Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमसंस्कृतिकफन कहानी विरोधाभासों का पुलिंदा है

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

कफन कहानी विरोधाभासों का पुलिंदा है

कफ़न प्रेमचन्द की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। इस कहानी के कथ्य को लेकर तमाम चर्चाएँ हुई हैं। उनकी तमाम कहानियों के बरक्स इस कहानी के पाठक अधिक रहे हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि इस कहानी ने देश-काल-स्थान की सीमा तोड़कर अपना पाठक वर्ग तैयार किया। कालान्तर में जब दलित समाज में शिक्षित […]

कफ़न प्रेमचन्द की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। इस कहानी के कथ्य को लेकर तमाम चर्चाएँ हुई हैं। उनकी तमाम कहानियों के बरक्स इस कहानी के पाठक अधिक रहे हैं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि इस कहानी ने देश-काल-स्थान की सीमा तोड़कर अपना पाठक वर्ग तैयार किया। कालान्तर में जब दलित समाज में शिक्षित वर्ग खड़ा हुआ तो उसमें भी सर्वाधिक पाठक इस कहानी के हुए। दलित समाज ने इस कहानी में वर्णित दलित जीवन संदर्भ में अपनी राय भी दी और तमाम सवाल इस कहानी के संबन्ध में उपस्थित किये। आखिर इस कहानी में ऐसा क्या था कि दलित समाज प्रतिक्रियात्मक हो उठा। इसको जानने के लिए एक दृष्टि कफ़न कहानी के कथ्य पर डालना अनिवार्य हो जाता है।

कफ़न गाँव के चमार कुनबे के उस परिवार की कहानी है जो बहुत गरीब है, जिसके पास घर के नाम पर छप्पर, बर्तन के नाम पर मिट्टी के दो-चार बर्तन, कपड़े के नाम पर फटे-चीथड़े के सिवा कुछ भी नहीं। इस परिवार में कुल तीन सदस्य हैं-घीसू, माधव और बुधिया। बुधिया, माधव की पत्नी है। बुधिया जब प्रसव वेदना से कराह रही थी तब दोनों बाप-बेटे (घीसू-माधव) अपनी क्षुधा तृप्ति के लिए अलाव में भुने हुए आलू का आनन्द उठा रहे थे। धनाभाव का बहाना बनाकर वे दवा-दारू की जिम्मदारी से मुक्त हो रहे थे। सुबह होते ही पता चलता है कि बुधिया का देहावसान हो गया है। गाँव वाले चन्दा देकर घीसू-माधव को कफन लाने के लिए भेजते हैं पर वे कफन न खरीदकर शराब पी जाते हैं। दोनों निहायत ही गैर-जिम्मेदार, कामचोर और निठल्ले हैं।

[bs-quote quote=”कफन कहानी के संदर्भ में मैं एक बात निःसंदेह कह सकता हूँ कि यह कहानी अपने कथानक के विरोधाभासों की वजह से दलित विरोधी कहानी साबित होती है। इस कहानी के विरोधाभासों की वजह से उनकी दलित जीवन से जुड़ी अन्य कहानियों की प्रासंगिकता और दलितों के प्रति उनकी संवेदनशीलता सवालों के घेरे में आ जाती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

इस कहानी को लेकर परम्परावादी चिन्तकों और दलित चिन्तकों में मतैक्य नहीं हैं। परम्परावादी चिन्तकों का मानना है कि यह कहानी परजीवियों पर केन्द्रित है। ये परजीवी समाज के किसी भी वर्ग में हो सकते हैं। इसका दलित समाज की किसी जाति विशेष से कोई संबन्ध नहीं है। इसके साथ-साथ वे इस कहानी को दलित चेतना की कहानी बताते हैं। दलित चिन्तक, परम्परावादी चिन्तकों के इस विचार को एक सिरे से अस्वीकार करते हुए इसे दलित अवमानना की कहानी घोषित करते हैं। मैं यहाँ पर दोनों तरह के चिन्तकों के किसी विचार का उल्लेख नहीं करूंगा। क्योंकि उनके विचारों से हम बखूबी परिचित हैं। इस कहानी से पूर्व प्रेमचन्द ने सद्गति, ठाकुर का कुआँ जैसी महत्वपूर्ण कहानियाँ दलित जीवन को आधार बनाकर लिखी हैं। दलित चिन्तकों ने इन कहानियों पर सवाल बहुत कम उठाये हैं। कारण यही है कि इन कहानियों का कथानक विरोधाभाषी नहीं हैं। कफन कहानी के संदर्भ में मैं एक बात निःसंदेह कह सकता हूँ कि यह कहानी अपने कथानक के विरोधाभासों की वजह से दलित विरोधी कहानी साबित होती है। इस कहानी के विरोधाभासों की वजह से उनकी दलित जीवन से जुड़ी अन्य कहानियों की प्रासंगिकता और दलितों के प्रति उनकी संवेदनशीलता सवालों के घेरे में आ जाती है।

