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बारह वर्षों में कहाँ तक पहुँचा है तमनार का कोयला सत्याग्रह

बात 5 जनवरी 2008 की है, जब गारे 4/6 कोयला खदान की जनसुनवाई गारे और खम्हरिया गाँव के पास के जंगल में की गई। वास्तव में ढाई सौ एकड़ में फैला हुआ यह जंगल गाँव वालों के निस्तारण की जमीन थी, जिसे बहुत चालाकी से वन विभाग ने सन 1982 में रेशम परियोजना के लिए हासिल कर लिया था। गाँव वालों को इस बात के लिए सहमत किया कि रेशम परियोजना में उन लोगों को काम मिलेगा और आर्थिक आधार पर उन्हें मजबूती मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि रेशम विभाग और वन विभाग की मिलीभगत से यह जमीन मुफ़्त में ही जिंदल उद्योग को कोयला खनन के लिए दे दी गई।

ऊपर की तस्वीर में गाँव के कुछ लोग मंच बनाते दिख रहे हैं। ये किसी टेंट हाउस के कर्मचारी नहीं है बल्कि उरवा और आसपास के गाँव के ग्रामीण हैं। जहां 2 अक्टूबर 2022 को कोयला सत्याग्रह का 12वां आयोजन होने वाला है और ग्रामीण इस तैयारी में पिछले एक माह से जुटे हुए हैं। आयोजन से पहले कई बार ग्रामीणों की मीटिंगें होती हैं, जिसमें कोयला खनन से प्रभावित अनेक गाँव के सरपंच, सरपंच प्रतिनिधि, गांववासी और अनेक सामाजिक संस्थाएं शामिल होती हैं और कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करते हैं। मेरे पास भी कई साथियों का आयोजन में शामिल होने के लिए आमंत्रण आया। इसी बात के मद्देनजर बारहवें साल कोयला सत्याग्रह कहाँ पहुंचा यह जानने के लिए तमनार के आसपास के ग्रामीणों, सरपंच, सरपंच प्रतिनिधियों के अलावा इसमें शुरुआती दौर से शामिल लोगों से बातचीत की। जैसे एक मुट्ठी नमक उठाकर गाँधीजी और उनके अनुयायियों ने नमक कानून तोड़ा था ठीक उसी तरह शासन-प्रशासन पर दबाव बनाने, उनके खिलाफ विरोध दर्ज करने और बड़े-बड़े उद्योगपतियों को कोयला खनन में आने देने से रोकने के लिए 2011 से कोयला सत्याग्रह शुरू किया गया।

हर वर्ष 2 अक्टूबर को रायगढ़ जिले की चार तहसीलों रायगढ़, तमनार, धर्मजयगढ़ और घरघोड़ा के लगभग 55 गांवों में कोयला सत्याग्रह आयोजित होता है।लोग अपने-अपने गाँव से कोयला कानून तोड़कर यहाँ आते हैं और सामूहिक रूप से इस सत्याग्रह में शामिल होते हैं। कुछ लोग अपने साथ अपने-अपने गाँव से कोयला लाकर यहाँ इकट्ठा भी करते हैं। ग्रामीण किसी भी स्थिति, शर्त और मुआवजे पर अपनी जमीन देना नहीं चाहते हैं। इसीलिए 2008 में हुई फर्जी जनसुनवाई में पुलिस द्वारा किये गए लाठीचार्ज के बाद ज्यादा सतर्क हो गए हैं।  उसी समय से वे इन बातों के लिए सड़क पर लड़ते और आंदोलन करते हुए इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि जब जमीन हमारी है तो उस पर प्राप्त संसाधन पर भी मालिकाना हक हमारा होना चाहिए।

आयोजन को लेकर मैंने आयोजक ग्रामीणों, सरपंचों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बात की, बात मुश्किल से हो पाई क्योंकि सभी लोग कल के कोयला सत्याग्रह की तैयारी में लगे हुए हैं। पेलमा गाँव के सरपंच प्रतिनिधि चक्रधर राठिया से बात की, तब वे ग्राम उरवा के पंचायत भवन के प्रांगण में थे, जहां कोयला सत्याग्रह के लिए विशाल सभा होनी है। उरवा गाँव पेलमा, तमनार, रायगढ़, छतीसगढ़ के कोयला प्रभावित क्षेत्र पेलमा का एक छोटा सा गाँव है।

कोयला सत्याग्रह में आने वालों के लिए भोजन की व्यवस्था में जुटे ग्रामीण

यह कोयला सत्याग्रह का 12 वां वर्ष है। इसी को लेकर मैंने सोचा कि वहाँ के गाँववासी और इससे जुड़े लोगों से बात कर आज के समय में इस सत्याग्रह की स्थिति और महत्ता पर सवाल किया जाए। आखिर सत्याग्रह की आवश्यकता क्यों है और इन बारह वर्षों में इस सत्याग्रह के चलते क्या बदलाव आए हैं?

