लौटनराम निषाद का आत्मकथ्य
प्राथमिक शिक्षा काल में अपनी सोच बिल्कुल अबोध था। जात-पाँत क्या होता है, यह मुझे नहीं मालूम था लेकिन धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि इसको लेकर तथाकथित निम्नवर्गीय/शूद्र वर्णीय जातियों के साथ तथाकथित उच्चवर्णीय जातियों विशेषकर ठाकुर, भूमिहार, ब्राह्मण जाति की भावना बहुत ही ओछी व दुर्भावनापूर्ण रहती थी। सवर्ण शिक्षक की पिछड़ी-दलित जातियों के प्रति बहुत निम्न व घृणित सोच थी। जहाँ तक अपने को मालूम है, मैं कक्षा-3 में पढ़ रहा था। अपने एक मास्टर थे ठाकुर जाति के नारद सिंह। हम पिछड़ों व दलितों को गाली देते कहते थे- ‘साले मलहकिट्ट, मछरी मारोगे, कछुआ, केकड़ा, सिधरी मारोगे कि आये हो डीएम, जज बनने। साले चमरकिट्ट चमड़िया कहीं के, साले जूता बनाओगे, मर्रा फेंकोगे कि कलट्टर बनने आये हो। हमें मुर्गा बनाकर पीठ पर ईंट धर देते थे और जूता पहने ऐसे लात मारते थे कि हम लोग मुंह के बल गिर जाते थे। नाकों से खून निकलने लगता था। जिसे अपनी पुरबिया/गजपुरिया भाषा में विनाश फूटना कहते थे।
जूनियर हाईस्कूल में अपने मास्टर कृष्णकांत पांडेय थे। वे भी ऐसी ही भाषा का प्रयोग करते थे। आज जब इस बात का मंथन करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि यह दहशत फैलाकर डरा-धमकाकर सोचते थे कि ये मल्लाह, बिन्द, चमार, लोहार, कुम्हार, नाई, धोबी के बच्चे पढाई छोड़कर भाग जाएं।
मैं इंटर कॉलेज करण्डा, ग़ाज़ीपुर में इंटर बायो ग्रुप का स्टूडेंट था। मैं पढ़ने में काफी अच्छा था। अपने गांव के एक प्राथमिक शिक्षक सूबेदार यादव जी थे, जो हमें पढ़ने के लिए काफी प्रोत्साहित करते थे। उनके बड़े लड़के वीरेंद्र यादव थे, जो कुछ प्रॉब्लम को हल करा देते थे। अच्छी मित्रता थी। उनके छोटे लड़के उपेंद्र यादव थे, जो हमसे जूनियर थे। इस समय वे एसओ हैं। अपनी दोनों भाइयों से खास पटती थी। मैं अपने गाँव का पहला इंटर पास हूँ निषाद जाति में। जूनियर हाईस्कूल में प्रमोद यादव, सजीत यादव हमसे एक साल व केदारनाथ यादव दो साल सीनियर थे, जिनसे अच्छी मित्रता थी।
“इंटर में पढ़ाई के ही समय जमुआंव गांव के राजपूत बिरादरी के अरुण कुमार सिंह मेरे अच्छे मित्र हो गए, कारण कि उनके गांव में मेरी फुआ थी और भैया की ससुराल। जब मैं रिश्तेदारी करने जाता था, तो उनके घर भी जाता था। उनके घर खटिया पर हम बैठते थे, व खटिया पर ही वे लोग भी हमे खिला देते थे, पर हमारे ही रिश्तेदार चौकी, खटिया पर नहीं, जमीन या पीढ़िया पर बैठते, तो अपने को कुछ अटपटा लगता था।”
जब मैंने होश संभाला, शायद कक्षा दो में पढ़ रहा था, तभी से शुद्ध शाकाहारी हो गया। इंटर में मेरे क्लासमेट थे विष्णुदत्त त्रिपाठी, जिनसे अच्छी दोस्ती हो गयी। इनके भाई कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रचारक थे। मैं कभी-कभी इनके घर रात में रुक जाता था। ये मछली, अंडा आदि खाते थे। इसलिए खाने के लिए एक दो बार मेरे घर आये। मुझसे बड़े भाई की ससुराल टांडाकलां-चंदौली में थी और उसी के बगल के गांव जुड़े हरधन में त्रिपाठी का बहिनीआउर था। हमने कहा – ‘चलिए त्रिपाठी जी, भइया के ससुराल चलते हैं, वहाँ आपको मछली खिलाएंगे और दूसरे दिन बहिनीआउर भी कर लिया जाएगा।’ उन्होंने कहा – ससुराल तो चल लेंगे, पर अपनी बहन के ससुराल नहीं लिवा जा पाएंगे। क्योंकि वे साले कट्टरपंथी ब्राह्मण हैं, जिस बर्तन में खाना खाएंगे, उसे मंजवा देंगे सब और इसे मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा। तब मैंने कहा – हमे भी ऐसा बहिनीआउर नहीं करना।
