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ग्राउंड रिपोर्ट

दिल्ली चुनाव : क्यों हारे अरविंद केजरीवाल…

दिल्ली विधानसभा में हुई करारी शिकस्त ने आम आदमी पार्टी के भविष्य पर अनेक सवालिया निशान खड़े कर दिये हैं। अरविंद केजरीवाल की विचारहीन राजनीति और सामाजिक मुद्दों से परहेज ने पहले ही आम आदमी पार्टी की छवि भाजपा की बी टीम के रूप में बना दी थी। रही-सही कसर शराब घोटाले ने निकाल दी जिसके कारण अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और संजय सिंह को लंबे समय जेल में रहना पड़ा और आप का संगठन बिखराव तथा दिशाहीनता का शिकार होता गया। राजनीतिक विश्लेषक इन सभी हालात को लेकर कहने लगे हैं कि अरविंद केजरीवाल स्वयं अपने ही ताने-बाने में उलझकर रह गए। दिल्ली चुनाव के बहाने आम आदमी पार्टी और उसकी राजनीतिक संस्कृति का जायजा ले रहे हैं मनीष शर्मा।

अंततः अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप ने दिल्ली की सत्ता खो दी। उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और सौरभ भारद्वाज जैसे कद्दावर नेता भी चुनाव हार गए हैं, खुद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी भाजपा के नेता प्रवेश वर्मा ने चुनाव हरा दिया।

आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत घटकर 54 से 44फीसदी पर उतर आया है और सीटों की संख्या 62 से गिर कर 22 तक आ पहुँची है। उसी तरह भाजपा ने अपना वोट लगभग 8 फीसदी व सीटों की संख्या बढ़ाकर 48 तक कर लिया है। कांग्रेस ने भी लगभग ढाई से तीन फीसदी तक अपना वोट बढ़ा लिया है।

ज्यादातर विश्लेषक, जिन्हें इस तरह के परिणामों की उम्मीद नही थी, यह समझने में लगे हैं कि वे कौन सी बड़ी वजहें थीं जिनके चलते आम आदमी पार्टी हार गई और भाजपा को बड़ी जीत की तरफ बढ़ने का मौका मिला? आम आदमी भी कयास लगा रहा है कि ऐसा क्या हुआ कि आम आदमी पार्टी हार गई।

हालांकि हम अगर ध्यान से तलाशें तो यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है कि किन-किन वजहों के चलते आम आदमी पार्टी को हार का मूंह देखना पड़ा है?

खत्म होता विचारहीन राजनीति का समय

2014 के बाद यानि नरेंद्र मोदी के आने के बाद से ही राजनीति के केंद्र में विचार का प्रश्न आने लगा था। मध्यमार्गी राजनीति के लिए संकट बढ़ने लगा था। संध-भाजपा ने लगभग सभी राजनीतिक धाराओं पर इस तरह दबाव बढ़ा दिया था कि अगर आपको जिंदा रहना है तो किसी न किसी वैचारिक कोटि के शरण में जाना ही होगा।

पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी एक आंदोलन के बल पर आती है और वो किसी भी वैचारिक खांचे में फिट होने से इंकार कर देती है। इसे उस खास समय में नए तरह की राजनीति मान लिया जाता है और यह तथाकथित नयी राजनीति चल भी पड़ती है। दो-दो बार प्रचंड बहुमत से दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार बना लेती है। फिर इसी आधार पर पंजाब और देश के अन्य हिस्सों में आम आदमी पार्टी के लिए ढेर सारी संभावनाएं तलाशी जाने लगती है।

लेकिन  जैसा कि होता है कि विचारहीन होना आमतौर पर वर्चस्ववादी विचार के पक्ष में खड़ा होना होता है। केजरीवाल बार-बार यह कहते तो जरूर रहे कि वह किसी विचारधारा को नहीं मानते हैं, किन्तु हर उस मुद्दे पर, जो हिंदुत्व को ताकतवर बनाती रही है, अरविंद केजरीवाल अपने को परिणामवादी बताते हुए संघ-भाजपा के साथ खड़े मिले।

इसीलिए आप देखेंगे कि जब भाजपा राम की बात करती रही तो अरविंद केजरीवाल हनुमान को लेकर आते रहे। अनुच्छेद 370 के सवाल पर भी आम आदमी पार्टी भाजपा के ही साथ खड़ी रही।

