मुजफ्फरपुर (बिहार)। क्या लड़की होना पाप है? कोई गुनाह है? आखिर क्यों लड़की को यह बार-बार एहसास दिलाया जाता है कि वह एक लड़की है? लड़कियों को बचपन से ही इस तरह से ढाला जाता है कि वह सिर्फ घर के कामों के लिए ही बनी हैं। बाहर की दुनिया से उनका कोई वास्ता दूर-दूर तक नहीं है। लड़के और लड़कियों में बचपन से ही भेदभाव किया जाता है। लड़के और लड़कियों दोनों को यह सिखाया जाता है कि तुम कौन-सा काम कर सकते हो और कौन-सा नहीं? बचपन से ही कामों को बांट दिया जाता है। लड़कियों को बहुत से खेलों में भाग लेने से मना किया जाता है कि तुम एक लड़की हो, यह खेल तुम्हारे लिए नहीं है, समाज क्या कहेगा? पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों का कोई वजूद ही नहीं है। वह खुद के लिए कोई फैसला भी नहीं कर सकती है, जबकि लड़का अपना फैसला खुद ले सकता है। लड़कियां वही करेंगी, जो घर के मर्द बोलेंगे, पढ़ाई-लिखाई भी घरवालों की मर्जी से करेंगी। यहां तक कि एक लड़की अपने पसंद का कपड़ा भी नहीं पहन सकती है। उक्त बातें कहते-कहते गांव की किशोरियों के चेहरे उदास व रूआंसू हो जाते हैं।
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले से 65 किमी. दूर साहेबगंज प्रखंड के हुस्सेपुर गांव की मल्लाह टोली की किशोरियां अपनी आपबीती सुनाती हैं। यह वह क्षेत्र है, जहां महिलाओं और किशोरियों को पढ़ने-लिखने व जीवन सवांरने की आजादी नहीं है। इन किशोरियों का अस्तित्व चारदीवारी में कैद है। नाम नहीं बताने की शर्त पर गांव की एक किशोरी कहती है कि वह 18 साल की हो गई, परंतु उसने आज तक स्कूल का मुंह नहीं देखा है। अपने उम्र की लड़कियों को स्कूल जाते देख उसका भी बहुत मन करता था कि वह भी पढ़ने जाए, लेकिन उसके पिता उसे स्कूल नहीं जाने देते थे। जब भी वह स्कूल का नाम लेती थी तो उसे डांट-फटकार कर कहते थे कि लड़कियों के लिए स्कूल जाना अच्छा नहीं है। वह कुल-वंश की नाक कटा देती है। चुपचाप घर का काम-काज करो और चूल्हा-चौका संभालो। रोज सबको स्कूल जाते देख बहुत रोती थी, लेकिन उसे घर का काम करने और फिर बकरी चराने जाना पड़ता था। अलबत्ता उसके दोनों भाइयों को शिक्षा हासिल करने की पूरी आज़ादी दी गई, लेकिन वह सदा के लिए निरक्षर रह गई।
इसी संबंध में गांव की कुछ अन्य किशोरियों का भी कहना है कि वह भी पढ़ना चाहती थीं, लेकिन स्कूल जाने की उम्र में उनकी शादी कर दी गई, जिसका सबसे बड़ा कारण है समाज की दकियानूसी विचारधारा। आश्चर्य की बात यह है कि वह खुद तो साक्षर हैं, पर किशोरियों के प्रति उनकी सोच बहुत ही निम्न स्तर की है। इनकी संकीर्ण मानसिकता यह है कि लड़की पढ़ कर क्या करेगी? अंत में उसे चूल्हा ही संभालना है। इन्हीं सब कारणों की वजह से गांव की दर्जनों लड़कियां शिक्षा से वंचित रह गईं। इस संबंध में 28 वर्षीय वीणा देवी कहती हैं कि ‘मेरे पति मुझे घर की नौकरानी समझते हैं। मुझे अपनी ज़िंदगी का फैसला करने का भी हक़ नहीं है। न ही घर में मेरी कोई राय ली जाती है।’ वीणा आगे कहती हैं कि ‘आज तक घर में यही सिखाया गया है कि पति, सास, ससुर आदि की सेवा करना ही एक औरत का कर्त्तव्य है। घर में मेरे साथ हिंसा होती है, पर मैं किसी को बता भी नहीं सकती हूँ।’
