Saturday, July 27, 2024
होमसंस्कृतिमेरे लिए लिखने का मतलब निर्बल और सताए हुए लोगों के साथ...

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

मेरे लिए लिखने का मतलब निर्बल और सताए हुए लोगों के साथ खड़ा होना है (कथाकार,इतिहासकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा से अपर्णा की बातचीत )

मेरी कहानियों में मेरा गांव हैं। रचनाओं में लेखक का अतीत और वर्तमान छिपा होता है। वह विगत के यथार्थ से ग्रहण कर आगत को बुनता है। आगत के बेहतर स्वप्न या बुरे दु:स्वप्न को देखता है। बेहतर या बुरी दुनिया की परिकल्पना करता है। यह परिकल्पना कागजों पर उतरकर लेखन का स्वरूप ग्रहण करती है। लेखक क्यों लिखता है, इसका जवाब लेखक की रचनाओं में छिपा होता है। रचनाएं खुद बताती हैं कि क्यों लिखी गयीं या लिखी जा रही हैं? इस संबंध में मौन साधे बहुत कुछ बोलती हैं रचनाएं।

मेरी कहानियों में स्त्री-पुरुष प्रेम प्रधान कहानियां बहुत कम हैं। उसका कारण यह भी है कि इस क्षेत्र में मैंने बहुत कम मशक्कत की है।

बातचीत का दूसरा हिस्सा 

आपको कब लगा कि आप लिखना चाहते  हैं?

कक्षा छह में ही मैंने कविता लिखने का प्रयास किया था। परीक्षा में गाय पर लेख लिखने का प्रश्न आया तो मैंने गाय पर कविता जैसी कुछ पंक्तियां लिख दीं। जूनियर हाईस्कूल में मैंने रंगे हाथ नामक एक उपन्यास लिखा था जो प्रकाशन योग्य तो न था मगर लिखा। कक्षा आठ के बाद लगातार साहित्यिक पत्रिकाएं पढ़ता रहा। उन्हें पढ़कर सोचता था कि मैं भी लिख सकता हूं। हाई स्कूल में लगा कि कहानी लिखनी चाहिए। ग्यारहवीं कक्षा में एक कहानी लिखना शुरू किया जो कई बार लिखा मगर कहीं छपी नहीं। वही कहानी बाद में, कैरियर  शीर्षक से दुरुस्त होकर सबसे पहले मुक्ता  में छपी। तब तक मैं एमएससी कर, नौकरी में आ चुका था।

लिखने के बाद आपने किसे पहली बार सुनाया और उस व्यक्ति की क्या प्रतिक्रिया थी?

लिखता था तो स्कूल के साथियों को ही सुनाता था। बाल-सभा में सुनाता था। सातवीं कक्षा में ही लड़के चिढ़ाने के लिए मुझे ‘कवि जी’ पुकारने लगे थे। नौवीं कक्षा में जब भारी भरकम शब्दों का शौकिया प्रयोग शुरू कर कुछ लिखता तो साथी कहते कि क्या ‘चोनाइल’ भाषा में लिखते हो जी?

आपने अनेक विधाओं में लिखा। कविता, कहानियां, लेख और अब इतिहास लेखन कर रहे हैं। कहने का मतलब कविता से इतिहास लेखन तक की विधा का चयन आपने किस प्रकार किया?