इंटर में पढ़ाई के ही समय जमुआंव गांव के राजपूत बिरादरी के अरुण कुमार सिंह मेरे अच्छे मित्र हो गए, कारण कि उनके गांव में मेरी फुआ थी और भैया की ससुराल। जब मैं रिश्तेदारी करने जाता था, तो उनके घर भी जाता था। उनके घर खटिया पर हम बैठते थे, व खटिया पर ही वे लोग भी हमे खिला देते थे, पर हमारे ही रिश्तेदार चौकी, खटिया पर नहीं, जमीन या पीढ़िया पर बैठते, तो अपने को कुछ अटपटा लगता था। हमारे बॉस डॉ. इंद्रजीत सिंह यादव थे, जो मेरे गाँव के ही थे। स्नातक की पढ़ाई के लिए मुझे बनारस ले गए। हरिश्चंद्र कॉलेज में मेरिट पर एडमिशन हो गया। काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा दिया था, सो पास हो गया। हरिश्चंद्र कॉलेज में बीएससी व काशी विद्यापीठ में बीए में प्रवेश ले लिया। इसलिए कि हॉस्टल मिल जायेगा। आचार्य नरेंद्रदेव छात्रावास में हॉस्टल अलॉट हो गया, पर ठाकुर, भूमिहार, ब्राह्मण लड़कों ने जबरन कब्जा कर लिया। मैं अपने बॉस इंद्रजीत सिंह यादव के साथ डॉ. सम्पूर्णानन्द शोध छात्रावास में रहने लगा। उन्होंने कहा कि तुम अपनी जाति मल्लाह मत बताना। उस समय तक जात-पाँत का बहुत ज्ञान नहीं था। स्नातक के बाद धीरे धीरे यह सब जानने लगा। बीए में समाजशास्त्र व प्राचीन इतिहास अपना विषय था, जिसमें जाति व्यवस्था, वर्णव्यवस्था व सामाजिक स्तरीकरण के मुख्य चैप्टर थे। जिनका काफी बारीकी से अध्ययन किया। अब पूरी तरह जात-पाँत के भेदभाव व ऊंच-नीच को समझ गया।
हमारे बॉस ने नवज्योति विकास समिति का गठन किया, जिसमे मैं उपाध्यक्ष व मेरे जूनियर हाईस्कूल के शिक्षक गामा सिंह यादव अध्यक्ष थे। मेरे गांव में यादव, निषाद, चमार, गोसाँई आदि चार जातियाँ थीं। हमलोगों ने जातीय भेदभाव मिटाने के लिए समता भोज का आयोजन शुरू किए। शुरुआत में कुछ लोग चमार का बनाया बाटी-चोखा खाने में हिचकिचाते थे, पर धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया। एक दिन 5-7 यादव, निषाद, चमार पदाधिकारी बगल के गाँव में रह रहे छन्नू डोम के पास गए और कहा कि छन्नू हम लोग एक दिन आपका बनाया बाटी-चोखा खाना चाहते हैं। उन्होंने पहले तो ना-नुकुर करते हुए कहा कि हम बहुत छोटी जाति के हैं, साहब ऐसा कर हम नरक में चले जायेंगे। हमारे हाथ का आपलोग कैसे खाएंगे। कहा गया कि नहा-धोकर सफाई से बनाना हमलोग खायेंगे, सो वह किसी तरह तैयार हुआ। इस जाति को सबसे निम्न माना जाता है।
“हमारे बॉस ने नवज्योति विकास समिति का गठन किया, जिसमे मैं उपाध्यक्ष व मेरे जूनियर हाईस्कूल के शिक्षक गामा सिंह यादव अध्यक्ष थे। मेरे गांव में यादव, निषाद, चमार, गोसाँई आदि चार जातियाँ थीं। हमलोगों ने जातीय भेदभाव मिटाने के लिए समता भोज का आयोजन शुरू किए। शुरुआत में कुछ लोग चमार का बनाया बाटी-चोखा खाने में हिचकिचाते थे, पर धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।”