उरवा गाँव की रहने वाली 38 वर्षीय कौशल्या चौहान, जो आयोजन स्थल पर तैयारी करने सुबह से पहुंची हुई थीं, से बात करने पर उन्होंने बताया कि कोयला सत्याग्रह में पहले भी 4-5 बार शामिल हुई हैं। बारह साल से होने वाले इस सत्याग्रह के माध्यम से कोई खास बदलाव नहीं हुआ है सिवाय गांववासियों के जागरूक होने के। इस आयोजन की तैयारी के पहले लगातार बैठकें, रैलियाँ होती रही हैं जिससे हम ग्रामवासी अपने जल, जंगल और जमीन के बारे में समझ पाए। हम सभी लोग अपनी जमीन नहीं देंगे। जंगल का क्षेत्र होने के कारण पान-महुआ बीनते हैं, कहाँ जायेंगे हम लोग? यहाँ इतने गाँव हैं। सब आपस में मिल-जुलकर रहते हैं। पुनर्वास में सरकार जमीन कहाँ और कितना देगी क्या पता?

कौशल्या चौहान, ग्राम उरवा, पेलमा, तमनार

बसंती चौहान बताती हैं कि जब वे 15-16 साल की थीं तब उनके समझ में आया कि हमारे क्षेत्र में कोयला खदान को लेकर गांववासियों को विस्थापित करने मामला चल रहा है। उसके बाद उन्हें भी लगा कि अपने हक की लड़ाई के लिए मुझे भी इसमें शामिल होना चाहिए। तब से चल रहे आंदोलनों में वे भागीदारी करती हैं। उन्होंने बताया कि ‘कल उनके गाँव उरवा में कोयला सत्याग्रह की मीटिंग है। जिसमें शामिल होना पक्का है, क्योंकि यहाँ हमारे जल, जंगल और जमीन को कंपनी को नहीं देने का प्रण लेते हैं। पहले से यह आंदोलन अब ज्यादा लोगों तक पहुँच गया है क्योंकि अब लोगों को इसके होने का कारण मालूम हो गया है। हम अपनी जमीन नहीं देना चाहते हैं। जमीन ले लेंगे बदले में पैसा देंगे लेकिन उस पैसे से हम कहीं दुबारा जमीन नहीं ले पाएंगे और पैसा एक दिन खत्म हो जाएगा। यहाँ जंगल पास है तो जीवन का बहुत बड़ा आधार है।’ बसंती चौहान भी इस सत्याग्रह के लिए सभास्थल की घास साफ करने आई हुई हैं। कल 10 बजे तक यहाँ पहुंचेंगे और दिनभर कार्यक्रम होगा। सभी लोगों के खाने की व्यवस्था भी यहीं होगी।

बसंती चौहान, ग्राम उरवा,पेलमा,तमनार

 ग्राम पेलमा के वर्तमान पंचायत प्रतिनिधि चक्रधर राठिया बताते हैं कि जब वे 36-37 वर्ष के रहे होंगे, तब पहली बर 2011 में हुए कोयला सत्याग्रह में शामिल हुए थे। तब से लेकर हर सत्याग्रह में उनकी भागीदारी रही है। जब उनसे पूछा कि कोयला सत्याग्रह के चलने से क्या बदलाव हुआ है? क्या फायदा दिख रहा है? और क्यों जरूरी है? तो चक्रधर राठिया ने कहा कि ‘जब से यह शुरू हुआ है तबसे लेकर आज तक एसईसीएल कंपनी कोयला खनन के लिए इस क्षेत्र में (पेलमा में ) आने का साहस नहीं कर पाई, जबकि आज तक ठेका उसके पास है। यह एक उपलब्धि है लेकिन दिक्कत है कि यह आज भी उसके पास है। साथ ही इस सत्याग्रह के चलते रहने से ग्रामीणों में अपने संसाधन और जमीनों को लेकर रुचि जागी है और वे अधिक सतर्क हो गए हैं।’

ग्राम उरवा में आयोजन स्थल की साफ-सफाई करते ग्रामवासी

इस बड़े आयोजन में हर किसी को अपना सुझाव प्रस्तुत करने के लिए मंच मिलता है। ताकि गाँववासियों की बात सरकार तक पहुँच सके। यह पूरा कार्यक्रम सामूहिक व्यवस्था से ही आयोजित होता है। जिसमें हर घर से बीस रुपये की सहयोग राशि और एक ताम्बी चावल (एक ताम्बी मतलब 2 किलोग्राम) लेते हैं और इकट्ठे हुए पैसे से सब्जी आदि बनाने की व्यवस्था की जाती है। हजारों आदमी यहाँ खाना खाते हैं और कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं। बनाने और खिलाने की जिम्मेदारी गांववासियों की होती है। इस बार तीन राज्यों तमिलनाडु,ओड़िशा और झारखण्ड, दो जिलों और 56 गांवों के हजारो लोगों के शामिल  होने की सूचना आ चुकी है।

एक दिन पहले रात को ही सब्जी काटते ग्रामीण(फोटो -राजेश त्रिपाठी)

तीन वर्षों से ग्राम पेलमा के सरपंच की जिम्मेदारी निभाने वाली सनकुमारी राठिया ने बताया कि ‘लगातार बारह वर्षों से इस सत्याग्रह के चलते रहने से बहुत बदलाव दिखाई दे रहा है। इस आयोजन में 6-7 पंचायत के 55-56 गाँव शामिल होते हैं। इससे एक बदलाव तो यही दिखता है कि गाँव वाले एकजुट हो चुके हैं और जल, जंगल, जमीन के लिए अपनी आवाज लगातार उठाया रहे हैं। साथ ही इस आयोजन की जरूरत को समझ चुके हैं।’ सनकुमारी ने आगे बताया कि ‘कंपनी 8 लाख और 6 लाख मुआवजा देने को तैयार है लेकिन गाँववाले मुआवजा लेना ही नहीं चाहते क्योंकि वे अपनी जमीन नहीं देंगे।’

 कोयला सत्याग्रह के संस्थापकों में से एक  डॉ हरिहर पटेल से बात करने पर उन्होंने बताया कि ‘हम लोगों ने जमीन हमारी संसाधन हमारा के आधार पर खुद ही कोयला निकालने के लिए एक कंपनी बनाई गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड बनाई, जिसमें गारे और सरईटोला गाँव की 700 एकड़ जमीन का एग्रीमेंट भी करवा लिए हैं। इसके बाद गाँव वाले लगातार अपनी जमीन से कोयला निकालना शुरू कर दिए।  हमें रोकने के लिए पुलिस-प्रशासन का बहुत दबाव बनाया गया। हम लोगों ने कहा कि ‘हम अपनी जमीन से कोयला निकाल रहे हैं, आप रोक नहीं सकते। सुप्रीम कोर्ट के एक केस बालकृष्णन बनाम केरल हाईकोर्ट में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय था कि संसाधनों पर पहला हक भूस्वामी का होता है। बालकृष्णनन ने जब अपनी जमीन से डोलोमाइट निकालना शुरू किया तो सरकार ने आपत्ति दर्ज की थी। तब बालकृष्णन कोर्ट में गया और निर्णय वादी के पक्ष में आया। इसी निर्णय के आधार पर गारे के ग्रामवासियों ने कोयला सत्याग्रह की शुरुआत की।’

गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के कार्यालय के बाहर डॉ हरिहर पटेल और सविता रथ के साथ ग्रामीण (फाइल फोटो,फोटो – सविता रथ )

देश में विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए बड़े-बड़े उद्योगपतियों को सरकार की खुली सहमति मिली हुई है। देश और जनता के विकास का ढोल पीटते हैं लेकिन इसमें जनता का हिस्सा तो ऊंट के मुंह में जीरा ही होता है। जबकि उद्योगपति स्वयं के विकास के लिए जल, जंगल और जमीन का मनमानी और भरपूर दोहन करते  हैं। देश का हर वह हिस्सा, जहां खनिज संसाधनों का पर्याप्त भंडारण है,  खोदते और खनिज निकालते हुए वहाँ के आदिवासियों को विस्थापित कर उन्हें स्थानीय प्राकृतिक सुविधाओं से महरूम कर रहे हैं। जीव-जंतुओं के साथ-साथ ग्रामीणों का जीवन खतरे में पड़ गया है।

