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पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित होने के बावजूद नष्ट हो रही हैं दुर्लभ मूर्तियाँ

गोंडा। ‘ओह! इतनी दुर्लभ मूर्तियाँ ऐसे सड़ रही हैं।’ पृथ्वीनाथ मंदिर की दीवारों में लगी मूर्तियों की दर्दनाक हालत देखकर अपर्णा के मुंह से बेसाख्ता निकला। हम लोग इस मंदिर को देखने निकले हैं। इसके बारे में तरह-तरह की किंवदंतियाँ फैली हुई हैं। यह सदियों पुराना मंदिर है जिसका अपना इतिहास है। लोक प्रचलित किस्सों […]

गोंडा। ‘ओह! इतनी दुर्लभ मूर्तियाँ ऐसे सड़ रही हैं।’ पृथ्वीनाथ मंदिर की दीवारों में लगी मूर्तियों की दर्दनाक हालत देखकर अपर्णा के मुंह से बेसाख्ता निकला। हम लोग इस मंदिर को देखने निकले हैं। इसके बारे में तरह-तरह की किंवदंतियाँ फैली हुई हैं। यह सदियों पुराना मंदिर है जिसका अपना इतिहास है। लोक प्रचलित किस्सों और मिथकों से अलग भारत के सांस्कृतिक इतिहास के अनेक तथ्य इसके गर्भ में हैं, क्योंकि मध्यकाल का बना कोई भी मंदिर तत्कालीन राजनीति और सांस्कृतिक रस्साकशी, विनाश और वर्चस्व का प्रतीक हुये बिना नहीं बच सकता। आज जबकि भारत की पूरी राजनीति ही मंदिर से तय हो रही है तब तो इस बात के मायने और भी विशिष्ट हैं।

पृथ्वीनाथ मंदिर के बारे में जानने के लिए जब हम इटियाथोक ब्लॉक के पास खरगूपुर गाँव पहुंचे, तब दोपहर बीत चुकी थी और अधिकतर चीजें उनींदी थीं। मंदिर से पहले एक लहलहाता तालाब था, जिसे देखकर अच्छा लगा। हम जैसे ही मंदिर की ओर चले वैसे ही लोटा, फूल और प्रसाद वाले कुछ दुकानदार पास आए और इन सब चीजों को लेने का आग्रह करने लगे, लेकिन हमने उनको उपेक्षित करते हुये आगे का रास्ता लिया। मंदिर के मुख्य द्वार पर दो नगाड़ची बैठे थे। हमको जजमान समझकर उन्होंने अपने-अपने नगाड़ों को ठोंका। लेकिन यह काफी नहीं था। अपर्णा ने अपना कैमरा चालू किया और उनसे कहा- ज़रा जमकर बजाइए। उन दोनों ने एक-डेढ़ मिनट बजाया और अपर्णा ने उन्हें बीस का एक नोट पकड़ाया।

मंदिर के मुख्य द्वार पर बैठे दो नगाड़ची

मंदिर सतह से बीस फीट ऊँचाई पर है। सीढ़ियाँ चढ़कर वहाँ पहुँचना पड़ता है। पूरा मंदिर भगवा रंग में पेंट किया गया है। ऐतिहासिक विरासत होने और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में होने के बावजूद यह मंदिर किसी विशिष्ट रख-रखाव में नहीं है। यहां महीने में कई बार लोगों की भीड़ जुटती है। मलमास, संक्रान्ति और शिवरात्रि के मौके पर मेले लगते हैं। सीढ़ियों के साथ ही दस-बारह फीट हटकर एक रैम्प बना है, जो बुजुर्ग-अशक्त श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए है।

किंवदंतियों और अवांतर कथाओं के जाल

आमतौर पर शहरों की पहचान वहाँ के मंदिर भी हुआ करते हैं। इसी तरह गोंडा जिले की एक पुरातात्विक पहचान वहाँ के खरगूपुर स्थित पृथ्वीनाथ मंदिर भी है। इस मंदिर के बारे में अनेक किंवदंतियाँ हैं। एक महाभारतकालीन है जिसके अनुसार भीम ने बकासुर की हत्या करने के बाद पछतावे में इस शिवमंदिर को बनवाया। यह मंदिर 5000 साल पुराना माना जाता है। दूसरी किंवदंती के अनुसार, इसका कुछ सम्बन्ध पृथ्वीराज चौहान से जुड़ता है। इसी आधार पर कुछ लोग इसे 12वीं शताब्दी में निर्मित बताते हैं।

मंदिर में स्थापित शिवलिंग

तीसरी किंवदंती यह है कि जब पांडवों को अज्ञातवास दिया गया तो वह यहाँ पर आए। इस दौरान भीम ने यहाँ पर शिवलिंग की स्थापना की परंतु कालांतर में यह शिवलिंग जमीन में धंसने लगा और धीरे-धीरे पूरा का पूरा शिवलिंग धरती में समा गया। कहा जाता है कि एक बार खरगूपुर के राजा गुमान सिंह की अनुमति को पाकर गाँव के निवासी, जिसका नाम पृथ्वीनाथ सिंह बताया जाता है, उसने अपना घर बनाने के लिए निर्माण कर्य शुरू करवाया, परंतु जमीन की खोदाई के दौरान यहाँ से रक्त का फौव्वारा बहने लगा। इस दृश्य को देखकर सभी लोग सहम गए तथा पृथ्वीनाथ सिंह ने घर का निर्माण कार्य रोक दिया। उसी रात में पृथ्वीनाथ सिंह को एक सपना आया। सपने में उन्हें इस बात का पता चला कि भूमि के नीचे एक सात खण्डों का शिवलिंग दबा हुआ है। पृथ्वीनाथ सिंह को शिवलिंग निकालकर उसकी स्थापना का आदेश प्राप्त होता है। प्रात:काल उठकर वह इस बात को राजा के समक्ष रखता है, जिस पर राजा उस स्थान पर एक खण्ड तक शिवलिंग खोदने का निर्देश देता है। वहाँ से शिवलिंग प्राप्त होता है। इस शिवलिंग की स्थापना की जाती है। राजा विधि-विधान से शिवलिंग को मंदिर में स्थापित करवाता है। पृथ्वीनाथ के नाम पर ही इस मंदिर का नाम ‘पृथ्वीनाथ शिव मंदिर’ पड़ गया। (भारतकोश)

एक चौथी किंवदंती भी एकदम ऐसी ही है। जिसके अनुसार गोंडा में पृथ्वीनाथ मंदिर के विशाल शिवलिंग का पता 19वीं सदी में तब हुआ जब गोंडा नरेश की सेना के एक सेवानिवृत्त सैनिक पृथ्वी सिंह ने यहां पर अपना मकान बनवाना शुरू किया। टीले की खोदाई के समय एक स्थान से खून का फौव्वारा निकले लगा। मजदूर घबराकर भाग गए। रात में सैनिक को सपने में शिवलिंग दिखाई पड़ा। सैनिकों ने बाद में उस स्थान को साफ किया तो वहां अरघे सहित विशालतम काले पत्थर का शिवलिंग मिला। उसी मंदिर का निर्माण हुआ और अब उसी सैनिक के नाम पर यह पृथ्वीनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। (दैनिक भास्कर)

पृथ्वीनाथ मंदिर

एक पाँचवीं किंवदंती इस तरह है कि यह शिवलिंग दरअसल अशोक की लाट है। शंकराचार्य के बौद्ध धम्म विनाश अभियान के दौर में जब बौद्ध धम्म के मानने वालों की स्थिति कमजोर हुई तब किसी बौद्ध विरोधी समूह ने लाट को उखाड़ा और उसे उलटकर गाड़ दिया। यह एक तरह से प्रतिशोध था। असल में इस शिवलिंग के आकार-प्रकार एवं नक्काशी को देखकर समझा जा सकता है कि यह किसी कुशल शिल्पकार की रचना है। आमतौर पर ऐसी नक्काशी दुर्लभ है।

इतिहास और मिथकों के बीच के संकेत  

हालाँकि ये सब किंवदंतियाँ मात्र हैं। जनमानस पर इतिहास से अधिक किंवदंतियों का ही प्रभाव पड़ता है इसलिए मंदिरों से लाभ कमानेवाले वर्ग ने किंवदंतियों का व्यापक प्रसार किया। अधिकतर बुद्धिजीवी भी बिना कोई तर्क-बुद्धि लगाए अपनी स्थापनाएं इन्हीं किंवदंतियों से पुष्ट करते रहे हैं। उत्तर भारत में शिवलिंग कैसे आए, यह एक जिज्ञासा का विषय होना चाहिए। उनका भौगोलिक विस्तार कहाँ और कैसे हुआ, इसकी वस्तुगत खोजबीन होनी ही चाहिए।

इतिहास से एक संकेत यह मिलता है कि 12वीं से 16वीं शताब्दी के बीच कर्नाटक के बसवन्ना के शिष्य अपने मत के प्रचार के लिए अपने गले में शिवलिंग की माला पहनते थे। उनका मानना था कि यह सारा संसार शिव के अधीन है। कुछ स्रोतों से यह भी जानकारी मिलती है कि बसवन्ना ने जिस सामाजिक संगठन को आकार दिया, उसमें उन्होंने कतिपय नवाचार भी किए। मसलन वे अंतरजातीय विवाहों के पक्षधर थे। शिव उत्तर भारत में अनार्य अथवा शूद्रों के देवता माने जाते हैं। माना जाता है कि वही समय था जब लिंगायतों ने भारत के अनेक हिस्सों में घूमकर शिवलिंगों का प्रचार किया। उत्तर भारत के पुजारियों ने शिवलिंग को अपना लिया और मंदिरों के निर्माण में ढेरों किंवदंतियाँ रच डालीं। पृथ्वीनाथ के मंदिर को पृथ्वीराज चौहान से जोड़ने वाले इसका निर्माणकाल 12वीं शताब्दी मानते हैं। गोंडा नरेश के सैनिक पृथ्वीनाथ के हिसाब से यह मंदिर 19वीं सदी का हो सकता है।

दुर्लभ और कलात्मक मूर्तियों को झाड़ू से साफ करता सेवादार

झाड़ू से साफ की जातीं हैं दुर्लभ और कलात्मक मूर्तियाँ

जब हम वहाँ पहुँचे, तब तकरीबन तीन बजे होंगे। मंदिर परिसर बिलकुल खाली था। जूते उतार कर जैसे ही अंदर घुसे तो एक अजीब-सी दुर्गंध नाक में घुसी जो दूध, पत्तियों और अन्न के सड़ने से बनती है। निश्चित रूप से शिवलिंग पर चढ़ाये जाने वाली सामग्री नालियों में जमा होने से ही यह दुर्गंध आ रही थी। चारों तरफ गंदगी थी। चीनी के बने प्रसाद गिरकर पिघल जाने से तलुवे चिपचिपा रहे थे। मंदिर की दीवारों पर कई मूर्तियाँ थीं। मूर्तियों को देखकर तकलीफ होती थी। हाल ही में उन पर सिंदूर, दूध और पत्ते चढ़ाये गए थे। एक सेवादार उन्हें झाड़ू से साफ कर रहा था। एक मूर्ति का धड़ था लेकिन सिर गायब था। दूसरी मूर्तियों पर लगातार पानी और दूध चढ़ने से होनी वाली रासायनिक क्रिया से उनका मूल स्वरूप बिगड़ रहा था।

महंत जगदंबा प्रसाद तिवारी

हम मंदिर के भीतर गए तो एक ठिगने सज्जन कहीं से निकल कर आए और अपना परिचय दिया कि उनका नाम ननके उर्फ बौरहे है और वह यहाँ के पुजारी हैं। पान के शौकीन बौरहे का मुंह लाल था। वह इस मंदिर के बारे में प्रचलित कई कथाएँ सुनाने लगे। अपर्णा ने फोटो खींचा और कुछ नोट्स लेने लगी तो बौरहे ने बताया कि यहाँ के महंत जगदंबा प्रसाद तिवारी हैं जो थोड़ी देर में आएंगे।

कुछ देर बाद महंत जगदंबा प्रसाद तिवारी आए। बगल के कमरे में हनुमान की मूर्ति थी। तिवारी ने दिनचर्या के अनुसार एक डिबिया में रखा सिंदूर उठाया और मना करते-करते भी माथे पर लगा दिया। फिर वह इस मंदिर के बारे में जानकारी देने लगे। हालाँकि, यह पूछने पर कि इस मंदिर की स्थापना कब हुई होगी वे कोई भी भरोसे लायक उत्तर नहीं बता सके।

क्या पुरातत्व विभाग का बोर्ड महज दिखावा है

पुरातत्व विभाग की वेबसाइट देखने से पता चलता है कि 1102.83 करोड़ के बजट वाले भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सारनाथ सर्किल में आनेवाले इस मंदिर का क्रम 48 है और उल्लिखित है कि ठोस ईंटों के बीस फीट ऊंचे टीले की खोदाई में पृथ्वीनाथ लिंगम और एक ताम्रपत्र पाया गया था। यहाँ पुरातत्व विभाग द्वारा लगाए गए बोर्ड को भी लोगों ने हैंडबिल लगाकर धुंधला कर दिया है।

पुरातत्व विभाग का बोर्ड महज दिखावा है?

गोंडा जिले में पृथ्वीनाथ मंदिर की प्रसिद्धि इतनी है कि किसी घूमने वाली जगह के बारे में पूछने पर इसी मंदिर का नाम बताते हैं। यहाँ आने पर पता चलता है कि यह मंदिर लाखों लोगों की श्रद्धा का केंद्र होने के साथ ही दर्जनों परिवारों की आजीविका का भी साधन है।

यह और बात है कि आस्था के वशीभूत किए गए जल एवं दुग्धाभिषेक से दुर्लभ मूर्तियाँ लगातार नष्ट हो रही हैं।

गाँव के लोग
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6 COMMENTS
  1. शिल्प का सौंदर्य जब आस्था के प्रतीकों में तब्दील होता है तब वह अपना नैसर्गिक सौन्दर्य खो देता है और आस्था की चिन्दियां ही शेष रह जाती हैं। सुन्दर लेख।

  2. लोमहर्षक प्रस्तुति बहुत बहुत धन्यवाद

    वास्तव में यह अशोक स्तम्भ का बेस या आधार है जिसे उलट कर फ़्रेम में फ़िट कर दिया गया है । सात खंडों में होने की बात भी आइ है शेष छह खंड अभी भी नीचे हीदबे होंगे भारतीय जनमानस में कोई भी बेलनाकार वस्तु शिवलिंग ही कही जाती है । इसका शिरोभाग का फ़्लैट होना यह बताता है कि यह अशोक स्तम्भ है ।

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