलाफ नफरत फैलाने के मोर्चे पर मुस्तैद रहे. ऐसे में लोग अमेरिकी प्रभुवर्ग से नस्लीय भेदभाव के खिलाफ मुखर होने की उम्मीद छोडने लगे . ऐसे निराशाजनक दौर में जब जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरुद्ध अभूतपूर्व संख्या में वहां का प्रभुवर्ग अश्वेतों के समर्थन में सड़कों पर उतरा, दुनिया विस्मित हुए बना न रहा सकी. नस्लभेद के खिलाफ गोरों में नए सिरे से पैदा हुये आक्रोश को देखते हुये अब ढेरों लोग अगले राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प की विदाई के प्रति आशावादी हो चले,जो 2020 के अमेरिकी चुनाव में हुआ भी . मोदी के क्लोन ट्रम्प के भयावह नस्लभेदी दौर के बाद नस्लीय कलंक से उबरने के लिए अमेरिका को एक अश्वेत चेहरे की जरूरत थी, जिसे कमलाहैरिस ने पूरा कर दिया.2020 के अमेरिकी चुनाव में जहाँ कमला हैरिस ने उपराष्ट्रपति बनकर इतिहासरच दिया, वहीं गोरों ने अपने सामाजिक विवेक का एक बार फिर परचम लहरा दिया.उनकी तारीफ करते हुए डीईआई प्रोग्राम के बढ़ावा देने के जरिए प्रेसिडेंट बने जो बाइडन ने कमला को भारतीय बताने के बजाय एक दक्षिण एशियाई बताते हुए कहा था , ‘ मुझे एक शानदार उपराष्टृपति के साथ काम करने का अवसर मिल रहा है. वह न केवल पहली महिला हैं, बल्कि पहली अश्वेत और दक्षिण ऐशियाई महिला हैं, जो इस पद तक पहुंची हैं।’
ट्रम्प की वापसी में सहायक बनी जो बाइडन की डीईआई पॉलिसी
2020 के चुनाव में हार के बाद ट्रम्प भारी निराश हुए और बहुत दबाव में व्हाइट हाउस छोड़ने के लिए तैयार हुए। किन्तु हारने के बाद वह दोगुनी ताकत से अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अमेरिकी प्रभुवर्ग को आक्रोशित करने में जुट गए। दरअसल डायवर्सिटी केंद्रित डीईआई प्रोग्राम का लाभ उठाकर अमेरिकी अल्पसंख्यकों के जीवन में जो सुखद बदलाव आया, उससे वहाँ के प्रभुवर्ग में उनके प्रति ईर्ष्या और शत्रुता के उत्तरोतर वृद्धि के साथ असुरक्षाबोध बढ़ते गया। यही नहीं अप्रवासियों की उन्नति भी उन्हें चिढ़ाने लगी। ऐसे में जब बाइडन सरकार सत्ता में आकर नए सिरे से डीईआई प्रोग्राम को बढ़ावा देने लगी, ट्रम्प अल्पसंख्यकों और अप्रवासियों की छवि एक तरह वर्ग शत्रु के रुप में स्थापित करने में मुस्तैद हो गए और जब वह रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी जीतने मे कामयाब हो गए, मुख्य रुप से निशाना बनाने में मुस्तैद हुए डीईआई प्रोग्राम और अप्रवासियों को वैसे में जब 70 प्रतिशत से अधिक संख्या बल क़े स्वामी गोरे समुदाय के बहुसंख्य लोगों में अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा चरम पर पहुंच गई, ट्रम्प की सत्ता में वापसी तय हो गई. अब सत्ता में आने के बाद जिस त्वरित गति से उन्होंने अल्पसंख्यकों और अप्रवासियों को निशाने पर लिया है, उससे बहुसंख्य गोरे अमेरिकियोँ में हर्ष की लहर दौड़ गई है। ट्रम्प ने भी अल्पसंख्यक विद्वेश की उपलब्धि कर ली है. ऐसे में जिस तरह नफ़रत के सहारे मोदी की भाजपा अप्रतिरोध्य बनी है, उसी तरह आने वाले दिनों में दुनिया ट्रम्प की पार्टी को और मज़बूत होते देखेगी! लोगों का कयास है कि एक फरवरी के बाद ट्रम्प सरकार डीईआई के खिलाफ उठाए गये कदमों में शिथिलता ला सकती है, लेकिन जिस तरह अमेरिकी प्रभुवर्ग में खु़शी की लहर दौडी है, यह मानकर चलना चाहिय कि अमेरिका को पुन: महान बनाने की आड़ में ट्रम्प डीईआई का जनाजा निकालने में सर्वशक्ति लगायेंगे ही लगायेंगे।
ट्रम्प के डायवर्सिटी विरोधी फैसलों का असर
बहरहाल बहुसंख्य अमेरिकी प्रभुवर्ग (गोरों ) के हित में ट्रम्प डीईआई का जनाजा निकालने की तैयारियों में जो जुट गये हैं, उसका भारत सहित बाकी दुनियां में अफरमेटिव एक्शन के जरिए वंचितों को समानता दिलाने का जो उपक्रम चल रहा है, उस पर क्या असर होगा, इसे लेकर चर्चा का दौर शुरु हो गया है। यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि दुनियां के अधिकांश देशों में ही वहाँ के वंचितों को समानता दिलाने के लिए अमेरिका के डीईआई प्रोग्राम जैसे कार्यक्रम चलाए जाते हैं। इससे अमेरिकी प्रभुवर्ग की भांति सभी देशों के प्रभुवर्ग को अपनी कथित मेरिट के सहारे शक्ति के समस्त स्रोतों पर एकाधिकार जमाने में दिक्कत आती है। कारण, अफरमेटिव एक्शन से वंचितों को भी शक्ति के स्रोतों में शेयर सुनिश्चित हो जाता है. इससे अफरमेटिव एक्शन का लाभ उठाने वाले हर देश के वंचितों के प्रति वहाँ के प्रभुवर्ग में एक नफ़रत का भाव रहता है और वह विविधता , समानता और समावेशी जैसे वैधानिक प्रावधानों से निजात पाना चाहता है। ऐसे में हर देश का प्रभुवर्ग ट्रम्प के एक्शन से उत्साहित होकर अफरमेटिव एक्शन जैसे प्रोग्रामों को खत्म करने की दिशा में अग्रसर हो सकता है। इस मामले में सबसे ज्यादा: डबल तत्परता दिखासकता है भारत का प्रभुवर्ग! डबल इसलिए क्योंकि, एक तो वह दुनिया के दूसरे प्रभुवर्ग की भांति शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार कायम करने के लक्ष्य से आरक्षण के खात्मे में आगे होगा हीदूसरा, इसलिये भी तत्पर होगा क्योंकि आरक्षण से उसके धर्म को आघात पहुंचता है. ऐसा इसलिए कि हिंदू धर्म में यहाँ के आरक्षित वर्गो : दलित, आदिवासी, पिछड़ों और महिलाओं के लिये शक्ति के स्रोतों का भोग अधर्म है। शक्ति के स्रोतों के भोग का एकमात्र अधिकार हिंदू ईश्वर के उत्तमांग : मुख, बाहु, जंघे से उत्पन्न सवर्णों के लिए है. चूँकि भारत का आरक्षण उन सब चीजों के भोग का अधिकार यहाँ के आरक्षित वर्गो को सुलभ कराता है, जिनके दैवीय अधिकारी यहाँ का प्रभुवर्ग अर्थात सवर्ण हैं, इसलिए यहाँ का प्रभुवर्ग अपने धर्म के रक्षार्थ सब समय आरक्षण के खात्मे की ताक में रहता है। यही कारण है हिंदू धर्म का ठेकेदार आरएसएस पूना-पैक्ट के जमाने से ही आरक्षण के खात्मे में प्रयत्नशील रहा है। आज उसी संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा का केंद्र की सत्ता पर जबरदस्त दबदबा कायम है और संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक गत एक दशक से