जाति-विद्वेष का खुला इजहार

कहानी के शुरुआत में प्रेमचन्दजी लिखते हैं कि ‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम।’’(प्रेमचन्द रचना संचयन, संपादक- निर्मल वर्मा एवं कमल किशोर गोयनका, साहित्य अकादमी प्रकाशन, रवीन्द्र भवन, 35, फिरोजशाह मार्ग, नई दिल्ली- 110001, संशोधित संस्करण: 2010, पृ. 219)। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह कहानी दलित समाज के जीवन पर केन्द्रित है। कथन से यह भी स्पष्ट है कि घीसू और माधव चमार जाति के हैं। प्रेमचन्द बिना किसी संशय के स्पष्ट रूप से यह बात लिख रहे हैं। यदि इस कहानी का मूल्यांकन करना है तो कहानी के इस तथ्य को स्वीकार करके ही किया जा सकता है। अन्यथा कहानी का मूल्यांकन अधूरा और विवादास्पद ही रहेगा। चूंकि प्रेमचन्द किसी गाँव का नाम नहीं लिख रहे हैं, इसलिए यह भी स्पष्ट है कि उनका यह कथन देश के हर एक चमार कुनबे पर लागू होता है। यदि उन्होंने किसी एक गाँव के कुनबे के बारे में लिखा होता तो उस गाँव के नाम का उल्लेख जरूर करते, चाहे वह काल्पनिक ही सही। स्पष्ट है कि इस कहानी में जो कुछ भी लिखा है वह देश के सम्पूर्ण चमार जाति को केन्द्र में रखकर लिखा है।

[bs-quote quote=”गाँव में जब भी कोई मर जाता है तो कफन के लिए गाँव के लोग चंदा उगाही का कार्यक्रम नहीं शुरू करते हैं। बल्कि ऐसे समय में गाँव के हर घर से,चाहे वे कितने ही गरीब क्यों न हो, स्वतः कफन खरीदकर आता है। मृतक से संबंधित परिवार का भी एक कफन उसमें होता है, इसके लिए यह जरूरी नहीं होता है कि वह खुद दुकान पर जाकर कफ़न खरीद कर लाये। गाँव का कोई भी व्यक्ति उसके हिस्से का कफ़न लाकर दे देता है। चूंकि बुधिया के व्यवहार से गाँव का हर एक व्यक्ति संतुष्ट था, इसलिए कफ़न की समस्या खड़ी करना लेखक की अपनी कल्पना है न कि दलित समाज की संवेदनहीनता। दूसरी बात यह कि गाँव के जो लोगबाँस-वाँस काट रहे थे, वे घीसू और माधव के चरित्र से पहले से परिचित थे, उनमें से किसी एक को कफ़न खरीदने के लिए साथ जाना चाहिए था। एक बात यह कि दलित समाज के किसी भी जाति में लाश को लावारिस छोड़ देने की परंपरा नहीं है, तो लेखक ने लाश को लावारिस छोड़कर जाने वाले ऐसे पात्रों को कहाँ से प्राप्त किया?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कहानी में घीसू और माधव का परिचय कराते समय लेखक उनके दुर्गुणों को गिनाता है- ‘घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी।’’ (उपरोक्त, पृ. 219)। इससे इतना पता चलता है कि वे दोनों चिलम पीने के शौकीन थे। कहानी के तीसरे भाग में लेखन ने अचानक उन्हें शराबी बना दिया- ‘..घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा- साहुजी, एक बोतल हमें भी देना। इसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आयी और दोनों बरामदे में बैठकर शांतिपूर्वक पीने लगे।’ (उपरोक्त, पृ. 223)। वे जिस तरह से शराब पीते हुए दिखाये गये हैं उससे हैबिचुअल ड्रिंकर नजर आते हैं। लेखन ने उनका परिचय कराते समय उनके शराब के शौक का जिक्र तक नहीं किया है। केवल चीलम पीने वाला व्यक्ति अचानक कैसे शराबी बन गया? यह प्रश्न पाठक को बहुत परेशान करता है। क्या लेखक को इतनी आजादी होती है कि बिना कारण बताये किसी भी पात्र के चरित्र में जब जो चाहे वही दुर्गुण आरोपित कर सकता है? कफन के पैसे से शराब पीना और मीट-मछली खाना, ऐसा घिनौना काम किसी दलित ने किया हो, आज तक भारतीय समाज के इतिहास के किसी पन्ने पर मेरे हिसाब से नहीं मिलता। प्रेमचन्द किस भारतीय समाज में जी रहे थे, जहाँ से उनको दलित समाज के ऐसे पात्र मिल जाते हैं। यह काम संवेदनहीन आभिजात्य समाज ही कर सकता है। उनके ऐसे कारनामों से भारतीय इतिहास के पन्ने भरे पड़े है। प्रेमचन्द ने सामंती समाज की मानसिकता को इस कहानी के माध्यम से दलित समाज पर आरोपित किया है।