दिल्ली में जब दंगे कराने की कोशिश की जा रही थी और मुसलमानों को सीधे निशाना बनाया जा रहा था तब ऐसे समय भी आप कुछ भी बोलने के लिए तैयार नहीं थी। अरविंद केजरीवाल ने आपराधिक चुप्पी साध रखी थी।

 इस तरह आप देखेंगे की अरविंद लगातार हिंदू पिच पर ही बैटिंग करते रहे। इसी दिशा में लगातार चौके-छक्के लगाते रहे। तात्कालिक रूप से इसका उन्हें फायदा भी मिला। वह चुनाव जीतते भी रहे। फिर और ज्यादा इसी पिच पर अनवरत तरीके से बैटिंग करते गए।

लेकिन ज्यादा देर तक इस रास्ते पर बढ़ कर राजनीतिक ताकत हासिल करना संभव नही था, क्योंकि उनकी इस राजनीति के चलते समाज के बड़े हिस्से का सांप्रदायिकरण होता रहा। आम आदमी पार्टी भाजपा की ही तर्ज़ पर जाने-अनजाने अपने स्वयं के जनाधार को कम्युनलाइज करती रही, जिसका नतीजा आज़ आप के सामने है।

ठीक यही रवैया सामाजिक न्याय के सवाल पर भी बना रहा। बाबा साहेब आंबेडकर को भी बेहद परिणामवादी तरीके से इस्तेमाल किया गया। बाबा साहेब का फ़ोटो किसी कमिटमेंट के चलते नहीं, बल्कि बेहद सीमित चुनावी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया।

जब जाति जनगणना देश भर में विपक्ष का केंद्रीय एजेंडा बना हुआ था उस समय भी आम आदमी पार्टी इस मुद्दे पर बात करने से परहेज़ करती रही। हद तो तब हो गई जब आम आदमी पार्टी सरकार के एक दलित मंत्री को बाबा साहेब की 22 प्रतिज्ञाओं का सार्वजनिक पाठ करने की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर होना पड़ा।

असल में आज़ समूचे विपक्ष के लिए यह समझना बेहद जरूरी है कि संघ-भाजपा ने राजनीति के केंद्र में विचार को ला दिया है और अगर उससे लड़ना है तो आपको भी एक वैकल्पिक विचार के साथ आना पड़ेगा।

आज़ यह संभव नहीं है कि एक तरफ़ समाज के बड़े हिस्से को सांप्रदायिक होने दिया जाए तथा सामाजिक अन्याय को बढ़ने दिया जाए और दूसरी तरफ़ इन सब गंभीर मसलों पर चुप्पी साधकर कुछ बेहद छोटी आर्थिक योजनाओं के जरिए भाजपा का मुकाबला कर लिया जाए।

खुद की गढ़ी छवि ही बनी अरविंद केजरीवाल के लिए संकट

सादगी ही अरविंद केजरीवाल की यूएसपी थी। आम आदमी पार्टी एक नए तरह की राजनीति लेकर आने का दावा करती रही। अरविंद केजरीवाल के बैगनार को बहुप्रचारित किया गया, मंत्रियों व मुख्यमंत्री को कितने कमरे के मकान में रहना चाहिए इसे भी मुद्दा बनाया गया,कट्टर इमानदार जैसा शब्द अरविंद केजरीवाल के साथ चस्पा कर दिया गया था।

खुद वह बार-बार अपने को व अपनी पार्टी को कट्टर इमानदार कहते रहे.एक समय तो लगभग सभी को और खासकर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले राजनेताओं को महाभ्रष्ट बताते रहे,और खुद को सत्ता नही व्यवस्था परिवर्तन की राजनीति करने वाला बताते रहे।

आम आदमी पार्टी द्वारा अरविंद केजरीवाल के लिए इस तरह की नैतिक लाइन खींचा जाना बाद में उन्हीं के खिलाफ जाने लगा। आज़ जब अरविंद केजरीवाल के वैगन आर की तुलना आम आदमी पार्टी की बड़ी-बड़ी गाड़ियों से हो रही है तो असल में अरविंद की पुरानी बातें ही उनके खिलाफ जा रही है।