21 वर्षीय सोनी का कहना है कि उसने बहुत मुश्किलों का सामना करके अपने इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी की है। पढ़ाई के साथ-साथ उसे घर और गांव में बहुत कुछ सुनना पड़ता था। वह घर का सारा काम करके स्कूल और ट्यूशन जाती थी। उसके दो भाई भी हैं। उन्हें पढ़ने में कोई रोक-टोक नहीं है। हालांकि, उनका पढ़ाई में मन भी नहीं लगता है, लेकिन फिर भी माता-पिता उन्हें जबरदस्ती पढ़ा रहे हैं। जबकि वह पढ़ना चाहती है, तो गांव व समाज के लोग उसके पापा को भड़काते हैं कि लड़की को ज्यादा मत पढ़ो, उसकी शादी करा दे। सोनी अपनी पढ़ाई पूरी कर नौकरी करना चाहती थी, लेकिन उसके सपने अधूरे रह गए। उसके माता-पिता ने उसकी एक न सुनी और उसकी शादी तय कर दी गई।
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यूनिसेफ की रिपोर्ट की मानें तो दुनिया भर में 129 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर हैं। इनमें क्रमशः 32 मिलियन प्राथमिक स्कूल की उम्र की, 30 मिलियन निम्न-माध्यमिक स्कूल की, 67 मिलियन उच्च-माध्यमिक स्कूल के उम्र की लड़कियां शामिल हैं। लड़कियों की शिक्षा में गरीबी, बाल विवाह, लैंगिक असमानता, हिंसा एवं शिक्षा में निवेश करते समय गरीब परिवार अक्सर लड़कों को प्राथमिकता देते हैं। हालांकि, पिछले कुछ सालों में गांव भी तेजी से बदल रहे हैं। लोग जागरूक व आधुनिक सोच के हो रहे हैं। लड़कियों की शिक्षा को महत्त्व दिया जा रहा है, लेकिन दूसरी ओर आज भी कुछ ऐसे दलित-महादलित व पिछड़े परिवार हैं, जहां लड़कियां पढ़ाई से महरूम हैं। ऐसे परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने में बच्चे से लेकर बूढ़े तक मजदूरी पर निर्भर हैं। परिणामतः शिक्षा की लौ नहीं जल पाती है। अशिक्षा के कारण ऐसे परिवार आंडबरों व सामाजिक कुरीतियों व कुचक्रों में जकड़े होते हैं। इन समुदायों में आज भी लड़कियों की शिक्षा के प्रति घोर उदासीनता है।
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प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों हमारा समाज महिलाओं और किशोरियों को शिक्षा जैसे मौलिक अधिकारों से वंचित रखता है? क्या यह समाज केवल पुरुषों से बनता है? ग्रामीण इलाकों में ऐसे टोले-कस्बों की कमी नहीं जहां लड़कियों के प्रति दोयम दर्जें का व्यवहार किया जाता है। लड़कियों को सांस भी लेने के लिए परिवार के पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है। हमारा समाज जितना ज्ञान लड़कों को देने के लिए व्याकुल रहता है, उतना ही अगर लड़कियों को दी जाए तो वह न केवल सशक्त होंगी, बल्कि देश से महिलाओं पर अत्याचार और शोषण का खात्मा भी मुमकिन हो सकता है। हालांकि, राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक किशोरियों की शिक्षा के लिए कई महत्वाकांक्षी योजनाएं चलाई जा रही हैं। उन्हें मैट्रिक, इंटर, यूजी, पीजी आदि करने के लिए प्रोत्साहन राशि और स्टूडेंट क्रेडिट कार्ड भी दिए जा रहे हैं। इसके अलावा, सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण तथा पंचायती राज में 50 प्रतिशत भागीदारी सुनिश्चित कर दी गई है। इसके बावजूद, यदि ऐसे समुदायों में सरकार की योजनाएं एवं नीतियां दम तोड़ रही हैं, तो इनके क्रियान्वयन पर फिर से समीक्षा करने की ज़रूरत है।
(सौजन्य : चरखा फीचर)
सिमरन कुमारी मुजफ्फरपुर (बिहार) में युवा सामाजिक कार्यकर्ता हैं।