आरक्षित वर्गों को वर्ग शत्रु के रुप में ट्रीट करते हुए उन सभी संस्थानों को निजी हाथों में देने का उपक्रम चला रहे हैं, जहाँ आरक्षण मिलता रहा है। ट्रम्प की सारी नफरत वाली राजनीतिक शैली मोदी से ही प्रेरित है, जो राज सत्ता का सम्पूर्ण उपयोग आरक्षण के खात्मे तथा सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार स्थापित करने में कर रहे हैं। पर, वह ट्रम्प की तरह आरक्षण के खात्मे की घोषणा करने का दुसाहस इसलिये नहीं कर सकते क्योंकि भारत का आरक्षण विरोधी प्रभुवर्ग अमेरिका की भांति बहुसंख्य नहीं : अत्यंत अल्पसंख्यक है!ऐसे में मोदी सिर्फ उन संस्थानों को बेचने में ही दूने वेग से आगे बढ़ सकते है जहाँ आरक्षण लागू होता है।
अफरमेटिव एक्शन को बचाने की जिम्मेवारी भारत के आरक्षित वर्ग के बुद्धिजीवियों पर
बहरहाल ट्रम्प ने डीईआई पर चरम आघात करने की जो परिकल्पना की है, उसे मानव जाति के सबसे बड़े संकटों में एक के रूपं में देखा जाना चाहिए क्योंकि इससे अफरमेटिव एक्शन का वह विचार ही धरा से विलुप्त हो जायेगा, जिसके जोर से बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से जाति, नस्ल, धर्म, लिंग इत्यादि के आधार पर शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किए गए तबकों को उनका प्राप्य दिलाने का कार्यक्रम शुरु हुआ. इस संकट से सम्पूर्ण मानव जाति को निजात दिला सकते हैं सिर्फ भारत के आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवी क्योंकि एक तो भारत वह देश हैं जहाँ न सिर्फ आरक्षण पर निर्भर लोगों की आबादी विश्व के कई दर्जन देशों से अधिक है, बल्कि उनका संख्याबल इतना भारी है, जिसका सदुपयोग कर डीईआई जैसे प्रोग्रामों को अक्षत रख कर वंचितों को भविष्य में भी आरक्षण सुलभ कराने का सिलसिला जारी रखा जा सकता है।
विविधता, समानता और समावेशी कार्यक्रमों को बचाने के दो उपाय
बहरहाल अगर भारत के आरक्षित वर्गों के बुद्धिजीवी ट्रम्प द्वारा खड़े किए गए संकट से मानव जाति को बचाना चाहते हैं तो उन्हें दो काम करना होगा. पहला अमेरिका के डीईआई पॉलिसी की भांति भारत में भी आरक्षण व्यवस्था को सर्वव्यापी रुप देते हुए उसमें विविध सामाजिक समूहों को उनकी संख्यानुपात में नौकरियों , शिक्षा इत्यादि से आगे बढ़कर शक्ति के समस्त स्रोतों – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक – तक प्रसारित करना होगा। दूसरा, ऐसे राजनीतिक दल के पीछे वंचितों की विशाल आबादी को लामबंद करना पड़ेगा जिसमें अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी की तरह विविध सामाजिक समूहों को तमाम क्षेत्रों में वाजिब हिस्सेदारी देने के चाह के साथ आरक्षण विरोधी दलों से दो-दो हाथ करने की आंतरिक चाह हो! बहरहाल अगर ट्रम्प द्वारा डीईआई पर किए हमले से दुनिया के वंचितों को बचाने की यही शर्त है तो भारत में डायवर्सिटी का उज्ज्वल दृष्टांत स्थापित किया जा सकता है। जहाँतक पहली शर्त का सवाल है डायवर्सिटी का बुनियादी विचार यहाँ धीरे-धीरे पनप रहा है।