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रासायनिक खेती का सच : कारपोरेट खेती और जहरीले खाद्यान से कैसे मिलेगी निजात?

क्या वास्तविक रुप में दोबारा रासायनिक खेती छोड़ कर पारम्परिक खेती की ओर लौटा जा सकता है? यदि हाँ तो उसकी क्या रणनीति है?

आज जब भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया में रासायनिक खेती छोड़ जैविक खेती या पारम्परिक खेती की ओर लौटने की बात हो रही है तो ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि जिस रासायनिक खेती के पदार्पण के चंद दशक ही गुजरे हों उससे मुक्ति की बात क्यों होने लगी है? आखिर रासायनिक खेती ने पैर कैसे पसारा, इसके पीछे कौन लोग थे और रासायनिक खेती से जैविक खेती की ओर लौटना चुनौतीपूर्ण क्यों है? जैविक से रासायनिक और रासायनिक से जैविक खेती की विकास यात्रा का अरुण सिंह क्रमिक वर्णन और विश्लेषण करेंगे …!

दुनिया के जीव-जगत के भविष्य को खतरे में डाल देने वाली रासायनिक खेती की शुरुआत बढ़ती जनसंख्या को संभावित भुखमरी से बचाने के लिए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के नाम पर की गयी। 1941 में राकफेलर फाउंडेशन द्वारा मेक्सिको में मक्का अनुसंधान के लिए अनुदान के नाम पर पहली बार कृषि में निजी पूंजी निवेश किया और मेक्सिको में अंतर्राष्ट्रीय मक्का और गेहूं सुधार केंद्र की स्थापना की। जिसका उद्देश्य मेक्सिको में संचालित कृषि कार्यक्रम को दुनिया भर में फैलाने का था।

सन् 1990 तक फाउंडेशन ने दुनिया के कई देशों में लगभग 600 मिलियन डॉलर का निवेश नई तकनीकी, उत्पादन में वृद्धि, कृषि क्षेत्र के विस्तार और रासायनिक उर्वरकों के लिए किया। लगभग 100 मिलियन डॉलर का निवेश पादप जैव प्रौद्योगिकी के लिए किया। फाउंडेशन ने धान गेहूं और मक्का सहित ट्रांसजेनिक (ट्रांसजेनिक एक जीन है जिसे अनुवांशिक इंजीनियरिंग के द्वारा एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित किया जाता है) फसलों के उत्पादन में भी किया।

आजादी के तुरंत बाद ही राकफेलर फाउंडेशन ने भारत में अपने कृषि कार्यक्रम को संचालित करने के लिए एक ज्ञापन भारत सरकार को दिया। तीन साल बाद भारत सरकार ने फाउंडेशन के साथ भारत में कृषि क्षेत्र के विस्तार और उत्पादन में वृद्धि के लिए भारत को एक संभावित क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया। 1954 में फाउंडेशन के कृषि वैज्ञानिक एडमिन जे वेल हाउजेन और यूलिसिस जे ग्रांट को भारत में बुलाया गया। दोनों वैज्ञानिकों ने भारत में नियुक्त राकफेलर फाउंडेशन के भारतीय कृषि कार्यक्रम के निदेशक के साथ मिलकर अखिल भारतीय मक्का सुधार कार्यक्रम तैयार किया।

साल 1963 में भारत सरकार ने फोर्ड फाउंडेशन और रॉक फिल्म राकफेलर फाऊंडेशन में कार्य कर रहे वैज्ञानिक नॉर्मल बोरलॉग और हल्दौर हैंडसन को आमंत्रित किया। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली में कार्यरत कृषि वैज्ञानिक स्वामीनाथन ने इन दोनों वैज्ञानिकों के साथ मुलाकात की। बोरलॉग ने मैक्सिकन गेहूं की चार किस्म के बीज स्वामीनाथन को दिया। मैक्सिकन गेहूं के बीज की बुवाई भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली, पंतनगर, और लुधियाना में की गई।

इन संस्थाओं से प्राप्त बीजों को किसानों ने 1966 से 1967 तक बड़े पैमाने पर बुवाई किया। रासायनिक खादों की उच्च खुराक के कारण मैक्सिकन गेहूं के उत्पादन में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई। भारत सरकार ने 1967 में मेक्सिको से 18,000 टन गेहूं के बीज का आयात किया और किसानों को बोने के लिए उपलब्ध कराया। भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने मेक्सिको की बौने प्रजाति के इस गेहूं तथा पंजाब के गेहूं के साथ क्रॉस करके नए किस्म के गेंहू सोनालिका और कल्याण सोना को विकसित किया।

वहीं धान की नई किस्म ‘जया’ भी भारतीय वैज्ञानिकों ने विकसित किया। इसी समय राकफेलर फाउंडेशन के इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट ने आईआर-8 धान की नई किस्म को विकसित कर लिया। राकफेलर और फोर्ड फाउंडेशन ने 20 टन आईआर-8 धान का बीज भारत में मंगाया। गेहूं और धान की इन नई किस्मों की बुवाई और उच्च मात्रा में रासायनिक खादों के प्रयोग और ज्यादा सिंचाई ने उत्पादन को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा दिया।