अतीत की वे लड़ाइयाँ जिनका विस्तार यहाँ तक हुआ 

बात 5 जनवरी 2008 की है, जब गारे 4/6 कोयला खदान की जनसुनवाई गारे और खम्हरिया गाँव के पास के जंगल में की गई। वास्तव में ढाई सौ एकड़ में फैला हुआ यह जंगल गाँव वालों के निस्तारण की जमीन थी, जिसे बहुत चालाकी से वन विभाग ने सन 1982 में रेशम परियोजना के लिए हासिल कर लिया था। गाँव वालों को इस बात के लिए सहमत किया कि रेशम परियोजना में उन लोगों को काम मिलेगा और आर्थिक आधार पर उन्हें मजबूती मिलेगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि रेशम विभाग और वन विभाग की मिलीभगत से यह जमीन मुफ़्त में ही जिंदल उद्योग को कोयला खनन के लिए दे दी गई। जबकि सरकारी दस्तावेजों में यह क्षेत्र पाँचवीं अनुसूची में शामिल है जिसका मतलब है कि यह एक आदिवासी गाँव है। इसमें नियमानुसार ऐसी जमीन किसी गैर आदिवासी को नहीं दी सकती।

गारे और खम्हारिया के बीच स्थित ग्रामीणों के लिए निस्तारण की जमीन, वन विभाग ने रेशम परियोजना को सौंप दी(फाइल फोटो,राजेश त्रिपाठी)

इसके बावजूद खनन के लिए जमीन बिना गाँव वालों की सहमति से जिंदल कंपनी को सौंप दी गई। एक तरह से बिना जनसुनवाई के अथवा फर्जी जनसुवाई कर जिंदल प्लांट के मजदूरों और बाहर से बुलाए गए लोगों को स्थानीय किसान बनाकर सहमति ली गई। जिंदल ने मनमुताबिक जनसुनवाई करवाकर ज़मीन अपने पक्ष में कर ली। जब इसकी जानकारी गाँववालों को हुई तो उन्होंने इसका जमकर विरोध किया। वे सभी जनसुनवाई रद्द करवाने पर अड़ गए। डॉ हरिहर पटेल, रमेश अग्रवाल, राजेश त्रिपाठी, सविता रथ, जयंत बोहिदार आदि ग्रामीणों के साथ इस एकतरफा जनसुनवाई का विरोध कर रहे थे। पूरा एरिया पुलिस छावनी में तब्दील हो गया था और वहाँ लगभग 700 गांववासी उपस्थित थे। ग्रामीणों के सख्त विरोध को देखते हुए, हक के लिए आवाज़ उठाने वाले पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर पुलिस-प्रशासन ने बर्बरतापूर्वक लाठी चलवा दी, जिसमें अनेक ग्रामीण लहूलुहान हुए, चोट आई, बेहोश हुए। घायलों को अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। डॉ हरिहर पटेल पाँच दिन तक बेहोशी की हालत में रहे। उन्हें नाक में बहुत चोट आई थी।

कोयला सत्याग्रह के लिए जाते हुए उत्साहित ग्रामवासी (फाइल फोटो)

अपनी जमीन अपना कोयला

जन सुनवाई के विरुद्ध एक याचिका हाईकोर्ट में लगाई गई और एनजीटी (National Green Tribunal) ने ग्रामीणों के पक्ष में फैसला दिया। लेकिन सड़क पर विरोध-प्रदर्शन जारी रहा, जिसमें धरने, रैलियाँ और पदयात्राएँ चलती रहीं। गाँव-गाँव में बैठकों का दौर चलता रहा। 25 सितंबर 2011 को ग्रामीणों ने अपनी बैठक में फैसला किया कि अगर देश के विकास के लिए कोयला जरूरी है तो क्यों न हम कंपनी बनाकर स्वयं कोयला निकालें। इसके बाद सभी तकनीकी पहलुओं पर बातचीत की गई। गाँव में सभी लोगों ने गारे ताप उपक्रम प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड का गठन किया। इसके पहले डॉ हरिहर सिंह पटेल ने गांधीजी के नमक कानून तोड़ने की तर्ज पर 2 अक्टूबर 2011 को कोयला सत्याग्रह की घोषणा की। इसमें गारे गाँव के 500 ग्रामीणों ने हमारी जमीन,हमारा कोयला के सत्याग्रह के माध्यम से सांकेतिक कोयला खनन शुरू किया। नेतृत्व किया डॉ हरिहर पटेल ने। यहीं से शुरू होती गारे और तमनार के बाकी 55 गांवों के ग्रामवासियों के कोयला सत्याग्रह और आंदोलन का इतिहास।

