Sunday, September 8, 2024
Sunday, September 8, 2024




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमविचार विमल, कंवल और उर्मिलेश (तीसरा भाग) डायरी (12 अगस्त, 2021) 

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

 विमल, कंवल और उर्मिलेश (तीसरा भाग) डायरी (12 अगस्त, 2021) 

संस्कृतियां आसमानी नहीं होतीं। संस्कृतियों का निर्माण किया जाता है। और फिर ऐसा भी नहीं कि संस्कृति का निर्माण कोई एक दिन में हो जाता है। इसके लिए सदियां लगती हैं। इसके लिए संघर्ष की स्थिति बनती है। एक संस्कृति को मानने वाले लोग दूसरी संस्कृति को स्वीकारने से पहले प्रतिरोध करते हैं। इस प्रतिरोध […]

संस्कृतियां आसमानी नहीं होतीं। संस्कृतियों का निर्माण किया जाता है। और फिर ऐसा भी नहीं कि संस्कृति का निर्माण कोई एक दिन में हो जाता है। इसके लिए सदियां लगती हैं। इसके लिए संघर्ष की स्थिति बनती है। एक संस्कृति को मानने वाले लोग दूसरी संस्कृति को स्वीकारने से पहले प्रतिरोध करते हैं। इस प्रतिरोध की अवधि कितनी होगी, यह इस पर निर्भर करता है कि साहित्य कैसा है। यदि साहित्य में प्रतिरोध करने की क्षमता होगी तभी कोई संस्कृति प्रतिरोध कर सकती है। बिना साहित्य के संस्कृतियां निहत्थी होती हैं और उनकी पराजय निश्चित।

[bs-quote quote=”जिस रफ्तार से सरकार देश के संसाधनों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपती जा रही है,उसे देखते हुए यह कहना गैर मुनासिब नहीं कि यह मुल्क जल्द ही देशी व विदेशी कंपनियों का उपनिवेश बन जाएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 

कल फिर मेरी निगाह संसद पर थी। निगाह केवल इसलिए नहीं कि मैं पत्रकार हूं, बल्कि इसलिए भी कि मैं इस देश का नागरिक हूं और मुझे भी आनेवाली पीढ़ियों की चिंता है। असल में इस चिंता से कोई मुक्त नहीं होता।
तो कल हुआ यह कि संसद के उच्च सदन में विपक्षी सदस्यों के खिलाफ बल प्रयोग किया गया। कल बीमा क्षेत्र को निजी हाथों में सौंपने के लिए सरकार बीमा संशोधन विधेयक लेकर आयी। उसे इल्म था कि विपक्षी सदस्य हंगामा करेंगे। यही हुआ भी। विपक्षी सदस्यों ने हंगामा किया। उनका ऐसा करना आवश्यक था। वजह यह कि जिस रफ्तार से सरकार देश के संसाधनों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपती जा रही है,उसे देखते हुए यह कहना गैर मुनासिब नहीं कि यह मुल्क जल्द ही देशी व विदेशी कंपनियों का उपनिवेश बन जाएगा। वैसे भी विरोध करना विपक्ष का काम है, सरकार की चरण वंदना नहीं।
जब राज्यसभा में विपक्षी सदस्यों को सरकार पिटवा रही थी, तब मेरी जेहन में कई बातें आयीं। सबसे पहली बात तो यही कि इसी वर्ष बिहार विधान सभा में ऐसी ही घटना घटित हुई थी। तब बिहार में मजलूमों पर कहर बरपाने के लिए पुलिस को अकूत अधिकार संपन्न बनाने के लिए सरकार द्वारा विधेयक लाया गया था। बिहार में विपक्ष सशक्त है। सशक्त कई कारणों से है। एक तो यह कि विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच 7-8 का फर्क है। दूसरा यह कि विपक्ष का नेतृत्व तेजस्वी यादव कर रहे हैं जो इन दिनों पूरी ऊर्जा के साथ अपना काम कर रहे हैं। एक वजह और भी है। वह यह कि इस बार भाकपा माले के सदस्यों की संख्या अधिक है। एक और वजह यह कि बिहार में सरकार मोदी-शाह की कृपा से चल रही है। जदयू के पास सीटें कम होने के बावजूद मोदी-शाह ने नीतीश कुमार को कठपुतली के रूप में सीएम बनाया है। सदन के अंदर भी इसका असर दिखता है।
खैर मैं जिस घटना की चर्चा कर रहा था उसे ही आगे बढ़ाता हूं। हुआ यह था कि बिहार विधानसभा में विपक्ष पूरी तरह तैयार था कि वह पुलिस को गुंडा बनने का अधिकार देने की सरकार की मंशा को कामयाब नहीं होने देगा। सरकार को इसकी जानकारी मिल चुकी थी। उसने बिहार पुलिस के सशस्त्र जवानों को सदन के भीतर तैनात कर दिया। बिहार विधानसभा के इतिहास में यह पहला मौका था जब सदन के अंदर हरवे-हथियार से लैस पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे। विधेयक पेश किए जाने के साथ ही विपक्ष ने विरोध करना शुरू कर दिया था। विधान सभा के अध्यक्ष के पद पर बैठा व्यक्ति सरकार के प्रति निष्ठावान था। वह विधयेक को पारित करवा देना चाहता था। फिर वही हुआ जिसका अंदेशा था। पुलिसकर्मियों ने विपक्षी नेताओं के उपर बल का प्रयोग किया। सदन के अंदर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सब अपनी आंखों से देख रहे थे और हालांकि मैंने अपनी आंखों से नहीं देखा लेकिन यकीन के साथ कह सकता हूं कि वह मुस्कुरा रहे होंगे जब पुलिस विपक्षी सदस्यों को पीट रही होगी।
कल राज्यसभा में भी यही हुआ। मेरी जेहन में एक कविता आयी। हालांकि मैं सोचता हूं कि ऐसे मौकों पर कमबख्त कविताएं क्यों आ जाती हैं मेरी रगों में?
मैं मानता हूं कि मैंने ही उन्हें मरवाया
जो मेरी बात नहीं मानते थे
उन्हें उनकी दुनिया प्यारी थी
और मुझे यह दुनिया
जिसके जर्रे-जर्रे पर मेरा अधिकार है।
मैं मानता हूं कि मैं कुटिल और चालाक हूं
धूर्त और सनकी भी।
मेरी कुटिलता, मेरा सनकीपन
नियमविरुद्ध और गैर वाजिब नहीं
बिना कुटिलता के यह कहां मुमकिन था कि
एक इशारे पर बिछ जाती लाशें
और धर्म भी खड़ा है मेरे पक्ष में।
मैं मानता हूं कि दुनिया में कुछ भी स्थायी नहीं
मेरे पहले भी कोई था
जिसने लोगों का खून बहाया
सिंहासन पर हीरे-मोती जड़वाया
अमरता के लिए महल-अटारी बनवाया
फिर इसका कोई मतलब नहीं कि
मैं हाथ पर हाथ धर बैठा रहूं
मेरे बाद वाला भी मेरे बनाए किले को
तोप से उड़वा देगा
मेरी तस्वीर को अपने पैरों से रौंदेगा।
मैं मानता हूं कि मैं तानाशाह हूं
मेरे बाद वक्त लिखेगा मेरी दास्तान भी।
बहरहाल, सियासत का अपना कारोबार है। मैं कंवल भारती को पढ़ रहा हूं। अब तक मैंने उनके आलोचनात्मक आलेख और राजनीतिक मुद्दों पर उनकी टिप्पणियाें को पढ़ा है। लेकिन इन दिनों उनकी कविताओं को पढ़ रहा हूं और मुझे लगता है कि मेरे इस सवाल का जवाब मिल गया है कि मेरी रगों में कमबख्त कविताएं क्यों बहने लगती हैं।

[bs-quote quote=”आजादी पर आलम का व्यंग्य बड़ा सार्थक है –क्यों भई निहाल सिंह आजादी नहीं देखी? वह जवाब देता है — ना रे भइया न खाई न देखी। जग्गू से सुना था कि अम्बाले खड़ी थी। बहुत बड़ी भीड़ उसके इर्द-गिर्द  थी। जनता की तरफ उसकी पीठ थी और उसका मुंह बिरला के घर की ओर था। वह बता रहे थे कि यह आजादी जनता को नहीं, बिरला जैसे पूंजीपतियों को मिली।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मेरे सामने कंवल भारती द्वारा संकलित व संपादित एक संकलन है – दलित निर्वाचित कविताएं। यह किताब वर्ष 2006 में साहित्य उपक्रम के द्वारा पहली बार प्रकाशित हुई। इस संकलन में कंवल भारती ने हिंदी, गुजराती, तेलगू, बांग्ला, असमी, पंजाबी, मलयालम और मराठी भाषाओं में रचित दलित कविताओं को शामिल किया है। इसी संकलन में उनकी अपनी कविताएं भी हैं जो हिंदी खंड के सबसे आखिरी में हैं। ऐसा निश्चित तौर पर कंवल भारती ने जान-बूझकर किया है। संपादन में नैतिकता को तरजीह देने के लिए उन्होंने ऐसा किया है। पाठक के रूप में मेरा अपना विचार है कि उनकी कविताओं को प्रारंभ में शामिल किया जाना चाहिए था। खैर, संकलन में शामिल उनकी पहली कविता को बतौर गवाह उद्धृत कर रहा हूं – चिड़िया जो मारी गयी
गोरख पांडेय ने लिखी थी कविता
एक चिड़िया थी
चिड़िया भूखी थी
इसलिए गुनहगार थी
मारी गयी वह चिड़िया
जो भूखी थी।
लेकिन गोरख पांडेय ने गलत लिखा था
वह चिड़िया भूख से नहीं
चिड़िया होने से पीड़ित थी
कवि इस अनुभव से गुजरा नहीं था
उसकी श्रेणी जन्म से पूज्य थी
वह कैसे जानता
गरीबी नहीं
सामाजिक बेइज्जती अखरती है?
वह कैसे जानता
वह चिड़िया थी इसलिए गुनहगार थी
चिड़िया जो मारी गयी।
(दलित निर्वाचित कविताएं, सं- कंवल भारती, पृष्ठ 206)
गोरख पांडेय के बारे में उर्मिलेश ने अपनी किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल में एक अध्याय खर्च किया है। उन्होंने गोरख पांडेय के चरित्र पर अलग-अलग तरह की टिप्पणियां की है। कंवल भारती और उर्मिलेश के विचारों में कोई खास विरोध नहीं है। दोनों की राय अपनी-अपनी जगह पर समुचित है। इस बारे में कभी और लिखूंगा। लेकिन आज तो कंवल भारती के द्वारा संकलित दलित निर्वाचित कविताएं और कल जो राज्यसभा में सरकारी गुंडागर्दी की गयी है, उसी पर फोकस करूंगा।
अपनी संकलन में कंवल भारती ने देश भर में दलित कविताओं के इतिहास का अद्भूत नजारा पेश किया है और वह भी अलग-अलग कालखंडों के हिसाब से। यह बेहद पठनीय है। पंजाबी में दलित कविताओं का इतिहास बताने के क्रम में कंवल भारती ने गुरुदास गाँधीवादी, aराम ‘आलम’ से प्रारंभ किया है। उनके मुताबिक, “पंजाबी दलित कविता का आरंभ सही मायने में गुरुदास राम ‘आलम’ के रचनाकर्म से होता है।” (दलित निर्वाचित कविताएं, भूमिका, पृष्ठ 24)
कंवल भारती ने गुरुदास राम ‘आलम’ की एक कविता का उद्धरण दिया है –
क्यों भई निहाल्या आजादी नहीं देखी
न भई भरावा न खाई न देखी
मैं जग्गू ते सुनिया से अम्बाले आई खड़ी सी
बड़ी भीड़ ओस ते खाली आई खड़ी सी
जनता ते मुंह बल पछाड़ी सी ओस दी
ते बिरला दे मुंह बल अगाड़ी सी ओस दी।
कंवल भारती ने इस कविता का भावार्थ बताया है – “कहते हैं कि जब डॉ. आंबेडकर केंद्रीय मंत्री की हैसियत से अम्बाला गए तो आलम ने उन्हें यह कविता सुनायी थी। यह कविता उन्हें इतनी पसंद आयी कि उन्होंने इसे दुबारा सुना। आजादी पर आलम का व्यंग्य बड़ा सार्थक है –क्यों भई निहाल सिंह आजादी नहीं देखी? वह जवाब देता है — ना रे भइया न खाई न देखी। जग्गू से सुना था कि अम्बाले खड़ी थी। बहुत बड़ी भीड़ उसके इर्द-गिर्द  थी। जनता की तरफ उसकी पीठ थी और उसका मुंह बिरला के घर की ओर था। वह बता रहे थे कि यह आजादी जनता को नहीं, बिरला जैसे पूंजीपतियों को मिली।” (वही)
बहरहाल, राज्यसभा में जो कुछ कल हुआ, वह गुरूदास राम आलम की उपरोक्त कविता में पहले से उल्लेखित है। कुछ अलग है तो केवल इतना कि तब केवल एक बिरला था, आज अडाणी और अंबानी के अलावा कई हैं और हुकूमत गांधीवादी से गाेडसेवादी।
(क्रमश: जारी)
 नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट को सब्सक्राइब और फॉरवर्ड करें।
2 COMMENTS
  1. नवल जी, आजकल संसद में जो हो रहा है या जो हुआ वह न केवल अलोकतांत्रिक असंसदीय और शर्मनाक है बल्कि सत्तापक्ष की तानाशाही है।
    कंवल भारती जी एक विचारक, आलोचक, लेखक तो हैं ही एक अच्छे कवि भी हैं।
    मैंने उनकी एक कविता पढ़ी है -“तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?” यह एक प्रभावशाली कविता है।
    सरकार जितनी तेजी से निजीकरण कर रही है। वह सरकार की मंशा को दर्शाती है। -राज वाल्मीकि।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here