जिस तरह की नैतिक लाइन आम आदमी पार्टी ने खुद खींचीं है उसके चलते लोग आज़ तथाकथित शीशमहल की तुलना मोदी के राजमहल से क्यों करेंगे? सादगी को अपनी यूएसपी तो अरविंद केजरीवाल ने बनायी थी सो शीशमहल की तुलना लोग दो कमरे के छोटे घर से करने लगे हैं।

और इसी लिए कट्टर ईमानदार की बनायी खुद की छवि ही गले की फांस बनती गई है और गली-गली शराब और भ्रष्टाचार के दाग़ का भी एक परशेप्सन बनता गया है।

अपनी ही बनायी छवि के आहिस्ते-आहिस्ते ढहने के चलते शनै:-शनै: आम आदमी पार्टी भी अन्य पार्टियों की तरह ही दिखने लगी है, जिसके चलते भी आप को भारी नुकसान हुआ है।

गरीबों के लिए आर्थिक योजनाओं भी काम नही आयीं

अपनी अलग आर्थिक योजनाओं के चलते भी अरविंद केजरीवाल की एक अलग छवि लंबे समय से बनी हुई थी, जिस पर किसी दौर में रेवड़ी कल्चर बोलकर खुद प्रधानमंत्री बार-बार प्रहार किया करते थे। हालाँकि अर्थव्यवस्था के संकट के चलते ये छोटी-छोटी मदद भी दिल्ली की गरीब जनता के लिए बेहद सुकून देने वाली थीं और इन्हीं योजनाओं के चलते दिल्ली की गरीब जनता आम आदमी पार्टी के साथ मजबूती से खड़ी रही है।

लेकिन इस चुनाव में इसी तरह की योजनाओं को लेकर कांग्रेस भी आ गई और भाजपा ने तो न केवल आम आदमी पार्टी की योजनाओं से ज्यादा देने का वादा किया बल्कि अपनी सरकार आने पर अरविंद केजरीवाल द्वारा दी जा रही योजनाओं को भी जारी रखने का वादा कर दिया।

ऐसे में आम आदमी पार्टी की इन योजनाओं के चलते जो एक अलग यूएसपी थी वह भी जाती रही। यहीं, एक बात यह भी समझना है कि आज़ अर्थव्यवस्था का संकट और मुद्रा स्फीति की दर जिस स्तर पर चली गई है। अर्थात संकट इतना बड़ा हो गया है कि तथाकथित रेवड़ी या छोटी आर्थिक योजनाओं के जरिए भी गरीबों में कोई बड़ा उत्साह नहीं पैदा किया जा सकता है।

इसलिए बात अब आर्थिक नीतियों की तरफ़ बढ़ेगी तो सवाल रोजगारविहीन विकास के माडल पर भी खड़ा होगा। ज़ाहिर है ये दोनों सवाल खड़ा कर अरविंद केजरीवाल एक नई यूएसपी बनाने की तरफ़ बढ़ सकते थे लेकिन अपनी विचारधारात्मक सीमा के चलते शाय़द यह उनके लिए संभव नही था।

परिणामवादी राजनीति का भविष्य क्या है..

हालांकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को अभी भी 44 फीसदी वोट का समर्थन हासिल है, लेकिन यह भी सच है कि अरविंद केजरीवाल सहित सभी प्रमुख नेता चुनाव हार चुके हैं। ऐसे में बहस इस पर भी होने लगी है कि क्या आम आदमी पार्टी अपने अस्तित्व के संकट से गुज़र रही है?

दरअसल अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी को धीरे-धीरे सत्ता केंद्रित बनाते गए हैं। दर्जनों ऐसे वरिष्ठ नेता जो पार्टी को विचारधारा की ओर लेकर जाना चाहते थे उन्हें खुद पार्टी से ही जाना पड़ा था।

आज़ आम आदमी पार्टी के पास सत्ता भी नहीं रही और विचारधारा से उसने पहले ही दूरी बना ली है। ऐसे में उसे अपने आपको इकठ्ठा रखना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। यह चुनौती तब और बढ़ जाती है जब सामने संघ-भाजपा जैसी ताकत खड़ी है जो अपने विरोधियों को मिटा देने पर आमादा हो। ऐसे में बचे हुए 22 विधायक कब तक बचे रहेंगे? पंजाब सरकार के सामने क्या संकट आएगा? यह सब देखना अभी बाकी है।

मनीष शर्मा
मनीष शर्मा
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और बनारस में रहते हैं।

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