लगातार 12 वर्षों से हर 2 अक्टूबर को गांधी जयंती के दिन कोयला सत्याग्रह में तमनार के लगभग 55 गाँव शामिल होते हैं। लेकिन इस कोयला सत्याग्रह से पहले अपनी जमीन बचाने के लिए गाँववासियों ने लंबा संघर्ष और आंदोलन किया। सड़क पर उतरे। लेकिन बिना अधिसूचना के जनसुनवाई कर और गाँव वालों को भनक लगने दिये बिना ही प्रशासन ने फर्जी सहमति बनाकर जमीनें हासिल कर ली।

अपनी जमीन से कोयला निकलते ग्रामवासी (फाइल फोटो)

इस बात का पता लगते ही किसान रोष में आकर सख्त विरोध करने लगे, जिसे देखकर पुलिस वालों ने ग्रामीणों पर लाठीचार्ज कर दिया। ग्रामीणों ने बहुत दमन झेला लेकिन वे टूटे नहीं। उनकी जिजीविषा ने अंततः तमनार कोयला सत्याग्रह को जन्म दिया। आज वही कोयला सत्याग्रह अपनी बारहवीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। बेशक ग्रामीण संपदा को लेकर भूस्वामी के अधिकार की आवाज उठाने और मजबूती देने के मामले में गारे के ग्रामवासियों ने कोयला सत्याग्रह कर एक नई शुरुआत की।

लेकिन संघर्ष अपनी मंजिल तक नहीं पहुँचा है अभी 

तमनार के गारे, सरईटोला और मुड़ागाँव के लोगों से हुई बातचीत में सभी ने कहा कि ‘वे ऐसा विकास नहीं चाहते हैं, जिसके कारण उनकी जमीनें और खेत उनके हाथ से निकल जाए।’ आदिवासियों को इतनी लंबी लड़ाई लड़ते हुए यह तो समझ आ गया है कि ‘हमारा छतीसगढ़ पाँचवीं अनुसूची में आता है। पेसा कानून लागू है और ग्रामसभा की अनुमति के बिना कोई भी खनन कार्य अवैध होगा।’

लेकिन जो हालात आज हैं वैसे में क्या तमनार कोयला सत्याग्रह का भविष्य उज्ज्वल कहा जा सकता है? खासतौर से तब जब छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य काटना शुरू हो चुका है। प्रदेश में बहुमत वाली सरकार है। जब यह जंगल अदानी को दिया गया तब छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्यमंत्री टीएस सिंहदेव ने कहा था कि ‘एक डगाल नहीं कटेगी। अगर कटेगी तो मेरी लाश से गुजरकर।’ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी यही कहा था लेकिन हुआ क्या? आज जब कटाई शुरू हुई तो पत्रकार वार्ता में उन्होंने साफ कह दिया कि यह केंद्र सरकार का आदेश है। तो फिर तमनार कोयला सत्याग्रह का भविष्य क्या होगा।

भूपेश बघेल,सीएम,छत्तीसगढ़

शुरू से ही इस आंदोलन से जुड़े रहे सामाजिक कार्यकर्ता जयंत बोहिदार कहते हैं कि ‘इतना जरूर है कि गाँव-गाँव में अपने अधिकारों को लेकर जागरूकता आई है। आम लोग यह मानने लगे हैं कि पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। कोयला खदान नहीं बनने देना है। लेकिन दूसरी ओर कंपनी वाले हैं जो तमाम प्रलोभन देते हैं। फर्जी ढंग से अनापत्ति का प्रमाण देते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि साल में एक आयोजन ही हो रहा है। साल भर में और कुछ नहीं हो रहा है।’

