साहित्य और साजिश! क्या यह संभव है कि साहित्य का सृजन साजिश के तहत किया जा सकता है? यह सवाल मेरी जेहन में अनायास नहीं आया है। देश के सबसे अनूठे प्रधानमंत्री (गूगल पर सबसे अधिक पूछा जाने वाले सवाल हू इज दी मोस्ट स्टूपिड प्राइम मिनिस्टर? का गूगल द्वारा दिया गया पहला जवाब) नरेंद्र मोदी ने कल एक खास ऐलान किया है। आजादी के 75वें वर्षगांठ की पूर्व संध्या पर उन्होंने 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। उनकी घोषणा के तुरंत बाद ही उनके जोड़ीदार अमित शाह ने अपने गृह मंत्रालय से इसकी अधिसूचना जारी करवा दी। मजे की बात यह है कि पीएम की घोषणा और अमित शाह के मंत्रालय द्वारा अधिसूचना जारी किए जाने के बीच अंतर करीब-करीब आधे घंटे का रहा। ऐसा कैसे हुआ और क्यों हुआ, इस सवाल का कोई मतलब नहीं है। कहने का यह देश लोकतांत्रिक है, लेकिन शासन ऐसा आदमी कर रहा है, जिसके खून में व्यापार है और हर चाल में सियासत।
खैर, मैं नरेंद्र मोदी के बारे में नहीं लिखना चाहता। वजह यह कि उसके बारे में लिखने के लिए इस देश की मीडिया संस्थान हैं। विश्वविद्यालय हैं और कई सारी पत्र-पत्रिकाएं हैं। मैं तो हिंदी साहित्य के एक पक्ष को यहां दर्ज करना चाहता हूं जो होता तो हमारे सामने है, लेकिन हम महसूस ही नहीं कर पाते कि वह किस तरह समाज में शासकों के सामने बे-रीढ़ खड़ा है।
[bs-quote quote=”कंजूस अनुमानों के अनुसार, 1947 के विभाजन में 5 लाख से 10 लाख के बीच औरत, मर्द और बच्चे जिंदगी से हाथ धो बैठे, 70 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख लोग अपने घरों को छोड़कर भागे। साथ ही, 1946 से 1951 के बीच लगभग 90 लाख हिंदू और सिख भारत आए और 60 लाख के करीब मुसलमान पाकिस्तान गए। इन 90 लाख में से 50 लाख उस जगह से आए जो पश्चिमी पाकिस्तान बना और 40 लाख पूर्वी पाकिस्तान से।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
क्या मजाक है कि भारत के इतिहास में पहली बार लाल किले के प्रवेश द्वार को कंटेनरों से ढंक दिया गया है और जब प्रधानमंत्री उसके प्राचीर से देश को संबोधित करें तो देश को केंटनर नजर न आएं, इसके लिए कंटेनरों के उपर देशभक्ति से जुड़े चित्र लगा दिए गए हैं?
मेरे सामने राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक पत्रिका आलोचना का 59वां जनवरी-मार्च, 2019 अंक है। यह अंक विभाजन के 70 साल थीम पर केंद्रित पहला अंक है। प्रधान संपादक के रूप में नामवर सिंह का नाम है और संपादकद्वय के रूप में आशुतोष और संजीव कुमार का नाम दर्ज है। इस अंक में तक्सिम-ए-हिंद यानी हिंदुस्तान के विभाजन के सवाल पर केंद्रित कई आलेख हैं। मैं इस सवाल का जवाब तलाश कर रहा था कि आखिर चुनावी वर्ष (वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले) क्या आलोचना के मालिकों को सपना आया था कि वे भारत-पाक विभाजन पर विशेषांक निकालें? संपादकीय भूमिका आशुतोष कुमार ने लिखी है और उन्होंने इस सवाल से बचने का प्रयास किया है कि चुनावी वर्ष में इस अंक का प्रयोजन क्या है।
