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बिहार में राजनीतिक परिवर्तन और उसके मायने

बिहार में नीतीश कुमार की सरकार गिर गयी है और ये लेख लिखे जाने तक अगली सरकार के गठन की रूपरेखा सामने नहीं आयी है, लेकिन इतना तो साफ़ है कि राष्ट्रीय जनता दल सहित अब तक जो पार्टियाँ विपक्ष में थीं, उनका समर्थन जदयू को मिलेगा। बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ […]

बिहार में नीतीश कुमार की सरकार गिर गयी है और ये लेख लिखे जाने तक अगली सरकार के गठन की रूपरेखा सामने नहीं आयी है, लेकिन इतना तो साफ़ है कि राष्ट्रीय जनता दल सहित अब तक जो पार्टियाँ विपक्ष में थीं, उनका समर्थन जदयू को मिलेगा।

बिहार में नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ क्यों छोड़ा, क्या विपक्षी दलों में कोई व्यापक एकता संभव है, क्या विपक्षी दल मिलकर भाजपा के सामने कोई मत्वपूर्ण चुनौती पेश कर पाएंगे, क्या देश की राजनीति जो एक दलीय ध्रुवीकरण की ओर निरंतर बढ़ रही है, में कोई बड़ा बदलाव आएगा? इस लेख में इन्हीं प्रश्नों पर विचार किया जायेगा।

सबसे पहले तो यही समझने की कोशिश की जाए कि नीतीश कुमार को अपनी ही सरकार गिराने की ज़रूरत क्यों पड़ी? अगर आप भाजपा के पिछले लगभग 20 साल की सियासत पर गौर करें तो आप देखेंगे कि भारतीय जनता पार्टी जिस भी पार्टी से गठबंधन करती है, उस पार्टी को कमज़ोर कर देती है, ये काम वो दो तरह से करती है, पहला उसके जनाधार को अपने जनाधार में बदलती और पार्टी नेतृत्व को कई तरह से कमज़ोर कर देती है। यही नहीं पार्टी को अपने हाथ की कठपुतली तक बना देती है। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी इसका सबसे बेहतर उदहारण है।

आज देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो देश की वो आबादी है जिसके लिए धर्म और जाति जैसे पिछड़े मूल्य रोटी और शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। आज़ाद भारत की हुकूमतों ने आम जनता को उस शिक्षा से ही महरूम रखा जो उनकी चेतना को विकसित करती, आज भारतीय जनता पार्टी की नीतियाँ जनता से शिक्षा के बचे-खुचे ये संसाधन भी छीन रही हैं।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, छतीसगढ़ आदि प्रदेशों में भाजपा की इन कोशिशों को देखा जा सकता है। पिछले चनाव में बिहार में भी कई महत्वपूर्ण बदलाव आये। एक तो भाजपा गठबंधन की सरकार बेहद कम वोटों से जीती थी, आरोप तो यहाँ तक लगा कि ये जीत भी धांधली का नतीजा थी वरना राजद की सरकार बनती। लेकिन इस चुनाव के उपरांत भले ही नीतीश कुमार सरकार के मुखिया बने लेकिन उनकी ताक़त कम हो गयी थी, पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं था। इसी तरह लोजपा का तो वजूद ही मिट गया था और फिर से चिराग पासवान सियासत में कोई मुकाम हासिल कर पाएंगे, इसकी संभावना भी लगभग ख़त्म हो गयी है।

इस बीच महाराष्ट्र की सरकार गिराने के बाद भाजपा के हौसले बुलंद थे, ख़बर तो ये भी है कि ये कहानी बिहार में दुहराए जाने की कोशिश हो रही थी। अगर ऐसा होता तो नीतीश कुमार की सियासी ताक़त बहुत कम हो जाती, मुमकिन था कि उनका सियासी वजूद ही ख़त्म हो जाता। ऐसे में कहा जा सकता है कि भाजपा का साथ छोड़कर नीतीश कुमार ने ख़ुद की सियासत को ज़िन्दा रखने और इसे बुलंदी को ओर ले जाने के लिए ख़ुद को ही एक और अवसर दिया है।

ख़बर है कि राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों का समर्थन नीतीश कुमार को मिलेगा। अगर ऐसा होता है तो कम से कम बिहार में इन पार्टियों को ख़ुद के और विस्तार का मौका मिलेगा। कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में अगर सभी विपक्षी दल एक साथ आते हैं तो इससे बनने वाली हुकूमत इन सभी दलों के हित में होगी।

