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साहब, बीवी और गुलाम : ढहते हुए सामन्तवाद की दास्तान

राजकपूर और गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा के किशोर काल में ही कसे हुए सम्पादन के साथ विविध विषयों पर मनोरंजक एवं संदेशपरक फिल्में बनाई जिनकी कद्र आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करते हैं। आज भी नयी पीढ़ी के फिल्मकार गुरुदत्त जैसे लिजेंड की क्लासिक फिल्मों से सीखते हैं अपनी फिल्में बनाते हैं।

गुरुदत्त भारतीय सिनेमा के महानतम फ़िल्मकारों में से एक हैं। गुरुदत्त की जीवनी लेखिका ने सिनेमा जगत में उनके योगदान को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, ‘गुरुदत्त’ शानदार फिल्मों की एक विरासत छोड़कर 10 अक्टूबर, 1964 को इस संसार से विदा हो गए। सन 1980 से विश्व भर में उनकी फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं। जब भी दर्शक प्यासा या साहब, बीवी और ग़ुलाम फिल्में देखता है तो उनकी फिल्म निर्माण कला और अनूठी शैली से अभिभूत हुए नहीं रह सकता…’ (कबीर 2012:2)।

राजकपूर और गुरुदत्त हिन्दी सिनेमा के ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा के किशोर काल में ही कसे हुए सम्पादन के साथ विविध विषयों पर मनोरंजक एवं संदेशपरक फिल्में बनाई जिनकी कद्र आज भी दुनिया भर के फिल्मकार करते हैं। गुरुदत्त की जीवनी लेखिका नसरीन मुन्नी कबीर ने किताब का शीर्षक दिया है ‘गुरुदत्त: हिन्दी सिनेमा का एक कवि’। एक कवि मानवीय सम्वेदनाओं से परिपूर्ण और कल्पना शक्ति से सम्पन्न एक कलाकार होता है जिसकी कविता या गीतों से दर्शकों और श्रोताओं पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है। गुरुदत्त की लगभग सारी फिल्में हमने देखी हैं और उनको देखते हुए ये कहने में कोई हर्ज नहीं है कि वे रुपहले परदे के आदर्श कवि हैं। गुरुदत्त का वास्तविक नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी निर्देशक, निर्माता, अभिनेता, कोरिओग्राफर और लेखक थे।

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अमेरिका से सीएनएन चैनल ने सन 2012 की अपनी रैंकिंग मे गुरुदत्त को टॉप-25 एशियाई कलाकरों में स्थान दिया था। फिल्म शूटिंग मे प्रकाश व्यवस्था एवं क्लोज़ अप शॉट्स और भाव भंगिमाओं खासकर दुख और डिप्रेशन के क्षणों को अत्यंत कलात्मक ढंग से शूट करने मे महारत हासिल थी। गुरुदत्त को भारत का ऑरसेन वेलेस भी कहा जाता है। गुरुदत्त ऐसे पहले भारतीय फिल्मकार हैं जिनका नाम ब्रिटिश जर्नल साइट एंड साउंड ने सिनेमा के रत्न के रूप मे दर्ज किया और उनको विश्व के बेहतरीन फिल्मकार ऑरसन वेलेस के समान बताया। राजकपूर ने भी वेलेस के काम से खुद को प्रभावित बताया था। यह जर्नल गुरुदत्त की तारीफ मे लिखता है  ‘He was an actor director who brought stillness, self-criticism and unexpected pessimism to the whirl of Indian melodrama, making himself its Orson Welles,” the magazine says in its feature on Guru Dutt in its latest issue. ”He could smile like (Amitabh) Bachchan and romance like (Shah Rukh) Khan but his career was more complex than either combining, in Western terms, those of John Garfield and Orson Welles’.

गुरुदत्त वास्तव मे भारतीय सिनेमा के महानतम कलाकार थे, जिन्होंने संख्या में कम लेकिन बेहतरीन फिल्में बनाई। गुरुदत्त की फिल्में:

चाँद (1944), लाखा रानी (1945), हम एक हैं (1946), बाजी (1951), जाल (1952), बाज (1953), आर पार (1954), मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955), सीआईडी (1956), सैलाब (1956), गौरी (1957), प्यासा (1957), 12 ओ क्लाक (1958), कागज के फूल (1959), चौदवी का चाँद (1960), साहब, बीवी और ग़ुलाम (1962), सौतेला भाई (1962), भरोसा (1963), बहारें फिर भी आएंगी (1966), बहुरानी (1963), साँझ और सवेरा (1964), सुहागन (1964)।

साहब, बीवी और गुलाम

यह फिल्म विमल मित्र के उपन्यास साहब बीवी और ग़ुलाम का फिल्मी रूपांतरण है। यह फिल्म ब्रिटिश कालीन कलकत्ता के एक ज़मींदार परिवार की कहानी कहती है। फिल्म के पहले ही दृश्य में  एक हवेली के तोड़े जाने का दृश्य है और उसके तोड़वाने वाले ओवरसियर हैं भूतनाथ, जो पहली बार गाँव से काम की तलाश मे आने पर इसी हवेली मे अपने रिश्ते के बहनोई के साथ शरण पाए थे। उस टूटती हवेली मे उनको पुराने दिनों की याद आती है जैसे उजाड़ में भी छोटी बहु की मधुर आवाज उन्हें पास बुला रही हो- आओ भूतनाथ, आओ बैठो ना। यह फिल्म फ्लैश बैक शैली में बनाई गई है। साहब, बीवी और गुलाम ताश के पत्तों के तीन नाम हैं और इस फिल्म की हवेली और उसके बाशिंदों के दास्तान को जिस तरह परिवर्तित होते हुए चित्रित करती है उसके बारे में कहा जा सकता है कि सब कुछ ताश के पत्तों की तरह बिखर जाता है। केवल हवेली ही नहीं टूटती बिखरती, उसके असामी, हवेली की भव्यता, उसमें रहने वाले मालिकों और नौकरों सबके संबंध और उनसे बनने वाली एक छोटी दुनिया सब कुछ बिखर जाता है। प्रेमचंद का गोदान हो या रेणु की परती परिकथा सभी टूटती बिखरती ज़मींदारी और उभरती हुई महाजनी सभ्यता के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन को चित्रित करते हैं।

ज़मींदारों के घर के मर्द चौधरी साहब रात को घर पर अपनी पत्नी के पल्लू से बंधकर नहीं रहते घर में या बाहर मुजरा देखते हैं अयाशी करते हैं। मर्दों की इस आदत को उनके घर की औरतें भी न केवल Accept करती हैं बल्कि इस हद तक Adjust कर चुकी हैं कि वे अयाशी और परस्त्री गमन को अपने पति और अन्य मर्दों का अधिकार समझती हैं। अपने चमचे और बात-बात में तारीफ करने वाले चमचों के साथ वे हर फालतू काम करते हैं, कबूतरबाजी करते हैं, रात भर मुजरा सुनते हैं- साकिया आज मुझे नींद नहीं आएगी, सुना है तेरी महफ़िल मे रतजगा है। उस हवेली के मर्द कोई काम नहीं करते और जब ज़मींदारी लुट जाती है तो बीमार होकर शोक मनाते हैं। ज़मींदार साहब अपनी पत्नी मे कोठेवाली बाई के गुण खोजते हैं जो नाचती हो शराब पीती हो। शराब पीने की शर्त पर ही वे घर में रात बिताते हैं। राजकपूर की फिल्म जागते रहो भी कलकत्ता में फिल्माई गयी थी। उसका नायक भी गाँव से शहर आया था लेकिन वहाँ उसका कोई जान पहचान का रिश्तेदार नहीं था, हवेली की जगह फ्लेट ने ले लिया था। उसी फ्लैट के एक कोने मे शराब पीकर घर लौटता हुआ अमीर रोज रात एक गाना गाता है ज़िंदगी ख्वाब है, ख्वाब मे झूठ क्या और भला सच है क्या और एक रात वह भी अपनी पत्नी को जबरदस्ती शराब पिलाकर बाई की तरह नचाना चाहता है लेकिन यहाँ नायक की वजह से उस घर की बहु की लाज बच जाती है। गाँव से शहर आए राजकपूर (अनाम नायक) को पूरी रात एक बूंद पानी नहीं मिलता है और उसे चोर समझ लिया जाता है, दूसरी तरफ अमीर लोग शराब में डूबकर लड़खड़ाते रहते हैं और सारे अवैध काम करते हैं।

परंपरागत मूल्यों का बोझ

साहब, बीबी और ग़ुलाम फिल्म ज़मींदार पुरुष साहब हैं, मीना कुमारी छोटी बहु हैं और भूतनाथ (गुरुदत्त) ग़ुलाम हैं। इस फिल्म में गुरुदत्त की नायिका वहीदा रहमान (जबा) उसी तरह मौजूद हैं जैसे राजकपूर की फिल्मों मे नरगिस मौजूद रहती थी। जबा के पिता सुविनय बाबू ब्रह्म समाज के सदस्य हैं जिन्हें तात्कालिक बंगाल मे म्लेच्छ कहा जाता था। ब्रह्म समाजी परिवार के बदले हुए मूल्यों के डर से सनातनी तरीके से जबा का विवाह एक साल की उम्र में उनकी दादी ने अमूल्य चक्रवर्ती नामक लड़के से कर दिया था जिसका पता उनके द्वारा लिखे गए एक पत्र से फिल्म के अंत मे चलता है कि भूतनाथ ही अमूल्य चक्रवर्ती है। सन 1962 मे जब यह फिल्म रिलीज हुई रूढ़िवादी दर्शकों ने मीना कुमारी के शराबी बहू, दूसरे पुरुष के साथ घर से बाहर जाने और उसके गोंद में सिर रख देने को गलत माना जिसकी वजह से फिल्म के कई दृश्य बदलने पड़े। साहब, बीवी और ग़ुलाम फिल्म की ही तरह राजेश खन्ना और आशा पारिख की फिल्म कटी पतंग में ऐसी ही कथा को विस्तार दिया गया था कि शादी बचपन मे हो गयी, लड़का लड़की को पता नहीं है। लड़की दकियानूसी मे वैधव्य जीवन जी रही है दूसरी शादी नहीं करनी उसे क्योंकि पाप लगेगा। बॉलीवुडिया जुगाड़ों से जब कड़ी से कड़ी जुड़ती है तो पता चलता है कि गंगाधर ही शक्तिमान है फिर सब सुखांत हो जाता है।

शहर की तरफ प्रवास

काम की तलाश मे बिहार से कलकत्ता जैसे बड़े शहर की तरफ प्रवास का एक लंबा इतिहास है। महान भोजपुरी नाटककार भिखारी ठाकुर ने तो विदेसिया नाटकों की एक नई परंपरा ही स्थापित कर दी। बंगाली खूबसूरत महिला जादूगरनियों द्वारा पुरुषों को फांस लेने का मिथक बहुत ही प्रचलित है। साहब, बीवी और ग़ुलाम का नायक भूतनाथ उर्फ अमूल्य चक्रवर्ती बिहार के फतेहपुर गाँव से कलकता शहर आते हैं और अपने रिश्ते के बहनोई मास्टर साहब के साथ हवेली मे रुकते हैं। उनकी भाषा में भोजपुरी का पुट है।

