दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण के लिए तमाम कवायदें की जा रही हैं। यह अपनी धरती और अपने पर्यावरण के प्रति सचेत होने का एहसास भी कराता है। परंतु इन सबके बीच पर्यावरण के रक्षार्थ जोधपुर के खेजड़ली गांव में सन् 1730 में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई जाति के के बलिदान की गाथा रोमांचक और प्रेरणास्पद है। अमृता देवी विश्नोई के नेतृत्व में 363 लोगों द्वारा वृक्षों के रक्षार्थ किया गया जीवन बलिदान अपनी पृथ्वी, वृक्ष और पर्यावरण के प्रति अनुकरणीय राह दिखाता है। राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- ‘सर साठे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण’, यानी सिर कटवा कर भी वृक्षों की रक्षा हो सके, तो इसे फायदे का सौदा ही समझिए।
खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह यहाँ के लोगों के लिए जीवन रेखा का कार्य करता है। यह वृक्ष कुछ अन्य देशों में भी पाया जाता है जहाँ इसके अलग-अलग नाम हैं। इसे घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी (राजस्थान), जंड (पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) इत्यादि नामों से पुकारा जाता है। इसका व्यापारिक नाम कांडी है। खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है। इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन 1899 में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।
[bs-quote quote=”राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी की बहुतायत है। इसकी महत्ता के कारण ही 1983 में इसे राजस्थान राज्य का राज्य-वृक्ष भी घोषित किया गया। वस्तुत: यह सिर्फ एक वृक्ष ही नहीं है, बल्कि इसके पीछे बलिदान और आत्मोत्सर्ग का भाव भी छुपा हुआ है। आज पूरे विश्व में जिस तरह से पर्यावरण को लेकर चिंता जताई जा रही है, ऐसे में खेजड़ली गाँव में खेजड़ी वृक्ष को लेकर जिस तरह से सन 1730 में स्थानीय लोगों ने आंदोलन किया और हुकूमत को भी झुकने को मजबूर कर दिया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
खेजड़ली के बलिदान की गाथा आज भी राजस्थान में शान से सुनाई जाती है। सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह ने महल बनवाने का निश्चय किया। नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए ईंधन की आवश्यकता बतायी गयी। राजा ने मंत्री गिरधारी दास भण्डारी को लकड़ियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया। मंत्री गिरधारी दास भण्डारी की नजर महल से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली पर पड़ी। मंत्री गिरधारी दास भण्डारी व दरबारियों ने मिलकर राजा को सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी। इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृति दे दी। खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे। बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है। खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की 42 वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी, भागु बाई और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे।
खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि ‘यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी।’ इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि ‘इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है?’ इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया ‘सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण’ अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार हैं। उस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी।
[bs-quote quote=”सबसे पहले बुजुर्गों ने प्राणों की आहुति दी। तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने बिश्नोइयों को ताना मारा कि यह क्या अवांछित बूढ़े लोगों की बलि दे रहे हो। उसके बाद तो ऐसा ज़लज़ला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे स्त्री-पुरुष सबमें प्राणों की बलि देने की होड़ मच गयी। बिश्नोई जन पेड़ो से लिपटते गये और प्राणों की आहुति देते गये। एक व्यक्ति के कटने पर तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
कुछ दिन बाद मंगलवार 21 सितम्बर 1730 ई. (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी लावलश्कर के साथ पूरी तैयारी से सूर्योदय होने से पहले आये, जब पूरा गाँव सो रहा था। गिरधारी दास भण्डारी के साथ आए लोगों ने सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास लगे खेजड़ी के हरे पेड़ों की कटाई करना शुरु किया तो, आवाजें सुनकर अमृता देवी अपनी तीनों पुत्रियों के साथ घर से बाहर निकली। उसने ये कृत्य विश्नोई धर्म में वर्जित (प्रतिबंधित) होने के कारण उनका विरोध किया उद्घोष किया ‘सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण’ और अमृता देवी गुरू जांभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गयी। क्षण भर में उनकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दिया। फिर तीनों पुत्रियों पेड़ से लिपटी तो उनकी भी गर्दनें काटकर धड़ से अलग कर दिये। इस बात का पता चलते ही खेजड़ली गांव के लोगों ने अपनी जान की कीमत पर भी वृक्षों की रक्षा करने का निश्चय किया। चौरासी गांवों को इस फैसले की सूचना दे दी गई। सैकड़ों की तादाद में लोग खेजड़ली गांव में इकट्ठे हो गए और पेड़ों को काटने से रोकने के लिए उनसे चिपक गए। उन्होनें एक मत से तय कर लिया कि एक पेड़ के एक विश्नोई लिपटकर अपने प्राणों की आहुति देगा। सबसे पहले बुजुर्गों ने प्राणों की आहुति दी। तब मंत्री गिरधारी दास भण्डारी ने बिश्नोइयों को ताना मारा कि यह क्या अवांछित बूढ़े लोगों की बलि दे रहे हो। उसके बाद तो ऐसा ज़लज़ला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे स्त्री-पुरुष सबमें प्राणों की बलि देने की होड़ मच गयी। बिश्नोई जन पेड़ो से लिपटते गये और प्राणों की आहुति देते गये। एक व्यक्ति के कटने पर तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता। इसमें कुल 363 बिश्नोइयों (71 महिलायें और 292 पुरुष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहुति दे दी। खेजड़ली की धरती बिश्नोइयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी। जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली तब जाकर उन्होंने पेड़ों की कटाई रुकवाई और भविष्य में वहां पेड़ न काटने के आदेश दिए। उन्होंने बिश्नोइयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया।
इस बलिदान में अमृतादेवी और उनकी दो पुत्रियां हरावल में रहीं। पुरुषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया था और बाद में विरतो बणियाल, चावोजी, ऊदोजी, कान्होजी, किसनोजी, दयाराम आदि पुरुषों और दामी, चामी आदि स्त्रियों ने अपने प्राण दिए। मंगलवार 21 सितम्बर 1730 (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) का वह ऐतिहासिक दिन इतिहास में सदैव के लिए प्रेरणा बनकर अमर हो गया। खेजड़ली के इन वीरों की स्मृति में यहां हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं।
खेजड़ी को लोक साहित्य में भी खूब स्थान मिला है। राजस्थानी भाषा में कन्हैयालाल सेठिया की कविता मींझर बहुत प्रसिद्ध है। यह थार के रेगिस्तान में पाए जाने वाले वृक्ष खेजड़ी के सम्बन्ध में है। इस कविता में खेजड़ी की उपयोगिता और महत्व का सुन्दर चित्रण किया गया है। आज भी राजस्थान में दशहरे के दिन शास्त्रों के साथ-साथ शमी के वृक्ष की पूजा करने की परंपरा जीवंत है। लंका विजय से पूर्व राम द्वारा शमी के वृक्ष की पूजा का उल्लेख मिलता है। यही कारण है कि आज भी रावण दहन के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते लूट कर लाने की प्रथा है जो स्वर्ण का प्रतीक मानी जाती है। इसके अनेक औषधीय गुण भी है। इसका दृष्टान्त महाभारत काल में भी मिलता है और पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं। शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।
राजस्थान के रेगिस्तान में खेजड़ी की बहुतायत है। इसकी महत्ता के कारण ही 1983 में इसे राजस्थान राज्य का राज्य-वृक्ष भी घोषित किया गया। वस्तुत: यह सिर्फ एक वृक्ष ही नहीं है, बल्कि इसके पीछे बलिदान और आत्मोत्सर्ग का भाव भी छुपा हुआ है। आज पूरे विश्व में जिस तरह से पर्यावरण को लेकर चिंता जताई जा रही है, ऐसे में खेजड़ली गाँव में खेजड़ी वृक्ष को लेकर जिस तरह से सन 1730 में स्थानीय लोगों ने आंदोलन किया और हुकूमत को भी झुकने को मजबूर कर दिया। वह आने वाली अनेक शताब्दियों तक पूरी दुनिया में प्रकृतिप्रेमियों में नयी प्रेरणा और उत्साह का संचार करता रहेगा।
कृष्ण कुमार यादव जाने-माने साहित्यकार और पोस्टमास्टर जनरल, वाराणसी परिक्षेत्र हैं।