साल 1966 में शुरू की गई गेहूं और धान की नई किस्म और रासायनिक खादों, कीटनाशकों, खरपतवार नाशकों ने भारत के परंपरागत खेती, खाद और बीजों को विलुप्त तो किया ही साथ ही कृषि के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को भी नष्ट कर दिया। 1980 के दशक तक रासायनिक खादों और कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती रही उसके बाद उत्पादन में गिरावट शुरू हो गई। घटते उत्पादन से परेशान किसान रासायनिक खादों की मात्रा लगातार बढ़ते रहे। 1990 के दशक के बाद उत्पादन स्थिर हो गया और अब खाद की मात्रा बढ़ाने के बाद भी उत्पादन में वृद्धि नहीं हो रही है।

साल 1966-67 में शुरू की गई हरित क्रांति ने भारतीय किसानों को उत्पादन को लेकर लालची बना दिया। लालची बन गए किसानों ने अत्यधिक उत्पादन लेने के चक्कर में अपने खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने और भूजल स्तर को संरक्षित करने पर कुछ भी खर्च नहीं किया। रिपोर्टस बताती हैं कि रासायनिक खादों की अधिकता से खेत बंजर हो रहे हैं। नए किस्म की फसलों के पानी की जरूरत पूरा करने में भूजल स्तर इतना नीचे चला गया है कि कई जिलों और ब्लॉकों को डार्क जोन घोषित कर दिया गया है।

रसायनों के प्रयोग से खेत, नदी, नाले, तालाब के साथ जमीन के नीचे तक का पानी प्रदूषित हो गया है। रासायनिक खादों के प्रयोग से उत्पादित अनाजों को खाने से कैंसर के रोगी अप्रत्याशित रूप से बढ़ गए हैं। लिवर, किडनी, हृदय, आंख, चमड़ी, श्वसन से संबंधित बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि हुई है।

हरित क्रांति का स्वास्थ्य पर असर तो धीरे-धीरे हुआ जो 50 सालों बाद अपने विकराल रूप में सामने आया लेकिन इसने तो भारतीय किसानों की आत्मनिर्भरता को बहुत पहले ही खत्म कर दिया। खेती का सीधा संबंध पशुपालन और बागवानी के साथ जुड़ा हुआ है एक का विनाश दूसरे के विनाश का कारण बन जाता है बढ़ते रासायनिक खादों और कृषि यंत्रों के प्रयोग ने पशुपालन और बागवानी को नष्ट कर दिया। खेती के साथ-साथ पशुपालन और बागवानी से किसानों को खाद के साथ-साथ दूध, मांस और फल भी मिलता था, जो उनकी थाली में खाने की विविधता के साथ पौष्टिकता को भी बढ़ता था। उनकी बिक्री से उन्हें आय भी होती थी। कृषि में लोगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध हो जाते थे।

इतना ही नहीं जुताई, बुवाई, निराई, कटाई, मड़ाई, पशुपालन आदि से कृषि मजदूरों को गांव में ही काम मिल जाता था। छोटे किसान भी आत्मनिर्भर थे स्वयं के बैलों से जुताई, स्वयं के बीज, कंपोस्ट खाद, और सिंचाई के साधन होने से खेती कर पाते थे। महंगे कृषि यंत्रों, बीज, खाद और सिंचाई के साधन में निवेश करने में असमर्थ छोटे किसान अपने खेत बटाई पर या बड़े किसानों को ठेके पर देकर कृषि मजदूरों के साथ शहरों में पलायन करने पर मजबूर हो गए हैं।

खाद, बीज और कृषि यंत्र बनाने वाली कंपनियों ने कृषि को आजीविका के साधन से व्यवसाय के साधन में बदल दिया है और कृषि पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया है। कृषि को लाभ कमाने के साधन में बदलते ही किसान कुछ ही फसलों पर निर्भर हो गए। नगदी फसल या अधिक उत्पादन देने वाली फसलों को बोने के कारण फसलों की विविधता और फसल चक्र समाप्त हो गया है।

फसलों की विविधता और फसल चक्र अपनाने से मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि के साथ-साथ कोई एक फसल नुकसान होने पर दूसरी फसल मिल जाती थी। एक फसली उत्पादन के दुष्चक्र में फंसे किसान फसलों के नुकसान होने पर दोहरे संकट में फंस जाते हैं, एक तो परिवार की परवरिश और दूसरी कर्ज की अदायगी। इस दोहरे संकट ने किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया है। सरकारी आंकड़े के अनुसार 1997 से 2023 तक लगभग 5 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

किसानों को महंगे खाद, बीज और कृषि यंत्रों का उत्पादन करने वाली कंपनियों के जाल से निकलने के लिए एकमात्र तरीका है कि कृषि में बढ़ती लागत को कैसे कम किया जाए। लागत कम करने के साथ-साथ स्वास्थ्य के अनुकूल खाद्यान्न उत्पादन भी कैसे किया जाए। इसके लिए दुनिया में रासायनिक खेती की जगह जैविक खेती करने पर बल दिया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा भी जैविक खेती करने के लिए भारतीय किसानों को प्रोत्साहित किया जा रहा है इसके लिए कई योजनाएं भी चलाई जा रही हैं।

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि क्या वास्तविक रुप में दोबारा पारम्परिक खेती की ओर लौटा जा सकता है? यदि हां तो रासायनिक खेती का जो विशाल साम्राज्य पिछले दशकों में खड़ा किया गया है उससे निपटने की क्या रणनीति है?

इन सवालों का जवाब अगली कड़ी में….!

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