यह समय के साथ स्वत: हुआ। लगा कि कविता और कहानी में अब हर वर्ग के लोग आ चुके हैं मगर हाशिए के समाज का इतिहास, उसी समाज के द्वारा अभी तक नहीं लिखा गया और जिन्होंने इतिहास का लेखन किया उन्होंने हाशिए के समाज के योगदानों पर चुप्पी साधे रखी। इसी पक्षधरता को देख इतिहास लेखन की ओर चला आया। किसी विधा के लिए जोर जबरदस्ती नहीं की। समय के साथ विचारों को साफ-साफ कहने की नियति ने विषयों को बदला। शुरू में कविता जुबान पर आती थी। बाद में लेख और कहानी लिखने लगा। इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी में जब 2000 में मेरी कहानी हाक़िम सराय का आखिरी आदमी छपी तो मन गद्गद हो गया। लगा कि अब बेहतर लिख रहा हूं। एक दिन प्रो. मैंनेजर पाण्डेय ने कहा कि आपके जिले की घटना है चौरी चौरा। उसमें शामिल गरीबों को कोई पूछता नहीं है। कुछ सामग्री जुटाकर एक लेख लिखिए। उसी काम में लगा तो लेख के बजाए पुस्तक लिख दिया।

सुभाषजी का पहला कहानी संग्रह हाकिम सराय का आखिरी आदमी

हिन्दी के किन लेखकों से आप बहुत प्रभावित हुए?

प्रारम्भ में तो पाठ्यक्रम में शामिल लेखकों या कवियों की रचनाओं को पढ़ना शुरू किया। रुचि विकसित हुई तो प्रेमचंद की कहानियों ने मन मोह लिया। प्रेमचंद को खूब पढ़ा। उनकी कहानियां एवं उपन्यास अपने जीवन के करीब लगता। यशपाल, फणीश्वरनाथ रेणु, भगवती चरण वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, राहुल सांकृत्यायन, मैक्सिम गोर्की, चेखव आदि ने प्रभावित किया।

इस प्रभाव का कारण क्या था?

मुझे गांव-गिराँव की बातें, समस्याएं और संदर्भों में अपनी आत्मा नजर आती है। प्रेमचंद की रचनाएं हमारे गांव, परिवेश और जीवन से गुजरतीं। वहां मैं अपनी जमीन और जीवन को देखता। यही कारण है कि सबसे ज्यादा प्रेमचंद भाए।

साहित्य की व्यापक दुनिया से आपका परिचय कैसे हुआ?

पाठ्यक्रम में शामिल रचनाओं के अलावा, सातवीं-आठवीं से ही सरिता, मुक्ता, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग को देखने-पढ़ने का मौका मिला। भैया इन पत्रिकाओं को लाते थे और मौका पाकर मैं भी पलट लेता। लाते तो वह सारिका भी थे लेकिन सारिका मुझे कठिन लगती। कादम्बिनी का सम्पादकीय-कालचक्र तो बार-बार पढ़ता। न समझ में आने के बावजूद समझने की कोशिश करता और उसकी नकल कर कुछ लिखता। चन्दा मामा, चंपक आदि पत्रिकाएं तब आसानी से हर कहीं मिल जाती थीं। हाई स्कूल में गया तो नन्दलाल मास्टर लाइबे्ररियन थे। उनसे अनुरोध कर साहित्यिक पत्रिकाओं के पुराने अंक मांग ले आता। खेतों के मेड़ या बारी-बगीचों  में बैठकर उन्हें पढ़ता और फिर अगले दिन लौटा देता।

भारतीय भाषाओं के साहित्य से आपका कैसे परिचय हुआ?

इंटर तक मेरा परिचय मात्र हिन्दी भाषा के साहित्य से रहा। इंटर के बाद रूसी साहित्य, प्रचुर मात्रा में और बहुत ही सस्ते दाम पर अनुवाद के जरिए उपलब्ध हो जाता था। हर कहीं रूसी पुस्तकों की प्रदर्शनी लगती थी। गांव में पढ़ने के कारण अंग्रेजी मेरी कमजोरी थी इसलिए हिन्दी साहित्य की किताबों को पढ़ने का चस्का कोर्स में शामिल रचनाओं को पढ़ कर शुरू हुआ जो लगातार बढ़ता गया।

 कौन सी किताबें थीं जिन्हें पढ़कर चमत्कृत हो गए?

