Tuesday, July 1, 2025
Tuesday, July 1, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचारचुनाव आयोग की स्वतंत्रता के हक में सुप्रीम प्रहार

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

चुनाव आयोग की स्वतंत्रता के हक में सुप्रीम प्रहार

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को चुनाव आयोग के मामले में ऐसा आपात कदम उठाने की जरूरत क्यों महसूस हुई होगी? बेशक, सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय चुनाव आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया आदि के सम्बंध में जिन याचिकाओं पर आया है, वे काफी समय से लंबित पड़ी हुई थीं।फिर भी, 2014 के बाद से, चुनाव आयोग की निष्पक्षता तथा शासन से स्वतंत्रता पर जिस तरह से न सिर्फ बढ़ते हुए सवाल उठते रहे हैं, इसके साथ ही जिस प्रकार, चुनाव आयोग के शासन को अप्रिय राय रखने वाले सदस्यों को, शासन व केंद्रीय एजेंसियों के कोप का सामना करना पड़ा है; उस सबसे पुख्ता होती जा रही इस धारणा से सुप्रीम कोर्ट भी अनजान नहीं रहा होगा कि चुनाव आयोग सरकार का यस मैन बनता जा रहा है।

पुरानी कहावत है- सचाई अक्सर कड़वी लगती है।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय में राहुल गांधी के भारत में जनतंत्र की वर्तमान दशा और दिशा पर चिंता जताने पर मौजूदा सत्ताधारियों द्वारा जो बौखलाहट भरी प्रतिक्रिया की गयी है, जिसमेें भारत के कानून मंत्री के बाद अब भारत के उपराष्ट्रपति ने भी प्रमुखता से अपनी कर्कश आवाज जोड़ दी है, जो उस पुरानी कहावत की ही सचाई को दिखाती है। इसका इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि राहुल गांधी ने वर्तमान सत्ताधारियों की विचारधारा के वफादारों द्वारा भारत के चुनाव आयोग समेत सभी संवैधानिक संस्थाओं पर कब्जा कर, जनतंत्र को सीमित तथा खोखला किए जाने की जो शिकायत की थी, उसकी और किसी ने नहीं, खुद सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक बैंच ने हाल के अपने एक फैसले में व्यवहारत: पुष्टि की है।

चुनाव आयोग के लिए नियुक्तियों की अब तक चल रही प्रक्रिया और उसके फलस्वरूप चुनाव आयोग में निष्पक्षता के घाटे पर, साफ तौर पर अपनी नाराजगी जताते हुए, 2 मार्च के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने टीएन शेषन के दौर के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता को याद किया और दो-टूक शब्दों में कहा कि भारत की जनतांत्रिक व्यवस्था को, ‘सरकार के आगे घुटनों के बल पर रेंगने वाला, यस मैन इलैक्शन कमीशन नहीं चाहिए।’ लेकिन, सुप्रीम कोर्ट चुनाव आयोग में स्वतंत्रता के घाटे पर असंतोष जताने या उसके स्वतंत्रतापूर्वक आचरण करने की मांग करने पर ही नहीं रुका। उसने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए एक न्यूनतम उपाय के तौर पर, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया में ठोस बदलाव का भी आदेश दिया है।

इस आदेश का सार है, चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को कार्यपालिका की ही मर्जी पर छोड़ने वाली वर्तमान व्यवस्था को बदलकर, एक कॉलीजियम द्वारा नियुक्ति की व्यवस्था लाना। इस कॉलीजियम में, कार्यपालिका की मनमर्जी पर अंकुश लगाने के लिए, प्रधानमंत्री के साथ ही, लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रहेंगे। इस तरह, चुनाव आयुक्त के पद के लिए चयन में, केंद्र सरकार और सत्ताधारी पार्टी की मनमानी की जगह, कम से कम एक हद तक व्यापक परामर्श सुनिश्चित किया जाना है। इसमें विशेष रूप से महत्वपूर्ण यह कि इस तरह सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच उभयपक्षीय परामर्श सुनिश्चित किया जाना है। चुनाव आयोग के संदर्भ में यह उभयपक्षीय परामर्श दूसरी संस्थाओं के मुकाबले, इसलिए और ज्यादा महत्वपूर्ण है कि चुनाव आयोग से सबसे बढ़कर चुनाव के संदर्भ में, सत्तापक्ष और विपक्ष के प्रतिस्पर्धी दावों के बीच, निष्पक्ष एंपायर या रैफरी की ही भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है।

चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति के मामले में इस तरह की व्यवस्था के अपनाए जाने की जरूरत, इस तथ्य से और भी पुख्ता हो जाती है कि सीबीआइ निदेशक जैसे कुछ अन्य ऐसे पदों पर नियुक्ति के मामले में, जिनमें कार्यपालिका से स्वतंत्रता व निष्पक्षता सुनिश्चित करना जरूरी समझा गया है, पहले ही इस प्रकार की कॉलीजियम प्रणाली काम कर रही है। यह दूसरी बात है कि 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, आधिकारिक रूप से लोकसभा में विपक्ष का नेता न होने के तकनीकी बहाने से, जब तक संभव हुआ, इन अन्य नियुक्तियों में भी, उभयपक्षीयता का रास्ता बंद करके, कार्यपालिका के मनमाने फैसले ही थोपने की कोशिश की जाती रही थी। जाहिर है कि ऐसी सरकार से चुनाव आयोग में नियुक्तियों के मामले में, ऐसी उभयपक्षीयता सुनिश्चित करने के लिए, आवश्यक बदलाव की किसी पहल की तो उम्मीद ही कैसे की जा सकती थी।

यह भी पढ़ें…

मैं नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने के लिए निकला हूं

इसलिए, सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय की इस आशय की तकनीकी आलोचनाओं को, जो सत्ताधारी पार्टी के पक्षधर कई कानूनदां पेश करते नजर आते हैं, विशेष गंभीरता से नहीं लिया जा सकता है कि इस तरह का निर्णय करने में न्यायपालिका तो, अपने कार्यक्षेत्र को लांघ ही गयी है और यह तो विधायिका के क्षेत्र के न्यायिक अतिक्रमण का मामला है, आदि। सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय के आलोचक पहले इस सवाल का जवाब देने से बचकर निकल नहीं सकते हैं कि चुनाव आयोग के लिए नियुक्तियों की अब तक चल रही प्रणाली के मुकाबले, कम से कम न्यूनतम उभयपक्षीय परामर्श सुनिश्चित करने वाली कॉलीजियम प्रणाली, कहीं ज्यादा उपयुक्त होगी या नहीं। रही बात इस मामले में विधायिका के कार्यक्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण की तो, ठीक इसी तरह के अतिक्रमण से बचने के लिए, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उक्त आदेश के साथ यह भी जोड़ा है कि उसने चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए जिस तरह की कॉलीजियम व्यवस्था के अपनाए जाने का निर्देश दिया है, वह तभी तक के लिए है, जब तक कि देश की संसद, इस सिलसिले में कोई कानून नहीं बना देती है।

जाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में पूरी तरह से स्पष्ट है कि उसने जो व्यवस्था करायी है, वह अस्थायी व्यवस्था है यानी तभी तक के लिए है जब तक विधायिका, इस संबंध में कानून नहीं बना देती है। फिर भी, सरकार की ओर से दी जा रही दलीलों को खारिज करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान शासन की इस मांग को खारिज कर दिया कि जब तक विधायिका कोई फैसला नहीं कर लेती है, सब कुछ ज्यों-का-त्यों रहने दिया जाए। बीच की अवधि के लिए सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग के गठन में यह न्यूनतम सुधार भी लागू नहीं कराए और गेंद को बस विधायिका तथा वास्तव में उसमें पूर्ण बहुमत-प्राप्त सरकार के ही पाले में ठेल कर, पल्ला झाड़ ले। इसके विपरीत, सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अर्जेंसी समझी है कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप किया जाए और इसीलिए, उसने तात्कालिक सुधार का उक्त आदेश जारी किया है, जिस तरह के आदेश सुप्रीम कोर्ट बहुत सोच-विचार कर और एक प्रकार से आपात स्थिति में ही जारी करता है।