भेदभाव की खाई काफी गहरी
हमलोगों ने कहा – ‘छन्नू, हमलोग तुम्हारा बनाया तो खाएंगे, आप भी सबका खा लोगे कि किसी से भेदभाव रखते हो?’ वह सोचकर बिदक गया और कहा – ‘साहब, हम 3 जात का ना खायब, बाप, दादा किरिया(कसम) खिलाय ह।’ पूछा गया कि तुम किसका नहीं खाओगे, तो कहा – ‘सबकर खाइब त खाइब पर धोबवा(धोबी), मुसहरवा(मुसहर) अउर हलखोरवा(मेस्तर) क न खाइब।’ तब हम लोगों ने सोचा कि वास्तव में हमारे बीच सामाजिक स्तरीकरण की कितनी गहरी खाई है।
हर जाति में आपस में ही ऊँच नीच का भेदभाव
तथाकथित हिन्दू जातियों में कुरी ,बान, खाप व फिरका का भेदभाव रहा है और आज भी है। इसके उन्मूलन के लिए सामाजिक संगठन प्रयास कर रहे हैं। मैं निषाद वंश का हूँ, जिसमें मल्लाह, केवट, बिन्द, कश्यप, धीवर, लोधी, किसान आदि मुख्य जातियाँ हैं। हमारे जिले ग़ाज़ीपुर में मल्लाह की 4 कुरियाँ – चाई, सोरहिया, बथवा व तियर हैं और बिन्द की 3 कुरियाँ – खरबिंद, ओड़ बिन्द और लोधबिन्द हैं, जिनमें काफी भेदभाव रहा। सब अपनी कुरी को बड़ी व दूसरे को छोटी बताती थीं। अपने को समझ में नहीं आता था कि साला यह भेदभाव व फिरकापरस्ती कहाँ से पैदा हो गयी, और किसने पैदा की? मैं इस पर बड़ा गहन विचार मंथन किया। मल्लाह व बिन्द की सभी कुरियाँ तो अपनी जाति मल्लाह और बिन्द ही बताती हैं, और सबका पुश्तैनी पेशा एक ही है, तो फिर छोटे-बड़े की बात कहा से आ गयी?
1992 से मैं पूर्णकालिक स्वयंसेवक हो गया। मल्लाह, बिन्द, धीवर आदि को जोड़ने व जगाने में जुट गया। समाज में काफी बदलाव आया, लोग एक साथ उठने-बैठने लगे, एक दूसरे में शादियाँ होने लगीं।1998 से निषाद ज्योति मासिक पत्रिका का सम्पादन/प्रकाशन शुरू किया, जिसका उत्तर प्रदेश ही नहीं, काफी राज्यों में भाईचारा व बेटी-बेटा के मधुर सामाजिक रिश्ते होने लगे। अब तो निषाद वंश की जातियों की आपसी कुरियों ही नहीं, जातियों – मल्लाह, केवट, बिन्द, कश्यप, लोधी, किसान, गोंड़ आदि में किसी न किसी रूप में शुरू हो गया है। मल्लाह का लोधी, केवट, बिन्द, कश्यप, किसान में हो जा रहा है, पर अभी सीधे लोधी, किसान का कश्यप में नहीं। पिछड़े वर्ग की अन्य जातियों – यादव, कुर्मी, काछी आदि से अंतर-उपजातीय व अन्तरजातीय विवाह की दृष्टि से निषाद/मछुआ जातियाँ काफी बेहतर हैं।
“हमलोगों ने कहा – ‘छन्नू, हमलोग तुम्हारा बनाया तो खाएंगे, आप भी सबका खा लोगे कि किसी से भेदभाव रखते हो?’ वह सोचकर बिदक गया और कहा – ‘साहब, हम 3 जात का ना खायब, बाप, दादा किरिया(कसम) खिलाय ह।’ पूछा गया कि तुम किसका नहीं खाओगे, तो कहा – ‘सबकर खाइब त खाइब पर धोबवा(धोबी), मुसहरवा(मुसहर) अउर हलखोरवा(मेस्तर) क न खाइब।’ तब हम लोगों ने सोचा कि वास्तव में हमारे बीच सामाजिक स्तरीकरण की कितनी गहरी खाई है।”
किसने पैदा किया कुरियों/फिरकों का भेदभाव