हालांकि जयंत कहते हैं कि अब आंदोलन पर उनका प्रभाव नहीं रहा और उनकी पकड़ कमजोर पड़ गई है। हालांकि वे अब भी सुझाव देते हैं, लेकिन उनका मानना है रमेश अग्रवाल और हरिहर पटेल आदि के कारण कई निर्णयों में जल्दीबाजी हुई। ऐसा अनेक लोगों का कहना है इसके बावजूद कि ग्रामीणों का प्रतिरोध बढ़-चढ़ कर प्रकट हो रहा है। जयंत बोहिदार कोयला उत्पादन और विपणन के लिए ग्रामीणों द्वारा बनाई गई कंपनी से भी किंचित असहमत हैं। उनको लगता है कि कंपनी बनाकर गाँव के लोग ठग लिए गए। असल में तो कोऑपरेटिव संस्था बनाना था लेकिन बनी जिंदल की तर्ज़ पर कंपनी।’

सामाजिक कार्यकर्ता जयंत बोहिदार,रायगढ़

बोहिदार की शंकाएँ बेशक इस सत्याग्रह की उपलब्धियों और भविष्य को लेकर दूसरे आयामों पर सोचने की गुंजाइश पैदा करती है। वे कहते हैं कि ‘कंपनी चलाने के लिए आप शासन  के सामने आवेदन करोगे और वह कहेगा कि पाँच सौ करोड़ रुपए जमा करो। तब आप कहाँ से देंगे?’ बोहिदार कंपनी बनाने की पूरी कवायद को पूंजीवाद के जबड़े में फँसने की बात कहते हैं और बताते हैं कि जिंदल के खिलाफ सारा आंदोलन ठंडा पड़ चुका है। उससे भी बुरी बात यह है कि जिंदल से चंदा लेकर महाजेनको के विरुद्ध आंदोलन किया जा रहा है। वे कहते हैं कि मैं मानता हूँ कि आंदोलन महाजेनको, अदानी और अंबानी के खिलाफ तो होना ही चाहिए लेकिन जिंदल के खिलाफ भी होना चाहिए। लेकिन जिंदल से चंदा लेकर ये लोग महाजेनको के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि अभी नौ अगस्त को जिन लोगों ने विश्व आदिवासी दिवस मनाया उन लोगों ने महाजेनको से इसके लिए चंदा लिया। इस तरह सारी लड़ाई ही कंपनियों से चंदा लेकर की जा रही मालूम होती है। वे सवाल करते हैं कि ‘आप बताइये कि अगर आप उसी कंपनी से चंदा लोगे तो आंदोलन कैसे होगा?’

कोयला कानून तोड़ने के बाद कोला एक जगह एकत्रित करते ग्रामीण (फाइल फोटो)

बेशक इससे कोयला सत्याग्रह की जटिल संरचना का संकेत मिलता है। पिछले बारह साल से ग्रामवासियों ने एक मशाल जलायी हुई है। ईंधन के नाम पर उनके पास पाँचवीं अनुसूची और अपने प्रतिरोध की ताकत भर है। पुलिस-प्रसाशन, सत्ता, अदालतें और मीडिया की भूमिका जनता के खिलाफ है। पिछले दो-सवा दो दशक लंबे संघर्ष में यही सामने आया है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों ने जनता को केवल ठगा है। उनका संरक्षण हमेशा पूँजीपतियों को मिला है।

तमनार में पूंजी के अनेक खिलाड़ी बरसों से मैदान में हैं। वे आवश्यकतानुसार हर तरह के हथकंडे अपना रहे हैं। उनके लिए किसी गाँव को उजाड़ना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि सत्ता की सारी मशीनरी उनके साथ है। लोगों के बीच लालच और महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा देकर वे संघर्ष के अलग-अलग केंद्र भी बना और लंबे समय तक उसे चला सकते हैं। जैसा कि जयंत की बातों से भी लगता है कि तमनार में कुछ भी साफ-सुथरा नहीं रहा है। कोयले की कालिमा केवल पेड़ों, तालाबों और घरों पर नहीं फैली है बल्कि दिलों और दिमागों में भी भरती जा रही है।

इसके बावजूद जनता की ताकत ज़िंदाबाद ही रहेगी। उसका प्रतिरोध अंधेरे में रौशनी है। और निस्संदेह कोयला सत्याग्रह की बारहवीं वर्षगांठ पर वह बधाई की हकदार है!

गाँव के लोग
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