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को चुनाव आयोग के मामले में ऐसा आपात कदम उठाने की जरूरत क्यों महसूस हुई होगी? बेशक, सुप्रीम कोर्ट का उक्त निर्णय चुनाव आयोग में नियुक्ति की प्रक्रिया आदि के सम्बंध में जिन याचिकाओं पर आया है, वे काफी समय से लंबित पड़ी हुई थीं।फिर भी, 2014 के बाद से, चुनाव आयोग की निष्पक्षता तथा शासन से स्वतंत्रता पर जिस तरह से न सिर्फ बढ़ते हुए सवाल उठते रहे हैं, इसके साथ ही जिस प्रकार, चुनाव आयोग के शासन को अप्रिय राय रखने वाले सदस्यों को, शासन व केंद्रीय एजेंसियों के कोप का सामना करना पड़ा है; उस सबसे पुख्ता होती जा रही इस धारणा से सुप्रीम कोर्ट भी अनजान नहीं रहा होगा कि चुनाव आयोग सरकार का यस मैन बनता जा रहा है। जाहिर है कि आयोग के लिए नियुक्तियों में सरकार की मनमर्जी ही इस आयोग का, जिसकी निष्पक्षता पर पूरी चुनाव प्रक्रिया तथा इस प्रक्रिया पर टिकी पूरी जनतांत्रिक व्यवस्था की ही वैधता निर्भर करती है, निजाम-ए-वक्त का ‘यस मैन’ बना रहना सुनिश्चित करती है और सुप्रीम कोर्ट ने ठीक इसी को रोकने की कोशिश की है।

वैसे इस मामले में वर्तमान सरकार की सरासर मनमानी का आंखें खोलने वाला उदाहरण, अरुण गोयल की चुनाव आयोग में नियुक्ति के रूप में सामने आया है, जिनके स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने से लेकर, चुनाव आयोग के सदस्य के पद पर नियुक्ति तक, सारी प्रक्रिया मात्र अड़तालीस घंटे में ही पूरी हो गयी थी, जिसमें ऐसी सेवानिवृत्ति के बाद कोई अन्य पद लेने के लिए आवश्यक कई महीने के अंतराल से छूट दिए जाने से लेकर, राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति पर मोहर लगाए जाने तक, सब कुछ शामिल था। हैरानी की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस हैरान करने वाली तेजी के कारणों को समझने के  लिए, सरकार से पूरी प्रक्रिया की फाइल मांगी थी। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्तों को बहुत ही छोटे कार्यकाल मिलने पर भी सवाल उठाए हैं और याद दिलाया है कि इस पद पर नियुक्ति के लिए छ: वर्ष का कार्यकाल, नियम होना चाहिए न कि अपवाद, जैसाकि अब तक होता रहा है।

यह भी पढ़ें…

रामचरितमानस आलोचना से परे नहीं है और बहुजनों को उस पर सवाल उठाना चाहिए

बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने कोई चुनाव आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता सुनिश्चित करने की जादू की छड़ी नहीं खोज निकाली है। पर उसने चुनाव आयोग की स्वतंत्रता और इसलिए चुनाव प्रक्रिया की ही निष्पक्षता पर बढ़ते सवालों की उपस्थिति को पहचाना है और इन सवालों को ही दबाने की मौजूदा निजाम की कोशिशों को नकार दिया है। यह जनतांत्रिक व्यवस्था को ही खोखला करने की वर्तमान शासन की कोशिशों को मुश्किल बनाता है और चुनाव आयोग जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं की शासन से स्वतंत्रता की रक्षा की लड़ाई में मदद करता है। जनतंत्र का भविष्य इसी लड़ाई पर निर्भर है।

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Bollywood Lifestyle and Entertainment