9 फरवरी, 2022 की सुबह भारतीय फिल्म प्रेमियों जो आघात लगा, लगता है उससे उबरने में उन्हें वर्षों लग जायेंगे। यह वैसा आघात नहीं था, जैसा अघात हाल के दिनों अभिनय सम्राट दिलीप कुमार और स्वर कोकिला लता मंगेशकर के दुनिया छोड़ने से लगा था। यह एक नए किस्म का आघात था, सपनों के टूटने का आघात था, जिसकी तुलना सिर्फ 25 मार्च, 2002 की सुबह से की जा सकती है। उस दिन फिल्मों के नोबेल कहे जाने वाले ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा हुई थी, जिसे पाने का सपना भारतीय फिल्म प्रेमी 1957 से ही देख रहे थे, जब ऑस्कर पुरस्कारों के विदेशी फिल्मो की कैटेगरी में महबूब खान की मदर इंडिया फ़ाइनल राउंड में पहुंचकर ऑस्कर पाने की उम्मीद जगाई थी। तब भारतीय फिल्म प्रेमियों को ऑस्कर के अहमियत की कोई जानकारी नहीं थी, किन्तु नयी सदी में लोग इसकी अहमियत से वाफिफ हो चुके थे। इसलिए करोड़ों भारतीयों की निगाहें 24 मार्च, 2002 को लॉसएन्जिलेस के कोडक थियेटर में आयोजित 74 वें ऑस्कर पुरस्कार समारोह पर टिक गयी थीं, क्योंकि आमिर खान की महान फिल्म लगान भी विदेशी भाषा के फिल्मों के दावेदारों की कैटेगरी में शामिल थी। ऐसे में जब भारतीय समय के हिसाब से 25 मार्च की सुबह 74 वें ऑस्कर पुरस्कारों की घोषणा हुई, भारतीय फिल्म प्रेमियों को जबरदस्त आघात लगा था .कारण, लगान ‘नो मेड लैंड’ से पिछड़कर ऑस्कर ट्राफी उठाने से वंचित रह गयी थी।
लगान के बाद जय भीम से लगा आघात
लगान के 20 सालों बाद भारतीय फिल्म प्रेमी तमिल सुपर स्टार सूर्या और ज्योतिका द्वारा निर्मित और टी जे ज्ञानवेली द्वारा निर्देशित जय भीम से ऑस्कर जीतने की उम्मीद लगाये बैठे थे। 20 साल पहले 5 बेस्ट फिल्मों में नॉमिनेट होने के बाद लोग लगान से आशावादी हुए थे। किन्तु इस बार ऑस्कर अवार्ड का आयोजन करने वाली एकेडमी ऑफ़ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंसेज द्वारा पूरी दुनिया से आई जिन 276 फिल्मों को अवार्ड के लिए एलिजिबल माना था, सिर्फ उसी में मोहल लाल की एक्शन एडवेंचर मलयालम फिल्म ‘मरक्कर’ के साथ शामिल होकर ‘जय भीम’ ने भारतीय फिल्म प्रेमियों की प्रत्याशा को एवरेस्ट सरीखी ऊंचाई दे दिया था। उसे ऑस्कर जीतने के लिए पहले 5 बेस्ट फिल्मों में नॉमिनेट होना था, जिसकी घोषणा 8 फ़रवरी को होनी थी। लेकिन भारतीय फिल्म प्रेमी इसके ऑस्कर जीतने के प्रति इतने आशावादी थे कि वे नॉमिनेशन की पूर्व संध्या पर ही सोशल मीडिया पर इसके नॉमिनेट होने की घोषणा करने में होड़ लगाने लगे थे। किन्तु जब 8 फ़रवरी को एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज की ओर से एक्टर ट्रेसी एलिस रॉस और एक्टर-कॉमेडियन लेस्ली जॉर्डन ने 94 वें अकादमी पुरस्कारों के नॉमिनी का ऐलान किया, उसमे जय भीम का नाम नहीं था। जय भीम के ऑस्कर रेस से बाहर होने की खबर 9 फ़रवरी की सुबह भारत में पहुंची। खबर सुनते ही फिल्म प्रेमियों मातम छा गया। वह तो गनीमत था कि जब देश ‘जय भीम’ की दुखद खबर से रूबरू हुआ, उसी समय डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘राइटिंग विद फायर’ के 94वें एकेडमी अवॉर्ड में जगह बनाने की खबर सामने आई, जिससे लोगों को जय भीम की विफलता से मिले आघात से उबरने में कुछ सहायता मिली।