मोहिनी सिंदूर का कारखाना और इश्तहार

सिंदूर सुहाग का प्रतीक होता है और शादीशुदा महिलाएँ इसका प्रयोग करती हैं। इस कंपनी का मालिक एक ब्रह्मसमाजी सुविनय बाबू हैं। उनकी कंपनी अखबार मे एक इश्तहार छापती है जिसमें यह दावा किया जाता है कि जो भी महिला इस सिंदूर को लगाएगी उसका पति अपनी पत्नी की ज्यादा ख्याल रखेगा, अधिक परवाह करेगा। विदेश गया पति वापस आ जाएगा। जब छोटी बहू को यह पता चलता है कि भूतनाथ उसी कंपनी में कारकून है तो वह उससे मोहिनी सिंदूर लाने को कहती हैं। कारखाने से सिंदूर लाने के पहले भूतनाथ अपनी हमउम्र लड़की और मालिक सुविनय बाबू की बेटी जबा से यह सवाल करके मुत्तमईन होना चाहता है कि मोहिनी सिंदूर के बारे में जो इश्तहार छपते हैं वे सही होते हैं ना? भूतनाथ एक तरफ छोटी बहू का भला चाहता है और दूसरी तरफ जबा से भी प्यार करता है। वह अपने कारखाने से मोहिनी सिंदूर के असर की खूब जांच-पड़ताल और पूछताछ करके छोटी बहू के लिए लाता है। फिल्म में छोटी बहू के किरदार में मीना कुमारी ने पति के प्यार से वंचित महिला की भूमिका जबरदस्त तरीके से निभाई। सन साठ के दशक में आयी इस फिल्म की नायिका अपने पति का सानिध्य चाहती है लेकिन उसे इसकी बड़ी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। वह हर जतन करती है। पति को खुश करने के लिए उसे शराब पीना पड़ता है जिसकी ऐसी लत लगती है कि जान जाने के बाद ही छूटती है। मोहिनी सिंदूर से वह अपनी मांग भरती है। माथे पर कुमकुम के टीके का आकार बढ़ता जाता है लेकिन मोहिनी सिंदूर का कोई असर नहीं होता। पति और बच्चा पा लेने के लिए डेसपेरेट हुई एक हिन्दू ज़मींदार परिवार की छोटी खूब सजती है और इस प्रयास को चित्रित करने वाले दो मधुर गीत इस फिल्म मे हैं:

  1. न जाओ सैंया छुड़ा के बइयाँ, तुम्हारी कसं है मैं रो पड़ूँगी…
  2. पिया आइसो जिया में समाय गयो रे, मैं तन मन की सुधि गंवा बैठी…

एक बार शराब की लत लग जाने पर छूटती नहीं, पीने वाली बहू गरीबी के दिनों में हाथ के कंगन बेचकर शराब लाने के लिए भूतनाथ को बोलती है। अपने निजी जीवन में भी असफल प्यार के कारण शायरी करने और शराब पीने वाली अभिनेत्री मीना कुमारी का जीवन बहुत हद इस फिल्म में निभाए गए छोटी बहु के किरदार से मिलता-जुलता है। शराब और डिप्रेशन में डूबकर उनकी असमय मृत्यु हो गई। यह भी अजीब संजोग है कि रुपहले परदे पर फिल्माई गई एक काल्पनिक कहानी के किरदार किसी कलाकार के निजी जीवन में भी घटित हो जाते हैं।

जीवन भर अपने पति के प्यार के लिए तड़पने वाली छोटी बहु फिल्म के अंतिम दृश्य में अपने नौकर भूतनाथ के साथ एक बंद घोडा गाड़ी में बड़े शहर में किसी वैद्य के पास जाती है जिसे उसका जेठ मझले बाबू देख लेता है। रास्ते में घोडा गाड़ी रोककर भूतनाथ की पिटाई होती है और छोटी बहु की चीख बताती है कि उनका बलात्कार होता है और हत्या करके हवेली में दफना दिया जाता है। हवेली के तोड़े जाने के समय एक कब्र मिलती है जिसे भूतनाथ छोटी बहु के रूप में पहचान करता है क्योंकि उनके हाथों में पद कंगन वह पहचान लेता है। गुरुदत्त के इशारे से पता चलता है कि यह कार्य मझले बाबू द्वारा किया जाता है क्योंकि उनके घर की एक महिला पराए मर्द और नौकर के साथ हवेली के बाहर जाने की हिमाकत कर पितृसत्ता को चुनौती दे देती है। उसको सबक देना ज़रूरी हो जाता है।

साहब, बीवी और…अन्य फिल्में

फिल्म साहब, बीबी और गैंगस्टर (2011) तिग्मांशु धूलिया द्वारा निर्देशित एक थ्रिलर प्रेम कहानी है। इस फ़िल्म में जिम्मी शेरगिल, माही गिल और रणदीप हुड्डा प्रमुख भूमिकाओं में हैं। इस फ़िल्म को समीक्षकों से सराहना मिली। फ़िल्म उत्तर प्रदेश के एक रॉयल परिवार की कहानी सुनाती है लेकिन इसका फ़िल्मांकन गुजरात के देवगढ़ बारिया नामक स्थान पर हुआ। इस फ़िल्म का सीक्वल भी साहब, बीवी और गैंगस्टर रिटर्न्स (2013) में रिलीज हुई। महान फिल्मकार गुरुदत्त क्लासिक्ल सुपरहिट फिल्म साहब, बीवी और गुलाम के शीर्षक से मिलती-जुलती निर्देशक तिग्‍मांशु धुलिया की फिल्म साहब, बीवी और गैंगस्‍टर इक्कीसवीं सदी मे स्त्री-पुरुष संबंधों की जटिलता और विशेष रूप से महिलाओं के रिएक्शन मे आए परिवर्तन को मजबूती से उद्घाटित करती है। गुरुदत्त के साहब, बीवी और गुलाम की छोटी बहु कलकत्ता के ज़मींदार परिवार की बहू है वह भी पति के स्नेह से वंचित और उपेक्षित महिला है। वह भूतनाथ को रात अंधेरे मे अपने कमरे में बुलवाती है उसे कामुक नजरों से निहारती भी है। उससे अपना सुख-दुख बांटती रही लेकिन मर्यादा का उल्लंघन करके शारीरिक संबंध नहीं बनाती। परंतु 21वीं सदी के तिग्मांशु के शाही परिवार की बहु जब पति से धोखा पाती है तो खुद अपने नौकर से शारीरिक संबंध स्थापित कर अपनी इच्छाओं को विस्तार देती हुई नए ज़माने की बोल्ड स्त्री के रूप मे हमारे सामने आती है। एक पति का अपनी पत्नी से बवफाई करना और फिर पति की गैर-मौजूदगी में पत्नी का अपने ड्राइवर के साथ शारीरिक संबंध बनाना आज के समाज का एक घिनौना चेहरा ज़रूर है लेकिन सच प्रतीत होता है। इस फिल्म मे अश्लील दृश्यों की बहुलता है। यह फिल्म आज के सामाजिक परिवेश पर एक प्रहार के रूप में देखी जा सकती है जहां अब सिर्फ पुरुषहीन हीं महिलाएं भी अपनी शारीरिक एवं जैविक इच्छाओं के लिए विवाहेतर संबंध बनाने मे संकोच नहीं करती बल्कि अपने अधिकार के रूप मे देखती हैं।

शतरंज के खिलाड़ी 1977 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है जिसे मुंशी प्रेमचंद्र द्वारा लिखी गई कहानी पर प्रसिद्ध बांग्ला फिल्मकार सत्यजीत रे ने निर्मित किया था। इसकी कहानी 1856 के अवध के  नवाब वाजिद आली शाह के दो अमीरों के इर्द-गिर्द घूमती है। ये दोनों खिलाड़ी शतरंज खेलने में इतने व्यस्त रहते हैं कि उन्हें अपने शासन तथा परिवार की भी फ़िक्र नहीं रहती। इसी की पृष्ठभूमि में अंग्रेजों की सेना अवध पर चढ़ाई करती है। फिल्म का अंत अंग्रेज़ों के अवध पर अधिपत्य के बाद के एक दृश्य से होता है जिसमें दोनों खिलाड़ी शतरंज अपने पुराने देशी अंदाज की बजाय अंग्रेज़ी शैली में खेलने लगते हैं जिसमें राजा एक-दूसरे के आमने सामने नहीं होते। इस फिल्म को फिल्मकारों तथा इतिहासकारों दोनों की समालोचना मिली थी। फ़िल्म को तीन फिल्मफेयर अवार्ड मिले थे जिसमें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी शामिल था।

गुरुदत्त एक समर्थ फिल्मकार थे और साहब, बीवी और गुलाम एक सफल फिल्म। अंग्रेजी शासनकाल के कलकत्ता के ज़मींदार की हवेली उसमे रहने वाले ज़मींदार, उनकी पत्नियाँ और नौकर चाकर सब कुछ बाहर से देखने पर ठीक से चल रहा होता है लेकिन हवेली के भीतर बेबस-उपेक्षित महिलायें हैं, मुजरा है रतजगा, देश दुनियाँ और अंग्रेजों की गुलामी से बेखबर लोग रागदरबारी सुनने में व्यस्त हैं। सब कुछ खोखला हो रहा है। राजदार और पैरोकार समझे जाने वाले लोग हवेली और उसकी संपत्तियों को लूटने लगे हैं। झूठ मूठ का दंभ और आडंबर है कर्मकांड और दकियानूसी परम्पराएं है सब मिलकर हवेली के अंदर और बाहर के वातावरण को सड़ाने मे लगे हैं। कुछ क्रांतिकारी भी हैं जो बम बंदूक लेकर अंग्रेजों से मोर्चा खोले हुए हैं लेकिन लंपट और भोगी ज़मींदारों को अयाशी और कबूतरबाजी से फुरसत नहीं है वे मुजरा सुनने और शराब पीने मे व्यस्त हैं। सब कुछ बिक जाता है, हवेली की रौनक चली जाती है और एक दिन उसे तोड़ने की नौबत आती है। साहब मर चुके हैं, बीवी की हत्या हो चुकी है और ग़ुलाम सुपरवाइजर बनकर हवेली तोड़ने का काम करा रहा है। प्रतीकात्मक रूप से देखें तो यह ज़मींदारी के खात्मे और महाजनी सभ्यता (प्रेमचंद्र) के प्रभावी होते जाने की दास्तान है। विमल मित्र के इसी नाम के उपन्यास पर बनी फिल्म के बारे में टाइम्स ऑफ इंडिया (24 जून 1962) लिखता है, इस फिल्म की कथा बेहतर तरीके से लिखी गयी है… इस उपन्यास का शब्द बाहुल्य तथा अप्रासंगिकता इसे अव्यवस्थित बना देती है लेकिन इस फिल्म में मूल पुस्तक का प्रभावी तरीके से रूपांतर तो किया गया है लेकिन अनुकरण नहीं। तात्पर्य यह है कि फिल्म की कहानी का प्रस्तुतीकरण उपन्यास से भी अच्छा और प्रभावशाली है।

राजकपूर और नरगिस का प्रेम जगजाहिर था। उनका पारिवारिक जीवन बहुत अस्त-व्यस्त हुआ लेकिन राजकपूर और कृष्णा का अपने संबंध और परिवार बचाकर आगे निकल गए परंतु गुरुदत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान के साथ संबंधों ऐसे उलझे कि आत्महत्या कर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। गुरुदत्त अंतर्मुखी और संश्लिष्ट व्यक्ति थे और उनके जीवन का दुखद अंत हुया भारत देश ने अपने एक प्रतिभावान और संवेदनशील फिल्मकार को असमय खो दिया। आज भी नयी पीढ़ी के फिल्मकार गुरुदत्त जैसे लिजेंड के क्लासिक फिल्मों से सीखते हैं अपनी फिल्में बनाते हैं।

संदर्भ

Guru Dutt India’s Orsen Welles, says Brit Film journal By Staff | Published: Thursday, March 23, 2006, 12:33 [IST] New Delhi, Mar 23:

कबीर, नसरीन मुन्नी (2012) गुरु दत्त: हिन्दी सिनेमा का एक कवि, प्रभात पेपरबैकस, नई दिल्ली।

http://southasiajournal.net/india-a-tribute-to-the-brilliant-guru-dutt-the-great-master-of-the-art-and-craft-of-film-making/

https://www.oneindia.com/2006/03/23/guru-dutt-indias-orsen-welles-says-brit-film-journal-1143097408.html

 

 

 

डॉ. राकेश कबीर
डॉ. राकेश कबीर
राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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