[bs-quote quote=”आजादी की पूरी लड़ाई केवल और केवल इसलिए लड़ी गयी कि अंग्रेजों के बाद सत्ता किसको मिले। भारत का ब्राह्मण वर्ग हमेशा इसी फिराक में रहा। मुसलमान भी यही चाहते थे कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से सत्ता ली थी तो वे उन्हें ही वापस करें। राजपूतों का दावा अलग से था। उनका तो आजतक यही मानना है कि अंग्रेजों ने गलत किया। भारत की सत्ता पर अधिकार तो राजपूतों का ही बनता था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote] खैर, यह एक दस्तावेजी प्रमाण है कि साहित्य शासक का हथियार है। ऐसा पहले भी हुआ ही होगा। नहीं होने का तो कोई सवाल ही नहीं है। हालांकि आशुतोष कुमार और संजीव कुमार ने बेहतरीन आलेखों का संकलन किया है। यह इसके बावजूद कि आशुतोष ने अपनी लंबी भूमिका के अंत में नामवर सिंह काे इसका श्रेय दिया है। जाहिर तौर पर ऐसी साहित्यिक साजिश के रचयिता कोई नामवर ही हो सकते थे।
इस संकलन में शामिल पहले आलेख की लेखिका हैं सौम्या गुप्ता। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं। उनके आलेख का शीर्षक है – विभाजन का इतिहास लेखन : बदलती रूपरेखा। श्रमपूर्वक लिखे गए इस आलेख में जो मुख्य बात दर्ज है, वह यह कि विभाजन में मानवता का किस कदर नुकसान हुआ है। इसके लिए सौम्या ने आंकड़ों का उल्लेख किया है। वह बताती हैं कि – “विभाजन के दौरान ठीक-ठीक कितने लोग मारे गए, कोई नहीं जानता। कितने विस्थापित और बेदखल हुए, नहीं पता। मौत के बारे में दो से तीस लाख के बीच अलग-अलग तरह के अनुमान हैं। कंजूस अनुमानों के अनुसार, 1947 के विभाजन में 5 लाख से 10 लाख के बीच औरत, मर्द और बच्चे जिंदगी से हाथ धो बैठे, 70 हजार से ज्यादा महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख लोग अपने घरों को छोड़कर भागे। साथ ही, 1946 से 1951 के बीच लगभग 90 लाख हिंदू और सिख भारत आए और 60 लाख के करीब मुसलमान पाकिस्तान गए। इन 90 लाख में से 50 लाख उस जगह से आए जो पश्चिमी पाकिस्तान बना और 40 लाख पूर्वी पाकिस्तान से। 1947 के अगस्त से अक्टूबर के बीच महज तीन महीनों में पंजाब एक तरह के गृहयुद्ध में घिर गया, जबकि बंगाल में- जो अगस्त 1946 में हिंसा के कातिलाना उभार की चपेट में आ गया था- हिंसा और विस्थापन एक मंद, दीर्घकालिक प्रक्रिया रही। और, बंटवारे के तुरंत बाद की इन घटनाओं से परे, मुस्लिम अल्पसंख्यक इलाकों में हिंसा, प्रवासन और विस्थापन का इतिहास ऐसी दास्तानें हैं, जिनका बड़ा हिस्सा आज भी सुना-सुनाया नहीं गया है। भारत का विभाजन न सिर्फ उपनिवेशवाद की पैदा की हुई महानतम त्रासदियों में से एक है, इसने अपनी तरह के अनोखे बहुसांस्कृतिक उप-महाद्वीप की सहजीवी संस्कृति में हमेशा के लिए दरार भी डाल दी।”
सौम्या द्वारा उल्लिखित उपरोक्त विवरण की आखिरी पंक्ति में वह उद्देश्य निहित है, जिसे स्थापित करने के लिए नामवर सिंह ने आलोचना के 59वें अंक को विभाजन के 70 साल : 1 का स्वरूप दिया है।
दरअसल, पूरी पत्रिका में यह स्थापित करने की कोशिश की गयी है कि भारत-पाक विभाजन के लिए न तो भारत के ब्राह्मण जिम्मेदार हैं और ना ही अशराफ मुसलमान। सब किया धरा अंग्रेजों का है और उनके कारण ही मुल्क को दो भागों में बांटना पड़ा। जबकि सच्चाई कुछ और ही है। इस संबंध में सर सैयद अहमद की एक भविष्यवाणी है जो उन्होंने अंग्रेजी साहित्य के सबसे साहित्यकार शेक्सपीयर के साथ साझा किया था।
[bs-quote quote=”मुझे नहीं लगता है कि वे कभी शर्मिंदा होंगे। वैसे भी जो व्यक्ति गुजरात दंगे में मारे गए लोगों की तुलना कुत्ते के पिल्ले से करता हो, उसके लिए यह सवाल बिल्कुल बेमानी है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
सैयद अहमद को जब इंग्लैंड में पता लगा कि साइंटिफिक सोसायटी के हिंदू सदस्यों ने हिंदी में काम की मांग की है तो उन्होंने नवाब मोहसिन-उल-मुल्क को 29 अप्रैल, 1870 को एक पत्र लिखा – “मुझे एक दूसरी सूचना मिली जिसके कारण मैं बहुत दुखी हूं। बाबू शिव प्रसाद के उकसाने पर हिंदुओं ने तय किया है कि वे उर्दू भाषा व फारसी लिपि को, जो देश पर मुस्लिम राज्य की निशानी है, यथासंभव त्याग देंगे। मैंने सुना है कि उन्होंने साइंटिफिक सोसायटी के हिंदू मेंबरों से कहा है कि वे सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रकों तथा पुस्तकों को हिंदी में निकालें। यह एक ऐसा प्रस्ताव है जिसके कारण हिंदू-मुस्लिम एकता असंभव है। मुसलमान हिंदी के लिए कभी तैयार नहीं होंगे और यदि हिंदू अपने इरादों के अनुसार हिंदी पर अड़े रहे, तो वे कभी उर्दू को नहीं मानेंगे। परिणाम यह होगा कि हिंदू व मुसलमान बिल्कुल अलग हो जाएंगे।” (पाथवे टू इंडियाज पार्टिशन : खंड-1, पूष्ठ 149)
दरअसल, आजादी की पूरी लड़ाई केवल और केवल इसलिए लड़ी गयी कि अंग्रेजों के बाद सत्ता किसको मिले। भारत का ब्राह्मण वर्ग हमेशा इसी फिराक में रहा। मुसलमान भी यही चाहते थे कि अंग्रेजों ने मुसलमानों से सत्ता ली थी तो वे उन्हें ही वापस करें। राजपूतों का दावा अलग से था। उनका तो आजतक यही मानना है कि अंग्रेजों ने गलत किया। भारत की सत्ता पर अधिकार तो राजपूतों का ही बनता था। उनके ऐसा मानने के पीछे उनका तर्क है कि मुसलमानों से पहले देश पर उनका अधिकार था।
बहरहाल, यह बात तो बिल्कुल साफ है कि प्रधानमंत्री द्वारा विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस एक सियासती चाल है और यदि वाकई उन्हें कुछ याद करना चाहिए तो वह है इस देश में आजतक व्याप्त जातिगत व्यवस्था। 1947 का विभाजन के पीछे कौन थे, यह सब जानते हैं। लेकिन जातिगत भेदभाव और समाज के स्तरों पर अभी जो विभाजन है, उसके लिए राष्ट्रीय शर्म दिवस का ऐलान वे कब करेंगे?
मुझे नहीं लगता है कि वे कभी शर्मिंदा होंगे। वैसे भी जो व्यक्ति गुजरात दंगे में मारे गए लोगों की तुलना कुत्ते के पिल्ले से करता हो, उसके लिए यह सवाल बिल्कुल बेमानी है।
खैर, कल 14 अगस्त को पंजाबी जन कवि लाल सिंह ‘दिल’ का परिनिर्वाण दिवस था। जब मन में आग लगी हो तो लाल सिंह ‘दिल’ को पढ़ना सुकून देता है। खास बात यह कि वे चाय बेचते थे। लेकिन मोदी की तरह नहीं।
लाल सिंह ‘दिल’ की एक कविता थकान याद आ रही है। पंजाबी से हिन्दी में इसका अनुवाद सत्यपाल सहगल ने किया है। इसका एक अंश जो आज तथाकथित स्वतंत्रता दिवस के लिए भी मौजूं है –
कुत्ते पुकारते हैं
‘मेरा घर, मेरा घर’
जागीरदार
‘मेरा गांव, मेरी सल्तनत’
लीडर
‘मेरा देश, मेरा देश’
लोग सिर्फ कहते हैं
‘मेरी किस्मत, मेरी किस्मत’
मैं क्या कहूं ?
कुछ भी करने
और न करने को
दिल नहीं करता
मेरा भाई, मित्र, प्रेमिका, मां, देश
कुछ भी नहीं मेरा
दिल उसी कहर की लहर बना धड़कता है..।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
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दलित-बहुजनों के साथ जातिगत भेदभाव के लिए राष्ट्रीय शर्म दिवस की घोषणा कब? डायरी (15 अगस्त, 2021)
साहित्य और साजिश! क्या यह संभव है कि साहित्य का सृजन साजिश के तहत किया जा सकता है? यह सवाल मेरी जेहन में अनायास नहीं आया है। देश के सबसे अनूठे प्रधानमंत्री (गूगल पर सबसे अधिक पूछा जाने वाले सवाल हू इज दी मोस्ट स्टूपिड प्राइम मिनिस्टर? का गूगल द्वारा दिया गया पहला जवाब) नरेंद्र […]
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