Friday, April 19, 2024
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आखिर क्यों जरूरी है हड़ताल

सरकारी बैंक में आपको एक खाता खोलने के लिए अगर 100 रुपये या 500 रुपये से काम चल जाता है (या बिना पैसे का भी खाता बैंकिंग करेस्पोंडेंट द्वारा खुल जाता है), तो यही खाता आपको खुलवाने के लिए प्राइवेट बैंक में 5000 से 10000 रुपये लगेंगे। और उसके बाद भी अगर आपके खाते में न्यूनतम रकम इससे कम हुई तो प्राइवेट बैंक इतना शुल्क लगाएंगे कि आपका खाता ही कुछ महीनों में शून्य हो जाएगा।

एक बहुत चर्चित नारा है ‘हर जोर जुल्म के टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है’। हमने अपनी जिंदगी में अक्सर यह नारा सुना है और कई बार जब हम भी हड़ताल का हिस्सा रहे हैं तो इस नारे को पूरे जोश से हमने लगाया भी है। बहरहाल लोकतंत्र में हड़ताल एक जरूरी चीज है जो हर गलत बात के विरोध में की जाती है (और की जानी भी चाहिए क्योंकि सोई हुई सरकार को जगाने के लिए यह करना पड़ता है)।
इस समय पूरे देश के सरकारी बैंककर्मी हड़ताल पर हैं और इस बार यह हड़ताल दो दिनों के लिए 16  और 17 दिसंबर को की जा रही है। वैसे तो हर हड़ताल के पीछे जो सबसे बड़ा कारण रहता है वह यह है कि सरकार कर्मचारियों की बात सामान्य तरीके से सुनने के लिए तैयार नहीं होती है और जब कई बार की बातचीत के बाद भी कोई बेहतर हल नहीं निकलता है तो कर्मचारी संगठन हड़ताल का आह्वान करते हैं। एक चीज यहाँ बताना समीचीन होगा कि यह हड़ताल कर्मचारी अपनी तनख्वाह कटवाकर करते हैं जो उनको आगे जाकर भी नहीं मिलती (बहुत से लोगों के मन में यह भ्रान्ति रहती है कि हड़ताल से कर्मचारियों को कोई नुक्सान नहीं होता)।
दरअसल यह बैंक हड़ताल आखिर किस लिए कि जा रही है, यह जानना भी जरूरी है। एक समय ऐसा था जब इस देश में सभी बैंकें प्राइवेट थीं लेकिन जब उससे देश के गरीब, ग्रामीण, किसान और छोटे व्यापारियों को कोई लाभ होता नजर नहीं आया तो सरकार ने बैंकों का सरकारीकरण किया। दो बार में कुल 27 बैंक सरकारी बैंक में तब्दील हुए और फिर बैंकों ने गांव-देहात तथा मजदूर और किसानों कि तरफ मदद का हाथ बढ़ाना शुरू किया। आज भी जितने प्राइवेट बैंक हैं या विदेशी बैंक हैं, उनमें से कितनों की शाखाएं अंदरूनी क्षेत्रों में हैं, शायद उँगलियों पर गिनती करने लायक ही होंगी। अब ऐसे में एक बात और भी सामने आती है कि सरकार ने सभी बैंकों के लिए यह प्रावधान किया हुआ है कि उनको अपनी कुल ऋण राशियों में से कम से कम 18 फीसदी ऋण कृषि क्षेत्र के लिए देनी होगी। अब इसके लिए तो हर बैंक को ग्रामीण क्षेत्र में अपनी शाखा खोलनी ही चाहिए वर्ना वह इस 18 फीसदी वाला लक्ष्य कैसे पूर्ण कर पाएंगे। लेकिन इसके लिए भी निजी और अन्य बैंक एक आसान रास्ता निकाल लेते हैं। मार्च में जब उनकी लेखाबंदी होती है तो वह सरकारी और अन्य ग्रामीण क्षेत्र के बैंकों से कुछ दिनों के लिए कृषि ऋण खरीद लेते हैं या सरकार द्वारा जारी बांड को खरीद लेते हैं और इस तरह उनका 18  फीसदी का लक्ष्य पूरा हो जाता है।

 

बहरहाल हम इस हड़ताल के कारण की बात कर रहे थे, अब इसमें सबसे बड़ा और सबसे पहला कारण इन बैंक कर्मचारियों द्वारा निजीकरण का विरोध ही है। ये लोग, सरकार द्वारा लाये जाने वाले बिल जिससे दो बैंकों के निजीकरण का रास्ता साफ़ होने वाला है, का विरोध कर रहे हैं। इनकी मांग है कि सरकार लिखित में दे कि वह बैंकों का निजीकरण नहीं करेगी और अपने इस बात से वापस हो जायेगी। किसानों के विरोध प्रदर्शन और उसके बाद सरकार द्वारा चुनावों में संभावित हार के चलते कृषि बिल की वापसी के बाद कर्मचारियों का हौसला भी बढ़ा हुआ है।

निजीकरण से किसका फायदा होता है, यह किसी से छुपी बात नहीं है और सबसे ज्यादा नुक्सान आम जनता का ही होता है, यह भी सबको पता है। वैसे भी पिछले सात आठ सालों में लोगों की नौकरियां लगातार छिनी हैं और निजीकरण के बाद तो रोजगार के अवसर बिलकुल ही गायब हो जाएंगे, इसलिए युवा काफी गुस्से में है और निजीकरण का विरोध कर रहा है। भले ही इस सरकार ने अभी तक किसी बैंक को प्राइवेट नहीं किया है (IDBI बैंक की बात अलग है) लेकिन कई बैंकों को आपस में मिलाकर सरकारी बैंकों की संख्या में कमी कर दी है। इसका परिणाम यह निकला है कि अब कई बैंकों में स्टाफ बढ़ने की बात कहकर लोगों को जबरन रिटायर करने की बात हो रही है। जब देश में वैसे ही बेरोजगारी अपने चरम पर है तो ऐसे में सरकार का यह कदम आग में घी डालने का ही काम कर रहा है। एक समय कुल 27 सरकारी बैंक थे जो अब मात्र 12 बचे हैं और अभी भी इनको घटाकर पांच या छह करने की सरकार की मंशा है। कर्मचारी इस बात का भी विरोध कर रहे हैं और यह भी इस हड़ताल का एक मुद्दा है। इस समय बैंकों में लगभग 40000 स्टाफ की कमी है और सरकार बैंकों में नयी भर्ती पर बिलकुल भी ध्यान नहीं दे रही है।
पुराने लोग अब रिटायर हो रहे हैं और उनकी जगह नए लोग बैंकों को मिल नहीं रहे हैं जिससे काम का लोड काफी बढ़ता जा रहा है। एक समय था जब बैंक और सिविल सर्विस को लगभग बराबर समझा जाता था और जो लोग आई ए एस नहीं बन पाते थे वे बैंक में आ जाते थे। इनकी तनख्वाह में भी कोई ख़ास अंतर नहीं होता था लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, बैंकवालों की तनख्वाह उन लोगों से कम होती चली गयी और आज तो दोनों के बीच का अंतर बहुत ज्यादा है। कर्मचारी इसलिए भी हड़ताल कर रहे हैं कि उनको उनके कार्य के बराबर वेतन नहीं मिल रहा है। अगर देश के बैंकिंग इतिहास पर नजर डालें तो आजतक देश के जितने भी बैंक डूबे, वे लगभग सारे ही प्राइवेट बैंक या सहकारी बैंक थे। शायद ही किसी सरकारी बैंक में जनता की गाढ़ी कमाई डूबी हो और इस डूब चुके प्राइवेट बैंकों को भी बाद में सरकारी बैंकों में ही मिलाया गया जिससे जनता को उनकी पसीने से कमाई गयी रकम वापस मिल पायी।

 

आज भी अगर किसी आम आदमी को अपना सामान्य बचत खाता खोलना हो या किसी भी सरकारी योजना में ऋण लेना हो तो वह सिर्फ और सिर्फ सरकारी बैंक से ही मदद की उम्मीद कर सकता है। जितने भी जनधन के खाते पहले खोले गए या आज भी खोले जा रहे हैं, वे सिर्फ और सिर्फ सरकारी या ग्रामीण बैंकों में ही खुलते हैं। सरकारी बैंक में आपको एक खाता खोलने के लिए अगर 100 रुपये या 500 रुपये से काम चल जाता है (या बिना पैसे का भी खाता बैंकिंग करेस्पोंडेंट द्वारा खुल जाता है), तो यही खाता आपको खुलवाने के लिए प्राइवेट बैंक में 5000 से 10000 रुपये लगेंगे। और उसके बाद भी अगर आपके खाते में न्यूनतम रकम इससे कम हुई तो प्राइवेट बैंक इतना शुल्क लगाएंगे कि आपका खाता ही कुछ महीनों में शून्य हो जाएगा। अब ऐसे में इस देश का किसान या मजदूर किस प्राइवेट बैंक में अपना खाता खुलवाएगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस समय भी सरकार की एक बहुत महत्तवाकांक्षी योजना ठेले पर कारोबार करने वाले गरीब लोगों के लिए है जिसमें उनको 10000 रुपये का ऋण दिया जा रहा है। यह योजना भी सिर्फ और सिर्फ सरकारी बैंकों के द्वारा ही पूरी की जा रही है, प्राइवेट बैंक तो इसके लिए हाथ भी नहीं बढ़ाते।

ऐसे में दो विरोधाभासी चीजें सामने आती हैं कि अगर सरकार की मंशा सभी बैंकों को निजी हाथों में बेचने की है तो वह अपने पूंजीपति दोस्तों की तो मदद कर देगी लेकिन अपने तमाम कल्याणकारी योजनाओं को आखिर किस बैंक के मदद से चलवायेगी। ये निजी बैंक तो कम से कम इन योजनाओं में अपना योगदान नहीं ही करेंगे, उनको तो सिर्फ और सिर्फ अपने मुनाफे से मतलब है, जनता की भलाई से नहीं. तो इससे एक ही निष्कर्ष निकलता है और वह बहुत भयावह नजर आता है, क्या सरकार आगे चलकर सभी कल्याणकारी योजनाओं से अपना हाथ खींच लेगी। और अगर ऐसा होता है तो इस देश के लगभग 40  प्रतिशत लोगों का क्या होगा जिनको न तो बेहतर जिंदगी दी जा सकी है और न ही उनको उनके हाल पर छोड़ा जा सकता है। शायद यह भी एक कारण हो जिसके चलते तमाम युवा और कर्मचारी इस हड़ताल के लिए आगे आये हैं।

 

 

गाँव के लोग
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