दिनांक 10.10.2022 को बिहार लोक सेवा आयोग, पटना द्वारा 31वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा का परिणाम जारी किया गया, जिसमें कुल 214 अभ्यर्थियों का चयन हुआ। उसमें एक नाम दिवाकर राम का भी है, जिसे कैमूर के बहुजन युवा कैमूर का कांशीराम कहते हैं। जज बनने के बाद से दिवाकर राम को बधाई देने वालों का तांता लगा हुआ है। गाँव के हर लोगों को लग रहा है कि अपना बेटा जज बना है। आखिर कौन है दिवाकर राम, आइए जानते हैं-
कैमूर जिला के चैनपुर प्रखण्ड के चैनपुर थाना अंतर्गत चैनपुर पंचायत के मलिक सराय गाँव के निर्धन परिवार में दिवाकर राम का जन्म हुआ। दिवाकर के पिता का नाम सुधीर राम तथा माता का नाम कुन्ती देवी था। दिवाकर के दादा का नाम महिपत राम था और उनके चार पुत्रों में से दिवाकर के पिता सबसे बड़े थे या यों कहें कि वे अपने खानदान के सभी भाइयों में सबसे बड़े थे, इसलिए उनका पूरे खानदान में मान-सम्मान रहा है। दिवाकर तीन भाई-बहन है। छोटे भाई का नाम प्रभात राम तथा छोटी बहन का नाम ज्योति कुमारी है। गाँव के लोग दिवाकर को दसवीं तक ‘पतालू’ ही कहते थे। आज भी गाँव के बुजुर्ग लोग पतालू ही कहते हैं और प्रभात को ‘डब्लू’। यह तो गोपाल सर की महानता है कि इसके पिताजी नाम लिखाने गये तो दोनों भाइयों का नाम बदल डाले और उन्होंने दिवाकर की जन्मतिथि 01 अप्रैल, 1989 लिख दी। आज उसी तिथि को सच मानकर जन्मदिन की बधाइयां बंटोरना पड़ता है। खैर, ऐसा अधिकांश ग्रामीण विद्यार्थियों के साथ हुआ है। गोपाल सर ने हमारे गाँव के कई विद्यार्थियों का नामांकन के समय निःशुल्क नामकरण संस्कार किया है।
दिवाकर का बचपन गाँव की गलियों में ही बीता है। गाँव के सभी बच्चे लगभग एक जैसे ही पले-बढ़े हैं। बचपन में दिवाकर खेल-कूद में भी अव्वल था। चुट्टी (गोली) तथा ताश खेलने के लिए कई बार अपने बाबूजी से मार भी खाया है। क्रिकेट, फुटबॉल एवं गुल्ली डंडा खेलने पर उसके बाबूजी नहीं बोलते थे लेकिन चुट्टी, ताश एवं जुआ पर तो तुरंत चप्पल निकाल लेते थे फिर भी बालमन खेलने से बाज नहीं आता था। छुप-छुप कर खूब खेला जाता था।
छठवीं कक्षा तक की पढ़ाई राजकीय कृत मध्य विद्यालय, चैनपुर तथा सातवीं से दसवीं तक की पढ़ाई गाँधी स्मारक उच्च विद्यालय, चैनपुर से किया है। बिहार विधानसभा चुनाव 2005 में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला जिसके कारण 07 मार्च को राष्ट्रपति शासन लग गया और मार्च के अंतिम सप्ताह में मैट्रिक बोर्ड की परीक्षा होती थी। दिवाकर मैट्रिक बोर्ड में फर्स्ट डिवीजन से परीक्षा पास किया। गाँव के सवर्ण परिवार में कुछ बच्चे पहले भी फर्स्ट डिवीजन लाये थे लेकिन दलित-पिछड़ा परिवार में पहली बार दिवाकर को ही फर्स्ट डिवीजन से पास होने का संयोग बना। उस समय का नौवीं कक्षा तक विद्यार्थी पढ़ाई के प्रति बेपरवाह रहते थे लेकिन दसवीं कक्षा में जाते ही मैट्रिक का लोड ट्रक के लोड जैसा महसूस होने लगता था। लगभग हर दिन बात-बात में गुरुजी लोग बोर्ड की याद दिलाते रहते थे। दिवाकर ने दसवीं में जाने के बाद खेलना-कूदना बहुत कम कर दिया था। सात बजे तक गोड़-हाँथ धोकर कुर्सी पर लालटेन के सामने किताब लेकर बैठ जाता था। दिवाकर इस मामले में धनी था कि गरीबी में भी उसके बाबूजी कुर्सी की व्यवस्था कर दिए थे वरना अधिकतर को तो खटिया या जमीन पर ही बोरा बिछाकर ढिबरी या लालटेन के सामने बैठकर पढ़ना पड़ता था।
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दसवीं के बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई करने के लिए बनारस चला गया, तब उसके पिताजी किसी ज़मींदार के यहाँ रहकर खेतीबारी कराते थे और ट्रैक्टर चलाते थे। बनारस में अधिकांश समय आंबेडकर छात्रावास में रहकर पढ़ाई किया। 2007 में पीसीएम (विज्ञान वर्ग) से प्रथम श्रेणी से बारहवीं करने के बाद इंजीनियरिंग की तैयारी में अभी जुटा ही था कि उसके पिताजी की तबियत खराब हो गई और बेहतर इलाज के अभाव में बनारस में ही वो चल बसे। पिताजी का जाना दिवाकर के लिए बहुत बड़ा झटका था। छोटे-छोटे भाई बहन और विकलांग माँ के साथ पेट पालना ही मुश्किल था तो फिर पढ़ाई करना तो और मुश्किल…, लेकिन दिवाकर इंटरमीडिएट में ही शिक्षा का महत्व समझ चुका था, इसलिए उसके लिए पढ़ाई छोड़ने का निर्णय लेना आसान नहीं था। उसने बनारस में काम करके पढ़ने की सोची और रिक्शा भी चलाना शुरू किया लेकिन कम उम्र और कमजोर शरीर की वजह यह सब आसान नहीं था। बहुत दिन तक चल नहीं सका। बनारस से बोरिया-बिस्तर समेट कर घर आ गया। घर आने के बाद उसे लगा कि मैं उच्च शिक्षा से विमुख हो जाऊँगा, इसलिए उसने तय किया कि जिला मुख्यालय भभुआ में रहकर ट्यूशन पढाऊँ और अपनी पढ़ाई को जारी रखूं। दिवाकर ने भभुआ में जगजीवन राम स्टेडियम के बिल्कुल सामने वाले मकान में किराए पर कमरा लिया और छोटे भाई के साथ रहने लगा। शुरुआत में मुश्किल से एक ट्यूशन मिला। भभुआ में 500 रुपये महीना ट्यूशन पढ़ाकर गुजारा करना कितना मुश्किल होगा कोई भी आसानी से समझ सकता है। उसकी विकलांग माँ बच्चों का लालन-पालन करने के लिए कटिया-बिनिया व मजूरी भी करने लगी। अपने पास खेतीबारी भी नहीं थी कि कुछ अनाज हो जाये। नाम मात्र को जमीन का एक टुकड़ा था। चावल-आंटा घर से ही ले जाता था।
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एक दिन दिवाकर झोला में घर से चावल-आटा लेकर शाम पाँच बजे के आसपास भभुआ जाने के लिए घर से निकला। गाँव के बाहर विश्वकर्माजी के मंदिर व पोखरा के पास पहुँचा, तो तीन-चार दोस्तों को चबूतरे पर बैठ बातचीत करते देख खुद भी आकर बैठ गया। दरअसल, वह भभुआ जा रहा था लेकिन उसके पॉकेट में एक रुपया भी पैसा नहीं था जबकि पाँच रुपये किराया था चैनपुर से भभुआ जाने का। ऐसे अधिकतर शरारती लड़के तो बस में मुफ़्त में ही भभुआ चले जाते