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ग्राउंड रिपोर्ट

क्या होली का त्योहार स्त्री हत्या का उल्लास-पर्व है?

होली उत्तर भारत का प्रमुख त्योहार है लेकिन इस त्योहार को मनाने के पीछे जो मान्यताएं हैं, वह हत्या के बाद खुश होने की है। सवाल यह उठता है कि स्त्री को जलाए जाने की खुशी में उत्सव मनाना कहां तक उचित है?

हर त्योहार हमारे जीवन में एक ऐसी परंपरा के हिस्से के रूप में आता है जिसे हमारे सामाजिक दायरे के लोग स्वतः स्फूर्त रूप से मनाते हैं। बचपन में इन त्योहारों से जुड़े जो क्रियाकलाप लोग करते हैं, वे ही हमारे जीवन में शामिल होते जाते हैं। बहुत बाद में जब उस त्योहार से जुड़े किस्सों का पुनर्पाठ होना शुरू होता है और तार्किक रूप से उन किस्सों का विश्लेषण किया जाता है, तब उसके अंदर प्रचलित मिथक टूटते हैं। न्याय की बात तो यह है कि ऐसे में तमाम सामाजिक दायरों में तर्कशीलता का विकास होता और लोग उसमें निहित अमानवीय मिथकों का तिरस्कार करते लेकिन होता दरअसल इसके उलट है। अधिकतर लोग उन अमानवीय मिथकों पर न केवल विश्वास करते हैं बल्कि उसे अपने व्यवहार में और अधिक शामिल करते हैं। यहाँ तक कि उसके बचाव में खड़े भी हो जाते हैं।

ऐसा ही मामला भारत के प्रमुख त्योहार होली का है। होली के दो हिस्से हैं। पहले दिन प्रतीक रूप में होलिका जलायी जाती है। और दूसरे दिन एक-दूसरे पर रंग फेंका जाता है। इस त्योहार का यही स्वरूप है। लेकिन इसकी मान्यताएँ एक नहीं हैं। बहुत से लोग इसे किसानों का त्योहार मानते हैं। उनके अनुसार वातावरण में व्याप्त सारी झाड-झंखाड़ को होली की आग में जला दिया जाता है।

मिथकीय मान्यता 

सबसे भयानक बात यह है कि होली को लेकर जो मिथक गढ़े गए हैं, उनमें स्त्रियों की हत्या को जायज़ बना दिया गया है। आज जब सबाल्टर्न विमर्श पुरानी मान्यताओं और मिथकों को विखंडित करके उनकी पृष्ठभूमि में एक उत्पीड़ित समुदाय की पराजय को चिन्हित कर रहा है तब यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि किसी समय भारत के मूलनिवासियों को बाहरी आक्रमणकारियों ने पराजित कर दिया और उनकी हत्याओं को स्वयं उन्हीं के लोगों की नज़र में उल्लास का माध्यम बना दिया। लोग पहली शाम प्रतीक के रूप में स्त्री के अग्निदाह में शामिल होते हैं। और अगली सुबह गा-बजाकर एक दूसरे पर रंग-गुलाल डालते हैं। और अधिक मस्ती के लिए भांग-ठंडाई और शराब पीते हैं।

होली को लेकर प्रचलित मान्यताओं की छानबीन करने पर यह पता चलता है होली का संबंध आग से है जिसकी भूमिका अत्यंत रहस्यमय है। कम से कम दो स्त्रियों को जलाए जाने का उल्लेख मिलता है। और फसलों को भी नष्ट करने का स्वरूप स्पष्ट है। किसानों के त्योहार के नाम पर खर-पतवार और झाड-झंखाड़ को जलाने की बात को पर गौर करने पर पता चलता है कि खेती के अवशिष्ट जलकर राख़ होने से खाद नहीं बनते बल्कि उनके भीतर का जैविक तत्व जलकर नष्ट हो जाता है। बेहतर खाद के रूप में वे अवशेष और पत्तियाँ ज्यादा महत्वपूर्ण हैं जो मौसमचक्र में स्वाभाविक रूप से सड़ते-गलते हैं।

ब्राह्मणवादी मिथकों की अतार्किक कहानियाँ और उसके पीछे छिपे रहस्य

 ‘भविष्यपुराण की कथा के अनुसार कुछ लोग मानते हैं कि प्राचीन काल में रघु नाम के शूरवीर राजा थे। उनके राज्य में ढोंढा नाम की राक्षसी ने भगवान शंकर को प्रसन्न कर वर प्राप्त कर लिया कि ‘देवता, दैत्य, मनुष्य उसे न मार सकें, किसी अस्त्र से, दिन में, न रात्रि में उसका वध न हो।’ भगवान शंकर ने वर देते समय यह भी कह दिया कि ‘उन्मत्त (मतवाले) बालकों से ढोंढा डरेगी।’ वह राक्षसी बच्चों को पीड़ा देने लगी। राजा रघु ने वशिष्ठ ऋषि से ढोंढा से बचने का उपाय पूछा। वशिष्ठ ऋषि ने ढोंढा राक्षसी से पीछा छुड़ाने का उपाय बताते हुए कहा – फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सभी लोगों को निडर रह कर नाचना, गाना व हंसना चाहिए, प्रसन्न रहना चाहिए। इस दिन सब लोगों को अभयदान देना चाहिए, जिसे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। होली के उत्सव में बच्चे लकड़ियों के बने हुए तलवार लेकर वीर सैनिकों की तरह दौड़ते हुए निकल पड़े और आनन्द मनाएं। बच्चे गाँव के बाहर से सूखी लकड़ी, उपले, सूखी पत्तियों को एक स्थान पर अधिक-से-अधिक इकट्ठा करें फिर विधि-विधान से पूजन करें, उसमें अग्नि जलायें और खूब ताली बजाकर हंसें। जोर-जोर से बोलने व अग्नि जलाने से ढोंढा राक्षसी डर कर भाग जाती है और उसकी पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है व सारे अनिष्ट दूर हो जाते हैं। राजा रघु ने पूरे राज्य में लोगों से इसी प्रकार उत्सव मनाने को कहा जिससे उस राक्षसी का विनाश हो गया। यही उत्सव कालांतर में होलिकोत्सव बन गया। बच्चों के हाथों में दी जाने वाली लकड़ी की तलवारों ने अब पिचकारी का रूप ले लिया है। उसी परम्परा से बच्चे पिचकारी लेकर हंसते-दौड़ते हुए आनन्द मनाते हैं।’

ब्राह्मणवादी पोथियों द्वारा चलाये गए इस मिथक की हास्यास्पदता अपने भीतर कितनी विडम्बना छिपाए हुये हैं। कोई स्त्री अपने अजेय होने का वरदान मांगे और फिर उपद्रव करे लोगों को सताये। यह जानकार भी कोई देवता उसे वरदान दे दे। यह सारा किस्सा बेसिर-पैर का और कपोल-कल्पित है लेकिन इसको दिन रात दुहराने का यह नतीजा हुआ कि इसे सच मान लिया गया। त्योहार के साथ साथ यह मिथक न केवल मजबूत हुआ बल्कि किसी के तर्क के न होने से रूढ़ हो गया।

इसी तरह की एक और ब्राह्मणवादी मान्यता के अनुसार हिरण्यकशिपु की बहन होलिका वरदान के प्रभाव से नित्यप्रति अग्नि-स्नान करती थी पर जलती नहीं थी। हिरण्यकशिपु ने अपनी बहिन से प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि-स्नान करने को कहा। उसने सोचा ऐसा करने से प्रह्लाद जल जायेगा और होलिका बच जायेगी। किन्तु ईश्वर की कृपा से भक्त प्रह्लाद जीवित बच गये और होलिका जल गयी। तभी से इस त्यौहार को मनाने और होली जलाने की प्रथा चल पड़ी ।

एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इस त्यौहार का प्रचलन हुआ ।

इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त तीनों कपोल-कल्पित किस्सों का संबंध आग में लोगों को जलाए जाने से है। क्या आग में नहाना कोई सामान्य क्रिया है? सवाल उठता है कि क्या होली के त्योहार के मिथकों में कोई षड्यंत्र छिपा है जो सभी रंग-गुलाल और भंग के नशे में आसानी से छिप गया है?

हिरण्यकश्यप, होलिका और प्रहलाद

प्रायः जगहों के नाम तीन मुख्य आधारों पर प्रचलित होते हैं। पहला प्राकृतिक कारणों से बनी हुई आकृतियों और विशेषताओं से, दूसरा किसी समय के शासकों और व्यक्तियों के नाम से और तीसरा धार्मिक आस्थाओं को विकसित करने के उद्देश्य से। कभी-कभी किसी घटना अथवा चरित्र के आधार पर भी जगहों का नामकरण होता है।

हिरण्यकश्यप कौन थे इस संदर्भ में भी लोगों ने तर्क लगाते हुये ध्वनिसाम्य के आधार पर उस जगह को चिन्हित करने का प्रयास किया है जहां हिरण्यकश्यप का राज्य था। इस संदर्भ में बाबासाहब डॉ,अम्बेडकर मिशन महासंघ देवरिया के  सचिव डी.पी. बौद्ध लिखते हैं कि – प्राचीन समय में हरदोई का नाम हरिद्रोही था, जो कालांतर में हद्दोई और फिर हरदोई हो गया। इसी हरदोई के राजा का नाम हिरण्यकश्यप था। हिरण्यकश्यप अनार्य राजा था जिसके वंशज आज के शूद्र अछूत है। अनार्यों को सभी तरह से प्रतिबंधित करने के बाद आर्यों ने उन्हें घृणित कार्यों को करने के लिए मजबूर कर उन पर तमाम अत्याचार किए। इन तथ्यों के समर्थन में अनेक प्रमाण ब्राह्मण ग्रंथों में भी मौजूद है।

उसी प्रकार होली का त्यौहार भी मूलनिवासी अनार्य राजा हिरण्यकश्यप तथा उनकी बहन होलिका से सम्बंधित सम्पूर्ण अनार्यों के अपमान का दिन है। परन्तु अपने इतिहास की जानकारी न होने के कारण आज मूलनिवासी लोग भी इस त्यौहार को खूब जमकर मनाते हैं। इन्हें पता नहीं है कि जाने, अनजाने में वे अपने ही पूर्वजों का अपमान कर रहे हैं।

क्या होली का त्योहार स्त्री हत्या का उल्लास-पर्व है?

होली त्यौहार का मूल संम्बंध हिरण्यकश्यप से है

कश्यप एक अनार्य राजा थे। उनकी पत्नी दिति थी उसके दो पुत्र हुए उनका नाम हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। हिरण्यकश्यप से पहले हिरण्याक्ष ही राजा थे। उन्होंने आर्यों द्वारा कब्जा की हुई समस्त भूमि को जीतकर अपने कब्जे में कर लिया था। यहीं से आर्यों ने अपनी दुश्मनी का षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया ।

इसी घटना को हिन्दू शास्त्रों में इस प्रकार कहा गया कि अनार्य असुर हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को चुरा लिया और उसे मैले में फेंक दिया। पृथ्वी को उस मैले से बाहर निकालने के लिए विष्णु ने वराह (सुअर) का अवतार लिया। सुअर ने हिरण्याक्ष से भयंकर युद्ध किया परिणाम स्वरूप सुअर का वेश धारण कर विष्णु ने हिरण्याक्ष को धोखे से मार डाला था। जिसे वराह अवतार का नाम दे दिया गया। विष्णु आर्य राजा था।

उसके बाद हिरण्यकश्यप ने अपने भाई के हत्यारे विष्णु की पूजा अपने राज्य में बन्द करा दी। आर्य अपने देवताओं के नाम पर निरपराध पशुओं की बलि देकर हिंसा करते थे। हिरण्यकश्यप ने अपने राज्य में पशु, बलि बन्द करा दी और हत्यारे आर्य ब्राह्मणों को जेल में डाल दिया। ब्राह्म विष्णु की पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया और इनका नाम लेने और ब्राह्मणों के पाखंड कर्मकाण्डों को करने पर दण्ड देने लगा।

हिरण्यकश्यप के प्रहलाद नाम का एक पुत्र था। विष्णु ने नारद ब्राह्मण से जासूसी कराकर प्रहलाद को गुमराह किया और घर में कलह करवा दी। प्रहलाद गद्दार निकला वह विष्णु से मिल गया। आर्यों ने प्रहलाद को पढ़ा दिया कि पिछले जन्म में वह एक वैश्या का भड़आ था, पिछले जन्म में वैश्या के साथ तुम भी मेरा ब्रत रखते थे, इसलिए तुम्हारा प्रेम मुझमें हुआ यह पिछले जन्म के संस्कारों का ही फल है। ब्राह्मणों ने यहां के मूलनिवासियों की शिक्षा पर प्रतिबंध लगाया हुआ था, लेकिन एक राजा के भय से प्रहलाद को शिक्षा देने की स्वीकृति दे दी गई किन्तु ब्राह्मणों ने इसका पूरा फायदा उठाया और हिरण्यकश्यप के वंश को उजाड़ने में भी विष्णु ने कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रहलाद के वैष्णव हो जाने की खबर जब हिरण्यकश्यप को मिली तो हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को समझने का प्रयास किया परन्तु प्रहलाद पूरी तरह से आवारा हो चुका था। सुधार के तमाम प्रयास विफल हो जाने पर राजा ने उसे घर से निकाल दिया।

उस समय के ॠषि, आश्रम में रहने वाले तपस्वी खुद शराब बनाते थे और जमकर पीते भी थे। उन सबके सम्पर्क में रहने के कारण प्रहलाद अव्वल नम्बर का शराबी और नशाखोर बन गया था। जैसा कि अक्सर देखा जाता है कि भतीजे के प्रति बुआ का प्रेम कुछ ज्यादा ही होता है ऐसा ही यहां भी हुआ। घर से निकाल दिए जाने के बाद भी प्रहलाद की बुआ होलिका का स्नेह उसके प्रति बना ही रहा, जिसके चलते वह रोज शाम को राजा से नजर बचाकर अपने आंचल में छुपाकर उसे खाना खिला आती थी ।

फागुन महीने के पूर्णिमा के पहले से ही होलिका का विवाह तय हो चुका था। फागुन पूर्णिमा के दूसरे दिन ही होलिका की बारात आनी थी। पूर्णिमा के दिन नहा-धोकर होलिका ने श्वेत वस्त्र धारण किए। उस रात भी वह हमेशा की तरह प्रहलाद को भोजन देने गई। चांदनी के दूधिया रोशनी में श्वेत वस्त्रों में सजी हुई। शायद वह प्रहलाद को आखिरी बार भोजन देने गई थी क्योंकि अगले दिन ही उसे अपनी ससुराल जाना निश्चित किया गया था। जब होलिका अपने भतीजे को भोजन कराने पहुंचीं तो उसे देखकर प्रहलाद की मित्र मण्डली की नीयत खराब हो गई और प्रहलाद तो इतने नशे में था कि वह स्वयं को ही सम्भाल नहीं पा रहा था ।

प्रहलाद के मित्रों ने ही होलिका को पकड़ लिया और सभी ने मिलकर उसके साथ क्या सलूक किया होगा, उन दरिन्दों ने होलिका को जान से ही मार डाला। सबूत मिटाने के उद्देश्य से सभी ने रातो-रात होलिका की लाश को जला देने का निर्णय भी ले लिया। यानी न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। इसके लिए रात में जहां से जिस रूप में लकड़ी मिली,जैसे किसी की खाट किसी को चौकी, किसी का छप्पर, किसी के उपले, किसी का ईंधन जिसे जो कुछ भी मिला उसे लाकर लाश पर डालते हुए चले गए और आग लगा दी।’

तर्क के दूसरे आधार

हिन्दू धार्मिक आख्यान महज धार्मिक आख्यान भर नहीं हैं। वे आर्यों-अनार्यों के बीच के संघर्षों के आख्यान हैं और इनमें अनार्यों को राक्षस, असुर, अत्याचारी और उपद्रवी बताकर उनके खिलाफ आर्यों के षड्यंत्रों और हिंसा का गुणगान किया गया है। बेशक वे जगहों और तिथियों से निर्मित इतिहास नहीं हैं लेकिन इतिहास से अधिक ताकतवर और संक्रामक हैं। इतिहास तो स्कूलों और संस्थाओं का मुहताज है लेकिन धार्मिक आख्यान मंदिरों के प्रसारक यंत्रों और कीर्तनों के जरिये रोज कानों में डाला जाता है। यहाँ तक कि घरों में लोग इन आख्यानों को बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं। कालांतर में अनेक महान व्यक्ति हुये जिन्होंने इन आख्यानों की चीर-फाड़ की है।

महान जोतीराव फुले ने भी अपनी पुस्तक गुलामगीरी में इस प्रकरण लिखा है। वे लिखते हैं कि हिरण्यकश्यप के पिता कश्यप और भाई हिरण्याक्ष एक बहादुर योद्धा थे। कश्यप ने आर्यों के सताये हुये लोगों की रक्षा की। हिरण्याक्ष एक प्रतापी राजा थे जिन्होंने आर्यों के कब्जे से अनेक क्षेत्रों को मुक्त करा लिया। इसी तरह से हिरण्यकश्यप ने भी अनार्यों की आजीवन रक्षा की।

गौरतलब है कि तीनों ही लोग आर्यों के षड्यंत्रों का शिकार हुये। हिरण्यकश्यप के तो पुत्र को ही आर्यों ने बहका लिया। तीनों ही धोखे से मारे गए। फुले के उद्धरणों को पढ़ते हुये उस लोमहर्षक दृश्यों की कल्पना कीजिये कि किस तरह भेष बदलकर और छिपकर कच्छप, वराह और नृसिंह ने तीनों को मारा। यह भी ध्यान देने की बात है कि तीनों ने मनुष्य के रूप में आमने-सामने संघर्ष नहीं किया बल्कि जानवरों का भेष धरकर हमला किया।

कुछ और बातें भी हैं जिनपर ध्यान दिया जाना चाहिए। मंदिरों और घरों में होनेवाले कीर्तनों और कथाओं में हिंसा, हत्या और मारकाट को लगातार ग्लोरीफ़ाई किया जाता है लेकिन सुनने वाला कभी इस पर विचार नहीं करता कि आखिर वे कौन थे जिन्हें न केवल धोखे से मार डाला गया बल्कि न जाने कब से खलनायक बनाकर पेश किया जा रहा है।

ठीक इसी तरह होली को लेकर प्रचलित मिथक के प्रति जनसाधारण की समझ भी बना दी गई है। स्त्री के प्रति संवेदना खत्म कर दी गई जिससे वह खलनायिका बन गई और जनता का हृदय पत्थर बन गया। आग से स्त्रियों के संबंध की बहुस्तरीयता देखने की जरूरत है। चूल्हे कि आग में वह जीवन भर जलती है और उसका जीवन आग से खत्म भी किया जाता रहा है।

बाज़ार ने उन त्योहारों को अपने मुनाफे का माध्यम बना लिया जो थोपे गए हैं

भारत में त्योहारों को लेकर एक मान्यता नहीं है। केवल प्रकृति से जुड़े हुये त्योहारों पर ही सबकी मान्यता समान हो सकती है। और ज़ाहिर सी बात है कि प्रकृति से जुड़े हुये किसी भी त्योहार को मनाने वाले लोग प्रकृति के करीब रहनेवाले लोग ही हो सकते हैं। प्रकृति के साथ जुड़े त्योहारों के साथ बाज़ार ने अभी अपने फायदे नहीं देखे हैं। असल में ऐसे त्योहारों के साथ बाज़ार का विकास बहुत कठिन और लगभग असंभव सी प्रक्रिया है क्यों हम सभी जानते हैं कि प्रकृति से जुड़े त्योहार सभी प्राकृतिक स्वरूपों को न केवल बचाने को प्रतिबद्ध हैं बल्कि वे उनको अपना अधिकतम सम्मान भी देते हैं। उनके लिए प्रकृति पूज्य है। जबकि बाज़ार प्रकृति के दोहन और विनाश के माध्यम से विकसित होनेवाले पूंजीवाद से पैदा होता है। प्रकृति से जुड़े त्योहारों के लिए बाज़ार पर न्यूनतम निर्भरता होने से बाज़ार को भी उसके प्रति कोई खास लगाव नहीं है।

जबकि जिन त्योहारों को लेकर एक से अधिक मान्यताएँ हैं वे मूलतः राजनीतिक त्योहार हैं। ये उन लोगों के द्वारा स्थापित और थोपे गए त्योहार हैं जिनका राजनीतिक वर्चस्व होता है। राजनीतिक वर्चस्व ही सांस्कृतिक नैरेटिव गढ़ता और विकसित करता है। बाकी समाज केवल इनके उपभोक्ता होते हैं। इसी कारण उनके एक से अधिक अंतर्विरोध हैं। ये अंतर्विरोध वास्तव में इस त्योहार के मनाए जाने के औचित्य को जिस तरह रेखांकित करते और एक नैरेटिव गढ़ते हैं वहीं इसके पीछे की उन दुरभि-संधियों और षडयंत्रों का भी खुलासा करते हैं जिसके कारण एक हृदय विदारक सच्चाई पर करुणा की जगह उल्लास का बोलबाला होता है।

वास्तव में ये अंतर्विरोध उत्पीड़क और उत्पीड़ित के बीच के अंतर्विरोध हैं जिसकी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसे दोनों ही वर्ग मनाते हैं। और इसी मनाने के आधार पर पैदा होनेवाले व्यापक उपभोक्ता समूह को बाज़ार अपने काबू में करके हमेशा भारी मुनाफा कमाता है। उदाहरण के लिए हिंदुओं में होली, दिवाली, रक्षाबंधन, भैयादूज, छठ जैसे असंख्य त्योहार हैं जिनके साथ अंतर्विरोध हैं लेकिन बाज़ार ने इनके माध्यम से एक विशाल उपभोक्ता वर्ग तैयार कर लिया है।अपरिमित मुनाफा देनेवाले इन त्योहारों के प्रति बाज़ार ने भावनात्मकता का एक अचूक हथियार आविष्कृत किया है जिसकी पूर्ति के लिए एक अलग सांस्कृतिक उत्पादक समूह भी अस्तित्व में आया है। मसलन छठ पर्व के लिए गीत संगीत की अनेक कंपनियाँ। कहना जरूरी है कि इन सारे उपक्रमों ने किसी भी कला रूप को स्वायत्त नहीं रहने दिया। बल्कि सच्चाई यह है कि सबसे विकसित कलारूप इन सांस्कृतिक उत्पादों के प्रसार के सबसे बड़े माध्यम बन गए हैं। उदाहरण के लिए सिनेमा और सीरियल से लेकर दीगर माध्यम। इस प्रकार दो बातें साफ़तौर से सामने आती हैं। एक तो यह कि त्योहारों के अंतर्विरोधों और वीभत्सताओं को बाज़ार एक ऐसी लोकप्रियता में बदल देता हैं जहां दूसरी मान्यताएँ विलीन हो जाती हैं और दूसरे यह कि जनमानस में तर्क-बुद्धि लगभग समाप्त हो जाती है और वह इस बात पर कभी नहीं सोचती कि दुनिया में ऐसी कौन सी अग्निरोधी चादर थी जिसे ओढ़कर होलिका आग में बैठ गई थी? यह भी कि आखिर जिसने चादर ओढ़ी हुई थी वह जल मरी लेकिन जिसको जलना था वह बच गया। यह घालमेल क्यों हुआ?

