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गुलबर्ग सोसायटी : न्याय पाने की उम्मीद लिये विदा हो गयी जकिया जाफरी !

जकिया जाफरी न नेता थीं, न कोई सामाजिक संस्था की संचालिका थीं और न ही किसी राजनैतिक पार्टी की सदस्य थीं लेकिन उन्होंने गोधरा कांड के समय अहमदाबाद के गुलबर्ग सोसाइटी में हुए 68 लोगों के नरसंहार के न्याय के लिए पिछले बीस वर्षों से संवैधानिक लड़ाई लड़ रही थीं और अंतत: 87 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया।

कल एक फरवरी को जकिया जाफरी का निधन हो गया। उसे देश की न्यायपालिका ने अंत तक न्याय नहीं दिया, इसलिए कि गुलबर्ग सोसायटी की जघन्य घटना को सिर्फ उत्तेजित भीड़ ने अंजाम नहीं दिया था। उसमें तंत्र की भागीदारी थी, उसके पीछे शायद एक बड़ी शख्सियत का भी हाथ था। यह संशय इसलिए कि अहमदाबाद के पुलिस कमिशनर तथा लोकल पुलिस अफसरों द्वारा गुलबर्ग सोसाइटी जाकर एहसान जाफरी (पूर्व सांसद) को आश्वासन देने के बावजूद यह जधन्य कांड हुआ था। एहसान जाफरी की बीवी जकिया जाफरी अंतिम सांस लेने तक न्याय पाने के लिए लड़ती रही, पर निराशा ही मिली। मुझे इस देश का एक नागरिक होने के नाते की बहुत शर्मिंदगी महसूस हो रही है।

‘गुलबर्ग सोसायटी’ अहमदाबाद शहर के मध्यवर्ती इलाके चमनपुरा में एक रिहायशी सोसायटी थी। गोधरा कांड के बाद गुजरात में शुरू हुए दंगों के पहले ही दिन 28 फरवरी 2002 की सुबह, 7.30 से दोपहर  4.30 तक इस सोसायटी को बीस से पच्चीस हजार दंगाइयों ने घेर रखा था। इसे लेकर  मेघानीनगर थाना में  इंस्पेक्टर इरडा ने एफआईआर भी दर्ज किया था। मगर दंगाई सुबह से तोड़फोड़  कर आग लगाने का प्रयास भी किया। अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर पीसी पांडे सुबह करीब 10 बजे गुलबर्ग सोसायटी के रहवासी और पूर्व कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी से मिलने गये थे। उनके साथ कांग्रेस के वॉर्ड नंबर 19  के महामंत्री अंबालाल नाडिया और 20 नंबर वॉर्ड के कन्नूलाल सोलंकी भी थे। सबों ने आश्वासन दिया कि सुरक्षा का पूरा प्रबंध कर दिया गया है। साढ़े 10 बजे उसी इलाके की जहीर बेकरी और एक ऑटो रिक्शा में आग लगा दी गई। साढ़े 11 बजे गुलबर्ग सोसायटी पर पत्थर फेंकना शुरू हुआ। फिर एक गैरमुस्लिम पड़ोसी की छत से पत्थर फेंका जाने लगा। कुछ देर बाद एसिड बल्ब और कपड़े के आग लगे हुए बॉल फेंकना शुरू हुआ। उसी दौरान भीड़ ने युसूफ नाम के व्यक्ति को पकड़ कर जिंदा जला दिया। कुछ देर बाद ही ‘घुसी जाओ’ के शोर के साथ सोसायटी के रेलवे लाइन के तरफ वाले गेट से लोगों के घुसने की शुरुआत हुई। तभी पास के संसार बेकरी से अनवर को लाकर, उसके शरीर के टुकड़े – टुकड़े कर जला दिया गया।

gulbarg society-gaonkelog

करीब तीन बजे एहसान जाफरी को बाहर घसीट कर, नग्न करने के बाद उन्हें पीटा गया। फिर उनका जुलुस निकाला कर उन्हें ‘वंदे मातरम’ और ‘जय श्रीराम’ बोलने कहा जा रहा था। यह सब 45 मिनट तक चला। फिर पहले उनकी उंगलियों को काटा गया। उसके बाद हाथ और पांव काटकर किसी मरे हुए जानवर की तरह उनकी गर्दन काट कर आग में डाला दिया गया। उनके साथ उनके तीन भाई, दो भतीजे और आश्रय लेने आए हुए लोगों में से मुन्नवर शेख को भी उसी तरह टुकड़े-टुकड़े कर आग में डाला गया। उसी से दौरान 10-12 औरतों के साथ बलात्कार करने के बाद, उनके भी शरीरों को काट कर आग में डाल दिया गया। करीब 5 बजे पुलिस आयी और दो घंटे तक पत्थरबाजी के बीच कुछ लोगों को बचाने का प्रयास का नाटक करती रही।

इस घटना की जघन्यता से अगर किसी कथित हिंदुत्ववादी को गर्व महसूस हो रहा हो, तो ऐसे व्यक्ति को पर-पीड़ा से खुश होने वाले विकृत या मनोरोगी के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे हालात में, हिंदुत्व की राजनीति के इर्द-गिर्द  देश की आजादी के 75 साल के दौरान, और आगे के 25 साल के सफर को ‘अमृत काल’ बोला जा रहा है  मगर मुझे यह अमृत काल ‘विषैला काल’ नज़र आ रहा है। यह कथित राजनीति देश के रोजमर्रे के सवाल हल करने की जगह सिर्फ हिंदू-मुस्लिम के इर्द-गिर्द घूमती नजर आ रही है। ऐसे में  अलग- थलग महसूस कर रहे देश के मुस्लिमों से कोई अतिवादी कदम भी उठा देता है, पंजाब में पुनः खलिस्तान के नारे लग रहे हैं, तो हमें उनको गलत ठहराने का नैतिक अधिकार है? खुद धर्म की आड़ में राजनीति करने वाले,  अन्य धर्मों के लोगों को ‘धर्म के आधार पर राजनीति मत करो’ का उपदेश कैसे दे सकते हैं?

जो पुलिस कमिश्नर सीपी पांडे सुबह एहसान जाफरी को सुरक्षा का भरोसा देकर गये थे, इस घटना के बाद उन्होंने कहा- क्या करें, हमारे पास पर्याप्त पुलिस फोर्स नहीं थी। क्या उन्होंने अतिरिक्त पुलिस बुलाने का प्रयास किया था? वे खुद सुबह  20-25 हजार  दंगाइयों की भीड़ देख कर और सुरक्षा प्रबंध करने का आश्वासन देकर गये  थे। उसके बाद सात आठ घंटे तक अगर इतनी जघन्य घटना हुई, तो इसे सिर्फ चंद दंगाइयों का काम कैसे कहा जा सकता है? इसमें  पुलिस प्रशासन की मिलीभगत साफ नजर आई।

27 फरवरी को सुबह, गोधरा कांड में मरे 59 लोगों के एवज में और कितने लोगों को जलाने से गोधरा का हिसाब पूरा होगा? नरेंद्र मोदी‌ (मुख्यमंत्री) दोपहर को गोधरा जाने से पहले ही, दूरदर्शन पर गोधरा हादसे के पीछे मुस्लिम समुदाय और पाकिस्तान की साजिश बता चुके थे। फिर पत्रकारों को संबोधित करते हुए कहा था- इस घटना को अंजाम देने वालों को बक्शा नही जायेगा, उन्हें जिंदगी भर के लिए ऐसा सबक सिखाया जायेगा कि वे कभी भी भूल नहीं सकेंगे।

तो क्या इस घटना को वही ‘सबक’ के तहत अंजाम दिया गया!

मुख्य सचिव तथा गृहसचिव तथा के. चक्रवर्ती पुलिस महासंचालक ने कहा कि ‘मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने गोधरा से वापसी के बाद  सभी वरिष्ठ अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि सांप्रदायिक हिंसा के समय पुलिस-प्रशासन को समान रूप से दंगाइयों के साथ व्यवहार करना पड़ता है, लेकिन नरेंद्र मोदीजी ने बाद में कहा था कि हिंदुओं को अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए छूट देनी होगी। श्री  चक्रवर्ती ने कहा कि उस बैठक में अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर सी. पी. पांडे, अतिरिक्त मुख्य सचिव (गृह) अशोक नारायण, कार्यवाहक मुख्य सचिव स्वर्णकांत वर्मा, मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव डॉ. पी. के. मिश्रा (जो मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही अतिरिक्त मुख्य सचिव हैं.) गृहसचिव के. नित्यानंदम और खुद के. चक्रवर्ती शामिल थे और उन्होंने या किसी ने भी मुख्यमंत्री की  इस प्रकार की भेदभाव पूर्ण बात का विरोध नहीं किया।

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 के. चक्रवर्ती ने कहा कि ‘मुख्यमंत्री के मौखिक आदेश के कारण सांप्रदायिक हिंसा करने वाले लोगों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने के लिए  विशेष रूप से गोधरा कांड में मारे गये 59 लोगों अधजले शवों को खुले ट्रकों पर रखकर अहमदाबाद शहर में घुमाने से उत्तेजना फैल गयी, जिसने आग में घी का काम किया।  उन मृतकों   का अहमदाबाद शहर से कोई संबंध नहीं होने के बावजूद, उन्हें विश्व हिंदू परिषद के कब्जे में देकर जुलूस की शक्ल में निकालने के पीछे दंगे करने के अलावा और क्या उदेश्य हो सकता था?  लेकिन इस कृत्य का न तो जांच आयोग (जस्टिस नानावटी) ने और न ही एसआईटी के प्रमुख (डॉ. आर. के. राघवन ) ने संज्ञान में लिया और सबसे संगीन  बात कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने  भी नजर अंदाज किया। इस कारण इस मामले में राज्य सरकार और पुलिस को मिली क्लीनचिट को  कितना क्लीन माना जा सकता है?

गुलबर्ग सोसायटी का यह कांड नरोदा पटिया, बेस्ट बेकरी और भी अन्य जघन्य घटनाओं को अंजाम देने के लिए जलावन के रूप में काम आया है।

सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जमीरूद्दीन शाह ने भी बताया है कि  28 फरवरी 2002 से अहमदाबाद के एयरपोर्ट पर जोधपुर बेस से भेजे गये सेना के तीन हजार जवानों को  दंगाग्रस्त क्षेत्र में तैनात नहीं किया गया, तीन दिनों तक एयरपोर्ट के बाहर ही नहीं जाने दिया!  क्या गुजरात में शांति- व्ययस्था के लिए ऐसा किया गया? जाँच आयोग से लेकर एसआईटी को भी इस बात का संज्ञान लेने की जरूरत नहीं हुई?

आर. बी. श्रीकुमार, जो गुजरात पुलिस के सर्वोच्च पद से निवृत्त होने के बाद, ने  दोनों एजेंसियों पर आरोप लगाया कि इन मुद्दों पर  नौ-नौ एफिडेविट करने के बावजूद, दोनों ने जानबूझ कर अनदेखी की है.श्रीकुमार ने कहा कि ‘मुझे पहले ही लग रहा था कि दोनों ने पहले ही (जस्टिस नानावटी और डॉ. आर. के. राघवन) नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट देने का निर्णय ले लिया है और जांच-पड़ताल केवल औपचारिकता हैं। ’

जकिया जाफरी के केस में फैसला देते हुए आर. बी. श्रीकुमार जैसे जांबाज अफसर और तीस्ता सीटलवाड़ को जेल में डाल देने का फैसला भारत के न्यायालय के इतिहास का सबसे हैरान करने वाला फैसला है। इसी कारण दुनिया भर में भारत की सभी संविधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर सवाल उठाये जा रहे हैं।

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 सबसे अंत में एक जरूरी बात- आजकल नरेंद्र मोदी पसमांदा मुसलमानों को स्नेह करने की बात बोल रहे हैं। यह अचानक मुसलमानों के प्रति स्नेह का झरना कहां से फूट पड़ा? शायद बढ़ती बेरोजगारी तथा महंगाई के पर कुछ भी उपाय न कर पाने के कारण। अगर यही ‘अच्छे दिन’ हैं, तो हमें नहीं चाहिए ऐसे दिन।  हिंदुत्व का झण्डा उठाये लोग लगातार किसी न किसी बहाने मुसलमानों पर हमला कर रहे हैं, उन्हें अपमानित कर रहे हैं- कहीं लव जेहाद, तो कहीं किसी मुस्लिम पशु व्यापारी को गाय को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हुए जान गंवाने की नौबत आ जाती है। मोदीजी स्नेह की बात बोल रहे हैं। क्या आपके स्नेह की व्याख्या यही है? हां, तो आप अपना स्नेह अपने पास रखिये। जिस तरह रामायण के रचनाकार वाल्मीकि, जो कभी डाकू थे और किसी पक्षी के करुण क्रंदन से बदल गये, यदि मोदी में भी वैसा बदलाव आ गया है या आ सकता  है तो निश्चित ही स्वागत है लेकिन मोदी के पिछले पच्चीस साल के राजनीतिक सफर को देखते हुए यह उम्मीद बेमानी ही लगती है;  इसी कारण उनके इस तरह के बयानों पर भरोसा करना मुश्किल है। इस बात को भी नहीं भूला जा सकता कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात दंगों के लिए दुख नहीं जताया है, माफी मांगना तो दूर की बात है।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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