प्रेमचंद की कहानियों ने सबसे पहले चमत्कृत किया। दो बैलों की कथा, ईदगाह,पंच परमेश्वर, मंत्र आदि बहुतेरी कहानियां ढूंढकर पढ़ता। स्नातक की कक्षा में आते ही सबसे पहले मॉक्सिम गोर्की की मां  ने बहुत प्रभावित किया। भगवती चरण वर्मा की चित्रलेखा, यशपाल की गांधीवाद की शव परीक्षा और प्रेमचंद के लगभाग सारे उपन्यास पढ़ गया। गोदान और कर्मभूमि  ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। दोनों में खेतिहरों की समस्याओं को प्रेमचंद ने जिस तरीके से उठाया है, उससे अपने समाज की व्यथा दिखाई दी। युवा अवस्था में धर्मवीर भारती का गुनाहों का देवता पढ़ने के बाद कई दिनों तक खोया-खोया सा रहा।

हिन्दी की किन कृतियों से आप गहरे प्रभावित रहें? भारतीय भाषाओं की किन कृतियों का आप पर गहरा असर पड़ा?

प्रेमचंद का गोदान, कर्मभूमि, रंगभूमि, रेणु का परती परिकथा, राही मासूम रजा का आधा गांव, यशपाल का गांधीवाद की शव परीक्षा, भागवती चरण वर्मा की चित्रलेखा। अमृतलाल नागर का आंखों देखा गदर, मुक्तिबोध रचनावली और नागार्जुन रचनावली। अयोध्या सिंह का भारत का मुक्ति संग्राम, के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री का नंद-मौर्य युगीन भारत, सत्यकेतु विद्यालंकार का मौर्य साम्राज्य का इतिहास, रविन्द्र नाथ ठाकुर का गोरा, राहुल सांकृत्यायन का भागो नहीं, दुनिया को बदलो आदि। बाबा साहेब अम्बेडकर का सम्पूर्ण वांग्मय, 21 खण्डों में पढ़ने के बाद ज़िंदगी को समझने का नज़रिया बदल गया।

अंग्रेजी की किन कृतियों से आप प्रभावित रहें?

अंग्रेजी की ज्यादातर साहित्यिक कृतियां, हिन्दी अनुवाद के माध्यम से ही पढ़ पाया। चेखव, मैक्सिम गोर्की की कहानियां। ले मिजरेबल का उपन्यास। सीमेन द बोउवार का द सेंकेण्ड सेक्स, अलेक्सान्द्र कुप्रिन का गाड़ी वालों का कटरा, दोस्तोयेव्स्की का अपराध और दंड, रसूल हमजातोव का मेरा दागिस्तान। मिस कैथरीन मेयो की मदर इण्डिया और राणा अयूब की गुजरात फाइल आदि।

विश्व साहित्य के किन चरित्रों ने आपको बहुत प्रभावित किया और अपने दुख-सुख में उन्हें अपने सबसे करीब पाते रहे हैं?

विक्टर ह्यूगो के ले मिजरेबल का जां वालजा, रसूल हमजातोव के मेरा दागिस्तान का कवि हमजातोव, मार्गरेट मिशेल के गॉन विद द विंड की ऐशली विल्किस और स्कारलेट। मिस कैथरीन मेयो का मदर इण्डिया। अलेक्सान्द्र कुप्रिन का गाड़ी वालों का कटरा में(यामा)- जेन्या, ल्यूबा, कात्या और मान्का। मैक्सिम गोर्की की मां में निलोवना और पावेल। चेखव की कहानी एक क्लर्क की मौत का इवान द्मीत्रिच चेरव्यकोव आदि।

किन भारतीय लेखकों को आप कभी विस्मृत नहीं कर पाते और क्यों?

प्रेमचंद, रेणु, हरिशंकर परसाई, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अमरकान्त, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, भागवती चरण वर्मा, नागार्जुन, त्रिलोचन, मंटो, कमलेश्वर, अम्बेडकर आदि।

आप पहली बार कब किसी लड़की  की ओर आकर्षित हुए थे? क्या आप उससे प्रेम करते थे? आप उससे अपने मन की बात कह पाए?

जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में बीएससी का छात्र था तब साथ पढ़ने वाली एक लड़की से मेरी पहली दोस्ती हुई। वह दोस्ती गोपनीय नहीं थी। मजीठिया ब्लॉक के छात्र, हम दोनों के घर वाले और दोस्तों, सभी को मालूम थी। बहुत ईमानदारी से हमारी दोस्ती बिना किसी स्वार्थ या चाह के आगे बढ़ती रही। लगभग चार वर्षों तक यह दोस्ती रही। इस दोस्ती का दुखद पहलू यह रहा कि न तो हम दोनों में कभी किसी बात को लेकर तकरार हुई और न हमने आमने-सामने एक-दूजे को कभी स्थायी संबंधों की ओर बढ़ने के संबंध में कोई बात की। हां, एक पत्र मैं जरूर उसके हाथ में रख कर चला आया था कि क्या हम जीवन में एक साथ नहीं रह सकते? उसका कोई उत्तर नहीं आया और तब तक विश्वविद्यालय से निकलने का समय आ गया। विश्वविद्यालय से निकलने के बाद उसकी शादी हो गयी। शादी जिस लड़के से हुई, वह विश्वविद्यालय का ही छात्र था और हम दोनों की दोस्ती के बारे में अच्छी तरह जानता था। शायद इसलिए मैं फिर कभी उससे नहीं मिला। दोस्ती का वही अंतिम बिन्दु था।

आपने अपने भीतर कब प्रेम का आवेग और ऐसी तड़प को महसूस किया कि दुनिया की बाकी चीजें गौण लगने लगीं?

विश्वविद्यालय के बाद कभी नहीं। मात्र एक दोस्ती, वह भी महज़ चार साल में दफन हो गयी। उसके बाद कभी नहीं।

वह कौन था जिसने आपको इतना गहरे तक छुआ?

मुझे लगता है कि उसके नाम का उल्लेख करना उचित नहीं होगा।

आपका विवाह कब और कैसे हुआ? क्या आपका विवाह पारंपरिक था या प्रेम-विवाह?

16 मई, 1989 को मेरी शादी पारंपरिक तरीके से ही हुई यद्यपि तब तक मैं कर्मकाण्डों का विरोधी हो चुका था मगर इतना मजबूत नहीं हुआ था कि घर वालों पर परंपरागत शादी न करने का दबाव बना सकूं।

आशाजी आपकी जीवन संगिनी है, पत्नी के रूप में कौन-सी खास बात है जिनके कारण आप उन पर फिदा थे या कहें कि हैं?

आशा को सबसे पहले भाभीजी ने पसंद किया था। कुशीनगर में देखने गयीं थीं। मुझसे बोलीं कि आप भी चलिए तभी तो पसंद-नापसंद बताएंगे?  मैं नहीं गया। बोला, आप जिसे पसंद कर लेंगी, मैं उसी से शादी कर लूंगा। शाम को भाभी जी ने कहा कि मुझे तो लड़की पसंद है। अब बताइये? यहां मैं उनकी बात को आंशिक स्वीकार करते हुए पलट गया। बोल बैठा कि मैं भी उससे बात करूंगा। इस पर भैया-भाभी नाराज़ हुए। बोले कि जब चलने को कहा गया तो गया नहीं और अब फिर लड़की देखना चाहता है। यह तो गलत बात है। बार-बार लड़की देखकर लड़की वालों को परेशान करना ठीक नहीं। तब मैं सरकारी नौकरी में आ चुका था मगर सामाजिक संगठनों के बीच काम करने का जज़्बा बरकरार था। सोचा एक बार लड़की से बात कर उसकी सामाजिक सोच की परख तो कर लूं। तो अगले ही दिन स्कूटर से सीधे देवरिया जा पहुंचा। आशा से मिलकर आया तो फिर मत पूछिए। भाभी जी को शाम को ही बता दिया कि ठीक है। शादी करूंगा। यह बात बहुत दिनों तक मुझे चिढ़ाने का विषय बनी रही।

आशाजी की कौन-सी कमियाँ हैं जो आपको कभी पसंद नहीं आईं?