पिछड़ी जातियों में यह भेदभाव ब्राह्मण ने ही पैदा किया। जब हमने गहनता से अध्ययन किया तो पाया कि ब्राह्मण पहले हम पिछड़ों के घर में सत्यनारायण स्वामी की कथा के साथ अन्य कर्मकांड कराने आता था। वह कह देता था – जजमान, शादी अपने से ऊँची कुरी में करना चाहिए। ग्वाल, डड़होर, घोषी,कमरिया, कृष्णावत हों या चाई, मुड़ियारी, तियर, बथवा, सोरहिया या सकता, भगता, शाक्य, सैनी, हरदिया, अवधिया या लोधी, लोधा, लोध, महालोधी, मथुरिया, पथरिया, जरिया या पटनवार, जैसवार, अथरिया, मल्ल, सैंथवार, घमैला, चेनऊँ, निरंजन, कटियार, सचान, कनोजिया या ओड़ बिन्द, खरबिंद, लोधबिन्द, ख़र्चवाह, अन्तर्वेदी, नोनिया बिन्द आदि सब अपनी कुरी व फिरका को ऊंचा मान बैठे। उन्होंने सोचा -पण्डित जी तो अपने से बड़ी कुरी में शादी करने को बताए थे, हमारी ही कुरी तो सबसे बड़ी व ऊँच है, तो क्या किया जाय? चलो अपने से बड़ा नहीं तो अपने में ही करते हैं। और यहीं से सगोत्रीय/सजातीय या अपनी ही कुरी/खाप/फिरका में बेटा-बेटी की शादी करने लगे, जो कालांतर में एक बहुत बड़ी कुरीति या सामाजिक बुराई बन गयी, जिससे अपना एक ही समाज दर्जनों, सैकड़ों फिरकों में बंटकर कमजोर हो गया, उसकी ताक़त कमजोर हो गयी।
बात 1993 की है। उस समय ग़ाज़ीपुर में राष्ट्रीय निषाद संघ बहुत मजबूत संगठन था, बिन्द-मल्लाह-धीवर काफी मजबूती से जुटे थे। मैं सांगठनिक काम से पहली बार एशिया के सबसे बड़े गाँव गहमर गया। थाने के पास उतरकर एक सज्जन से पूछा कि निषाद-बिन्द भाइयों की किधर बस्ती है, तो उसने कहा – ‘नन्हजतियों की बस्ती उत्तर तोला व नई बस्ती में है।’ हमने पूछा – ‘भैयाजी, ये नन्हजातियाँ का होत हैं?’ तब उसने कहा – ‘बिन, मलाह, भर, अहीर, चमार, तेली, कोहार, बसफोर–नन्हजतिया होते हैं।’ मैंने पहली बार यह शब्द सुना था, अपने मन को बड़ा ठेस पहुंचा।
जब अहीरों ने मारने को घेरा
1994 में रेवतीपुर विकास खण्ड अंतर्गत कामेच्छा धाम के पास निषाद सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में नसीरपुर गाँव में बोलने गया था। जिसमें ग़ाज़ीपुर के साथ बक्सर, भभुआ के बिन्द मल्लाह भाई बड़ी संख्या में शामिल हुए थे। मैंने अपने सम्बोधन में कहा – ‘यादव भाई आर्थिक,राजनीतिक, व्यावसायिक रूप से जरूर हमसे आगे हैं, पर सामाजिक रूप से हमसे बहुत पीछे हैं। क्योंकि अब हममें काफी संख्या में अन्तरगोत्रीय व अंतर उपजातीय बेटा-बेटी का रिश्ता होने लगा है, पर यादव भाइयों में अपवादस्वरूप ही ग्वाल-डड़होर के मध्य रिश्ते मिलेंगे। यादव हम पिछड़ों के बड़े भाई हैं, यदि ये सुधर जाते,तो पूरा पिछड़ा समाज सुधर जाता। ब्राह्मणवाद व अंधविश्वास खत्म हो जाता।’ नसीरपुर गाँव में 80% संख्या निषादों की है। 2-2 घर ग्वाल, डड़होर यादव के व 1-1, 2-2 घर तिवारी, मिश्रा,उपाध्याय, दुबे उपवर्ग के ब्राह्मणों के हैं। दूसरे दिन सुबह मैं गहमर के लिए पैदल चल दिया। बीच रास्ते में एक नाले के पास 3-4 यादव भाई लाठी डंडे लिये खड़े मिले।
उन्होंने हमें रोककर पूछा – ‘क्यों जी, तुम मल्लाहों-बिंदो की मीटिंग करने आये थे कि ग्वाल-डड़होर में शादी कराने। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, दाढ़ी उखाड़कर 10 लाठी मारेंगे और इसी नाले में गाड़ देंगे।’
मैंने कहा-‘भैयाजी,हमने क्या गलत बोल दिया?’
उन्होंने कहा – ‘एक तो गलत बोला और कह रहा है, क्या गलत बोला? डड़होर की ग्वाल में शादी कैसे हो सकती हैं? ग्वाल हमसे छोटे होते हैं और ग्वालों की लड़कियां बिन, मुसहर, मल्लाह, भर की लड़कियों की तरह काली व साँवली होती हैं।’
मैंने कहा – ‘भाई साहब,आप लोग दो तरह की बातें कर रहे हैं। गोरे-काले की बात अलग है और ग्वाल से डड़होर बड़ा होता है यह भी तार्किक बात नहीं है। मेरे गाँव में ग्वाल भाई हैं। उनकी लड़कियां भी गोरी चिट्टी व गेंहुआ रंग की व सुंदर-सुंदर हैं और हमारे बगल में नारी पचदेवरा, बाघी गाँव हैं जहां आपके गोत्र/फिरके के भाई हैं। उनकी भी बहुत-सी लड़कियाँ काली व साँवली हैं। आपको गोरा लड़का-लड़की चाहिए तो वैसे से ही करिये, ठीक है। पर, डड़होर ग्वाल में जो बड़े-छोटे की जो बात कर रहे हैं यह बिल्कुल गलतफहमी है। ग्वाल हो या डड़होर दोनो भाई खेती करते और गाय-भैंस पालते हैं, दूध-खोवा का काम करते हैं और नौकरियों में हैं, तो छोटे-बड़े का मानक क्या है?’
लेकिन वे मेरी बात से सहमत नहीं दिखे क्योंकि दिमाग में ब्राह्मणवादी भूत चांपकर बैठा था।
मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा – ‘आपके गाँव में ब्राह्मण हैं और हैं तो क्या उपनामधारी हैं?’
तब एक यादव जी ने कहा – हाँ हैं। तिवारी, दुबे, मिश्रा व उपाध्याय हैं।’
मैंने पूछा – ‘आपके गांव में ग्वाल व डड़होर दोनों है और उक्त पण्डित जी भी। आप लोगों व उनकी जाति क्या है?’
तब उन्होंने कहा – ‘अहीर/यादव व ब्राह्मण।’
मैंने पूछा – ‘यादव जी, ब्राह्मण लोगों के यहां जब लड़का-लड़की की शादी होती होगी, तो नेवता तो आता ही होगा, कार्ड मिलता होगा।’
यादव जी ने बताया – ‘हाँ, शादी का कार्ड मिलता है।’
मैंने पूछा – ‘कभी कार्ड में लड़का-लड़की वाले का नाम पता पढ़ते हैं?’
यादव जी – ‘हां,पढ़ते हैं।’
मैंने फिर पूछा – ‘दुबे, तिवारी या उपाध्याय जी के जब लड़के की शादी होती है, तो क्या लड़की वाला दूबे, तिवारी या उपाध्याय ही होता है?’
यादव भाइयों ने कहा – ‘नहीं,दूबे जी के अलावा तिवारी, मिश्रा, पाठक, ओझा, शुक्ला… होते हैं।’
हमने पूछा – ‘ऐसा क्यों?’
तब यादव जी ने बताया – ‘ये बड़े होते हैं।’
मैंने कहा – ‘यादवजी, ब्राह्मण से आप सब कर्मकांड कराते हैं और उन्हें आप लोग बड़ा मान रहे हैं, तो जैसा वे करते हैं, वैसा ही आप क्यों नहीं करते?’
तब यादव जी ने कहा – ‘आप की बात सही है। हमको भी ऐसा करना चाहिए। पर,पहिले बड़का लोग तो करय, त हमन छोटका भी करय लगल जाईं। निषाद जी, आप रउआ मांफ कर देहीं, हमन से बड़ा गलती हो गइल। राउर क बात सब सही बा, क्षमा कर देही।’
बड़जतिया और नन्हजतिया एक ज़हरीली अवधारणा है
1996 में पटना के गांधी मैदान में फूलन देवी की रैली थी। हम रैली में जाने के लिए उजियार घाट पहुँचे। गंगा पार जाकर बक्सर से पटना की ट्रेन पकड़नी थी। उजियार घाट पर जहाज पकड़ने के लिए नदी किनारे खड़े थे, तो देखा कि ताश खेलने वालों का 3-4 गुट बैठा है। मैंने पास खड़े एक सज्जन(कोई सवर्ण रहे होंगे) से पूछा – सर,ये जो ताश खेल रहे हैं, कौन लोग हैं। तब उन्होंने कहा – ‘साले नन्हजतियवा होइहन।’
हमने फिर पूछा – ‘साहब,नन्हजतियवा कौन होते हैं?’