थे या कोई टेढ़ा कंडक्टर मिल गया तो एक-दो रुपया दे दिया, लेकिन दिवाकर ऐसा नहीं करता था। चबूतरे पर बैठे दोस्तों में से किसी के भी पास पाँच रुपये नहीं थे। अंततः दो घण्टे बैठकर बातचीत करने के बाद दिवाकर वहीं से झोला लेकर घर लौट गया। कुछ दिन बाद एक-दो ट्यूशन और मिल गये, फिर एक स्कूल में भी पढ़ाने जाने लगा। अब उसके खाने-पीने की समस्या दूर होने लगी, लेकिन स्कूल में पढ़ाने से उसे पढ़ने का मौका नहीं मिलता इसलिए जल्दी ही स्कूल को छोड़ दिया। उसके उम्र के कई लड़के बाहर फैक्ट्रियों में कमाने लगे थे इसलिए कई लोग दबी जुबान से यह कहने से बाज नहीं आते थे कि बाप मर गया और विकलांग माँ दूसरे के यहाँ मेहनत-मजूरी कर रही है और यह नालायक़ चला है कलेक्टर बनने। खैर, यह बात कोई दिवाकर के मुँह पर कहता तो भी वह बुरा नहीं मानता क्योंकि उसके भीतर अथाह सहनशीलता है। हाँ, उसका भाई बिल्कुल उसके विपरीत स्वभाव का रहा है, उधर कुछ सालों से भले सुधर गया है। उसे दिवाकर ने कभी डाँटा हो या मारा हो ऐसा भी नहीं है, बल्कि उसकी गलतियों पर हँसते हुए कहता था कि अभी बच्चा है। लेकिन धीरे-धीरे वह भी दिवाकर के साथ रहकर समाज को समझने लगा और अपने बड़े भाई की प्रतिष्ठा में ही अपनी भी खुशी तलाशने लगा। प्रभात जब इंटरमीडिएट में था तब बहुत दिनों तक दोनों भाई एक ही पैंट से काम चलाते थे। दिवाकर ट्यूशन पढ़ाने या कहीं चला जाता तो प्रभात दिन भर कमरे में ही रहता या बहुत ऊबता तो हाफ पैंट पहनकर आसपास घूम लेता। दोनों एक साथ घर भी नहीं जा पाते थे। यह तो संयोग ऐसा था कि दोनों भाई की शारीरिक संरचना एक ही जैसी थी, जिससे एक पैंट से भी काम चल जाता था। वह समय प्रभात को थोड़ा विचलित किया और वह कमाने के लिए सोचने लगा लेकिन दिवाकर के डर से पढ़ाई छोड़कर बाहर भी नहीं जा सकता था। बारहवीं के बाद वह स्टाम्प टिकट खरीदकर कचहरी में ब्लैक में बेचकर अपना पॉकेट खर्च चलाने लगा। कुछ दिन के बाद इधर-उधर मजदूरी करने लगा और फिर ट्रक पर खलासीगिरी में रम गया, लेकिन दिवाकर के दबाव में ग्रेजुएशन करना जारी रखा। तब तक दिवाकर 2015 में ग्रेजुएशन पूरा कर चुका था। उसने 2009 में ही सरदार वल्लभ भाई पटेल महाविद्यालय, भभुआ में बीएससी मैथ ऑनर्स में एडमिशन ले लिया था। बिहार में कॉलेज की कक्षाएँ तो तब भी नहीं चलती थीं और आज भी नहीं के बराबर ही चलती हैं।
दिवाकर ग्रेजुएशन में पढ़ रहा था तभी अपने पंचायत का विकास मित्र बन गया था, जिसमें सरकार से कुछ मासिक वेतन मिलने लगा। विकास मित्र बनने के बाद धीरे-धीरे सारा ट्यूशन छोड़ दिया। ट्यूशन को कभी कमाने का जरिया नहीं बनाना चाहता था। उसके खाने-पीने और पढ़ने की पूर्ति हो सके उतने की ही उसे ज़रूरत थी। साल 2012 में पुनः बनारस लौटने का फैसला लिया और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा हेतु तीन आवेदन कर दिया। ट्यूशन और स्कूल में पढ़ाने के बाद दिवाकर शिक्षक बनने का सपना देखने लगा था, इसलिए बीएड पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा हेतु आवेदन किया और साथ ही लाइब्रेरी साइंस तथा एलएलबी का भी। बीएड में तो नामांकन योग्य इंडेक्स लाया नहीं, लेकिन एलएलबी में अच्छा इंडेक्स मिला। लाइब्रेरी साइंस और एलएलबी का प्रवेश परीक्षा एक ही दिन पड़ गया इसलिए लाइब्रेरी साइंस का परीक्षा छोड़ना पड़ा था। एलएलबी में नामांकन के दिन दिवाकर को उसी के मिजाज का रूममेट मिल गया जिसे आजतक सब लंकेश ही कहते हैं। खैर, उसने पुनः वाराणसी वापसी किया था और इस बार तो बीएचयू में भगवान दास छात्रावास मिला। लंकेश दिवाकर की लापरवाही से बहुत परेशान रहता था क्योंकि वह आये दिन कमरे की चाभी खोआ देता था और लंकेश के इंतजार किये बिना ही ताला तोड़ भी देता था। दरअसल, चार सालों तक भभुआ रहा था लेकिन कभी अपने कमरे में ताला नहीं लगाया था, चाहे जितना दिन भी गायब रहे। जिसका मन करे कमरे में जाए, खाना बनाये, खाये-सोए और चले जाये कोई टोकने वाला नहीं होता।
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एलएलबी अभी चल ही रहा था कि दिवाकर की माँ को पैरालाइसिस (हवा/ लकवा) हो गया। दिवाकर की परेशानी और बढ़ गई, उससे अधिक उसके भाई-बहन की, क्योंकि वे दोनों माँ से अधिक भावनात्मक रूप से जुड़े हुए थे। प्रभात अब इधर-उधर कमाकर माँ की इलाज कराने लगा। माँ की बीमारी से दिवाकर की पढ़ाई डिस्टर्ब न हो इसके लिए प्रभात सब कुछ खुद करने की कोशिश करता। उस समय तक वह ड्राइवर बन चुका था लेकिन नियमित गाड़ी नहीं चलाता था। कभी कोई बोल दिया तो लेकर चला गया लेकिन माँ के इलाज के लिए शराब से लदी गाड़ियों को रात में चलाने लगा। काम दो नम्बर का और रिस्की था इसलिए पैसे भी ठीकठाक मिल जाते थे, लेकिन जैसे ही दिवाकर को पता लगा उसने वह काम छोड़वा दिया। कई माह तक माँ बेड पर पड़ी रहीं और दोनों भाई-बहन दवा व सेवा करते रहे। 2015 में दिवाकर एलएलबी अंतिम वर्ष में था और उसका परीक्षा नजदीक था तभी उनकी माँ सीरियस हो गईं। उन्हें बीएचयू में भर्ती करना पड़ा। बीएचयू में सुधार नहीं हुआ तो निजी अस्पताल में ले गया लेकिन वहाँ भी सुधार नहीं दिखा और खर्च बहुत ज्यादा होने लगा जो कि उसके बस की बात नहीं थी, तो पुनः बीएचयू में लाया और कुछ दिन बाद माँ भी साथ छोड़कर चली गईं। माँ के जाने से दिवाकर बहुत दुःखी हुआ लेकिन वह अपना दुःख कभी चेहरे पर दिखने नहीं देता है। प्रभात और ज्योति अपनी माँ के लिए रो-रो कर बेहाल हो गए। उन्हें संभालना मुश्किल हो गया था। खैर, उनका दाह संस्कार किया गया और परीक्षा खत्म होने के बाद दिवाकर जब छात्रावास खाली कर गाँव गया तो गाँव वालों को एक मृतक-भोज दिया।
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एलएलबी करने के बाद दिवाकर भभुआ में ही रहने लगा और अपनी राजनीतिक तथा सामाजिक गतिविधियों को तेज कर दिया। पूरा समय इधर-उधर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में अपने को व्यस्त रखने लगा। 29वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में शामिल हुआ लेकिन मुख्य परीक्षा में कुछ अंकों की कमी से साक्षात्कार में शामिल नहीं हो सका। 2017 में पुनः बनारस लौटने का मन बनाया लेकिन इस बार बीएचयू में मौका नहीं मिला और बीबीयू, लखनऊ चला गया। वहाँ दो वर्षीय एलएलएम में नामांकन कराया। एलएलएम में था तभी किसी की शिकायत पर उसका विकास मित्र का पैसा मिलना बंद हो गया। 2019 में एलएलएम करके वहीं नेट व जुडिशरी की तैयारी करने लगा। 30वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में भी शामिल हुआ था लेकिन उसमें भी मुख्य परीक्षा में मात्र एक नम्बर की वजह से साक्षात्कार देने से चूक गया था। खैर, एक काम हुआ कि यूजीसी-नेट निकाल लिया। यूजीसी-नेट निकालने के बाद इलाहाबाद में रहकर भाई के साथ कोचिंग करने लगा। अपने दोस्तों से आर्थिक सहयोग लेकर अभी कोचिंग शुरू ही किया था कि कोरोना ने दस्तक दे डाला। कोरोना के समय जब पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया तब सारे विद्यार्थी भी लॉज/ हॉस्टल छोड़कर घर चले गए। दिवाकर भी अपने भाई के साथ घर लौट गया और भभुआ में रहने लगा। लॉकडाउन के बाद पुनः बनारस जाकर कमरा लिया। कोरोना की दूसरी लहर में पुनः बनारस का लॉज खाली करके घर लौटना पड़ा, तब तक 31वीं बिहार न्यायिक सेवा प्रतियोगिता परीक्षा में पी.टी. दोनों भाई पास कर चुके थे। अच्छा, यह तो बताया ही नहीं कि दिवाकर प्रभात को भी ठेल ठाल कर चार साल में हरिश्चंद्र पीजी कॉलेज, वाराणसी से एलएलबी करवा चुका था। इतना ही नहीं बीबीयू से लाइब्रेरी साइंस से बी.लीव भी करा चुका था। बहरहाल, प्रभात ने दिवाकर के साथ रहकर पीटी, पीसीएस-जे तथा एपीओ दोनों का निकाल लिया लेकिन मुख्य परीक्षा में लटक गया, जबकि तीसरी बार में ही सही पर दिवाकर इस बार मुख्य परीक्षा में सफल रहा। कोरोना आने के बाद से दिवाकर खुद को सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखते हुए गम्भीरता से पढ़ने लगा था। मुख्य परीक्षा का परिणाम आने से पहले ही बनारस छोड़कर पुनः भभुआ आकर रहने लगा था। दरअसल, विकास मित्र का पैसा बन्द होने के बाद दिवाकर पूरी तरह दोस्तों पर निर्भर हो गया। दोस्तों की आर्थिक मदद से ही सही लेकिन अपनी पढ़ाई को निरन्तर जारी रखा और परिणाम आज सामने है। अभी दोनों का एपीओ की मुख्य परीक्षा नवम्बर में होने वाली है।
माता-पिता के निधन के बाद इसे लगा कि अब बहन की शादी कर देनी चाहिए, क्योंकि दोनों भाई अक्सर बाहर ही रहते थे और बहन अकेले में माँ को याद करके रोती रहती थी। बहन के विवाह के लिए पैसे नहीं थे तो जो जमीन का एक टुकड़ा सड़क किनारे था उसे लगभग आठ लाख में बेचकर बहन का धूमधाम से विवाह कर दिया। कई लोगों ने समझाने का प्रयास किया कि इतनी ही जमीन है, इसे क्यों बेच रहे हो तो दिवाकर ने कहा कि आज नहीं तो कल मैं बढ़िया नौकरी पा जाऊंगा और इस जमीन से अधिक जमीन भी खरीद लूँगा लेकिन क्या उस दिन बहन को बढ़िया घर-वर दे पाउँगा? इसलिए बेहतर है कि आज ही इसे बढ़िया घर-वर खोज दूँ ताकि यह सुखी रहे वरना हमेशा यही कहेगी कि माँ-बाबूजी नहीं थे, तो भैया लोग ऐसे-वैसे घर में विवाह कर दिए। बहरहाल, आज बहन बहुत खुशहाल रहती है।
इंटरमीडिएट में आंबेडकर छात्रावास में रहने के दौरान ही दिवाकर में राजनीतिक चेतना जागृत होने लगी थी। विशेष रूप से बाबा साहेब आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम साहब के विचारों से बहुत प्रभावित हुआ। भभुआ में छात्रावासों में उसका आना-जाना शुरू से ही रहा है। एलएलबी के दौरान बीएचयू में भी आंबेडकर जयन्ती मनाने और छात्र के समस्याओं के लेकर मुखर रहा। एलएलबी करने के बाद जब भभुआ लौटा तो आंबेडकर छात्रावास, कर्पूरी छात्रावास, पाल छात्रावास, मुस्लिम छात्रावास आदि सभी में जा-जाकर छात्रों से मिलना और उन्हें पढ़ाई हेतु प्रेरित करने के साथ ही सबको एक मंच पर इकट्ठा करने का प्रयास करने लगा। छात्र संघर्ष मोर्चा बनाकर छात्र संघ चुनाव में संतुलित पैनल उतारा। कैमूर में पहली बार छत्रपति शाहूजी महाराज की जयन्ती मनाई गई, जिसमें दिल्ली से डॉ. रतन लाल और बनारस-पटना से कई वक्ताओं को बुलाया गया था। भव्य जंयती समारोह के सफल आयोजन में दिवाकर का अहम योगदान था। उससे पहले पटेल कॉलेज के छात्रावास परिसर में ही मनुस्मृति दहन दिवस पर एक कार्यक्रम में हुआ, उसमें भी वह सक्रिय रूप से शामिल था। उसके अगले साल आंबेडकर जयन्ती मनाई गई जिसमें मुख्य अतिथि व वक्ता के रूप में प्रसिद्ध आलोचक प्रो. चौथीराम यादव की गरिमामयी उपस्थिति थी। उन्हें उस मंच पर लाने में दिवाकर की महती भूमिका थी। बीबीयू, लखनऊ में जाकर तो आये दिन छात्र हित में धरना-प्रदर्शन और घेराव करने लगा। वहाँ तो ऐसे भी बाबासाहेब और मान्यवर साहब को मानने वाले विद्यार्थियों की भरपूर संख्या होती है जिसके कारण और अधिक सक्रियता से छात्र राजनीति करने का संयोग बना। एससी-एसटी छात्रवृत्ति योजना बन्द होने पर बिहार विधानसभा के घेराव में भी सक्रिय सहभागिता निभाया था, जिसमें बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी शामिल थे।
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जब एलएलबी कर रहा था तभी एक दिन अपने भाई से फोन पर बात करते हुए अपने ही जाति के एक अनाथ भाई का हालचाल पूछा। भाई से मालूम हुआ कि वह बाहर कमाने जा रहा है तो फिर उसे बोला कि बात कराओ। उस अनाथ भाई ने बताया कि भैया कमाएंगे नहीं तो छोटी-छोटी बहनों को खिलाएंगे क्या। इतना बोलकर वह रोने लगा। दिवाकर बोला कि तुम अभी अपनी बहनों को नानी के घर भेज दो और मेरे घर जाकर खाओ और वहीं रहकर बोर्ड की तैयारी करो। मैट्रिक बोर्ड के बाद कमाने जाना। अनाथ भाई ने वैसा ही किया। मैट्रिक के बाद दिवाकर उसे प्रेरित करके पालीटेक्निक में नामांकन करवाया और वह मेहनत करके अपना कोर्स भी पूरा किया। उसी के साथ अपने खानदान के तीन और लड़कों को प्रेरित करके पालीटेक्निक में नामांकन करवाया। अपने खानदान के कई और लड़के-लड़कियों को मोटिवेट करके उच्च शिक्षा की डिग्री दिलवाई। भभुआ के न जाने कितने छात्र इससे प्रेरणा लेकर पढ़ाई-लिखाई में बेहतर प्रदर्शन किए हुए हैं।
एक बार बीएचयू के लंका गेट पर कुछ काम से गया था तबतक चैनपुर के एक व्यक्ति मिल गये जिनका पैर छूकर प्रणाम किया तो भावुक हो गए क्योंकि उनका इसके परिवार से अच्छा सम्बंध था क्योंकि वो पासी जाति के थे तथा ताड़ी बेचते थे और दिवाकर के घर में तो इसे छोड़कर लगभग सब ही ताड़ी पीने वाले हैं। इसके घर में क्या, लगभग पूरे गाँव का ही माहौल ही ऐसा रहा है। खैर, वो भावुक हो गए और पूछने पर पता चला कि उनके बेटे का सरसुन्दरलाल हॉस्पिटल, बीएचयू में ऑपरेशन होना है और खून की व्यवस्था नहीं हो पा रही है। दिवाकर बिना देर किए भाई को बुलाया और दोनों भाई जाकर बिना उनके कहे दो यूनिट खून दे दिया। इतना ही नहीं बल्कि उनके लिए फल भी खरीद कर दे आया। वह आज भी कहीं मिलते हैं तो हाथ जोड़कर खड़ा हो जाते हैं और दिवाकर उनका पैर छूकर प्रणाम करता है। दिवाकर की विनम्रता ही है कि आज भी सभी का चहेता है और अजातशत्रु भी।
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भगवान दास छात्रावास में सर्वाधिक मेस बिल दिवाकर के ही नाम आता था क्योंकि यह एक बड़ा सा टिफिन रखे हुए थे और उसके गाँव या रिश्तेदारी से कोई हॉस्पिटल से आता था तो मेस से खाना जरूर पहुँचाता। इतना ही नहीं आये दिन कोई न कोई दोस्त इसके यहाँ पहुँचा रहता था।
दिवाकर हमेशा बेरोजगार जूनियरों का कोई भी सामान खाने से परहेज़ करता रहा है। वह अपने सीनियरिटी का फर्ज बखूबी निभाता था। सीनियरों का सम्मान और जूनियरों को स्नेह देने में कभी कोताही नहीं किया। अभी हाल ही मैं एक निजी महाविद्यालय में अतिथि शिक्षक के पद पर साक्षात्कार देने गया तो एक जूनियर मिल गया और बोला कि भैया जब आप दे रहे हैं तब तो मेरा नहीं होगा इसलिए मैं जा रहा हूँ। बिना देर किए दिवाकर बोला कि नहीं-नहीं तुम मत जाओ, मैं साक्षात्कार छोड़ देता हूँ। कितना भी आर्थिक संकट हो लेकिन अपना समर्पण और सहयोग वाला स्वभाव नहीं छोड़ता है।
इंटरमीडिएट में धार्मिक पाखण्ड, अंधविश्वास एवं भाग्य-भगवान से दिवाकर का मोहभंग हो गया था। बहुत साल तक इसके पास मात्र एक या दो जोड़ी ही कपड़े रहे हैं लेकिन हमेशा साफ-सुथरा और आयरन करके ही पहनता था। कपड़ा अधिकांशतः रात में साफ करता और पंखे के हवा से सुखाकर सुबह आयरन करता तभी पहनता था। दाढ़ी कभी भी नहीं बढ़ने देता था, हमेशा क्लीन शेव और हंसता-मुस्कुराता चेहरा रखता रहा है।
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