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अब हम लोग क्या करें सुभाष भैया?

साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार भारत में 6 मार्च  2000 से 20 नवंबर 2021 तक आतंकवाद से जुड़ी हिंसक घटनाओं में 14050 नागरिक, 7363 सुरक्षा बलों के सदस्य,23342 आतंकवादी/अतिवादी एवं 1195 अज्ञात लोगों समेत कुल 45950 लोग मारे गए हैं। हमारे लिए यह एक संख्या हो सकती है जिसकी घट-बढ़ पर हम अपनी पीठ थपथपा सकते हैं लेकिन इन हजारों परिवारों की त्रासदी को समझने के लिए हमें वृद्ध त्रिपाठी दंपत्ति के उदास चेहरे को बांचना होगा जिनका सब कुछ खत्म हो गया है।

शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी के पिता श्री सुभाष त्रिपाठी को मैं अग्रज का दर्जा देता हूँ। त्रिपाठी परिवार से मेरे परिवार का पुराना प्रगाढ़ संबंध है। विप्लव के दादा स्वर्गीय श्री किशोरी मोहन त्रिपाठी संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य थे। जिस संविधान ने हमें उदार, समावेशी एवं सेकुलर बनाया, जिस संविधान ने हमें स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे व्यापक आदर्शों-मूल्यों का आदर करना सिखाया- स्वर्गीय किशोरी मोहन त्रिपाठी उस संविधान के निर्माण की प्रेरक और गहन प्रक्रिया के साक्षी-सहभागी थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी स्वर्गीय श्री त्रिपाठी की पत्रकारिता में गहरी रुचि थी। उन्होंने आज से 52 वर्ष पहले “बयार” नामक एक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया था जो स्वाभाविक रूप से मूल्य आधारित पत्रकारिता और गुणवत्तापूर्ण सामग्री संकलन के लिए विख्यात था। समय बीता। किशोरी मोहन त्रिपाठी जी के देहावसान के बाद अनेक संकटों, अनेक झंझावातों का सामना करते हुए अग्रज सुभाष त्रिपाठी ने बयार को रुकने नहीं दिया। इसी बयार की स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में रायगढ़ में सन 2019 में आयोजित एक सादे किंतु सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के युवा और सुलझे हुए संचालक के रूप में कर्नल विप्लव त्रिपाठी से मेरी अंतिम मुलाकात हुई थी।

पिता और पुत्र के साथ विप्लव त्रिपाठी

बयार का कार्यालय पिछले पांच दशकों में हमारी पत्रकारिता में आए परिवर्तनों का साक्षी रहा है। सिद्धांतनिष्ठा की बड़ी कीमत बयार ने चुकाई है।बयार कार्यालय शहर के हृदय स्थल पर स्थित है। अब चारों ओर से धनकुबेरों की अट्टालिकाओं ने इसे घेर लिया है। यह अट्टालिकाएं और इनकी सोच बयार को परास्त और पराभूत करना चाहती है किंतु बयार पूरी दृढ़ता से डटा हुआ है। जीर्ण शीर्ण भवन में अग्रज सुभाष त्रिपाठी और उनके एक दो स्वैच्छिक सहयोगी अब दैनिक हो चुके बयार को उसके तेवर और गरिमा के साथ जिंदा रखे हुए हैं। भौतिक समृद्धि को सब कुछ समझने वाली बाहरी दुनिया के क्रूर शिकंजे से बचकर कुछ चिंताग्रस्त बुद्धिजीवी हमेशा यहां पनाह लिए रहते हैं। ऐसा लगता है जैसे सुभाष भैया ने अपनी तपस्या से इस कार्यालय में  काल को थाम लिया है, समय चक्र रुक गया है, पत्रकारिता की अधोगामी, पतनोन्मुख प्रवृत्तियां साहस और सैद्धांतिकता की लक्ष्मण रेखा को लांघ न पाने के कारण बाहर ठिठकी खड़ी हैं।

सुभाष भैया की अर्द्धांगिनी आशा भाभी शासकीय महाविद्यालय में ग्रंथपाल रही हैं और सेवानिवृत्ति के बाद उनका नाता पुस्तकों से प्रगाढ़ ही हुआ है। वे स्त्री विमर्श पर नियमित रूप से लिखती हैं। समाजसेवा का व्यसन तो उन्हें है ही।

त्रिपाठी दंपत्ति के गर्व और प्रसन्नता से आलोकित मुखमंडल को देखकर कोई भी यह सहज रूप से कह सकता था कि यह अपने आदर्शों के अनुरूप सत्यनिष्ठा से जीवन जीने के कारण पैदा हुई चमक है। त्रिपाठी दंपत्ति के गर्व का अतिरिक्त कारण यह भी रहा है कि उनके दोनों पुत्र थल सेना में हैं और देश के पूर्वोत्तर भाग की सीमाओं की रक्षा में सन्नद्ध हैं। त्रिपाठी दंपत्ति आयु की दृष्टि से लगभग सात दशक पूर्ण कर रहे हैं। यही वह समय होता है जब कठिन संघर्ष के बाद किसी मध्यम वर्गीय परिवार को एक ठहराव, एक सुकून और खुशियों के कुछ अनमोल पल मिलते हैं। आशा भाभी रिटायरमेंट के बाद सुभाष भैया को समय दे पा रही थीं। बेटे वेल सेटल्ड थे, प्यार और सम्मान देने वाली बहुओं और शरारती बच्चों से भरा पूरा आनंदित परिवार। कोविड-19 के कारण कर्नल विप्लव लंबे समय से अपने माता-पिता के पास गृह नगर रायगढ़ नहीं आ पाए थे सो उन्होंने अपने माता-पिता को ही अपने पास मणिपुर बुला लिया था। बेटों के साथ तीन महीने का आनंदपूर्ण समय बिताकर त्रिपाठी दंपत्ति दीपावली के बाद बस रायगढ़ आए ही थे कि उन पर वज्राघात हुआ- यह हृदयविदारक समाचार मिला कि कर्नल विप्लव और उनका पूरा परिवार चार अन्य साथी सैनिकों के साथ मणिपुर में हुए आतंकी हमले में शहीद हो गया।

मुझे सुभाष भैया का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार करने में एक दिन का समय लगा। अंततः मैं उनके पास गया, हम खूब रोये,कौन किसको ढाढस बंधाता, हाल हम दोनों का एक जैसा था। मैं छोटा हूँ, मैंने पूछा-अब हम लोग क्या करें सुभाष भैया। उनका उत्तर था- मुझे भी पता नहीं है राजू। सब अंधेरा हो गया।

पता नहीं बयार कार्यालय की भौतिक रूप से टिमटिमाती रोशनी से उपजता पवित्र, आत्मीय और आत्मिक उजियारा अब हमारा पथ प्रदर्शन करेगा या नहीं। शोक संतप्त सुभाष भैया अपने जीर्ण शरीर और विदीर्ण हृदय के साथ बयार की यात्रा को अनवरत रख पाएंगे या नहीं। बयार को पुत्रवत स्नेह देकर सुभाष भैया ने बड़ा किया है, इस दुःख की घड़ी में  बयार उनका सम्बल बन पाएगा या नहीं।

शहीद कर्नल विप्लव त्रिपाठी की अंतिम यात्रा रायगढ़ नगर के लिए एक इतिहास बन गई, पूरा नगर उन्हें श्रद्धांजलि देने उमड़ पड़ा। त्रिपाठी दंपत्ति को सांत्वना देने के लिए शीर्षस्थ राजनीतिक नेताओं का आना जारी है। जबसे इस देश में सैनिकों की शहादत और उनके सम्मान को चुनावी दंगल का मुख्य मुद्दा बनाया गया है तबसे कोई राजनीतिक दल किसी भी प्रकार की चूक नहीं करना चाहता। निश्चित ही इन राजनेताओं के मन में अमर शहीद विप्लव के प्रति गहरी श्रद्धा एवं शोकाकुल परिवार के प्रति गहरी संवेदना होगी किंतु अब जब इस श्रद्धा-संवेदना की अभिव्यक्ति के राजनीतिक मायने निकालने की परिपाटी चल निकली है तो स्वाभाविक रूप से इसका रणनीतिक महत्व भी बनता है। अपने अपने आराध्य नेताओं के सम्मुख पाइंट स्कोर करने की हड़बड़ी में युवा बाइकर्स कभी कभी यह भूलते दिखे कि यह कोई उत्सव नहीं है युवा शहीद की अंतिम विदाई का अवसर है। जिस प्रदर्शनप्रियता और शोरगुल से दूर बयार कार्यालय की एकांत साधनास्थली है उसी दिखावे और आडम्बर की गूंज डीजे पर बजते फिल्मी देशभक्ति के गीतों में सुनाई दी।

हर कोई शहीद विप्लव के प्रति आलंकारिक शब्दों में अपने  उद्गार व्यक्त कर रहा है। इसमें बहुत से मुझ जैसे लोग भी हैं जो अपने नागरिक कर्त्तव्यों का पालन नहीं करते, अन्याय, शोषण और भ्रष्टाचार को मौन सहमति देकर देश को कमजोर बनाते हैं तथा जानते हुए भी कि यह हमारे लिए विनाशकारी सिद्ध होगा धर्मांधता एवं हिंसा के उभार से आनंदित होते हैं। हम अपनी सड़कों और गलियों में शहीद विप्लव के पोस्टर लगाकर शायद अपनी ग्लानि को कम कर रहे हैं या खुद को, देश को और विप्लव को भी धोखा दे रहे हैं। विप्लव ने देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा का प्रण लिया था। उसे भरोसा था कि हम देश की राजनीतिक शुचिता, सामाजिक समरसता और साम्प्रदायिक एकता की पवित्र सीमा के उल्लंघन का प्रयास करने वाले हर शत्रु को पराजित करेंगे। हमने उसका भरोसा तोड़ा है।

मेरे छोटे से शहर में बड़े बड़े टीवी चैनलों के नामचीन रिपोर्टर्स का आगमन कम ही होता है किंतु इस बार हुआ। त्रिपाठी दंपत्ति के लिए यूं अचानक बेटे को खोना किसी तेज हथियार से अचानक लगे घाव की तरह है जिसका दर्द तुरंत नहीं होता- धीरे धीरे इसकी गहरी वेदना आक्रमण करती है। लेकिन हर चैनल का अपना एजेंडा है और ऐसे निर्मम सवाल हैं जो पीड़ित परिवार को उस त्रासदी का विश्लेषण करने के लिए बाध्य कर रहे हैं जो अभी शुरू ही हुई है।

शोक प्रदर्शन की विषय वस्तु नहीं है। इवेंट मैनेजमेंट के फंडे शोक विषयक आयोजनों के लिए नहीं बने हैं। मौन,एकांत और नीरवता शोक की पवित्रता की रक्षा के साधन हैं। मैं सुभाष भैया को अच्छी तरह जानता हूँ, उनकी गहरी अंतर्दृष्टि और सूक्ष्म निरीक्षण क्षमता का मैं प्रशंसक हूँ। मुझे लगता है इस सारे घटनाक्रम से वे हतप्रभ होने की सीमा तक चकित हुए होंगे। संवेदना प्रदर्शन का यह असंवेदनशील सा सिलसिला कुछ दिन बाद खत्म हो जाएगा। सर्दी की लंबी ठिठुराने वाली रातों में वृद्ध त्रिपाठी दंपत्ति को जीने की ऊष्मा देने के लिए जिंदादिल और गर्मजोश विप्लव की याद भर रह जाएगी।

साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के आंकड़ों के अनुसार भारत में 6 मार्च  2000 से 20 नवंबर 2021 तक आतंकवाद से जुड़ी हिंसक घटनाओं में 14050 नागरिक, 7363 सुरक्षा बलों के सदस्य,23342 आतंकवादी/अतिवादी एवं 1195 अज्ञात लोगों समेत कुल 45950 लोग मारे गए हैं। हमारे लिए यह एक संख्या हो सकती है जिसकी घट-बढ़ पर हम अपनी पीठ थपथपा सकते हैं लेकिन इन हजारों परिवारों की त्रासदी को समझने के लिए हमें वृद्ध त्रिपाठी दंपत्ति के उदास चेहरे को बांचना होगा जिनका सब कुछ खत्म हो गया है।

आतंकवाद की उत्पत्ति और उसके पनपने के कुछ खास कारण होते हैं यथा – स्थानीय निवासियों का शोषण एवं उपेक्षा,मूल निवासी बनाम बाहरी का विवाद, भाषा, धर्म और संस्कृति के अनसुलझे सवाल, जल-जंगल-जमीन से बेदखल होने की पीड़ा, क्षेत्रीय पार्टियों और उनके कद्दावर नेताओं की अतृप्त महत्वाकांक्षाएं, आपराधिक तत्वों द्वारा अन्य देशों से व अन्य देशों को की जाने वाली स्मगलिंग एवं ह्यूमन ट्रेफिकिंग, अवैध वसूली गिरोहों के आर्थिक हित, सीमावर्ती प्रदेशों में दूसरे देशों द्वारा स्थानीय आतंकवादियों को दिया जाने वाला सहयोग और विदेशी आतंकियों की घुसपैठ के प्रयास आदि।

लेकिन आतंकवाद को नासूर में बदलने के लिए असल जिम्मेदार राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी होती है। जब राजनीतिक प्रक्रिया विफल हो जाती है, संवाद का सेतु टूट जाता है, अविश्वास गहराने लगता है तब हिंसा का प्रवेश होता है। राजनीतिक नेतृत्व की असफलता की भरपाई का जिम्मा सुरक्षा बलों को दिया जाता है। प्रायः आतंकी स्थानीय होने के कारण स्थानीय परिस्थितियों से परिचित होते हैं और स्थानीय समुदाय भी भय या सहानुभूति के कारण उनका सहयोग करता है, इन आतंकवादियों द्वारा तैयार किए गए चक्रव्यूह को भेदने के लिए सुरक्षा बलों को अपनी जान दांव पर लगानी पड़ती है।

हिंसा की अपनी भाषा होती है, अपना व्याकरण होता है। जब सामने से गोलियां चल रही होती हैं तो उसका उत्तर गोलियों से देना ही पड़ता है। लेकिन हिंसा के बाद की मानवीय त्रासदी पर हमारा ध्यान नहीं जाता। अनंत संभावनाओं और सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज़ विप्लव का सर्वश्रेष्ठ अभी आना बाकी था। लेकिन हिंसा ने सब समाप्त कर दिया। त्रिपाठी दंपत्ति और उन जैसे हजारों हिंसा पीड़ित परिजनों की आंखों में लहराते शोक और पीड़ा के महासागर की लहरें अनंत काल तक अशांत सी उठती गिरती रहेंगी, जब जब हिंसा किसी मानव जीवन का अंत करेगी, इन लहरों की छटपटाहट और बढ़ जाएगी।

 

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