तब उन्होंने कहा – ‘अरे साले भर,बिन,मल्लाह,चमार होंगे।’
[bs-quote quote=”बात 1993 की है। उस समय ग़ाज़ीपुर में राष्ट्रीय निषाद संघ बहुत मजबूत संगठन था, बिन्द-मल्लाह-धीवर काफी मजबूती से जुटे थे। मैं सांगठनिक काम से पहली बार एशिया के सबसे बड़े गाँव गहमर गया। थाने के पास उतरकर एक सज्जन से पूछा कि निषाद-बिन्द भाइयों की किधर बस्ती है, तो उसने कहा – ‘नन्हजतियों की बस्ती उत्तर तोला व नई बस्ती में है।’” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
1996 में मैंने अपने अनुज की शादी चन्द्रिका प्रसाद बिन्द, निवासी बबुरहनी, हुसैनपुर, शादियाबाद में तय किया। अपने गाँव के पास बेलासी हॉल्ट पर खिचड़ू बिन्द की दुकान पर बैठा था। रामबदन यादव व बद्री पांडेय आये और पास की चौकी पर बैठ गए। उन लोगों ने कहा – ‘निषाद जी, आप अपने भाई की शादी बिन्द में कर रहे हैं। आप लोग बिन्द से बड़े होते हैं। बिन्द तो मूस मारते थे।’ मैंने कहा – ‘छोटे-बड़े का कोई मानक नहीं है। हाँ, अगर ये मूस मारते थे तो हमारे पुरखे मछली, कछुआ मारते-खाते थे, हम तो छूते तक नहीं, खाने की बात तो दूर, फिर भी हम मल्लाह-केवट ही न कहे जाएंगे!’
हंस का राजा कउआ कैसे बनेगा
1995-96 में प्रधान व जिला पंचायत सदस्य का चुनाव चल रहा था। हमारे वार्ड से डॉ. रणजीत बिन्द चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे। मैं भी उन्हीं के लिए प्रचार में जुटा था। पर, ऐन मौके पर उन्होंने कहा –‘नागर यहां से आप लड़िये। समाज के लिए आप बहुत काम किये हो। आपको भी स्थान मिलना चाहिए।’ उस समय 90% बिन्द बिरादरी हमें अपना नेता मानती थी। हमने अपनी पत्नी का 26 सितम्बर को नामांकन करा दिया। रामरूप बिन्द, ढुनमुन चौधरी, रणजीत बिन्द, बाबूराम बिन्द, नेपूराम बिन्द आदि जैसे सम्मानित लोग मेरे साथ थे। भाजपा नेता बाबूलाल बलवंत ने रामकिसन बिन्द का दूसरे दिन 27 सितम्बर को पर्चा दाखिल करा दिए। मैंने लंका मैदान की सभा में कहा था कि बिन्द-निषाद-कश्यप एकता के लिए लौटनराम निषाद को गर्दन भी कटानी पड़ेगी, तो पीछे नहीं हटूंगा। जब अपनी बिरादरी के 2 उम्मीदवार हो गए तो बिन्द बिरादरी के नेता धर्मसंकट में फंस गए। इस वार्ड से 9 यादव चुनाव लड़ रहे थे। बिन्द बिरादरी के सम्मानित लोगों ने कुसुमी-सहेड़ी में समझौता के लिए मीटिंग बुलाया। समाज के चौधरियों ने कहा कि नियमतः लौटनराम निषाद की पत्नी को ही चुनाव लड़ना चाहिए। पर फैसला लौटनराम निषाद को करना है कि इनकी पत्नी चुनाव लड़ेगी या इनका भाई। मैंने कहा – ‘समाज जो निर्णय देगा स्वीकार होगा।’ जब बात मेरे ऊपर आ गयी तो हमने कहा – ‘हम समाज जोड़ने चले हैं तोड़ने नहीं। मेरा भाई रामकिसन चुनाव लड़ेगा।’ मैं बेलासी हॉल्ट पर भंडारी बिन्द की दुकान पर छोला पकौड़ी खा रहा था तो कुछ यादव भाइयों ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि हंस का राजा कउआ कैसे बनेगा यानी यादवों के बीच मे बिन कैसे चुनाव जीतेगा। हमने तत्काल प्रतिउत्तर किया कि लौटनराम निषाद हंस का राजा कउआ नहीं बनाया तो सामाजिक कार्य छोड़ देगा। अपनी पत्नी का समर्थन दिलाने के बाद भी रामकिसुन बिन्द को शक था कि भइया कहीं अंदर से विरोध न करें। हमने कहा – ‘रामकिसुन भाई, यह चुनाव आप नहीं अब लौटनराम निषाद लड़ रहा है।’
अपने माँ बाप के बिचार पर गर्व
मेरी पत्नी को भी घड़ी चुनाव चिह्न मिल गया था। समर्थन देने के बाद कुछ यादव मित्र मेरे घर आये और मेरे मां बाप से कहा – ‘नागर भैया से कहिए कि भाभी जी को चुनाव लड़ायें, हमलोग गाड़ी-खर्च की व्यवस्था करेंगे। वे बिन्द को समर्थन देकर गलत कर रहे हैं।’ मेरे माँ बाप ने कहा – ‘मेरे लड़के ने गलत नहीं किया है, अपनी बिरादरी को समर्थन दिया है।’ यादव मित्र ने कहा – ‘वो तो बिन्द हैं, आपकी बिरादरी के कैसे?’ मेरे पिता ने दो टके का जवाब दिया – ‘जब ग्वाल-डड़होर एक व यादव हैं तो हम बिन्द-मल्लाह एक क्यों नहीं? हम लोग रामकिसुन बिन्द को जीतायेंगे।’
चुनाव में रामकिसुन 2600 से अधिक वोट से जीते।
विराट नगर पर 3 पदुम भीलों ने आक्रमण कर दिया
बेलासी हॉल्ट से 3-4 यादव,बिन्द व मैं नन्दगंज बाजार के लिए चले। हम नन्दगंज सीहोरी चीनी मिल में टयूशन पढ़ाने के लिए चले। बद्री पांडेय यादव बिन्द से बात करते हुए जा रहा था कि बिराटनगर पर 3 पदुम भीलों ने चढ़ाई कर दिया। मुझसे रहा न गया। हमने कहा – ‘पांडेय जी, आप बिल्कुल झूठ बता रहे हो।’
उसने कहा – ‘शुद्र हो, शूद्र की तरह रहो, बीच में नहीं बोलना चाहिए।’
हमने कहा – ‘कोई झूठ बोलेगा तो मैं विरोध करूँगा। पंडी जी, जो आप 3 पदुम की बात कर रहे हैं, क्या इसका मतलब 1=1लाख या 10 लाख है? या गणितीय आधार पर 3 पदुम ही है?’
उसने कहा – ‘3 पदुम।’
तब हमने कहा – ‘पांडेय जी, आप बिलकुल गलत बोल रहे हो। आज भारत की जनसंख्या 84-85करोड़ है, तब यह हाल है। विराटनगर तो एक छोटा सा स्थान है, तो 3 पदुम भीलों(निषादों) ने कैसे चढाई कर दिया और वे कहाँ खड़े थे?’
उसने कहा – ‘शूद्रों के मुंह लगना बेकार है।’
हमने कहा – ‘बद्री पाँड़े होश में रहो, आप यादव, बिन्द भाइयों को गलत कहानी बता रहे हो। उस समय 3 पदुम केवल भील/निषाद थे तो और जातियाँ कितनी थीं?’
पाँड़े की बकार न फूटी।
ब्राह्मण से नहीं कराऊंगा कर्मकांड
दौर 1996-97 का ही था। हमने संकल्प लिया कि बाभनों से अपने घर में कोई कर्मकांड नहीं कराऊंगा। मेरी बहन-भतीजी की एक ही मड़वे में शादी का दिन पड़ा। मड़वा गाड़ने, हरदी व कंगन बाधने के दिन बाभन को नहीं बुलाया। जिस बाभन इंद्रदेव पांडेय ने हम लोगों की शादी कराया था वह द्वार पर आकर बैठ गया। मेरे पिता जी से पूछा कि – ‘आपकी बेटी व पोती की शादी है। आप हमें नहीं बुलाये?’ तो पिताजी ने कहा कि ‘मेरा लड़का जैसे करा रहा है, वह वैसे ही करायेगा।’
पांडेय आंसू गिराने लगा। मेरी माँ व बड़े भाई डर गए कि बाभन द्वार पर रो रहा है, ठीक नहीं है। पाप लगेगा। मेरी माँ दौड़कर आयी जहाँ मैं हरदी व कंगन का काम करा रहा था। माँ ने कहा – ‘का भइया लौटन, तोही गाँव से ऊपर हउआ। दुआर पर पण्डित के रुआवत हउआ।’
हमने कहा – ‘रोने दो, हम गवार से शादी नहीं करायेंगे।’ हमने पांडेय जी से जाकर पूछा – ‘क्या बात है?’ तब उन्होंने कहा – ‘हमने तोहरे 3-4 फुआ, 4-5 भाई व बहन की शादी कराये, इन दो लड़कियों की शादी हमसे क्यों नहीं करा रहे हो?’
हमने कहा – ‘अब हम नहीं करायेंगे। जो कर्मकांडी ब्राह्मण होगा, चाहे वो निषाद, चमार, यादव, बिन्द…. होगा,उसी से करूँगा। उसने कहा – ‘तुम्हारे आधा गाँव के यादव, मल्लाहों की शादी, मरनी-करनी तो मैं ही कराता हूँ।’
हमने कहा – ‘अब हम नहीं करायेंगे। आप 2-3 श्लोक सुना दो, तो बिचार करूँगा।’ वह भाग खड़ा हुआ। मेरी बहन-भतीजी की शादी में 7 निषाद, बिन्द, यादव, विश्वकर्मा, प्रजापति, चमार, राजभर आये। शादी बहुत ही अच्छे ढंग से हुई। मैंने अपनी माँ से सुबह पूछा – ‘माई,कैसी रही शादी?’ तो माँ ने कहा कि ‘भइया, बहुत बढ़िया, अइसन त शादिय न देखले रहली, ई त बहुत नीक हौ।’
2001 में हमारे पिताजी मरे तब भी मैं किसी ब्राह्मण को नहीं बुलाया। दसवाँ-शुद्धि के दिन माँ ने कहा –‘भइया, बभनचकिया से महपातरन के बोलाई के दान दक्षिणा दे दा।’ हमने कहा – ‘माई, एक बात बताओ, ई लोटा में पानी भरल हौ, जिम्मे दूध डालब त का होई?’ तब उसने कहा – ‘दूध बहरे गिर जाई।’ तब हमने कहा – ‘माई, वैसे ही भरले के देहले कुछ ना होला, गरीब के देवे के चाही। हमार बाबू मरल हउवें, जेतना महापातर-पण्डित के देवे के चाहत हौ, ओकर दूना, चार गुना कउनो गरीब के कहा दे देहीं, कउनो गरीब के बेटी के शादी में दे डेहीं।’
माँ सहित परिवार के सभी सदस्यों को मेरी बात जंच गयी।
हमारे गाँव के देउ यादव, बदन यादव भइया हमें बुलाये और कहा, नेता – ‘शुद्धिकरण ठीक से करा द नाहीं त केहू तेरही में कइसे खाई?’
हमने कहा – ‘भइया, हम शुद्धी क हवन कराइब, आप लोग भी आके हवन में भाग ले लैब सब।’
सब हुआ लेकिन बाभन को नहीं बुलाया ।
भरम त्यागें – ब्राह्मण से पीछा छुडावैं
शादी, मरनी-करनी आदि में तथाकथित ब्राह्मण को बुलाने से परहेज़ करें। मैं अपनी बेटियों की शादी करूँगा। बिना ब्राह्मण के समाज के बीच शपथ पत्र पढ़ाकर शादी सम्पन्न करूँगा।
उपजाति का कोई भेद नहीं
मेरी 4 बेटियाँ और 1 बेटा है। 2 बेटियां बीएड कर चूँकि हैं, तीसरी डीएलएड/बीटीसी कर रही है। उपजाति यानी मल्लाह, केवट, बिन्द, गोड़िया, कश्यप, धीवर, लोधी, किसान, रैकवार, तुरैहा, मांझी ही नहीं चौहान/नोनिया, बियार,गोंड़, खरवार, खैरहा आदि यानी निषाद वंश व संस्कृति की किसी भी जाति उपजाति में अपनी विचारधारा का परिवार मिलेगा, तो रिश्ता कर लूंगा। क्योंकि मैं समझ गया हूँ कि पहले स्वयं सुधरो फिर समाज सुधार की बात करो। लौटनराम निषाद बदल गया है, समाज को बदलने की अभिलाषा है।
बेबाक लेखन, सीधी और सपाट बात…
जातीयता से संघर्ष का एक संवेदनशील प्रकटीकरण ।
हार्दिक बधाई ,??
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