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किसान आत्महत्या के सरकारी रिपोर्ट्स के दावे झूठे

कृषि क्षेत्र में रोजगार लगातार घट रहा है। भारत में 1972-73 में कृषि क्षेत्र में 74 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता था, वहीं 1993-94 में 64 प्रतिशत और अब केवल 54 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता है। इसी तरह, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 1972-73 में 41 प्रतिशत, 1993-94 में 30 प्रतिशत और अब घटकर मात्र 14 प्रतिशत रह गया है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ो के माध्यम से यह बात उभारी जा रही हैं कि देश में किसान आत्महत्याओं की संख्या में गिरावट देखी गई है। मीडिया इस मुद्दे को जोर-शोर से प्रचारित कर रहा है कि किसानों की आत्महत्याओं की संख्या में कमी आई है। उनके मुताबिक, किसान से ज्यादा मजदूर व अन्य वर्ग आत्महत्या कर रहे हैं। इस मामले की जड़ तक जाने के लिए पंजाब में आत्महत्या के मुद्दे पर विचार करना ज़रूरी है, क्योंकि यहां इस गंभीर मुद्दे पर घर-घर जाकर सर्वे के आधार पर अध्ययन किये गए हैं।

पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों (पंजाब कृषि विश्वविद्यालय- लुधियाना, पंजाबी विश्वविद्यालय- पटियाला और गुरुनानक देव विश्वविद्यालय- अमृतसर) की रिपोर्ट्स से यह स्पष्ट होता है कि आत्महत्या करने वालों की संख्या कितनी है और इसके क्या कारण हैं?

वर्ष
 एनसीआरबी – पंजाब के सभी
23 जिलों  में आत्महत्या के                   आकंड़े
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय – पंजाब के सिर्फ 6 जिलों  में किसान आत्महत्या के                              आकंड़े
   खेत मजदूर
किसान कुल  खेत मजदूर  किसान कुल
2015 24 100 124 399 537 936
2016 48 232 280 230 288 518
2017 48 243 291 303 308 611
2018 94 299 323 392 395 787
 कुल 214 804 1018 1324 1528 2852

एनसीआरबी के मुताबिक, 2015 से 2018 तक पंजाब में किसानों और खेत मजदूरों की 1018 आत्महत्याएं हुईं, जबकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पीएयू) के एक सर्वेक्षण में 2015 से 2018 के बीच 2852 आत्महत्याएं  सामने आईं। पीएयू, लुधियाना ने छह जिलों- लुधियाना, मोगा, बठिंडा, संगरूर, बरनाला और मानसा का सर्वेक्षण किया। इससे ज्ञात हुआ कि एनसीआरबी की आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में 124 के मुकाबले 936 आत्महत्याएं, 2016 में 280 के मुकाबले 518, 2017 में 291 के मुकाबले 611 आत्महत्याएं और 2018 में 323 के मुकाबले 787 आत्महत्याएं हुईं। ध्यान रहें, पीएयू के इस सर्वेक्षण में केवल ढाई हजार गांवों को ही शामिल किया गया है। अगर पंजाब के बाकी 10 हजार गांवों का सर्वे किया जाए तो हकीकत सामने आएगी। 2018 के बाद से किसी भी विश्वविद्यालय या संस्था ने इस विषय पर सर्वेक्षण या अध्ययन नहीं किया है लेकिन एनसीआरबी के अनुसार 2019 में 302 और 2020 में 257 आत्महत्याएं हुईं। दरअसल, पंजाब में हर साल किसानों और मजदूरों की 900 से 1000 आत्महत्याएं हो रही हैं जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड केवल 200 से 300 आत्महत्याओं को ही दर्शाता है।

पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा किये सर्वेक्षणों में सामने आया है कि 2000 से 2018 के बीच राज्य में करीब 16,600 लोगों ने आत्महत्या की है, जिनमें से लगभग 9300 किसानों ने आत्महत्या की है और लगभग 7300 खेत मजदूरों ने। हर दिन करीब दो किसान और एक मजदूर अपनी जान दे देते हैं। इन किसान व खेत मजदूरों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण भारी-भरकम कर्ज है। यह स्पष्ट है कि किसान आत्महत्या की घटना ने बहुत गंभीर मोड़ लिया है लेकिन मीडिया व सरकार इसे नकारने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है।

भारत में बड़े पैमाने पर आत्महत्या का चलन नई आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद 1990 के दशक के अंत से ही देखा जा सकता है। एनसीआरबी के अनुसार, 1997 से 2006 के बीच भारत में 1095219 लोगों ने आत्महत्या की। इसमें से 166304 किसान शामिल हैं। यह आंकड़ा अब बढ़कर करीब साढ़े चार लाख हो गया है। पिछले वर्षों की रिपोर्टों के अनुसार, किसानों में आत्महत्या की दर बाकी आबादी की तुलना में बहुत अधिक है। जहां आम जनसंख्या में प्रति एक लाख पर 10.6 लोग आत्महत्या करते हैं, वहीं किसानों में प्रति एक लाख पर 15.8 आत्महत्या की घटनाएं होती हैं। इसके बाद ‘किसान’ की परिभाषा में बदलाव कर आत्महत्याओं की संख्या को कम करने का प्रयास किया गया। दरअसल, एनसीआरबी की रिपोर्ट मुख्य रूप से पुलिस रिकॉर्ड पर आधारित होती है। बड़ी संख्या में आत्महत्या के मामले पुलिस रिकॉर्ड में नहीं हैं क्योंकि लोग कानूनी जटिलताओं से बचने के लिए पोस्टमार्टम या पुलिस नोटिस के बिना दाह संस्कार करते हैं। नतीजतन, आत्महत्याओं की संख्या वास्तव में जितनी है उससे बहुत कम दिखाई जाती है। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में हर घंटे औसतन दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यदि पंजाब की तरह अन्य राज्यों में भी सर्वेक्षण किए जाए तो किसानों की आत्महत्याओं की संख्या कई गुना अधिक होगी।

खेती का लाभदायक ना होना, किसानों व खेत मजदूरों की आत्महत्या का कारण है। खेती की बढ़ती लागत और तुलनात्मक रूप से फसल की कम कीमतों के कारण आय और व्यय का बढ़ता अंतर खेती परिवारों को आर्थिक संकट की ओर धकेल रहा है। ऐसे में किसानों व मजदूरों को गंभीर संकट का सामना करना पड़ रहा है। छोटे और सीमांत किसान खेती छोड़ने को मजबूर हैं। भारत में हर दिन 2,500 किसान खेती छोड़ देते हैं। नए तीन कृषि कानूनों से तो बड़े किसान भी कृषि से बाहर हो जाएंगे।

कृषि क्षेत्र में रोजगार लगातार घट रहा है। भारत में 1972-73 में कृषि क्षेत्र में 74 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता था, वहीं 1993-94 में 64 प्रतिशत और अब केवल 54 प्रतिशत लोगों को रोजगार देता है। इसी तरह, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 1972-73 में 41 प्रतिशत, 1993-94 में 30 प्रतिशत और अब घटकर मात्र 14 प्रतिशत रह गया है। इतना ही नहीं, खेत-मजदूरों की उत्पादकता अन्य क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों की उत्पादकता की तुलना में काफी कम है। स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के निजीकरण और जीवन-यापन की बढ़ती लागत ने किसानों व मजदूरों की दुर्दशा को ओर भी दयनीय बना दिया है। बच्चों को महंगी शिक्षा मुहैया कराने के बावजूद रोजगार के अवसरों की कमी ने लोगों को लाचारी की स्थिति में धकेल दिया है। प्रवास की प्रक्रिया भी इन्हीं परिस्थितियों से उत्पन्न होती है।

[bs-quote quote=” पंजाब के तीन विश्वविद्यालयों द्वारा किये सर्वेक्षणों में सामने आया है कि 2000 से 2018 के बीच राज्य में करीब 16,600 लोगों ने आत्महत्या की है, जिनमें से लगभग 9300 किसानों ने आत्महत्या की है और लगभग 7300 खेत मजदूरों ने। हर दिन करीब दो किसान और एक मजदूर अपनी जान दे देते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कृषि के पूँजीवादी मॉडल और वैश्वीकरण की नीतियों द्वारा कृषि क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी व रियायतें भी समाप्त हो गईं और अंतरराष्ट्रीय बाजार के प्रभाव के कारण फसलों के उचित मूल्य भी मिलना बंद हो गया। इससे किसान का शुद्ध लाभ कम हो गया और वे कर्ज के जाल में फंस गए। कर्ज बढ़ने का मुख्य कारण किसानों की वास्तविक आय में गिरावट है। आज पंजाब के कृषि क्षेत्र पर 1 लाख करोड़ रुपये का कर्ज है, जो औसतन 10 लाख रुपये प्रति परिवार है। इस कर्ज पर ब्याज सवा लाख सालाना बनता है। कर्ज, आमदनी से दो से ढाई गुना ज्यादा है। इस स्थिति को दिवालियापन कहा जाता है।  अधिकतर छोटे किसान ब्याज भी नहीं चुका पा रहे हैं। नतीजतन, कर्ज और आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं, लेकिन सरकारी आंकड़े कम आत्महत्याएं दिखाते हैं।

केवल राजनीतिक नारों या आँकड़ों में हेरफेर करने से किसान आत्महत्या की समस्या का समाधान नहीं होगा। ऐसा करने के लिए कृषि संकट का समाधान करना बहुत ज़रूरी है। सबसे पहला कदम कर्ज का खात्मा करना है। कर्ज और आर्थिक तंगी के कारण आत्महत्या करने वाले परिवारों को मुआवजा दिया जाना चाहिए। सभी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य ही नहीं बल्कि लाभकारी मूल्य की भी कानूनी गारंटी दी जानी चाहिए। सरकारी संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए। सहकारी कृषि मॉडल के माध्यम से कृषि-जलवायविक क्षेत्रों के अनुसार प्राथमिकता वाली फसल की खेती और संबद्ध व्यवसायों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कृषि जोन (Agriculture Zone) के अनुसार कृषि-प्रसंस्करण और विपणन इकाइयों की स्थापना की जानी चाहिए। करीब एक साल से नए कृषि कानूनों के खिलाफ संघर्ष कर रहे किसानों की दशा और भावना को समझने की ज़रुरत है। भारत की बड़ी आबादी को केवल कृषि क्षेत्र में ही सम्मिलित किया जा सकता है, क्योंकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में पूरी आबादी को रोजगार देना संभव नहीं है। लोगों को गांवों से उजाड़कर शहरों में स्थानांतरित करने के बजाय, ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आधारित इकाइयां स्थापित की जानी चाहिए। अब कृषि क्षेत्र को लाभदायक बनाना और श्रम शक्ति को बेहतर रोजगार उपलब्ध कराना अत्यंत आवश्यक है। इसलिए आत्महत्या के इस कलंक को न केवल कागज पर बल्कि हकीकत में भी मिटाना और सभी मनुष्यों को स्थायी व गुणवत्तापूर्ण जीवन प्रदान किया जाना चाहिए।

लेखक प्रमुख अर्थशास्त्री हैं और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में प्राध्यापक हैं।

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