हर व्यक्ति में कुछ अच्छाइयां, कुछ कमियां होती हैं। कमियां तो मेरे अंदर भी हैं लेकिन आशा ने मेरे संयुक्त परिवार में बखूबी सबको खुश रखा, बच्चों और मेरी हर गतिविधि में साथ दिया। अनावश्यक कहीं कोई विवाद खड़ा नहीं किया तो मुझे कमियों को गिनाने का कोई औचित्य नहीं समझ आता।

आपने आशाजी को कितना समझा?

बस इतना ही कि उन्होंने मेरी किसी भी सामाजिक गतिविधियों पर नकारात्मक टिप्पणी नहीं की। उनके अंदर नकारात्मकता कभी नहीं रही। मेरे लेखन में सहयोगी रहीं। घर-परिवार की जिम्मेदारियों से लेकर कुछ सामान्य आंदोलनों में भी साथ रहीं।

आपने पति के रूप में उनकी कितनी सेवा की? क्या कभी आपको लगा कि आशाजी को  एक गिलास पानी देना चाहिए? उनके लिए एक कप चाय बनाकर देनी चाहिए? इनका सिर दबाना चाहिए या इनके कपड़े धो देने चाहिए?

इसका उत्तर ठीक-ठीक वही बता सकती हैं। मुझे पता नहीं मगर कोशिश यही रही कि मैं कभी अपने विचार न थोपूं। अपनी बात रखूं। दोनों ने कुछ हद तक तालमेल बनाए रखा। ऐसा कोई विवाद नहीं पैदा हुआ, जिसको हल न कर लिया गया हो। घर परिवार में जब हम दोनों हैं तो यथा समय एक-दूसरे के काम करने में कोई गुरेज नहीं। करता भी हूं। हां ऐसा कभी-कभार ही हुआ है। खाना बनाने का मुझे शौक रहा है। अभी भी नॉनवेज तो ज्यादातर मैं ही बनाता हूं।

पति-पत्नी संवाद का रैखिक विन्यास क्या रहा? शुरू से अब तक आप लोग किन विषयों पर बातें करते रहे और समस्याओं से लड़ते रहे?

हम हर विषय पर बात करते हैं। स्वीकार्य से लेकर वर्जित विषयों पर भी। उम्र में हम दोनों के अंतर होने के कारण कभी-कभार जीवन अनुभव के क्षेत्र में एक-दूसरे को समझने में अंतर सामने आया मगर जल्द ही उससे हम मुक्त हो गए। हमारी लड़ाई तो कभी नहीं हुई। हां कभी-कभार मुंह फुलौवल जरूर हुआ है।

आप अपनी कमाई कैसे खर्च करते थे और यह निर्णय कौन करता था?

मैं या आशा, दोनों को जो खर्च जरूरी लगता है, वह करता है। कभी किसी ने हिसाब नहीं मांगा है और न किसी ने दिया है। मेरे यहां तमाम साहित्यकारों और कॉमरेडों का आना-जाना रहा। तमाम संगठनों से नाता रहा। कमाई का एक हिस्सा उधर भी खर्च हुआ। गांव पर पुस्तकालय, छात्रवृत्ति, लोकरंग और गरीब छात्रों की मदद, आदि कार्यों में भी लगा रहा।

आपके घर में भोजन का लोकतन्त्र कैसा है?

हम सभी मांसाहारी खाने के शौकीन हैं। बच्चे तो हमसे भी आगे हैं। हम सभी, सबकी पसंद का बनाते-खाते हैं। हमने रसोईघर को सदा खुला रखा। मेरे हिस्से में चाइनीज और मुगलई रहता है।

आपके घर में पहनावे और भ्रमण का कैसा लोकतन्त्र रहा है?