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2024 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के तमाम विपक्षी दलों के एक साथ आने की संभावना नज़र आ रही है। अगर देश के पैमाने पर तमाम सियासी दल दो खेमों में एकत्रित होते हैं तो ये कई तरह के राजनीतिक बदलाव का कारण बनेगा, लेकिन ऐसी एकता के आधार और संभावना पर विचार करने का भी यही सही वक़्त है।

इस वक्त भाजपा बेहद आक्रामक सियासत कर रही है। जो भी, सरकार, भारतीय जनता पार्टी और उसके नीतियों के ख़िलाफ़ है, उसके साथ भाजपा, उसकी सरकार और प्रशासन सख्ती से कार्यवाही करता है। सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल होने वाले मुसलमानों के घर गिराए गये तो दिल्ली दंगों के बहाने दर्जनों मुसलमानों को जेल भेजा गया, सिद्दीकी कप्पन जैसे पत्रकार को लगभग दो साल से जेल में रखा गया है और लोअर कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक उनको जमानत देने से इनकार कर रहे हैं। लोग हैरान हैं कि कहीं रिपोर्टिंग के लिए जाना अपराध कैसे हो गया! दूसरी तरफ़ सुप्रीम कोर्ट तक से जैसे फैसले हो रहे हैं, उससे ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे ये फ़ैसले सरकार की मर्जी से दिए गये हों। हालांकि ये महज़ प्रतीति है लेकिन प्रशांत भूषण और कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट को लेकर जो चिंताएं व्यक्त की हैं, वो बहुत कुछ कहती हैं।

हाल ही में राहुल गाँधी ने भी कहा है कि आप हमें संवैधानिक संस्थाओं पर नियंत्रण दे दीजिये फिर बताऊँ कि चुनाव कैसे जीते जाते हैं। यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से राहुल गाँधी ने कहा कि भाजपा संवैधानिक संस्थाओं पर काबिज़ हो चुकी है। लेकिन जिस तरह चुनाव आयोग के हर कदम से भाजपा लाभान्वित होती रही है, जिस तरह CAG खामोश है, जिस तरह ED और CBI का विपक्षी दलों के नेताओं पर इस्तेमाल हो रहा है इससे एक बात तो साफ़ है कि संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर रही हैं।

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एक लोकतान्त्रिक देश में स्वतंत्र मीडिया का बहुत महत्व है, मीडिया लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पिलर है, मीडिया के ज़रिये जनता की बात सरकार तक सरकार की बात जनता तक पहंचती है, लेकिन पिछले लगभग 20 सालों में मीडिया का रूप पूरी तरह से बदल गया है, पहले मीडिया ने भाजपा के हित में काम करना शुरू किया फिर भाजपा सरकार का मुखपत्र बनकर काम करना शुरू किया, आज मीडिया में जनता के सवालों के लिए कोई जगह नहीं है, मीडिया भाजपा की सियासत के लिए ज़मीन तैयार करती है और इस ज़मीन को लगातार उर्वर बनाये रखने की कोशिश करती है। बिना मीडिया के विपक्षी दल एक होकर भी क्या भाजपा और उसकी सियासत को चुनौती दे पाएंगे, ये बहुत बड़ा प्रश्न है।

राजनीति कभी रहा होगा सेवा, आज ये एक व्यवसाय है। सोशल मीडिया अगर किसी पार्टी के हक़ में काम करती है तो उसके लिए पेमेंट लेती है, तमाम मीडिया घराने भी बिना भुगतान के काम नहीं करते, रैलियां करने के लिए भी करोड़ों में खर्च होता है। पार्टियों के लिए ये पैसा कॉर्पोरेट घरानों से आता है। पिछले कुछ सालों में ऐसे फंड सबसे ज़्यादा भाजपा को मिले हैं, चुनावी फंड के मामले में भाजपा किसी भी दूसरी पार्टी से मीलों आगे है, ऐसे में ये सवाल तो बनता है कि अकूत सम्पदा की मालिक भाजपा का मुकाबला विपक्षी दल कैसे करेंगे?

