भगत सिंह को मैं अपना आदर्श क्यों नहीं मानता? (डायरी 15 अगस्त, 2022 की शाम)

नवल किशोर कुमार

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भारतीय फिल्मों ने भारतीय समाज को बहुत कुछ दिया है। हालांकि यही बात हर मुल्क की फिल्मों के बारे में कही जा सकती है। चूंकि मैं भारत का हूं तो अपने जीवन में और अपने आसपास भारतीय फिल्मों का प्रभाव महसूस करता हूं। जिन प्रभावों की बात मैं कर रहा हूं, उनमें रोजाना की जिंदगी में हुए बदलाव भी शामिल हैं। फिल्मों ने एक ओर रोमांस करना सिखाया है तो हिंसा के प्रसार में भी इसकी अहम भूमिका रही है। लेकिन इन सबके अलावा भारतीय फिल्मों ने दो काम और भी किये हैं। एक तो अंधविश्वास को बढ़ावा दिया है और दूसरा इसने राष्ट्रवाद की भावना का विस्तार किया है। मैं तो स्वयं अपनी बात करता हूं। एक समय था जब फिल्मों के तथाकथित आजादी के तराने रेडियो पर बजते थे तब मेरी भुजाएं भी फड़कने लगती थीं। लेकिन वह दौर मेरी नासमझी का था।
हर व्यक्ति के जीवन में नासमझी का एक दौर होता ही है। कुछ तो आजीवन नासमझ बने रहते हैं। हालांकि नासमझी की परिभाषा भी एक जैसी नहीं होती। यह भी सापेक्षवाद के सिद्धांत के अनुरूप ही होता है। लेकिन साहित्य मनुष्य को इससे मुक्त होने सहायता करती है। आदमी जब तमाम तरह के विचारों को पढ़ता-समझता है तब उसके पास सोचने-विचारने के अनेक विकल्प होते हैं।
एक उदाहरण भगत सिंह का है। उनका जन्म 28 सितंबर, 1907 को हुआ था और उन्हें 23 मार्च, 1931 को फांसी दी गई थी। यह बेहद खास कालखंड था। तब दो चीजें भारत में बहुत खास हो रही थीं। एक तो यह कांग्रेस देश में सबसे बड़ा राजनीतिक दल बन चुका था। दूसरा आर्य समाज का प्रभाव बड़ी तेजी से बढ़ रहा था। दोनों का मिश्रित प्रभाव भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दे रहा था। इस बीच प्रथम विश्व युद्ध और रूस में हुए शासकीय बदलाव ने रेडिकल मूवमेंट को मजबूत किया। इसका प्रभाव भी भारत में हुआ और बड़ी संख्या में लोग इससे प्रभावित हुए।

अंग्रेजों ने भारत को जो सबसे बड़ी सौगात दी, वह न्यायपालिका है। इसी न्यायपालिका ने भारत को अक्षुण्ण बनाए रखने में अहम भूमिका का निर्वहन अब तक किया है। मेरे कहने का आशय यह कि अंग्रेजों ने तीनों आरोपियों को उनका पक्ष रखने के लिए पर्याप्त समय दिया। मैं तो आज के दौर में देख रहा हूं कि आनंद तेलतुंबड़े और गौतम नवलखा जैसे लोगों को यह मौका नहीं दिया जा रहा है। फादर स्टेन स्वामी को तो जिंदा ही मार दिया गया।

रेडिकल एप्रोच हमेशा लोगों को सत्य से दूर रखता है। यह निर्विवाद सत्य है। वर्ना यह सोचिए कि जिस 1927 में भगत सिंह को लाहौर में काकोरी कांड (9 अगस्त, 1925) के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था, उन दिनों ही डॉ. आंबेडकर महाड़ सत्याग्रह कर रहे थे। कितना अलग दृष्टिकोण था दोनों के बीच। एक आंबेडकर अछूत जातियों को उनका अधिकार दिलाने के लिए संघर्षरत थे और उनका तरीका अहिंसक था। वे सत्याग्रह कर रहे थे। दूसरी ओर भगत सिंह शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे उग्रपंथी लोगों के साथ मिलकर काम कर रहे थे।

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खैर, यह कोई मौका नहीं है कि राम प्रसाद बिस्मिल और अन्य क्रांतिकारियों को वैचारिक कटघरे में खड़ा किया जाय, क्योंकि मुझे यह लगता है कि उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों का असर रहा होगा। लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर भगत सिंह किस तरह की क्रांति कर रहे थे। मुझे तो साइमन कमीशन का भारतीयों द्वारा विरोध सवर्ण जातियों का विरोध लगता है। साइमन कमीशन का गठन और इसके इतिहास के बारे में अध्ययन करें तो आप यह पाएंगे कि यह आयोग भारत के उन तबकों को राजनीतिक और वैधानिक अधिकार दिलाने के लिए गठित किया गया था। आखिर मैं नास्तिक क्यों हूं के लेखक भगत सिंह को इससे क्या परेशानी हो सकती थी? 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में लाला लाजपत राय पर अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा बल प्रयोग तब किया गया जब वे साइमन कमीशन के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन में भाग ले रहे थे। बाद में उनकी मृत्यु 17 नवंबर, 1928 को हो गई। अब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने मिलकर 17 दिसंबर, 1928 को उस अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या कर दी, जिसने 30 अक्टूबर, 1928 को हुए विरोध प्रदर्शन पर बल प्रयोग का आदेश दिया था। सांडर्स की हत्या के मामले में ही भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को फांसी दी गई।
अब यहां एक सवाल यह उठता है कि अंग्रेजों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ाने में इतनी देर क्यों किया? कोई तो वजह रही होगी? मुझे लगता है कि इसकी वजह थी। अंग्रेजों ने भारत को जो सबसे बड़ी सौगात दी, वह न्यायपालिका है। इसी न्यायपालिका ने भारत को अक्षुण्ण बनाए रखने में अहम भूमिका का निर्वहन अब तक किया है। मेरे कहने का आशय यह कि अंग्रेजों ने तीनों आरोपियों को उनका पक्ष रखने के लिए पर्याप्त समय दिया। मैं तो आज के दौर में देख रहा हूं कि आनंद तेलतुंबड़े और गौतम नवलखा जैसे लोगों को यह मौका नहीं दिया जा रहा है। फादर स्टेन स्वामी को तो जिंदा ही मार दिया गया।
बहरहाल, मूल बात यह है कि भगत सिंह के पास विकल्प थे। यह बात उन्होंने स्वयं अपने आलेख मैं नास्तिक क्यों हूं? में परोक्ष रूप से कबूल भी किया है।

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खैर, भगत सिंह के बारे में यह अति संक्षिप्त टिप्पणी इस संदर्भ में है क्योंकि आज ही मैंने एक पोस्ट में लिखा कि यदि भगत सिंह हिंसक न होते तो मेरे भी आदर्श होते। वैसे इस बारे में मुझे लगता है कि एक विस्तृत आलेख की आवश्यकता है। फिलहाल तो इसके लिए मुझे कुछ और किताबों का अध्ययन करना ही होगा। लेकिन एक बात, जिसमें मेरी पूर्ण विश्वास है, वह है अहिंसा। दुनिया में हिंसा के कारण हुआ बदलाव स्थायी बदलाव नहीं होता और वह सकारात्मक भी नहीं होता।
फिलहाल शाम होने को है और अकेलापन मुझे प्रभावित कर रहा है। सोच रहा हूं सूरज से कहूं–
जाओ सूरज, आज मैं तन्हां हूं।
तुम जाओ कि रात हो,
अंधेरे से कुछ बात हो,
उसी से कहूं कि आज मैं तन्हां हूं।
हर पहर खुली रहेंगीं मेरी आंखें,
रह-रहकर आती रहेंगीं यादें,
गोया हो इलहाम कि आज मैं तन्हां हूं।
सिमट जाओ कमरे के कोनों,
चंद बातें करें हम दोनों,
और सुनो तुम भी कि आज मैं तन्हां हूं।
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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