लेखक कहानी की शुरुआत बुधिया के प्रसव-वेदना से करता है- ‘‘झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अंदर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देनेवाली आवाज निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अंधकार में लय हो गया था।’ (उपरोक्त, पृ. 219)। इस प्रसंग में बुधिया झोंपड़े के अंदर अकेले है। उसके साथ कोई नहीं है। कहानी में आगे लेखक लिखता है कि ‘और दोपहर को घीसू और माधव बाजार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे’। गाँव की नरमदिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।’(उपरोक्त, पृ. 223)

क्या ऐसा होना स्वाभाविक है ?

कहानी में आये हुए दोनों प्रसंग एकदम विरोधाभासी हैं। यदि गाँव में स्त्रियाँ थीं तो रात में जब बुधिया प्रसव-वेदना से कराह रही थी, उस समय उनकी सांत्वना की जरूरत अधिक थी, न कि मर जाने के बाद। जिस तरह से बुधिया के शव पर उनको आँसू बहाते हुए दिखाया गया है, इससे यही लगता है कि वे औरतें बेहद संवेदनशील हैं। लेकिन बुधिया की मृत्यु से पहले इस तरह की किसी एक भी स्त्री की उपस्थिति कहानी में नहीं है। कहानी में अचानक कई संवेदनशील स्त्रियों को उपस्थित कर देना, स्त्री जाति की संवेदनशीलता पर प्रश्न खड़ा करता है।

[bs-quote quote=”दलित समाज के पुरुषों की स्त्रियों के प्रति संवेदनहीन होने का परिचय देता है। लेखक यह स्पष्ट लिखता है कि घीसू और माधव झोपड़े के बाहर बैठकर बुधिया के मरने का इंतजार कर रहे थे। यह अवसर बुधिया के प्रसव-वेदना का था। जब किसी औरत की प्रसव-वेदना शुरू होती है, उस समय उस घर का पुरुष संतान सुख के लिए बेसब्री से इंतजार करता रहता है, न कि प्रसव वेदना से कराह रही स्त्री के मर जाने की कामना करता है। दलित समाज में स्त्री और पुरुष साहचर्य की संस्कृति है। स्त्री और पुरुष साथ-साथ काम करते हैं। वे एक-दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं। हमेशा एक-दूसरे के सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं। स्त्रियाँ, पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। ऐसे समाज में स्त्री की प्रसव वेदना के दौरान उसकी मृत्यु की कामना करने वाले अतिसंवेदनशून्य पुरुष को केवल कहानी लिखने के उद्देश्य से उपस्थित कर देना, पूरे दलित समाज के साथ लेखक द्वारा बहुत बड़ा अन्याय है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

लेखक यह लिखता है कि घीसू और माधव दोनों कफन खरीदने के लिए बाजार चले जाते हैं। यह प्रसंग पूरे ग्रामीणों की संवेदनहीनता का परिचय देता है। गाँव में जब भी कोई मर जाता है तो कफन के लिए गाँव के लोग चंदा उगाही का कार्यक्रम नहीं शुरू करते हैं। बल्कि ऐसे समय में गाँव के हर घर से,चाहे वे कितने ही गरीब क्यों न हो, स्वतः कफन खरीदकर आता है। मृतक से संबंधित परिवार का भी एक कफन उसमें होता है, इसके लिए यह जरूरी नहीं होता है कि वह खुद दुकान पर जाकर कफ़न खरीद कर लाये। गाँव का कोई भी व्यक्ति उसके हिस्से का कफ़न लाकर दे देता है। चूंकि बुधिया के व्यवहार से गाँव का हर एक व्यक्ति संतुष्ट था, इसलिए कफ़न की समस्या खड़ी करना लेखक की अपनी कल्पना है न कि दलित समाज की संवेदनहीनता। दूसरी बात यह कि गाँव के जो लोगबाँस-वाँस काट रहे थे, वे घीसू और माधव के चरित्र से पहले से परिचित थे, उनमें से किसी एक को कफ़न खरीदने के लिए साथ जाना चाहिए था। एक बात यह कि दलित समाज के किसी भी जाति में लाश को लावारिस छोड़ देने की परंपरा नहीं है, तो लेखक ने लाश को लावारिस छोड़कर जाने वाले ऐसे पात्रों को कहाँ से प्राप्त किया?

इस कहानी में लेखक एक जगह लिखता है कि ‘माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आई थी, उसने इस खानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-ग़ैरतों का दोज़ख भरती रहती थी। जब से वह आई, यह दोनों और भी आराम तलब हो गये थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने के लिए बुलाता तो निर्ब्याज भाव से दुगुनी मजदूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों शायद इसी इंतजार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोएँ।” (उपरोक्त, पृष्ठ 220)

[bs-quote quote=”इस कहानी में जितने भी तथ्य आये हैं वे अपने आप में ही विरोधाभासी हैं। उनका यथार्थ जीवन और समाज से किसी तरह से कोई संबन्ध स्थापित होता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक लगती है। यह लेखक के व्यक्तिगत सामाजिक संस्कारों से निकली कहानी है। लेखक ने ठाकुर का कुआँ और सद्गति कहानी लिखकर, दलित समाज के प्रति संवेदनशील होने का जो झूठा आडम्बर रचाया था, यह कहानी उससे परदा हटाती है और लेखक की दलित समाज के प्रति वास्तविक नियति को दर्शाती है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

समय और व्यवहार का मनमाना इस्तेमाल

इस संदर्भ में स्पष्ट है कि माधव का बुधिया के साथ ब्याह हुए अभी एक ही वर्ष हुए थे। स्वाभाविक है उसके मायके में माँ, बाप, भाई, बहिन आदि में से कोई न कोई जरूर रहा होगा। इस एक वर्ष के अंदर लेखक ने किसी ऐसी आपदा का जिक्र नहीं किया है जिसमें इन सभी की मृत्यु हो चुकी हो। दलित समाज में यह परंपरा रही है कि किसी भी औरत की पहली संतान उसके मायके में पैदा होती है। जिस औरत के साथ ऐसा संभव नहीं होता है तो प्रसव के अंतिम महीने में उसकी देख-रेख के लिए उसके मायके की कोई औरत जरूर साथ में रहती है। क्या दलित समाज की बुधिया इसकी हकदार नहीं थी? क्या बुधिया के मायके के लोग इतने अधिक संवेदनहीन थे कि वे उसका ब्याह करने के बाद उससे मुँह मोड़ लिये? उनके मुँह मोड़ने के पीछे क्या वजह हो सकती है? कहानी का यह प्रसंग संवेदनशील समाज के सामने इस तरह के कई प्रश्न खड़े करता है।

कहानी के इसी प्रसंग का दूसरा हिस्सा दलित समाज के पुरुषों की स्त्रियों के प्रति संवेदनहीन होने का परिचय देता है। लेखक यह स्पष्ट लिखता है कि घीसू और माधव झोपड़े के बाहर बैठकर बुधिया के मरने का इंतजार कर रहे थे। यह अवसर बुधिया के प्रसव-वेदना का था। जब किसी औरत की प्रसव-वेदना शुरू होती है, उस समय उस घर का पुरुष संतान सुख के लिए बेसब्री से इंतजार करता रहता है, न कि प्रसव वेदना से कराह रही स्त्री के मर जाने की कामना करता है। दलित समाज में स्त्री और पुरुष साहचर्य की संस्कृति है। स्त्री और पुरुष साथ-साथ काम करते हैं। वे एक-दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर रहते हैं। हमेशा एक-दूसरे के सहयोग के लिए तत्पर रहते हैं। स्त्रियाँ, पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं। ऐसे समाज में स्त्री की प्रसव वेदना के दौरान उसकी मृत्यु की कामना करने वाले अतिसंवेदनशून्य पुरुष को केवल कहानी लिखने के उद्देश्य से उपस्थित कर देना, पूरे दलित समाज के साथ लेखक द्वारा बहुत बड़ा अन्याय है। लेखक को यदि इस तरह के पात्र दलित समाज में दिखाई पड़ रहे थे तो उस गाँव और उस कुनबे का जिक्र जरूर करना चाहिए था जहाँ वे दिख रहे थे। अब यह जिम्मेदारी उन चिन्तकों की है जो लगातार इस कहानी की वकालत करते हुए कह रहे हैं कि यह दलित समाज के अपमान की कहानी नहीं है। यदि दलित समाज में घीसू और माधव जैसे लोग हैं, उन्हें खोजकर समाज के सामने उपस्थित करना ऐसे चिन्तकों की नैतिक जिम्मेदारी है।

स्वर्ग नरक की विरोधाभासी अवधारणा

कहानी में इसी तरह स्वर्ग, नरक, बैकुण्ठ आदि विरोधाभासी अवधारणा उपस्थित की गयी है। घीसू और माधव के मुँह से दार्शनिक बातें करायी गयी हैं। इससे कहानी में इस बात पर जोर दिया गया है कि दलित समाज में आध्यामिक और दार्शनिक बात करने वाला व्यक्ति संवेदनशून्य होता है। दलित समाज में एक आध्यामिक और दार्शनिक बात करने वाला व्यक्ति कबीर और रैदास के आदर्शों पर चलता है। इस तरह का व्यक्ति श्रम से दूर नहीं भागता बल्कि श्रम में लिप्त रहता है। वह स्त्री विरोधी नहीं होता है। वह संवेदनशून्य नहीं होता है। वह गैर-जिम्मेदार और चरित्रहीन नहीं होता है। इसी संदर्भ में एक बात की तरफ इसारा करना जरूरी है कि चमारों के उस कुनबे के किसी व्यक्ति द्वारा घीसू और माधव के अमानवीय व्यवहार का विरोध नहीं किया जाता है।

निष्कर्षतः हम यह कह सकते हैं कि इस कहानी में जितने भी तथ्य आये हैं वे अपने आप में ही विरोधाभासी हैं। उनका यथार्थ जीवन और समाज से किसी तरह से कोई संबन्ध स्थापित होता हुआ नहीं दिखाई पड़ता। यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक लगती है। यह लेखक के व्यक्तिगत सामाजिक संस्कारों से निकली कहानी है। लेखक ने ठाकुर का कुआँ और सद्गति कहानी लिखकर, दलित समाज के प्रति संवेदनशील होने का जो झूठा आडम्बर रचाया था, यह कहानी उससे परदा हटाती है और लेखक की दलित समाज के प्रति वास्तविक नियति को दर्शाती है। इस कहानी में बुधिया के प्रसंग में जैसा चरित्र घीसू और माधव का उभारा गया है शायद ही चमार जाति के किसी व्यक्ति के ऊपर लागू होता हो। चमार जाति पति-पत्नी के साहचर्य की परिचायक है। धनाभाव के कारण पति-पत्नी में कभी-कभार तीखी नोक-झोंक के दृश्य तो मिलते रहते हैं जो कि समयान्तराल पर उनके रागात्मक संबंधों के तले क्षीण हो जाते हैं। पूरी चमार जाति अपनी पत्नियों के साथ अमानवीयता का व्यवहार करती है, इसको लिखने से पहले उनके साहचर्यपूर्ण जीवन को लिखने की कोशिश प्रेमचंद करते तो शायद चमार जाति के चरित्र के साथ न्याय कर पाते। यह मानने से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि संवेदनशून्य पुरुष हर एक जाति में हैं, तो चमार जाति में भी रहे होंगे, पर पूरी चमार जाति के संदर्भ में इस बात का उल्लेख करना घोर आपत्तिजनक है।

डॉ. बिपिन कुमार हिन्दी विभाग , काहिविवि में प्रोफेसर हैं

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
4 COMMENTS
  1. बिल्कुल साफ सुथरी बहुत ही तार्किक आलोचना है, मुझे लगता है कि, अब तक कफ़न कहानी पर जितने भी लोंगो ने लिखा है,उन सब में महत्वपूर्ण लेख है..बेहतरीन लेख के लिए लेखक को हार्दिक शुभकामनाएं!

  2. कफन कहानी जबदस्त आलोचना। लेखक के सारे सवाल वाजिब व विचारणीय है। बहुत हद तक जायज भी है । यह भी कथन सही है कि यह दलित समाज के अपमान की कहानी है। क्योंकि इसमें घटित हो रही घटनाएं अव्यवहारिक व अमानवीय है। विशेष तौर पर यह कहानी चमार पर लागू करना भी आपत्तिजनक है।यह विपिन सर का बार बार पढ़ा जाने वाला है। इसके लिए उन्हें बहुत बधाई।
    गाँव के लोग पत्रिका के दलित विशेषांक में जवाहर लालकॉल की एक कहानी नया कफन आयी है। उस कहानी इन आपत्तिजनक प्रसंगो पर चर्चा करते हुए संसोधन करने की कोशिश की गयी है। किंतु गम्भीर प्रश्नों को लेकर यह लेख उस कहान से भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

  3. कफन कहानी की जबदस्त आलोचना। लेखक के सारे सवाल वाजिब व विचारणीय है। बहुत हद तक जायज भी है । यह भी कथन सही है कि यह दलित समाज के अपमान की कहानी है। क्योंकि इसमें घटित हो रही घटनाएं अव्यवहारिक व अमानवीय है। विशेष तौर पर यह कहानी चमार पर लागू करना भी आपत्तिजनक है। सर का का यह लेख बार बार पढ़ा जाने वाला है। इसके लिए उन्हें बहुत बधाई।
    गाँव के लोग पत्रिका के दलित विशेषांक में जवाहर लाल कॉल की एक कहानी नया कफन आयी है। उस कहानी इन आपत्तिजनक प्रसंगो पर चर्चा करते हुए संसोधन करने की कोशिश की गयी है। किंतु गम्भीर प्रश्नों को लेकर यह लेख उस कहानी से भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

  4. प्रेमचंद जी कहानी के प्रारंभ में ही लिखते हैं- ‘चमारों का कुनबा ‘ यहां स्वाभाविक प्रश्न है कुनबा है तो बुधिया के प्रसव के समय कुनबे की स्त्रियाँ कहाँ चली गई ।जबकि चमारों की स्त्रियाँ इस काम में माहिर होतीं थी ।तथाकथित बड़े घरों में सफलता पूर्वक यह कार्य सम्पन कराती थीं ।कुनबे में नम्र स्त्रियाँ हैं परन्तु यहां तो दलितों को बदनाम करने की प्रेमचंद जी साजिश लगती है ।प्रो विपिन जी ने सवालों को बहुत ही तार्किक और व्यावहारिक तथ्यों के साथ प्रेमचंद जी के गैरजिम्मेदार और दलित संवेदनहीनता के सवालों को बेपर्दा किया है ।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here