पोथिंग (उत्तराखंड)। हम भले ही आधुनिक समाज की बात करते हैं, नई-नई तकनीकों के आविष्कार का दंभ भरते हैं, चांद से आगे बढ़कर मंगल पर बस्तियां बसाने का खाका तैयार करते हैं, लेकिन एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि महिलाओं के प्रति आज भी समाज का नज़रिया बहुत ही संकुचित है। उसके उठने-बैठने से लेकर जीवन के हर पहलू को संस्कृति के नाम पर ज़ंजीरों में जकड़ने को आतुर हैं। नियमों के पालन की गठरी महिलाओं के सिर बांध दी गई है। जन्म से ही पुरुषसत्तात्मक समाज द्वारा लड़कियों की आज़ादी पर किसी न किसी प्रकार से हस्तक्षेप किया जाता है। जैसे ही वह रजस्वला (मासिक धर्म की अवस्था) होती है, संस्कृति और परंपरा के नाम पर उसके साथ मानसिक अत्याचार का एक अनंत सिलसिला शुरू हो जाता है।
आज भी समाज अपने मन में मासिक धर्म को लेकर न जाने कितने खोखले और अवैज्ञानिक भ्रम लिए घूम रहा है। हालांकि, मासिक धर्म एक जैविक प्रक्रिया है, जो प्रकृति ने महिलाओं को दिया है। लेकिन पुरुषसत्तात्मक समाज की खोखली नज़रों में यह नारी समाज के लिए सजा है। हैरत की बात तो यह है कि यही समाज एक तरफ लड़कियों को देवी मानकर पूजता है और फिर उसी के साथ भेदभाव भी करता है।
एक अच्छी बात यह है कि जहां जहां शिक्षा की लौ पहुंच रही है, वहां महिलाओं और किशोरियों के साथ माहवारी के नाम पर होने वाला भेदभाव अपेक्षाकृत कम हो रहा है। वहीं, देश के दूर-दराज़ ग्रामीण क्षेत्रों में यह रुढ़िवादी सोच आज भी बदस्तूर जारी है। इसका एक उदाहरण पहाड़ी राज्य उत्तराखंड के बागेश्वर जिला स्थित गरुड़ ब्लॉक का सुराग गांव है, जो ब्लॉक मुख्यालय से करीब 30 किमी की दूरी पर बसा है। इस ग्रामीण क्षेत्र में बहुत से ऐसे घर हैं, जहां पर मासिक धर्म के दौरान किशोरियों और महिलाओं को करीब एक सप्ताह तक घर से बाहर गौशाला या अन्य स्थान पर रखा जाता है। जब तक उनके मासिक चक्र की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती है, तब तक उन्हें अपने ही घर में प्रवेश की इज़ाज़त नहीं होती है। यानी वह इन दिनों में अपवित्र कहलाती हैं। उनके प्रवेश मात्र से घर दूषित हो जाने का भय रहता है। इस दौरान चाहे जैसी भी परेशानियों का सामना करना हो, उन्हें घर में प्रवेश नहीं करने दिया जाता है।
इस अमानवीय और क्रूर परंपरा पर गांव की एक किशोरी कुमारी पिंकी का कहना है कि हमारे गांव में आज भी माहवारी को लेकर भेदभाव किया जाता है। महिलाओं को परिवार से अलग रखा जाता है, किशोरियों को भी इस दर्द और कष्टों से जूझना पड़ता है। यह समय हमारे लिए बहुत ही कष्टकारी होता है। वहीं, कुमारी गीता का कहना है कि यह बात सत्य है कि माहवारी आज भी रूढ़िवादी सोच है जो सदियों से चली आ रही है। इसे बदलने में काफी वक्त लगेगा, लेकिन समय के साथ-साथ चीजें बदल रही हैं। जो लोग पढ़े-लिखे हैं वह अपनी सोच को बदल रहे हैं और इस अमानवीय परंपरा का त्याग कर माहवारी के समय महिलाओं और किशोरियों को घर से बाहर नहीं भेजते हैं। लेकिन जो अशिक्षित हैं, वह आज भी वहीं पर हैं।
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इस तथ्यहीन परंपरा को ख़त्म करने में सरकार के साथ-साथ कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने भी बड़ी भूमिका निभाई है। दिल्ली स्थित चरखा डेवलपमेंट कम्युनिकेशन नेटवर्क पिछले कुछ वर्षों से प्रोजेक्ट दिशा के माध्यम से लगातार किशोरियों को जागरूक कर रही है। संस्था कार्यशाला के माध्यम से किशोरियों को माहवारी से जुड़े फैक्ट और अन्य जागरूकता कार्यक्रम चला रही है, जिसका लाभ धीरे-धीरे नज़र आने लगा है। कई किशोरियों ने परिवार के साथ माहवारी पर रूढ़िवादी सोच के विरुद्ध पूरे तथ्य के साथ चर्चा करनी शुरू कर दिया है। अपने अभिभावकों को माहवारी के दौरान घर से बाहर नहीं रखने पर सहमत भी कर लिया है।
कुमारी कविता कहती हैं कि माहवारी समेत कई मुद्दों पर मेरे परिवार वालों की सोच बदल रही है। मैं जब से चरखा संस्था के प्रोजेक्ट दिशा के साथ-साथ जुड़ी हूं, मैंने बहुत चीजें सीखी हैं। इससे न केवल मेरी बल्कि परिवार के सदस्यों की सोच में भी काफी परिवर्तन आया है। मासिक धर्म के भेदभाव को लेकर मेरी दादी और मां के विचारों में काफी परिवर्तन देखने को मिला है, क्योंकि मैं इस बारे में उनसे बात करती हूं कि ऐसी सोच गलत है। उन्हें समझाती हूं कि माहवारी प्रकृति की देन है, कोई पाप नहीं।
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रूढ़िवादी सोच जहां एक तरफ किशोरियों के शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा बनी हुई है तो वहीं दूसरी ओर यह उनकी सुरक्षा पर भी सवाल खड़े करती है। सामाजिक कार्यकर्ता नीलम ग्रेंडी का कहना है कि हमारे समाज में शारीरिक उत्पीड़न करने वाले हैवान घूम रहे हैं, परंतु लोगों को अपनी बेटियों की सुरक्षा से ज्यादा ज़रुरी उनकी प्रथाएं लगती हैं। सुराग और उसके आस-पास के गांव में कई बार ऐसा हुआ है कि मासिक धर्म के दौरान किशोरियों को अलग गौशाला में रखा गया है, जहां उनके साथ असामाजिक तत्वों द्वारा शारीरिक शोषण किया गया है। जिसका परिणाम बहुत ही भयंकर रहा है। कुछ किशोरियां जहां बलात्कार के कारण गर्भवती हुई हैं तो कुछ की हत्या तक कर दी गई है।
इतना सब कुछ हो जाने के बावजूद भी लोगों के मन से रूढ़िवादी सोच निकलने का नाम नहीं ले रही है। ऐसा लगता है कि रूढ़िवादी और प्रथाओं के आगे समाज ने अपने घुटने टेक दिए हैं। समाज को अपने ही बच्चों का कष्ट दिखाई नहीं दे रहा है। इस पीड़ा और अज्ञानता से बाहर निकलने के लिए खुद महिलाओं और किशोरियों को आवाज उठानी होगी। उन्हें स्वयं जागरूक होना होगा, तभी वह पूरे तथ्य के साथ इस तथ्यहीन परंपरा और सोच को ख़त्म कर सकती हैं।
हिमानी गढ़िया पोथिंग (उत्तराखंड) में समाजसेवी हैं।
[…] माहवारी पर आखिर इतना भेदभाव क्यों? […]