Monday, June 9, 2025
Monday, June 9, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमराजनीतिक्या उत्तर प्रदेश में सिर्फ जाति के सवाल पर होगा आगामी लोकसभा...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

क्या उत्तर प्रदेश में सिर्फ जाति के सवाल पर होगा आगामी लोकसभा का चुनाव

लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर हर पार्टी अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए अभी से मुस्तैद दिख रही है। फ़िलहाल 2014 के लोकसभा चुनाव से उत्तर प्रदेश भाजपा का गढ़ बन चुका है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव लगातार भाजपा के विजयरथ के खिलाफ खड़े होने की कोशिश करते रहे हैं पर अब तक […]

लोकसभा चुनाव 2024 को लेकर हर पार्टी अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए अभी से मुस्तैद दिख रही है। फ़िलहाल 2014 के लोकसभा चुनाव से उत्तर प्रदेश भाजपा का गढ़ बन चुका है। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव लगातार भाजपा के विजयरथ के खिलाफ खड़े होने की कोशिश करते रहे हैं पर अब तक सफल नहीं हो सके हैं। बावजूद इसके अखिलेश यादव चुनाव दर चुनाव जीत के लिए प्रयोग करते रहे हैं जिनमें उनके दो बड़े प्रयोग डिजास्टर साबित हुये थे। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। भाजपा ने गुजरात मॉडल की आभासी तस्वीर को इतनी दमखम के साथ प्रस्तुत किया था कि सपा के साथ उत्तर प्रदेश की अन्य विपक्षी पार्टियां कांग्रेस और बसपा भी कहीं नहीं टिक सके थे।

साल 2014 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 71 सीटें मिलीं, पार्टी के खाते में 42.3 फीसदी वोट गए। जबकि पूर्ण बहुमत की सरकार चलाते हुये भी समाजवादी पार्टी को मात्र 5 सीटें मिल सकी थी। कांग्रेस के हिस्से में सिर्फ दो सीटें गई थी, जिनमें से एक सीट रायबरेली से सोनिया गांधी और दूसरी सीट अमेठी से राहुल गांधी जीते थे। इन दोनों ही सीटों पर समाजवादी पार्टी ने अपने प्रत्याशी नहीं उतारे थे और कांग्रेस को अलिखित समर्थन दिया था। उस चुनाव में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बसपा की देखने को मिली थी जिसका कुल वोट प्रतिशत कांग्रेस से ज्यादा था पर एक भी सीट उसके हिस्से में नहीं गई जबकि अपना दल जैसी पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन करके 2 सीटें अपने नाम कर ली थी। बसपा को 19.6 फीसदी वोट मिले थे,  पर उसे सीट एक भी नहीं मिली थी जबकि उससे महज 3 प्रतिशत ज्यादा वोट पाकर सपा लोकसभा में पाँच सीटों के साथ अपनी उपस्थित बरकार रखने में कामयाब हुई थी।

इस चुनाव ने उत्तर प्रदेश को पूरी तरह से भाजपा के हवाले कर दिया था। समाज के बड़े हिस्से में नरेंद्र मोदी का जादू किसी सम्मोहन की तरह बरकरार हो चला था। उसी जादू के सहारे भाजपा उत्तर प्रदेश की सत्ता से समाजवादी पार्टी को बेदखल करना चाहती थी।

अखिलेश यादव को भी बहुत हद तक यह आकलन हो चुका था कि वह सत्ता में रहते हुये भी उतने ताकतवर नहीं रह गए हैं जितने के दम पर अकेले भाजपा का मुक़ाबला कर सकें। चुनाव से ठीक पूर्व अखिलेश यादव पारिवारिक कलह का भी शिकार हो गए थे जिसकी वजह से चुनाव के मुहाने पर पहुंचकर भी चुनावी तलवार को धार नहीं दे पाये थे। पार्टी के अंदर भी बहुत कुछ बिखर गया था। ऐसी स्थिति में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया था।

यह गठबंधन भी अखिलेश यादव के किसी काम नहीं आ सका था। भाजपा की आँधी में उत्तर प्रदेश की छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां तिनके की तरह बिखर गई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को रिकार्ड 325 सीटों पर जीत मिली थी। इसमें से अकेले बीजेपी ने 384 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जिसमें 312 सीटों पर जीत दर्ज की थी। गठबंधन की अन्य दो पार्टियों में अपना दल (सोनेलाल) ने 11 सीटों में नौ सीटें और भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी ने आठ में से चार सीटें जीती थीं। मुख्य विपक्षी दल के रूप में सपा और कांग्रेस के गठबंधन को जनता ने नकार दिया था। इस गठबंधन को मात्र 54 सीटों के साथ संतोष करना पड़ा था कांग्रेस को चुनाव में 114 सीटों में केवल सात सीटों पर जीत मिली थी, वहीं समाजवादी पार्टी को 311 सीटों में से केवल 47 सीटों पर जीत मिली थी। अखिलेश यादव और राहुल गांधी द्वार दिया गया नारा उत्तर प्रदेश को यह साथ पसंद है सबसे असफल नारा साबित हुआ था।