राइटिंग विद फायर से कम हुआ जय भीम का गम
यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि संभवतः भारत की ओर से डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की श्रेणी में पहली बार ऑस्कर की दौड़ में 5 बेस्ट में नॉमिनेट होने वाली ‘राइटिंग विद फायर’ का विषय वस्तु भी जय भीम की भांति ही दलित विषयक है, इसलिए यह बहुजनों को जय भीम से मिली मायूसी से उबारने में काफी सहायक हुई है। थॉमस और सुष्मित घोष द्वारा निर्देशित राइटिंग विद फायर ने अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफार्म पर दो दर्जन के अवार्ड जीतकर ऑस्कर में भारी संभावना जगा दी है। इस डॉक्युमेंट्री में मुख्य रिपोर्टर मीरा के नेतृत्व वाले दलित महिलाओं के महत्वाकांक्षी समूह की कहानी को दिखाया गया है, जो प्रासंगिक बने रहने के लिए प्रिंट से डिजिटल माध्यम में स्विच करती हैं। बहरहाल जय भीम के ऑस्कर की दौड़ से बाहर होने पर इस लेखक को भी दुःख लगा है, किन्तु यह आघात की श्रेणी में नहीं आयेगा। 27 जनवरी को जय भीम को ऑस्कर के लिए एलिजिबल 276 फिल्मों की लिस्ट में शामिल होने की घोषणा के बाद मैंने ‘ मुश्किल है जय भीम का ऑस्कर में इतिहास रचना’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जो 28 जनवरी को जगह प्रकाशित हुआ था. उसमें मैंने ऑस्कर में इसकी संभावनाओं पर निष्कर्ष देते हुए लिखा था,’ जिन कारणों से भारतीय फ़िल्में ऑस्कर में व्यर्थ होती रही हैं, उन कारणों के आधार पर जय भीम की सम्भावना बेहतर नजर दिख रही है। यह छोटी और गानों में मुक्त है। इसकी स्टोरी और स्क्रीनप्ले की मौलिकता काफी हद तक प्रश्नातीत है। आईएमडीबी की रेटिंग में विश्वविख्यात ‘द गॉडफादर’ को मात देना तथा ऑस्कर के आधिकारिक यूट्यूब पर इसके खास दृश्यों का प्रसारण इस बात का संकेतक है कि यह प्रमोशन की बाधाओं को भी अतिक्रम कर चुकी। ऐसे में 27 मार्च को लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थियेटर में इससे कुछ चौंकाने वाले परिणाम के प्रति आशावादी हुआ जा सकता है, पर, इसके लिए सबसे जरुरी है 8 फ़रवरी को जो नॉमिनेशन की घोषणा होने जा रही है, उसमे यह फॉरेन फिल्मों की कटेगरी के 5 बेस्ट फिल्मों में जगह बनाये। मगर ऑस्कर के लिए आशावादी होने के पहले भारतीय फिल्म प्रेमियों को यह अप्रिय सचाई ध्यान में रखनी होगी कि जिस गोल्डन ग्लोब्स को ऑस्कर का सेमी फाइनल कहा जाता है, उसमें यह मात खा चुकी है.’
डाइवर्सिटी को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं – दक्षिण भारतीय फ़िल्में
वास्तव में 9 जनवरी को जो गोल्डन ग्लोब्स अवार्ड का परिणाम सामने आया उसी से इसके 8 फरवरी को 5 बेस्ट फिल्मों में नॉमिनेट होने की सम्भावना पर संदेह हो गया था। कारण देश-विदेश के चुनिन्दा फिल्म पत्रकारों की राय के आधार पर जनवरी के पूर्वार्द्ध में दिए जाने वाला गोल्डन ग्लोब्स अवार्ड ऑस्कर का सेमी-फाइनल होता है। ज्यादातर इसमें नॉमिनेट होने वाली फिल्मे ही ऑस्कर की विभिन्न श्रेणियों में नामांकित होती हैं। इसलिए भारतीय फिल्म प्रेमी यदि गोल्डन ग्लोब्स में जय भीम की विफलता को ध्यान में रखते तो उन्हें 9 फ़रवरी को दुःख जरूर मिलता, पर वह दुःख आघात की श्रेणी का नहीं होता। बहरहाल 2021 में तमिल फिल्म ‘कूड़ांगल’ के बाद 2022 में ‘जय भीम’ और ‘मरक्कर’ ने ऑस्कर के क्वार्टर फाइनल तक का सफ़र तय कर संकेत दे दिया है कि भारत निकट भविष्य में बेस्ट फॉरेन फिल्मों की श्रेणी शामिल हो सकता है और यह मुमकिन है कि दक्षिण भारतीय फिल्मोद्योग से इसकी शुरुआत हो। और ऐसा इसलिए होगा कि फिल्मों की जो विविधता नीति हॉलीवुड सहित ब्रिटेन व अन्य पश्चिमी देशों के फिल्मों की गुणवत्ता की जान है, वह विविधता नीति अपनाने में दक्षिण भारतीय फ़िल्में आगे बढ़ रही हैं। दक्षिण भारत फिल्मोद्योग की दो फिल्मों का ऑस्कर में यहाँ तक का सफ़र तय करना, इस बात इस बात का संकेत है कि विविधता को अंगीकार करने के कारण ही बाहुबली और पुष्पा जैसी ब्लॉकबस्टर तथा कूड़ांगल, जय भीम और मरक्कर इत्यादि जैसी ऑस्कर लेवल की फ़िल्में देने वाला दक्षिण भारत अब बॉलीवुड को काफी हद तक म्लान कर हॉलीवुड के करीब पहुँचने वाला है। अब जो दक्षिण भारतीय फिल्मोद्योग हॉलीवुड को छूने की ओर अग्रसर है, जरा उस हॉलीवुड के विषय में जान लेते हैं।
हॉलीवुड और ऑस्कर !
हॉलीवुड संयुक्त राज्य अमेरिका के फिल्म उद्योग का नाम है। इसका नाम कैलिफोर्निया में लॉसएन्जिलेस के एक जिले हॉलीवुड के नाम पर रखा गया है, जहाँ बहुत सारे फिल्म स्टूडियो स्थापित हैं। 19 वीं सदी में थॉमस एल्वा एडिसन ने काइनेटोस्कोप ईजाद किया और इसके पेटेंट के सहारे फिल्म निर्माताओं से बहुत बड़ी-बड़ी फीस मांगी। इनसे बचने के लिए कई फिल्म कंपनियां कैलिफोर्निया के हॉलीवुड जिले में आकर स्थापित हो गयी। बाद में यही हॉलीवुड अमेरिकी फिल्मों का केंद्र बन गया। आजकल अधिकतर फिल्म उद्योग पास ही में बुबैंक और वेस्टसाइड में चला गया है, लेकिन बहुत से काम अब भी हॉलीवुड में ही होते हैं। इसी हॉलीवुड के सबसे मशहूर पुरस्कार अकादमी पुरस्कार हैं, जिन्हें ऑस्कर पुरस्कार के नाम से भी जाना जाता है। फिल्मों के विविध विधाओं में बंटने वाले नोबेल पुरस्कार सरीखे ऑस्कर पुरस्कारों में एक पुरस्कार विदेशी भाषा के फिल्मों की कैटेगरी का होता है, जिसे पाने का सपना हम भारत के लोग 1957 से देख रहे हैं। बहरहाल जिस हॉलीवुड के ऑस्कर पुरस्कारों की अहमियत नोबेल सरीखी है, उस हॉलीवुड की भव्यता और कलात्मकता और तकनीकी गुणवत्ता विस्मित करने वाली होती हैं। हम हॉलीवुड फ़िल्में देख कर दूसरी दुनिया में चले जाते हैं। वहां की बनी फिल्मों का एक-एक दृश्य हैरतंगेज होता है। ऐसा क्यों होता है यदि इसके तह में जाएँ तो पता चलेगा, इसके पृष्ठ में हैं वहां की विविधता!
हॉलीवुड की सफलता के पीछे डाइवर्सिटी
हॉलीवुड फिल्मों से जुड़ी दुनिया के विभिन्न अंचलों की प्रतिभाओं को अपने यहाँ पनाह देकर, उनकी प्रतिभा का इस्तेमाल कर वर्षों से गॉन विड द विंड, बेनहूर, टेन कमांडमेंट्स, मोबीडिक, मैकेनाज गोल्ड, साइको, लव स्टोरी, जॉज, टाइटेनिक, अवतार इत्यादि जैसी फिल्मे देकर विस्मित करते रहा है। इस क्रम में उसे दुनिया के सर्वोच्च स्तर के डायरेक्टर, एक्टर-ऐक्ट्रेस, स्क्रिप्ट राइटर, कैमरामैन इत्यादि सहित फिल्मों के विभिन्न विभाग में बेहतरीन प्रतिभाओं की सेवाएँ सुलभ होती रही हैं। इन प्रतिभाओं के मेल से वहां जो फिल्म प्रोडक्ट तैयार होता है, वह विशुद्ध हैरतंगेज होता है। हॉलीवुड में एक से बढ़कर एक आश्चर्यजनक फ़िल्में देने वाले सर्जिओ लियोन, चार्ली चैपलिन, पीटर जॉनसन, रोमान पोलांस्की, अकिरा कुरोसोवा, इन्ग्नर बर्गमैन, डेविड लीन, विटारियो डी सिका, रिचर्ड एटेनबोरो , जेम्स कैमरून, रिडले स्कॉट, डैनी बॉयल जैसे निर्देशक; रिचर्ड बर्टन, आर्नाल्ड श्वार्जेनेगर, ब्रूस विलिस, ह्यूज जैकमैन, रसेल क्रोव, ब्रूस ली, जिम कैरी, जैकी चान, टॉम हार्डी, कीनू रीव्स जैसे ढेरों सुपर स्टार; निकोल किडमैन, पेनिलोप क्रूज़, चार्ली थेरोन, जेनिफर लोपेज , लेडी गागा, प्रियंका चोपड़ा इत्यादि जैसी अनेकों दिलफरेब नायिकाएं विदेशी मूल की गैर- अमेरिकन हैं. हॉलीवुड बहुत पहले से क्षेत्रीय, भाषाई, लैंगिक विविधताओं को सम्मान देकर देश-विदेश की प्रतिभाओं को सम्मान देता रहा है।
[bs-quote quote=”जो काम हॉलीवुड किया, वह भारत की शान बॉलीवुड न कर सका। जिनका यहाँ दबदबा रहा, वे अपनी वर्णवादी सोच के चलते दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त बहुजन प्रतिभाओं का सदुपयोग न कर सके। इस कारण वे हॉलीवुड जैसी मौलिक और भव्य फ़िल्में न दे सके, वे महज हॉलीवुड की सतही नक़ल देने के लिए अभिशप्त रहे। इसलिए यहाँ के राज कपूर चार्ली चैपलिन, देवानंद ग्रेगरी पेक, राजकुमार सर एलेक गिनेस तो शम्मी कपूर एल्विस प्रिसली का भारतीय संस्करण बन स्टारडम एन्जॉय करते रहे। यहाँ तक कि हम जिन दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट का दर्जा देकर गर्वित होंते रहें हैं, वे तक कैरी ग्रांट की छाया से मुक्त न हो सके। आज तो भारत में बढ़ते हिन्दू राज की चपेट में आकर यह कंगना रनौत, अक्षय कुमार, अनुपम खेर, परेश रावल जैसों पर निर्भर हो गया है। कंगना रनौतों के बढ़ते प्रभाव के साए में अब यहाँ महबूब खान, आमिर खान जैसों के उदय लायक हालात भी नहीं रहे।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
बाद में बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से इसने नस्लीय विविधताओं को भी प्रश्रय देना शुरू किया, इससे अफ्रीकन मूल के कालों, चाइना के मंगोलायड रेस की प्रतिभाओं का भी सम्मान मिलना शुरू हुया, जिसके फलस्वरूप आज हॉलीवुड सिडनी पोयटीयर- विल स्मिथ- डेंजेल वाशिंग्टन तथा ब्रूस ली-आंग ली- जैकी चान के भाइयों- बहनों की प्रतिभा का भी जमकर सदुपयोग करने की स्थिति में आ गया है। हॉलीवुड को डाइवर्सिटी की ताकत का इल्म है, इसलिए वह फिल्मों अनिवार्य रूप से डाइवर्सिटी लागू करवाता है और हर वर्ष डाइवर्सिटी रिपोर्ट प्रकाशित करता है।
साउथ की रीमेक पर निर्भर बॉलीवुड!
लेकिन जो काम हॉलीवुड किया, वह भारत की शान बॉलीवुड न कर सका। जिनका यहाँ दबदबा रहा, वे अपनी वर्णवादी सोच के चलते दलित, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त बहुजन प्रतिभाओं का सदुपयोग न कर सके। इस कारण वे हॉलीवुड जैसी मौलिक और भव्य फ़िल्में न दे सके, वे महज हॉलीवुड की सतही नक़ल देने के लिए अभिशप्त रहे। इसलिए यहाँ के राज कपूर चार्ली चैपलिन, देवानंद ग्रेगरी पेक, राजकुमार सर एलेक गिनेस तो शम्मी कपूर एल्विस प्रिसली का भारतीय संस्करण बन स्टारडम एन्जॉय करते रहे। यहाँ तक कि हम जिन दिलीप कुमार को अभिनय सम्राट का दर्जा देकर गर्वित होंते रहें हैं, वे तक कैरी ग्रांट की छाया से मुक्त न हो सके। आज तो भारत में बढ़ते हिन्दू राज की चपेट में आकर यह कंगना रनौत, अक्षय कुमार, अनुपम खेर, परेश रावल जैसों पर निर्भर हो गया है। कंगना रनौतों के बढ़ते प्रभाव के साए में अब यहाँ महबूब खान, आमिर खान जैसों के उदय लायक हालात भी नहीं रहे। जो बॉलीवुड कभी हॉलीवुड की नक़ल करने के लिए अभिशप्त रहा, वह आज साऊथ के रीमेक पर अपना वजूद बचाने के लिए विवश है। हाल के वर्षों में बॉक्स ऑफिस पर धन- वर्षा करने वालीं गज़नी, तेरे नाम, वांटेड, जुड़वा,रेडी, बॉडी गार्ड, सिंघम, रावडी राठौड़, सन ऑफ़ सरदार, खट्टा-मीठा, भूल-भुलैया , दे दनादन , हाउस फुल-2, कबीर सिंह इत्यादि जैसी अनेकों ब्लॉकबस्टर फ़िल्में साउथ की रीमेक हैं और दर्जन भर से ज्यादे फिल्में अभी रीमेक की कतार में है। आज बॉलीवुड अपना वजूद बचाने के लिए हॉलीवुड की तरह ही अब साऊथ पर निर्भर हो गया है। प्रायः 90 प्रतिशत से ज्यादा दर्शक अब अपने घरों में टीवी पर साउथ की फ़िल्में देखते है। उसका खास कारण है, दक्षिण भारत भी हॉलीवुड की डाइवर्सिटी नीति का अनुसरण करते हुए विस्मयकर फ़िल्में देने की ओर अग्रसर हो चुका है।
तो इसलिए साउथ हॉलीवुड को देने जा रहा है चुनौती
साउथ की फिल्में आज अगर हॉलीवुड को चुनौती देने की ओर अग्रसर हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण है यह है कि भारतीय फिल्म उद्योग को विकसित करने वाले उच्च वर्ण हिन्दुओं की वर्ण-वादी सोच के कारण जो विशाल बहुजन समाज फिल्म क्षेत्र में उपेक्षित व बहिष्कृत रहे, उसका साउथ में दबदबा कायम हो चुका है। हॉलीवुड की बेनहूर और द टेन कमांडमेंट्स की भव्यता को म्लान करने वाली बाहुबली सीरिज की दो फ़िल्में हों या बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड कायम कर रही पुष्पा : 2021 में ऑस्कर की एलिजिबल फिल्मों में जगह बनाने वाली ‘कूड़ांगल’ हो या 2022 की मरक्कर और जय भीम; इनके पीछे उन मूलनिवासी बहुजन प्रतिभाओं का योगदान है, जो सदियों से हिन्दूवादी व्यवस्था के तहत शक्ति के समस्त स्रोतों के साथ मुख्यधारा के गीत-संगीत, अभिनय इत्यादि से भी बहिष्कृत व उपेक्षित रहे. सारी दुनिया में ही प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा जन्मगत कारणों से शक्ति के विभिन्न स्रोतों से बहिष्कृत तबकों में आज के लोकतान्त्रिक युग में अवसर सुलभ होने पर खुद को प्रमाणित करने की एक उत्त्कट चाह पैदा हुई है। इस कारण सारी दुनिया की महिलाएं, नीग्रो, दलित, आदिवासी इत्यादि खुद को प्रमाणित करने के क्रम में सफलता की नयी-नयी इबारतें लिख रहे है। यही काम दक्षिण भारत में फिल्मों के क्षेत्र में मूलनिवासी समुदाय के लोग कर रहे हैं. ऐसा नहीं कि दक्षिण भारत में मूलनिवासी समाजों से निकली प्रतिभाएं हिन्दू धर्म द्वारा विकसित जाति/वर्णवादी सोच से पूरी तरह मुक्त हो चुकी हैं, बावजूद इसके वे वर्ण-वादी सोच के दायरे को अतिक्रम करने में काफी हद सफल हुए हैं, इसलिए उनमे विविधता को सम्मान देने की मानसिकता विकसित हुई है। इस कारण वे विशाल बहुजन समाज की प्रतिभा का सदुपयोग करने में सफल होते दिख रहे हैं। इस मामले में पेरियार की कर्मभूमि तमिलनाडु का फिल्मोद्योग, जिसे कॉलीवुड कहा जाता है, एक अलग इतिहास रच रहा है।
पेरियार के सपनों के भारत निर्माण की ओर बढ़ता कॉलीवुड
तमिलनाडु उस थान्थई रामासामी पेरियार की जन्म व कर्मभूमि रही, जिन्होंने वर्ण-व्यवस्था और उसके प्रवर्तक आर्य ब्राह्मणों के खिलाफ ऐतिहासिक संग्राम चलाया। उनके प्रयासों से तमिलनाडु विदेशी मूल के ब्राह्मणों के प्रभुत्व से काफी हद तक मुक्त हो चुका है, जिससे कॉलीवुड भी अछूता नहीं है। इसलिए तमिलनाडु का फिल्मोद्योग भी अपने स्तर पर पेरियार के सपनों के भारत निर्माण की दिशा में योगदान कर रहा है। ऐसा करने के क्रम में अब वहां की फिल्मों में दलित प्रतिभाओं का सदुपयोग हो रहा है, जिससे वहां अलग मिजाज की फ़िल्में बन रही हैं, जो अपने विषय वस्तु के कारण अलग से दुनिया का ध्यान खींच रही हैं, जैसे जय भीम ने खींचा है। दलित प्रतिभाओं के प्रोत्साहन के कारण वहां अब ऐसी फ़िल्में बन रहीं हैं, जिनमें मुख्य पात्र दलित होते है, जो करूणा का पात्र न होकर आंबेडकरी तेवर के साथ सामने आ रहें हैं, जिसका व्यक्तिगत रूप से श्रेय पा रंजीत जैसे युवा निर्देशक को जाता हैं। उन्होंने कबाली (2016 ),काला (2018), परियेरम पेरूमल (2021) के जरिये एक नया रास्ता दिखाया है। पा रंजीत के साथ डीजे ज्ञानवेल, मारी सल्वाराज, वेत्रीरमन इत्यादि ने सामाजिक न्यायवादी फिल्मों के क्षेत्र में क्रांति घटित कर दी है, जिसका असर 2021 में देखने को मिला।
2021: दलित विषयक फिल्मों का सबसे खास वर्ष!
लम्बे समय से सामाजिक न्यायवादी फिल्मों से दूरी बनाये रखने वाला टॉलीवुड अंततः कॉलीवुड से प्रेरित 2021 में उप्पेना, लव स्टोरी और श्रीदेवी सोडा सेंटर जैसी जाति समाज की वास्तविकता सामने लाने वाली तीन धमाकेदार फ़िल्में दी, जिनमें मुख्य नायक दलित रहे। इन फिल्मों के जरिये तेलगू फिल्म इंडस्ट्री ने जातिगत भेदभाव से लेकर मुखर दलित चरित्र दिखाने की ओर कदम बढ़ा दिया है। उधर आंबेडकरी तेवर से लैस दलित नायक देने वाले कॉलीवुड के पा रंजीत तीन सालों बाद 2021 में ‘सरपट्टा परम्बराई’ लेकर सामने आये, जिसमे एक दलित बॉक्सर पूरी गरिमा के साथ दर्शकों को रोमांचित किया है। 2021 में ही मारी सेल्वराज दलित सुपर स्टार धनुष को लेकर ‘कर्णंन’ नामक एक मास्टरक्लास फिल्म दिए. पेरियार और आंबेडकर की विचारधारा से लैस तमिलनाडु के मूलनिवासी निर्माता–निर्देशकों ने सामाजिक न्याय को अग्रगति प्रदान करने के लिए फिल्मों के जरिये जो साहसिक अभियान छेड़ा है, उसी का विकसित रूप 2021 में ‘जय भीम’ के रूप में सामने आया। यह फिल्म अगर 5 बेस्ट में नॉमिनेट न हो सकी तो उसका एक अन्यतम कारण अर्थाभाव भी हो सकता है। मैंने 28 जनवरी वाले लेख में ऑस्कर में भारतीय फिल्मों की विफलता के एकाधिक कारण चिन्हित करते हुए, एक कारण यह भी बताया था कि लॉसएंजेलिस में फिल्मों के प्रमोशन पर 10 मिलियन डॉलर के बजट की जरुरत होती है और भारतीय निर्माता उसे पूरा नहीं कर पाते. हो सकता है जय भीम के निर्माता इसके प्रमोशन में अपेक्षित धनराशि खर्च करने में पीछे रह गए हों! बहरहाल पेरियार की धरती से निकली ‘जय भीम’ भले ही 94 वें ऑस्कर में इतिहास रचने से दूर गयी पर, इसने ऑस्कर के क्वार्टर फाइनल तक पहुँच कर संकेत दे दिया है कि आने वाले दिनों में दक्षिण भारत के मूलनिवासी फ़िल्मकार ऑस्कर में इतिहास रचकर दिखा देंगे! लेकिन वह दिन तब आएगा जब मूलनिवासियों का दक्षिण भारत फिल्मों की डाइवर्सिटी रिपोर्ट प्रकाशित करने की स्थिति में आयेगा।
2022 में दोहराया जा सकता है : 2002 का इतिहास!
बहरहाल मैंने 28 जनवरी अपने लेख के अंत में लिखा था,’ 79 वें गोल्डन ग्लोब्स में जय भीम की विफलता से कयास लगाया जा सकता है कि इसका भी हस्र मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान जैसा ही हो सकता है। किन्तु विविधता प्रेमियों के लिए गोल्डन ग्लोब्स से एक सुखद सन्देश मिला है। शायद यह पहला अवसर है जबकि ऑस्कर के सेमीफाइनल कहे जाने वाले गोल्डन ग्लोब्स में बेस्ट एक्टर की कैटेगरी के 5 बेस्ट में तीन अश्वेत एक्टरों : डेंजिल वाशिंग्टन, विल स्मिथ और माहेरशाला अली को जगह मिली है। इनमें विल स्मिथ के साथ एरियाना देबोस ने बेस्ट सपोर्टिंग ऐक्ट्रेस और माइकेला जो रोड्रिज ने टीवी ड्रम के लिए बेस्ट एक्ट्रेस का अवार्ड जीत कर संकेत दिया है कि 27 मार्च को लॉस एंजेलिस के डॉल्बी थियेटर में डाइवर्सिटी का रंग उसी तरह जमेगा, जैसे 2002 में डेंजिल वाशिंग्टन और हैलीबेरी के क्रमशः बेस्ट एक्टर और ऐक्ट्रेस का ट्राफी जीतने के साथ ही महान सिडनी पोयटीयर के लाइफटाइम एचीवमेंट अवार्ड पाने से जमा था.’ मेरा अनुमान काफी हद सही साबित होता दिख रहा है। ‘किंग रिचर्ड’ के लिए बेस्ट एक्टर के विजेता घोषित हुए अश्वेत महानायक विल स्मिथ; बीइंग द रिकार्डोस के लिए बेस्ट ऐक्ट्रेस चुनी गईं। आस्ट्रेलियन ब्यूटी निकोल किडमैन तथा ‘द पॉवर ऑफ़ द डॉग’ के लिए बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड जीत कर जे कैम्पियन ने जो दबदबा 79 वें गोल्डन ग्लोब्स में कायम किया था, उसकी पुनरावृति 94 वें ऑस्कर होने की सम्भावना काफी दिख रही है। न्यूजीलैंड की मूलनिवासी महिला डायरेक्टर जे कैम्पियन की ‘पॉवर ऑफ़ द डॉग’ ने 12 श्रेणियों में नॉमिनेट होकर धूम मचा दिया है। किंग रिचर्ड ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म- एक्टर- सहनायिका और सर्वश्रेष्ठ मूलकथा की चार-चार श्रेणियों में नामित होकर डाइवर्सिटी प्रेमियों को खुश कर दिया है। पिछले 11 सालों में कुल छः अश्वेत अभिनेत्रियों- मोनिक, ओक्टोविया स्पेंसर, लुपिता न्योंग, वियोला डेविस, रेजिना किंग और यूह- जंग – ने बेस्ट सहनायिका के खिताब जीते हैं। इस वर्ष एरियाना देबोस(वेस्ट साइड स्टोरी) तथा आजन्यू एलिस ‘किंग रिचर्ड’ के लिए सर्वश्रेष्ठ सहनायिका की श्रेणी में नामित होकर उसमे इजाफा की उम्मीद जगा दी है। लेकिन 27 मार्च, 2022 को डॉल्बी थियेटर में जिन दो अश्वेत शख्सियतों ने 20 वर्ष पूर्व के इतिहास को दोहराने की उम्मीद जगाई है, वे हैं विल स्मिथ और डेंजिल वाशिंग्टन, जिन्होंने 2002 के बाद फिर एक बार 2022 में क्रमशः किंग रिचर्ड, ट्रेजेडी ऑफ़ द मैकबेथ के लिए बेस्ट एक्टर की श्रेणी में नॉमिनेट होकर ऑस्कर में डाइवर्सिटी के सुनहले इतिहास को दोहराने का संकेत दे दिया है. उस बार वाशिंग्टन जीते थे, किन्तु इस बार लोगों की उम्मीदें विल स्मिथ पर टिकी हैं!
और अंत में ! इस समय 5 राज्यों में चुनाव का दौर जारी है, जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वह उत्तर प्रदेश है, जहाँ के नॉएडा में पहले से ही अधिकतर चैनलों के स्टूडियो हैं और आने वाले दिनों में यहाँ फिल्म इंडस्ट्री भी विकसित होने जा रही है। ऐसे में यहाँ चुनाव में उतरी पार्टियों को चाहिए कि वे यूपी में विकसित होने जा रही फिल्म इंडस्ट्री और पहले से स्थापित मीडिया संस्थानों में डाइवर्सिटी लागू करवाने की घोषणा करें। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यहाँ भविष्य में विकसित होने जा रही फिल्म इंडस्ट्री से मूलनिवासी दलित-बहुजन बहिष्कृत व उपेक्षित ही रहेंगे !
दुसाध बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और कैसे हो संविधान के उद्देश्यों की पूर्ति जैसी चर्चित पुस्तक के लेखक हैं।
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