पहनावे या भ्रमण को लेकर कोई बंदिश मेरे यहां नहीं रही। आशा भी गाड़ी चलाती हैं और अपने काम से बाहर जाती हैं। पहनावे को लेकर कभी कोई प्रतिबंध नहीं। जिसे जो पसंद, वह पहने। घूमने के हम शौकीन रहे हैं और हर साल तीन बार अवश्य घूमने निकलते हैं।

आपकी कहानियों में आपका जीवन कितना है?

जैसा कि मैंने बताया, मेरी कहानियों में मेरा गांव हैं। रचनाओं में लेखक का अतीत और वर्तमान छिपा होता है। वह विगत के यथार्थ से ग्रहण कर आगत को बुनता है। आगत के बेहतर स्वप्न या बुरे दु:स्वप्न को देखता है। बेहतर या बुरी दुनिया की परिकल्पना करता है। यह परिकल्पना कागजों पर उतरकर लेखन का स्वरूप ग्रहण करती है। लेखक क्यों लिखता है, इसका जवाब लेखक की रचनाओं में छिपा होता है। रचनाएं खुद बताती हैं कि क्यों लिखी गयीं या लिखी जा रही हैं? इस संबंध में मौन साधे बहुत कुछ बोलती हैं रचनाएं।

मेरा सृजन कार्य कोई अपवाद नहीं रहा। वह उस नकार के सकार से शुरू हुआ, जो आर्थिक विपन्नता और गांव की सामंती समाज से उपजा। मजबूर हाथों से हथियार सदृश्य निकलने लगे शब्द। लेखन ही वह माध्यम था जो मेरे अंदर के असंतोष को लिपिबद्ध करता। अगर मैं लेखन की ओर न अग्रसर होता तो निश्चय ही अराजक होता। रचनाओं ने जीवन को अराजक बनने से रोक लिया। मेरी कहानियों में स्त्री-पुरुष प्रेम प्रधान कहानियां बहुत कम हैं। उसका कारण यह भी है कि इस क्षेत्र में मैंने बहुत कम मशक्कत की है।

गांव का पूरा परिदृश्य सताये हुए लोगों का था। मेरे पिता परिवार के साथ, गांव में अपने होने और जीने की लड़ाई लड़ रहे थे। उनके साथ हम भाई-बहन भी लड़ने लगे। उसी लड़ाई के दौरान मन में विचार उमड़े जो समय के साथ संवरते गये। मुझे लगता कि लिखने का मतलब यह है कि मैं निर्बल और सताये समाज के साथ खड़ा हो रहा हूं। जातिवाद से लड़ रहा हूं। ऊंच-नीच की मानसिकता को नकार रहा हूं।

कहानियों से लेकर इतिहास लेखन तक, वैचारिक आलेखों से लेकर लोकसंस्कृतियों के सामाजिक पक्ष तक, ऐसा लगता है जैसे मैं अपने अतीत से मुक्त होने की लड़ाई लड़ रहा हूं। मेरा लेखन, उस लड़ाई को विजयश्री में बदले या न बदले, मेरे  मन को सुकून देता है। लगता है मैं जिंदा हूं। सोचता हूं, उपेक्षित समाज की पीड़ा, उसका इतिहास, उस वर्ग से आया लेखक नहीं लिखेगा तो कौन लिखेगा? चिड़ियों का इतिहास बहेलिये तो नहीं लिख सकते न?

मैंने अपनी रचना की शुरुआत, गांव-जवार, खेत-खलिहानों से शुरू की। भूख कहानी की उपज, लेखन के शुरुआती दिनों की देन है। गांव और घर के शुरुआती अनुभव के बिना साहित्य सृजन संभव न था।

बातचीत क्रमश:

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

2 COMMENTS

  1. ईमानदार लेखक और इतिहासकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा की रचना प्रक्रिया को समझने के लिए एक बेहद जरूरी साक्षात्कार।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें