Saturday, July 27, 2024
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जब अशोक ही शोक में डुबा दे…

आप इकसठ साल के किसी आदमी की कल्पना कर सकें जिसका हृदय साठ प्रतिशत डैमेज हो चुका हो और वह साठ किलोमीटर घंटे की रफ्तार से जीवन-पथ पर दौड़ रहा हो तो निश्चित रूप से उस व्यक्ति का नाम अशोक होगा। अशोक कुमार श्रीवास्तव। मेरा ऐसा मित्र जिसके बिना मैं अपने होने की कल्पना नहीं […]

आप इकसठ साल के किसी आदमी की कल्पना कर सकें जिसका हृदय साठ प्रतिशत डैमेज हो चुका हो और वह साठ किलोमीटर घंटे की रफ्तार से जीवन-पथ पर दौड़ रहा हो तो निश्चित रूप से उस व्यक्ति का नाम अशोक होगा।

अशोक कुमार श्रीवास्तव। मेरा ऐसा मित्र जिसके बिना मैं अपने होने की कल्पना नहीं कर सकता। अनुजवत। मेरे हर संकट का अकेला समाधान। पुत्र देवांश को रात तीन बजे मेडिकल कॉलेज ले जाते मैने जिस एक मित्र को फोन किया , वो थे अशोक। अशोक हाज़िर। अब मुझे कोई चिंता नहीं करनी सिवा बेटे के गम से उबरने और आशा को उबारने की चिंता के अलावा। कथाकार बादशाह हुसैन रिज़वी उसे अगिया बैताल कहा करते थे। था ही वो अगिया बैताल। ठान लिया तो ठान लिया। फिर मुकाबला चाहे क़िस्मत से ही क्यों न हो।

ग़ज़ब का आत्मविश्वास। ग़ज़ब की जिजीविषा। आप ग़म के सागर में डूबे हों और अशोक आ जाएं तो आप पांच मिनट बाद ठहाका लगाते पाए जाएंगे।

क्या विट था।

था?

मतलब?

अशोक श्रीवास्तव

जी हां था का मतलब था ही होता है। अशोक हमें शोकग्रस्त करके चले गए ऊपर वाले के पास। किसी ने बता दिया था कि बेचारा ऊपरवाला इन दिनों डिप्रेशन का शिकार है। भला अशोक को यह कैसे बर्दाश्त होता। उठाया झोला, निकल पड़े। सोचा नहीं कि भाभी का क्या होगा । लापरवाह कहीं का। इसीलिए बहुत से तथाकथित संजीदा लोग तुम्हें लम्पट कह कर मुझे प्रकारांतर से कटघरे में खड़ा करने का सुख महसूस करते थे। जानते थे न कि देवेंद्र में अशोक की जान बसती है।

जियो अशोक!

जियोगे तो तुम है ही।

धरती पर न सही यादों में सही।

सेवानिवृत्त रेलकर्मी अशोक। रंगबाज़ों की रंगबाज़ी को सिर्फ़ अपनी त्वरित बुद्धि और भाषाई अंदाज़ से गाजर मूली की तरह उखाड़ फेंकने वाला अशोक। मामूली कैंटीन मैनेजर होकर अपने समय के दबंग ( किन्हीं अर्थों में बिगड़ैल) कवि ग़ज़लकार माधव मधुकर को हाब लेने वाला अशोक।

टीटीई की हैसियत और कलेजा सीधे मुख्य वाणिज्य प्रबंधक से टकराने और सिर्फ़ अपनी ईमानदारी और कर्तव्य परायणता के बल पर अंततः उन्हें उनकी औक़ात का संज्ञान करा देने वाला अशोक।

निहत्थे भीड़ में घुस कर भीड़ को आदमी बना देने वाला अशोक। रंगकर्मी अशोक । नुक्कड़ नाटक से लेकर रंगमंच तक छा जाने वाला अशोक। अभिनेता और ‘मां सरस्वती क्रिएशन’ के बैनर वाला फिल्मकार अशोक। याद आता है संजीव की कहानी ‘अपराध’ का मेरा नाट्य रूपांतर मंच पर सजीव करता अशोक । याद है न नंदलाल सिंह!

उफ़!

यह उसकी बनाई पहली फिल्म होती जो नब्बे प्रतिशत पूरी हो चुकी थी। दस प्रतिशत तकनीकी सुधार और परिमार्जन के सिलसिले में बम्बई डेरा डाले अशोक अब अपनी आंखों अपनी फिल्म ‘रिटर्न आफ भोजपुरी बेटी ‘ कभी नहीं देख पाएंगे। फिल्म की शुरुआत अब अशोक के फोटो पर लिपटे अगरबत्ती के धुंए से होगी।

स्वर्गीय अशोक कुमार श्रीवास्तव का सपना। पूरा होगा। आधुनिक लक्ष्मण है न! जब तक छोटा भाई विनोद कुमार श्रीवास्तव है , फिकर नाट। मगर यार बस दो चार महीनों की ही तो बात थी। यूं ही नहीं तुमने पहली फिल्म का नाम बेटी रखा था। बेटियों के मन में भविष्य का सपना जगाने और उनके सपनों को हर हाल में परवान चढ़ाने वाला बाप, अशोक। हर बेटी के बाप को अशोक से प्रेणना लेनी चाहिए । पर तुम तो उम्र-कंजूस निकले अशोक!

दग़ाबाज़ कहीं का। क्या अफ़रातफ़री थी यार!

बिटिया ( डा. अभिलाषा ) के हाथ पीले कर गए होते और उसे फिल्म के प्रीमियर का गिफ़्ट भी दे गए होते। रेंजर सुरभि (छोटी बेटी ) को पी सी यस बनते अपनी आंखों देख लिया होता । बेटे अभिनव चित्रांश ने अपना उद्योग-धंधा तो सम्हाल ही लिया था। भाभी को सास बनते, इतराते देख लिया होता । बस सब दो-एक साल का मामला था। मगर तुम्हें तो जैसे हड़बड़ी लगी रहती है । न दिन की परवाह न रात का चैन । कर गये न सबको बेचैन!

दोस्तो,

पिछले साल मेरा एक बाज़ू कट गया था जब मित्रवत बड़े भाई विकल जी चले गये थे।  चार महीने पहले पुत्र देवांश और अब अशोक! आख़िर मुझसे क्या दुश्मनी है मेरे रब्बा। इतनी ही खुन्नस है तो ले लो अपनी लकुट कमरिया वापस। लिख चुका हूं बहुत कविताएं। भर चुका है मन।

सुल्तान अहमद रिज़वी

श्रद्धांजलि! लिखकर हम अपना हाथ सिकोड़ लेते हैं क्या उस व्यक्ति के लिए भी जिसके बारे में देवेंद्र जी ने जो खाका प्रस्तुत किया है वह तो आधुनिक इंसान का चरित्र है। इतना डैशिंग व्यक्ति जो नाटक से भी सम्बन्धित रहा मैं अब तक पहचान नहीं पाया। गोरखपुर 1971 में आया। आते ही दो माह के अंदर पहला नाटक प्रस्तुत कर नाटक दर नाटक करता गया। दिन में रेलवे की किसी भी कैंटीन में घण्टा भर बिताना मेरी आदत में था। वहां की चाय में लज़्ज़त तो होती नहीं थी, मुझे तो जीवन्त चरित्र की तलाश रहती थी। लेखकों की बैठकी में भी उपस्थित रहता था फिर भी, फोटो देख कर भी स्मृति पटल की रिक्तता मुझे खलती जा रही है। यह मेरा दुर्भाग्य है जो ऐसा विलक्षण चरित्र मेरी याद में नहीं आ रहा। न ही चचा बादशाह रहे, न एस के जैन, न ही हरिहर सिंह भाई जिनसे कोई क्लू मिलता, दुर्भाग्य है मेरा।

विनम्र श्रद्धांजलि उस महान फ़रिश्ते के लिए। आदरांजलि

प्रेम प्रकाश वर्मा

अशोक जैसा होना आसान नहीं ! उंगलियों पर गिने चुने लोग हैं मेरे जानने वालों में जो अशोक जैसा जी पाए!

किसी के जाने का असमय, एक बारगी झकझोर तो देता ही है। भाई देवेंद्र से दोपहर में सूचना मिली कि अशोक नहीं रहे! थोड़ी देर के लिए मैं अवाक जैसे दिमाग स्वीकार करने की स्थिति में ही नहीं। देवेन्द्र की आवाज़ की खनक गायब थी, बहुत हद तक दबी और परेशान। – – कब हुआ ?

कल रात बॉम्बे में! कहाँ हो ?

‘मैं तीन चार दिन पहले नोएडा आया हूँ । परिवार कहाँ है, बॉम्बे में ?’