इन दोनों गठबंधनों के अलावा बहुजन समाजवादी पार्टी को भी 403 सीटों में से मात्र 19 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। बसपा के कई दिग्गज चुनाव हार गए थे। इसके अलावा रालोद को मात्र एक सीट पर जीत मिली थी वहीं तीन निर्दलीय उम्मीदवारों सहित कुल छह सीटें अन्य के खाते में गई थी। यह एक तरह से उत्तर प्रदेश की सत्ता में भाजपा की ऐतिहासीक वापसी थी। 2017 के चुनाव ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा परिवर्तन ला दिया था। इस जीत के बाद भाजपा ने यूपी में योगी आदित्यनाथ को अपना सीएम बना कर संदेश दे दिया था कि वह अब हिन्दुत्व के सहारे ही उत्तर प्रदेश को आगे बढ़ाएगी।

इसके बाद तो उत्तर प्रदेश से भाजपा ने हिन्दुत्व का एक नया रोड मैप देश के सामने रखने का काम शुरू कर दिया।

फिलहाल 2017 विधानसभा चुनाव के बाद 2019 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश चुनाव में एक अलग ही बयार बहती दो ऐसी पार्टियों का गठबंधन सामने आया जो शायद एक दूसरे को अपने से पीछे रखने की होड़ में ज्यादा था। भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए लंबे समय बाद और बहुत ही अप्रत्याशित रूप से अखिलेश यादव और मायावती ने उस समीकरण को साधने की कोशिश की जिसके सहारे कभी मुलायम सिंह यादव और कांशीरम ने भाजपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाकर, दलित और पिछड़े समाज को उत्तर प्रदेश की राजनीति में नायकत्व दिया था। फिलहाल यह गठबंधन भी एक बार फिर अखिलेश यादव के लिए राजनीतिक रूप से दु:स्वपन साबित हुआ था।  इस चुनाव में बसपा जहां शून्य से दहांई तक आ गई थी वहीं सपा जहां की तहां रह गई थी।

दो चुनावों में अखिलेश यादव अपनी हर चाल में मात खाने के बाद, विधानसभा चुनाव-2022 में एक नई ऊर्जा के साथ मैदान में आए। इस बार अखिलेश यादव ज्यादा प्र्भावी व्यक्तित्व के साथ थे, बहुत हद तक वह पहली बार सामाजिक न्याय की राजनीतिक और सामाजिक आवश्यकता को महसूस करते हुये चुनावी कदम बढ़ा रहे थे। दरअसल अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री आवास खाली करने के बाद योगी आदित्यनाथ ने पूरे आवास को गंगा से धुलवाया था। यह पहला मामला था जिसने अखिलेश यादव को जातीय हीनता के उस भाव बोध से परिचित कराया था। जिससे तले आज भी समाज का एक बड़ा हिस्सा वंचना और अपमान का शिकार है। इस अपमान की पीड़ा ने अखिलेश यादव की राजनीतिक चेतना को 2022 के चुनाव से एक अलग रंग देना शुरू कर दिया। इसी सोच के तहत उन्होंने 2022 चुनाव में अपने इर्द-गिर्द दलित-पिछड़े समाज की छोटी-छोटी पार्टियों को इकट्ठा करना शुरू किया। जिसका अखिलेश को बड़ा फायदा भी मिला वह मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भले ही नहीं पहुँच सके। इस चुनाव में भाजपा गठबंधन को 273, सपा गठबंधन को 111, सुभासपा को 6, बसपा को 1 कांग्रेस को 2 और जनसत्ता दल को 2 सीटें मिली थी इस चुनाव में भाजपा सत्ता में वापसी करने में भले ही कामयाब हुई थी पर अखिलेश के कई उम्मीदवारों की जीत हार का मार्जिन 1000 के अंदर था। जिसका खामियाजा हमेशा विपक्ष को भुगतना पड़ता है। बहरहाल इस चुनाव ने समाजवादी पार्टी की धुंधली होती उम्मीदों को पुनर्नवा कर दिया था।

2024 के लोक सभा चुनाव में भी अखिलेश यादव अपने उस अपमान के खिलाफ सामाजिक न्याय के मसविदे को ही आगे बढ़ाते नजर आ रहे हैं। उन्होंने पीडिए यानि पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक को अपनी राजनीति का घोषित आधार कहना शुरू कर दिया है। जिससे यह साफ दिख रहा है कि आने वाला लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश में पूरी तरह से जातीय सम्मान का चुनाव होने जा रहा है। इस फार्मूले की सफलता का अखिलेश ने घोसी विधानसभा के चुनाव में ट्रायल कर लिया है। इस लिहाज से यह कहना गलत नहीं होगा की आने वाले चुनाव में जाति और समाज ही सबसे बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है शेष बातें तो बस चुनावी शिगूफ़े की तरह आने वाली हैं।

 

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment