उत्तर प्रदेश की जल शक्ति मंत्रालय की वेबसाइट में 28 सितम्बर, 2023 में ओडीएफ से संबन्धित जो आंकड़ें आए हैं वह चौंकने वाले इसलिए है कि इसमें बताया गया है कि उत्तर प्रदेश ने स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण) चरण II के तहत एक और बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है राज्य के सभी 95,767 गांवों यानी मिशन के चरण II के तहत 100 प्रतिशत गांवों ने ओडीएफ प्लस का दर्जा प्राप्त कर लिया है। ओडीएफ प्लस गांव वह है जिसने ठोस या तरल अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को लागू करने के साथ-साथ अपनी खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) स्थिति को बनाए रखा है।
सरकार ऐसे दावे कैसे कर लेती है क्योंकि उत्तर प्रदेश के अधिकांश गाँव के दबे-पिछड़े-वंचित समुदाय, आज भी शौचालय की सुविधा से हीन है। वे लोग आज भी खेतों, मैदानों, रेलवे लाइनों या दूर कहीं खुले मैदानों में जाते हैं।
बनारस, जो प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र है, को ओडीएफ प्लस प्लस घोषित किया गया है लेकिन गांवों में आज भी लोग शौच के लिए बाहर जा रहे हैं क्योंकि उनके पास या तो शौचालय नहीं है या फिर है तो जाने लायक नहीं।
आराजी लाइन ब्लॉक के सजोई गाँव में जब हम पहुंचे तो वह भी शौचालय को लेकर यही स्थिति दिखी, खासकर मुसहर समुदायों की बस्ती में। मुसहर समाज के सबसे पिछड़े और आखिरी पायदान माने जाने वाले समुदाय हैं।
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2011 के जनगणना के अनुसार मुसहरों की आबादी ढाई लाख के करीब है। इसके बाद जनगणना ही नहीं कराई गई लेकिन 2011 के बाद 14 वर्षों में निश्चित ही इनकी जनसंख्या में वृद्धि हुई होगी।
मुसहर समुदाय की बस्ती हमेशा गाँव से बाहर उजाड़ जगह पर होती हैं, जहां वे बरसों से रहते आ रहे हैं लेकिन इनके लिए किसी भी तरह की सुविधा सरकार की तरफ से नहीं मिलती केवल राशन छोड़कर, वह भी जिनका राशन कार्ड नहीं होता, उन्हें राशन से वंचित रह जाना होता है। बनारस में ही मुसहर समुदाय की लगभग 4 से 5 हजार आबादी है।
हम नट संघर्ष समिति के लोगों के माध्यम से आराजी लाइन ब्लॉक के सजोई गाँव की मुसहर बस्ती पहुंचे। जो वाराणसी रिंग रोड से मात्र एक से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस गाँव की आबादी लगभग 6000 है और मुसहर समुदाय के 400 लोग इस बस्ती में रहते हैं।
सबके घरों के पास शौचालय था। लगा सरकार का स्वच्छ भारत मिशन अभियान इस गाँव में पहुंचा है और कामयाब भी हुआ। लेकिन जब यहाँ की महिलाओं से बातचीत हुई, तो उन्होंने अपना कष्ट बताते हुए कहा-
यहां पर शौचालय तो है पर यह शुरू से ही बहुत कमजोर है, यहाँ जाने से डर लगता है क्योंकि यह कभी भी गिर सकता है। यह शौचालय हमारे ग्राम प्रधान द्वारा बनवाया गया है जो काफी जर्जर अवस्था में है।
दूसरी महिला ने कहा शौचालय सिर्फ बाहर से बनवा दिया गया है पर अंदर उसमें टॉयलेट सीट नहीं लगाई गई है सिर्फ गड्ढा खोदकर छोड़ दिया गया है। शौच के लिए खेतों में जाने से डर लगता है कि कब खेत मालिक आकर हमें गालियां देने लगे।
जब खेत में फसल लग जाती है तब रेल्वे ट्रैक पर जाते हैं, वहाँ भी कब ट्रेन आ जाए और हम या हमारे बच्चे कट जाएँ नहीं कह सकते।
यहां पर एक सामुदायिक शौचालय भी बना हुआ है आप क्या आप लोग इसका उपयोग नहीं करते हैं?
महिलाओं ने जवाब दिया कि इस सामुदायिक शौचालय में हमेशा ताला बंद रहता है। जब सामुदायिक शौचालय बन रहा था, तब हम लोगों से 2 महीने तक मजदूरी कराई गई पर उस मजदूरी का पैसा आज तक नहीं मिला। मजदूरी मांगने पर यहां के रोजगार सेवक और पूर्व प्रधान बोलते हैं कि सरकार के पास से ही पैसा ही नहीं आया, जब आया ही नहीं तो क्या हम अपनी जेब से पैसा देंगे।
गुस्से में एक महिला ने कहा कि जब सरकार के पास पैसा नहीं है, तो क्यों यह सब बनवाकर हम गरीबों का शोषण कर बेवकूफ बना रही है।
सुबह या शाम में जब अंधेरा हो जाता है किसी खेत में शौच के लिए जाते हैं। यदि दिन में शौच के लिए जाना पड़े तो यहीं-कहीं आसपास में बड़ी-बड़ी घास के बीच में बैठ जाता है या फिर ऐसे ही छटपटा के रह जाता है।
बड़ी होती किशोर लड़कियां के साथ किसी बड़ी महिला को जाना पड़ता है, आसपास के लोग उन्हें बुरी नज़र से देखते हैं।
इस मुसहर बस्ती में लोगों की झोपड़ी और घर हैं, इन्हें यही एक संतुष्टि है। बरसों से रह रहे हैं। लेकिन सुविधा के नाम न नाली है, न नल है।
सबसे ज्यादा दिक्कत शौचालय को लेकर है, होकर भी नहीं के बराबर है।
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सजोई में दिखावे का है सामुदायिक शौचालय और इज्जतघर
सजोई गाँव में एक सुंदर सा सामुदायिक शौचालय और इज्जतघर बना है। जिसकी दीवारों पर पेन्ट से जागरूकता जगाने वाले अनेक स्लोगन लिखे हुए हैं। इसे देखकर मन खुश हुआ कि बाकी गांवों में ओडीएफ की स्थिति कुछ भी लेकिन यहाँ तो जमीनी तौर पर हुए काम हुआ है।
शौचालयों की स्थिति देखते हुए लगा कि गाँव वाले इस सामुदायिक शौचालय का उपयोग करते होंगे पर गाँव वालों का कहना है कि बाहरी सुंदरता देख कर आप यह मत समझिए कि यह बन गया है। अंदर का काम अधूरा है और बाहर ताला लटक रहा है, किसके पास चाबी है? यह पूछने पर उन लोगों ने स्वसहायतासमूह की सदस्य पुष्पा के पास।
गाँव वालों ने बताया कि इसका काम अभी भी अधूरा है। हमने भी पड़ताल की तो एक तरफ ताला लगा हुआ था और दूसरी तरह आधा निर्माण काम दिखाई दे रहा था।
मुसहर बस्ती में बात करने के बाद जब प्रधान राजेश पटेल के घर पहुंचे तब वे अपने काम से बाहर थे, उनसे मुलाक़ात नहीं हो पाई लेकिन फोन पर बात हुई, तब बताया कि उनके पास बस्ती के किसी ने भी शिकायत नहीं की है, यदि कोई करेगा तो कार्यवाही की जाएगी। वैसे भी इसका निर्माण यह मनोरमा वर्मा(प्रधान) के कार्यकाल में हुआ था, इसके बारे में आप उनसे ही पता करें, मैं कुछ नहीं कह सकता हूँ। ग्राम प्रधान राजेश पटेल ने यहकहते हुए बचने का भरपूर प्रयास किया। जबकि गांवों में होने वाली हर दिक्कतों का संज्ञान लेने का अधिकार उसे होता है।
इसके बाद पूर्व प्रधान मनोरमा वर्मा के पति रविन्द्रन वर्मा को फोन किया, उन्होंने सामुदायिक शौचालय का कितना बजट आया था पूछने पर बताया कि याद नहीं है, फिर कहे शायद एक लाख, उसके बाद आवाज नहीं आने के कारण फोन काट दिया गया। दुबारा मिलाने पर कहीं व्यस्तता बताते हुए बाद में करता हूँ, कहकर फोन रख दिया गया। बाद में बात हुई लेकिन बाद में करता हुआ कहकर काट दिया। फिर करने पर उठाया नहीं।
गरीबों के लिए सरकार की कोई भी योजना उन तक नहीं पहुँच पाती है क्योंकि ऊपर से नीचे तक बैठे हुए अधिकारी आपस में ही बंदर बाँट कर लेते है। यह बंदर बाँट सिस्टम का आवश्यक हिस्सा बन गया है।
सजोई गाँव के कोटेदार सुखू ने बताया कि यहाँ सभी घरों में शौचालय है लेकिन कोई भी जाने की स्थिति में नहीं है। उनका खुद के शौचालय में सरकार से मिले 12 हजार में 5-6 हजार और मिलाकर एक ठीकठाक शौचालय बनवाया है।
गाँव का सामुदायिक शौचालय चार साल पहले बनकर आधा-अधूरा तैयार हुआ है लेकिन उस पर ताला लगा हुआ है। गाँव वालों ने बताया कि इसकी चाबी पुष्पा के पास है, जो 14 महिलाओं के स्व सहायता समूह की सदस्य है।
कोटेदार ने बताया कि पुष्पा के खाते में सामुदायिक शौचालय की देखरेख करने और केयर टेकर को देने के लिए 9000 रुपये आते हैं। उनसे यही बात हुई थी एक-एक महीने 14 में से एक-एक महिला को केयर टेकर की ज़िम्मेदारी देते हुए उन्हें वेतन देगी। यह बात एडीओ पंचायत से भी हुई थी, जिन्होंने भी इसके लिए सहमति जताई थी।
लेकिन आज तक पुष्पा ने न तो कभी ताला खोला न ही उनके खाते में हर महीने आने वाले 9000 रुपये का उपयोग शौचालय के लिए किया। पुष्पा को कई बार फोन लगाया गया लेकिन उन्होंने हर बार फोन काट दिया।
समझ सकते हैं हैं कि सरकारी योजनाओं और पैसे का दुरुपयोग किस तरह ग्राम प्रधान और उनसे जुड़े लोग करते हैं।
मुसहर बस्ती के लोग बाहर शौच के लिए जाते हैं, इस बात को लेकर नाराज है। इसी नाराजगी में उन्होंने बताया कि सामु. शौ. के निर्माण में हमारी बस्ती के लगभग सभी महिलाओं ने मजदूरी की थी लेकिन दो महीने काम करने के बाद मजदूरी नहीं मिली। उस समय मनोरमा वर्मा(प्रधान) थीं, प्रधान पति रविन्द्रन वर्मा ने हम सभी को कहा कि सरकार से मजदूरी का पैसा नहीं आया,आएगा तब दिया जाएगा। तब से लेकर आज तक न हमारी मजदूरी दी गई न ही कभी सामु. शौ. का ताला ही खुला।
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योगी का वर्ष 2022 का तय लक्ष्य 2024 में भी अधूरा
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का वर्ष 2022 में दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद खुले में शौच से मुक्त प्रदेश बनाने के लिए प्रदेश की जनता से किया गया वादा ‘हर गाँव का होगा अपना पंचयात भवन और सामुदायिक शौचालय’ की योजना सामने लाई थी।
सीएम योगी ने वर्ष 2022 में प्रत्येक गाँव में सामुदायिक शौचालय और इज्जतघर बनवाने का लक्ष्य रखा था। जिसमें 1494 सामुदायिक शौचालय और 2.41 लाख इज्जतघर(शौचालय) बनवाने की कार्य योजना तैयार की गई थी। इसे मात्र 100 दिनों में तैयार कर दिया जाएगा ऐसा भी निर्णय लिया गया था।
गाँव सजोई में सामुदायिक शौचालय और इज्जतगारों की स्थिति देखकर यह सवाल उठना वाजिब है कि यदि सभी गांवों में ऐसी स्थिति है तो फिर कैसा खुले में शौच मुक्त गाँव की कल्पना की जा सकती है?
हमारी सरकार की कागजी योजना बहुत सफलता के साथ चलती है। कागज पर योजना, कागज पर अमल, अमल के आंकड़ें कागज पर और कागज पर सफल हो गई य ओजना का आंकड़ा भी कागज पर आ जाता है।
जनता को बेवकूफ बनाने के यही आंकड़ें सामने लाये जाते हैं।
12 हजार में कहाँ बनता है शौचालय, बताया जाये पता
पिछले दस वर्षों मतलब 2014 से आज 2024 तक स्वच्छ भारत अभियान के तहत केंद्र सरकार द्वारा पात्र परिवारों को 12000 रुपए ही दिये जा रहे हैं जबकि इस बीच घर बनाने में लगने वाली सामग्री में 36 प्रतिशत की महंगाई बढ़ी है।
वर्ष 2014 में भी 12 हजार रुपए में उपयोग करने लायक शौचालय नहीं बन सकता था। इसके लिए 800 ईंटें, तीन बोरी सीमेंट, सीट, नल और टंकी, दो गड्ढों की खुदाई, छड़, बालू, दरवाजा, मजदूरों की मजदूरी न्यूनतम जरूरत होती है। यदि घर वाले खुद ही मजदूरी कर लें, उसके बाद भी सीट बैठने लिए जानकार मजदूर की जरूरत होती है। इसमें भी जिसके पास कुछ पैसा लगाने की स्थिति होती है, वही सामान्य सा शौचालय बनवा सकता है। 12000 रुपए में कहाँ शौचालय बनता है, इसका एक नमूना सरकार को अवश्य देना चाहिए था।
जिनके लिए यह योजना लाई गई, वे लोग काम मिलने पर कमाते हैं अन्यथा फाके की स्थिति रहती है और इस मुसहर बस्ती में दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं हो पाता, वहाँ कैसे ये लोग अपना पैसा लगाकर एक ठीक-ठाक शौचालय बनवा सकते हैं।
गाँव की महिलाओं ने जब इस तरह से बने शौचालय के लिए सवाल उठाया तो प्रधान ने यही जवाब दिया 12 हजार में इसी तरह का शौचालय बन सकता है। मैं अपने घर से तो पैसा नहीं लगा सकता।
क्या देश के प्रधानमंत्री और उनके सहयोगियों ने कभी महंगाई का आकलन नहीं किया है। जिस गति से महंगाई बढ़ी है, उस स्थिति में मिलने वाले पैसे में कोई वृद्धि नहीं होनी चाहिए? जबकि समय-समय पर प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसदों, ब्यूरोक्रेट, अधिकारियों के वेतन में वृद्धि होती रहती है।