दूसरा पक्ष और भी वीभत्स है। अपने ही लोगों की हत्या को सेलिब्रेट करना। एक स्त्री की हत्या पर उल्लसित होकर एक दूसरे पर रंग फेंकना और गाना गाना। भांग पीना और नाचना। उस देश में एक स्त्री की हत्या को सेलिब्रेट करना जहां की तथाकथित मान्यताएँ स्त्री को पूज्य, माता और देवी मानती हैं। अगर पर्दा उठाकर देखिये तो पता चलेगा कि स्त्रियॉं के बारे में फर्जी मान्यताएँ गढ़ने वाले इस देश के वर्चस्वशाली लोग हमेशा स्त्रियॉं के वधिक रहे हैं। होलिका की हत्या तो त्योहार में बदल दी गई लेकिन सूपर्णखा, त्रिजटा, सुरसा (माफ कीजिएगा ये सब किसी भी स्त्री का नाम नहीं हो सकते। ये सिर्फ अपमान का एक रूपक हैं।) भी उन कथाओं के ही अनिवार्य हिस्से हैं जिनके अंत में पाखंड, छ्ल, छद्म और हत्याओं को विजयोल्लास में अभिव्यक्त किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो भी थोपा गया है उसके पीछे के अंतर्विरोधों को ब्राह्मणवाद-मनुवाद और बाज़ार ने मिलकर इतना धुंधला कर दिया है कि तर्क की सारी ताकत कमजोर पड़ गई है। गुलामी की मानसिकता इतनी मजबूत हो गई है कि लोग अपने ही पूर्वजों की हत्याओं को अपने दुश्मनों की खुशी में सेलिब्रेट कर रहे हैं। होली भी एक उदाहरण है।

होली जलाने का काम उच्चवर्ग नहीं करता

यह विडम्बना ध्यान देने योग्य है कि क्या अंबानी, अदानी, टाटा, बिरला, सिंघानिया भी होलिका जलाने कभी प्रकट होते हैं? या फिर कोई भी उच्चवर्ग या शहरी मध्य-वर्ग कभी होली जलाता है? बहुत खोजने पर भी इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा। केवल निम्नमध्यवर्ग और निम्नवर्ग ही इसमें शामिल होता है। वह अनधिकृत रूप से, जबरदस्ती और लड़ाई-झगड़ा करके लड़कियां इकट्ठा करता है। उसमें होलिका और प्रह्लाद की मूर्तियाँ रखता है और ब्राह्मण के बताए मुहूर्त पर उसमें आग लगाता है। वह प्रतीक के रूप में एक मिथकीय चरित्र का अग्निदाह करते हुये अपनी आस्था को उस षड्यंत्र का हिस्सा बना देता है जो हिन्दू धार्मिक इतिहास में दर्ज ही नहीं है व्यावहारिक रूप से आज तक प्रचलित है। इस प्रचलन का मतलब प्राचीन नफरत और षड्यंत्र का जीवित होना है।

लेकिन इसका दूसरा पक्ष क्या है? हर उच्चवर्ग रंग और गुलाल का उपयोग करता है। यानि वह पिछली रात आग में जलाई गई स्त्री की हत्या को अपनी सुविधानुसार सेलिब्रेट करता है। तो क्या यह वर्ग उस प्राचीन नफरत और षड्यंत्र को अपने इसी उल्लास में व्यक्त करता है ? वह प्रतीक की हत्या और अग्निदाह करता नहीं बल्कि जिन वर्गों के उत्पादन का स्वामी है उनसे ही यह काम करवाता है लेकिन अगले दिन सेलिब्रेट जरूर करता है। इस प्रकार वह स्वयं भी उस षड्यंत्र का हिस्सा है जिसमें एक स्त्री को जला दिया गया।

चूरू राजस्थान के वरिष्ठ कवि बी एस बौद्ध अपनी कविता जिंदा औरत को जलाकर में लिखते हैं-

जिंदा औरत को जलाकर/खुशी मनाना/ कहाँ की सभ्यता है, /कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है/ शराब पीकर/पागल हो जाना/कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है, /कीचड़ गोबर गंदगी से सन जाना/ कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है, /औरतों को भद्दे तरीके से/ छूना/कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है,/भद्दे भद्दे गाने गाना/और फिर लक्ष्मण बन जाना/कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है, /गंदी दृष्टि से रंग लगाना/कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है, /महिलाओं के साथ/ महिला बन जाना/कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है, /उन्माद फैलाना/ कैसी ये श्रेष्ठ संस्कृति है?

क्या आप कभी इस श्रेष्ठ संस्कृति पर विचार करेंगे?

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2 COMMENTS
  1. आपका ये लेख लोगों के आंख खोलने वाला है । सहमत हूँ आपकी बात से ।

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