‘नहीं, गोरखपुर में। अचानक तबीयत खराब होने से लोग बॉम्बे गए हैं। वो तो पहले से वहीं था अपने फिल्म के सिलसिले में। बॉडी लेकर लोग आज आ रहे हैं।’

अशोक को जितना मैंने जाना, वो भरपूर ज़िंदगी जीने वाला, बिना किसी से दबे जीने वाला इनसान था। रेल परिवार के हम सहकर्मी थे और एक समय में रंगकर्मी भी। कई नाटकों में हम लोगों ने एक साथ काम किये।

वैसे तो मेरी यादाश्त बहुत खराब है और जब तक कोई याद न दिलाये तो मुश्किल से ही याद आता है लेकिन नाटक की जब कभी भी बात आती है तो अशोक के साथ किया जाने वाला वो दृश्य आज भी वैसे का वैसे ही याद आ जाता है।

रिहर्सल के दौरान वो हमेशा मुझसे कहता कि मेरा गर्दन और दबाओ ताकि मेरी चीख और भीतर से निकले  और मैं हंसकर रह जाता।

ठीक है पार्टनर, प्ले के समय ध्यान रखूँगा ।

हम दोनों के स्वभाव के बिल्कुल विपरीत नाटक में हमदोनों का चरित्र था। मैं शरीर से हैवी था और अशोक मुझसे काफ़ी दुबला और झरकरा। मैं एक क्रूएल जमींदार के चरित्र में था और वो एक विद्रोही निरीह मजदूर किसान की भूमिका में। अपने बाहुबल के प्रयोग से मैं धराशायी करके उसे जान से मारने के लिए उसका गला गुस्से में दबाता हूँ और वो चीखता है। सीन शुरू होता है लेकिन अशोक यह कहना नहीं भूलता कि वर्मा गला जरा जोर से दबाना ताकि चीख भरपूर निकले। ऐसा था जुनूनी अशोक। अपने काम में जान फूँकने वाला ।

मैं उसका गला दबोचे हुए था, दृश्य को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए लाल रौशनी को फोकस किया गया था। मुझे अपना संवाद बोलना था और अशोक को तड़पते हुए चीखना था। दर्शक दीर्घा से ‘मारो-मारो साले जमींदार को’ आवाजें आ रही थीं और गूँज रही थी अशोक की चीख। लूटकर ले गया दर्शकों की सहानुभूति और लोहा मनवाया अपने अभिनय का, ऐसा था अशोक !

मुझे गुलजार साहब का लिखा वो संवाद कभी नहीं भूलता ‘बाबू मोशाय, ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए, लम्बी नहीं’

आज  अशोक बड़ी ज़िंदगी जी कर गया है जिसे हमें सीखने की ज़रूरत है।

अखिलेश श्रीवास्तव चमन

अरे ! बहुत दुःखद। मैं अशोक जी को परिवार से जानता था। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ये बलिया के लखवलिया गाँव के हाईकोर्ट के जस्टिस श्रीनाथ सहाय के परिवार से थे। मैं इनके छोटे भाई विनोद की शादी के लिए इनके घर गया था। विनोद भी एक बार मेरे घर मनियर आए थे। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

मदन मोहन

अरे ! यह तो हिला देने वाली खबर है …अत्यंत दुखद। तुम्हारे तो दाहिने हाथ ही थे अशोक, मगर हम सब के भी बहुत अंतरंग थे, उनके साथ की जाने कितनी स्मृतियां हैं …

रामजी यादव

कल रात दस बजे जब हम भोजन करने वाले थे इसी बीच फेसबुक देखते-देखते कवि देवेंद्र आर्य की एक पोस्ट पर नज़र पड़ी। जब अशोक ही शोक में डुबा दे। यह नाम एक पल के लिए खटका। कतई भी अंदेशा नहीं था कि आगे जो पढ़नेवाला हूँ वह इतना भयानक और विस्फोटक होनेवाला है। चूँकि देवेंद्र जी की मित्रता का दायरा बहुत बड़ा है इसलिए इस बात का एक रत्ती भरोसा नहीं था कि यहाँ जिस अशोक की बात हो रही है वह वे अशोक होंगे जो हमारे इतने करीब हैं। लेकिन पूरी पोस्ट पढे बिना नहीं रहा गया। और सचमुच यह दुख में डुबानेवाली पोस्ट थी। अशोक श्रीवास्तव। अभी बहुत दिनों पुराना संवाद नहीं हुआ था और देखा-देखी तो बिलकुल नहीं हुई थी लेकिन करीबी ऐसी कि बातों का अंत न था।

कुछ महीने पहले देवेंद्र जी ने मेरे दूसरे कहानी संकलन आधा बाजा पर फेसबुक पर एक टिप्पणी लिखी और जितनी उदारता से लिखी उससे कुछ लोगों की जिज्ञासा बढ़ गई। इनमें से ही एक थे अशोक श्रीवास्तव। उन्होंने मुझे फोन किया और मेरे बारे में दरियाफ़्त किया । अपने बारे में बताने लगे। रंगकर्म और अपनी बन रही फिल्म ‘रिटर्न ऑफ भोजपुरी , बेटी के बारे में । उसकी कास्टिंग और संगीत के बारे में। भोजपुरी सिनेमा की अश्लीलता के बारे में। और एक भाषा के रूप में भोजपुरी की ताकत के बारे में। इतनी बातें कि उस समय ऊब होने लगी। लेकिन एक आत्मीयता-सी बन गई। मैंने अपने पहले कहानी संग्रह अथकथा इतिकथा का पीडीएफ उनको मेल कर दिया।

दो दिन बाद उनका फोन आ गया। वे कहानियाँ पढ़कर गद्गद थे। उन्होंने कहा कि हमारे समाज की जद्दोजहद को जैसे और जिस भाषा में आपने पकड़ा है बिलकुल वैसा ही सिनेमा को भी जरूरत है। और उन्होंने मुझसे एक कहानी देने को कहा। उनके उत्साह और कन्वीक्क्शन को देखकर मुझे थोड़ा भय भी होने लगा। पाँच साल मुंबई नगरी में सिनेमा लिखने की कोशिश में चप्पलें घिसने के दौरान दर्जनों लोग इस उत्साह और लगाव से मिले लेकिन बाद में निराश होकर बैठ गए। इसलिए मैं सोचता था कि उनसे कहूँ कि पहले इसे रिलीज हो जाने दीजिये फिर आगे का सोचिए लेकिन कह नहीं पाया। मैंने अपनी व्यस्तता का हवाला देते हुये उन्हें एक महीने बाद कुछ भेजने के लिए कहा। उन्होंने पैसे की पेशकश की लेकिन उसमें मेरी कोई दिलचस्पी न थी। इसलिए कई बार फोन आने पर मैं अपर्णा से उठाने को कह देता। मुझे वेबसाइट शुरू करना था और उसमें दिन रात लगा था। जब मैंने मित्रों से उसके लिए आर्थिक सहयोग की अपील की तो एक हफ्ते बाद वे बैंक जाकर खाते में 1100/- ट्रांसफर भी कर आए। लेकिन जब भी वे कहानी की बात करते तो मुझे लगता वे सनक गए हैं और जरूरत से अधिक महत्वाकांक्षी हैं। टालमटोल और संवाद लगभग हर हफ्ते चलता रहा।

इसी बीच हिन्दी के उपन्यासों पर उनसे लंबी बात हुई और उन्होंने जो कुछ कहा उसने उनका कायल बना दिया। सचमुच वे एक गंभीर अध्येता थे और हर चीज को रंगमंचीय नज़रिये से देख रहे थे। उन्होंने अपनी फिल्म के कुछ कट्स दिखाये जो भोजपुरी की नकलमारी और अश्लील सिनेमा-संस्कृति से बिलकुल अलहदा था और साफ पता चलता था कि उनपर रंगकर्म का बहुत गहरा प्रभाव है। अंतिम बात एक हफ्ते पहले प्रेमचंद की एक कहानी पर पटकथा लिखने को लेकर हुई। वे मुंबई में थे और अपनी फिल्म की डबिंग में जुटे थे। हम दोनों ने तय किया था कि सितंबर में मुंबई में मिल रहे हैं। मेरे लिए उनको टालना मुश्किल होता जा रहा था। मैंने मुंबई के अपने एक मित्र से कहा कि उनसे मिलें और बात करें। मित्र ने कुछ दिनों बात बताया कि वे छल-प्रपंच वाले और फिल्मी आदमी नहीं हैं। उनमें बहुत मैत्री भाव है और वे काम को लेकर बहुत आग्रही हैं।

मुझे भी लग रहा था कि वे वास्तव में बहुत गंभीर थे और जरूरत के अनुसार जोखिम लेने के लिए सन्नद्ध थे। वे कुछ नया और अलग करना चाहते थे। उनमें इतना जुनून था कि सामने वाले को प्रेरित कर सकते थे। उनके भीतर वर्तमान सांस्कृतिक परिदृश्य को लेकर एक गुस्सा और विरोध था और वे सिनेमा के माध्यम से कुछ करना चाहते थे।

लेकिन इतनी जल्दी वे नहीं रहेंगे इसकी किसी कोने में आशंका नहीं थी। वे क्या कर पाते और कितना सफल हो पाते इसके बारे में क्या ही कहा जा सकता है लेकिन वे मेरे दिल में एक जिद्दी, जुनूनी और प्यारे इनसान के रूप में अपने न होने की कसक बनाए रखेंगे। बहुत गहरे दुख में डुबो गए अशोक भाई!

देवेंद्र आर्य सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हैं और गोरखपुर में रहते हैं ।

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