विमल, कंवल और उर्मिलेश (तीसरा भाग) डायरी (12 अगस्त, 2021)
नवल किशोर कुमार
जिस रफ्तार से सरकार देश के संसाधनों को निजी क्षेत्र के हाथों में सौंपती जा रही है,उसे देखते हुए यह कहना गैर मुनासिब नहीं कि यह मुल्क जल्द ही देशी व विदेशी कंपनियों का उपनिवेश बन जाएगा।
आजादी पर आलम का व्यंग्य बड़ा सार्थक है --क्यों भई निहाल सिंह आजादी नहीं देखी? वह जवाब देता है -- ना रे भइया न खाई न देखी। जग्गू से सुना था कि अम्बाले खड़ी थी। बहुत बड़ी भीड़ उसके इर्द-गिर्द थी। जनता की तरफ उसकी पीठ थी और उसका मुंह बिरला के घर की ओर था। वह बता रहे थे कि यह आजादी जनता को नहीं, बिरला जैसे पूंजीपतियों को मिली।
नवल जी, आजकल संसद में जो हो रहा है या जो हुआ वह न केवल अलोकतांत्रिक असंसदीय और शर्मनाक है बल्कि सत्तापक्ष की तानाशाही है।
कंवल भारती जी एक विचारक, आलोचक, लेखक तो हैं ही एक अच्छे कवि भी हैं।
मैंने उनकी एक कविता पढ़ी है -“तब तुम्हारी निष्ठा क्या होती?” यह एक प्रभावशाली कविता है।
सरकार जितनी तेजी से निजीकरण कर रही है। वह सरकार की मंशा को दर्शाती है। -राज वाल्मीकि।
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