लड़ाई राजनीतिक हो या सामरिक, हमेशा विरोधी दल की ताक़त और कमज़ोरी का आकलन करके लड़ने की नीति बनाई जाती है। भाजपा की सबसे बड़ी ताक़त मुसलमान विरोधी नफ़रत पर आधारित साम्प्रदायिक राजनीति है जिसके कारण वो बड़े पैमाने पर हिन्दू वोटों का धुर्वीकरण करवा पाती है, लेकिन सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि वो अपने सारे काम कॉर्पोरेट हित में करती है, अब तक जनता को जो थोड़ी बहुत सहूलियत सरकार से मिलती थी, वो सब धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। शिक्षा, सेहत और रोज़गार जैसे बेहद बुनियादी मुद्दों पर ये सरकार पूरी तरह फेल है। ऐसी सूरत में होना ये चाहिए था कि विपक्षी दल साम्प्रदायिक राजनीति के मुद्दे पर भाजपा को घेरते और एक ऐसा आर्थिक कार्यक्रम पेश करते जो भजपा की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों का ज़वाब होता।

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अफ़सोस ये दोनों काम विपक्षी दलों ने अभी तक नहीं किया है और आगे ऐसा कुछ होगा इसकी कोई संभावना नज़र नहीं आती। सत्ता में हिस्सेदारी के उद्देश्य से अवसरवादी एकता के आधार पर भाजपा जैसी व्यवस्थित और आक्रामक पार्टी का मुकाबला किया जा सकेगा, ये सोचना दिवास्वप्न ही हो सकता है।

कॉर्पोरेट और मीडिया द्वारा उपेक्षित विपक्ष जो सरकारी एजेंसियों के निशाने पर भी है, अवसरवादी एकता से क्या देश की उम्मीदों को पूरा कर पायेगा? इस सवाल का ज़वाब भविष्य के गर्त में है लेकिन ज़वाब क्या होगा, इसका अनुमान तो आपको भी है। दरअसल, भाजपा की सियासत जिस दिशा में जाती हुई नज़र आ रही है उससे ये तो अंदाज़ा लगता है कि देश का लोकतंत्र जो पहले से ही कमज़ोर है, उसको मिटना होगा, लोकतंत्र पर जिस तरह के हमले वर्तमान सरकार ने किये हैं, ये आज़ाद भारत में बिलकुल नया है। ऐसे में भाजपा की सियासत इसी तरह कामयाब होती रही तो देश में कोई विपक्ष नहीं बचेगा, शून्य विपक्ष वाली संसदीय सरकार किसी भी तरह एक तानाशाही हुकूमत से अलग नहीं होगी। इस लिहाज़ से देखा जाये तो गैर भाजपा दलों के वजूद पर भी गहरा संकट है और बिहार में कम से कम नीतीश कुमार ने इस संकट को न सिर्फ़ पहचाना है बल्कि बचाव की दिशा में कदम भी उठाया है, लेकिन भाजपा की कमज़ोरी और उसकी ताकत के मद्देनज़र जब तक विपक्ष लड़ाई की योजना नहीं बनाता, उसका बचना मुश्किल है.

वस्तुगत परिस्थितियाँ ये हैं कि देश की जनता को धर्म का सवाल जितना अपील करता है उतना रोटी और शिक्षा का सवाल अपील नहीं करता, ये भी कहा जा सकता है कि देश के जितने बड़े समूह को रोटी से ज़्यादा ज़रूरी धर्म लगता है, उनकी संख्या इतनी तो है ही कि ये एक साथ आ जाएँ तो देश में सरकार बनवा सकते हैं। देश की पिछड़ी चेनता वाले इस समूह को संबोधित करने के लिए बुनियादी भाषा और मकसद संसदीय विपक्ष के पास नहीं है। इसके विपरीत हिन्दुत्व की राजनीति भले ही खोखली हो, देश के इस समूह को खूब अपील करती है।

आज देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो देश की वो आबादी है जिसके लिए धर्म और जाति जैसे पिछड़े मूल्य रोटी और शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं। आज़ाद भारत की हुकूमतों ने आम जनता को उस शिक्षा से ही महरूम रखा जो उनकी चेतना को विकसित करती, आज भारतीय जनता पार्टी की नीतियाँ जनता से शिक्षा के बचे-खुचे ये संसाधन भी छीन रही हैं। देश के सामने जो दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है वो ये कि इतने बड़े देश में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जो भाजपा की कॉर्पोरेटपरस्त नीतियों के ज़वाब में जनसरोकार पर आधारित नीतियाँ प्रस्तुत करता और जनता को इसके लिए गोलबंद करता। इसलिए बिहार में जो कुछ हुआ या 2024 से पहले कई और राज्यों में जहाँ ऐसा होने की संभावना है, इससे जनता के हित में कोई बड़ा बदलाव होगा, इसकी उम्मीद तो नहीं है और किसी वजह से भाजपा की जगह अगर किसी और पार्टी की सरकार केंद्र में बन भी जाती है (जिसकी संभावना बिलकुल भी नहीं है) तो भी आम जनता के जीवन में कोई बदलाव नहीं आयेगा। जिस राजनीति से देश और देश की जनता का जीवन बदलेगा, उसका शुरू होना अभी बाकी है।

डॉ. सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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