परिस्थितियां एक जैसी कभी नहीं रहतीं। बदलती रहती हैं। यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह बदल रही परिस्थितियों के अनुरूप खुद को बदलता है या नहीं बदलता। बाजदफा खुद को नहीं बदलने वाले परेशानियों से घिर जाते हैं और कई बार ऐसा भी होता है कि बदलाव को नियति मानकर स्वीकार करने वाले भी संकट में होते हैं। मैं अपने मुल्क की बात कर रहा हूं। मेरा मुल्क यानी मेरा हिन्दुस्तान। एक ऐसा मुल्क जहां खूब सारी विविधताएं हैं। अलग-अलग संस्कृतियां हैं, तहजीब हैं। मजे की बात यह कि बदलाव से सब प्रभावित होते हैं। फिर चाहे वह कन्याकुमारी के लोग व उनकी संस्कृतियां हों या फिर सबसे उपर जम्मू-कश्मीर के लोग। बदलाव पूर्वोत्तर के राज्यों में भी खूब देखने को मिलता है।
शासन व प्रशासन की बात करूं तो इसमें भी जबरदस्त बदलाव आया है। सियासत की चाल इतनी बदल गयी है कि किसी एक निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है। वाद के हिसाब से भी सोचें तो फिर चाहे वह समाजवाद हो या फिर पूंजीवाद, दक्षिणपंथी हों या फिर वामपंथी, सबने अपने आपको बदला है। न्यायपालिका में भी बदलाव आया है।
मेरे लिहाज से यह एक बड़ा बदलाव है। अदालतों पर सवाल उठने लगे हैं। यह कहना भी गैर मुनासिब नहीं कि अदालतों की साख कम हुई है। इसकी भी वजहें रही हैं। खासकर उन न्यायाधीशों के कारण जो इंसाफ से अधिक शासक की चाकरी करते थे और करते हैं। बहुत अधिक दिन नहीं हुए जब सुप्रीम कोर्ट ने अपनी अवमानना के लिए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण को केवल एक रुपए का अर्थदंड दिया था। सोशल मीडिया पर अदालतों को लेकर जो टिप्पणियां सामने आती हैं, उनमें जो गंभीर टिप्पणियां होती हैं, बड़े काम की होती हैं। कई बार इन टिप्पणियों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की जनता अपने हिसाब से व्याख्या करती है।
[bs-quote quote=”कितना अच्छा लगता है जब अदालतें ऐसा आदेश सुनाती हैं। आभास होता है सड़ी-गली ब्राह्मणवादी रूढियां धीरे-धीरे ही सही दम तोड़ रही हैं। इसके टूटने की गति और तेज होगी। यदि हम भारत के लोग आरएसएस जो कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का संपोषक है, उसे सत्ता से दूर करें।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
इन सबके बावजूद मेरी मान्यता है कि अदालतों ने आजाद भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। मैं न तो अदालतों की ईमानदारी पर टिप्पणी करना चाहता और ना ही उनकी बेईमानी पर। वजह यह कि यह सब देखने के नजरिए पर निर्भर करता है और इस पर भी कि सुप्रीम कोर्ट में जज कौन है और वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना प्रतिबद्ध है।
दरअसल, न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब यह है कि न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों (विधायिका और कार्यपालिका) से स्वतंत्र हो। इसका अर्थ है कि न्यायपालिका सरकार के अन्य अंगों से, या किसी अन्य निजी हित-समूह से अनुचित तरीके से प्रभावित न हो। यह एक महत्वपूर्ण परिकल्पना है। न्यायिक स्वातंत्र्य के लिए भिन्न-भिन्न देश भिन्न-भिन्न उपाय करते हैं। अपने हिन्दुस्तान में भी है। मेरी यह भी मान्यता है कि जज की कुर्सी पर बैठा आदमी निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकता है जब उस पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका, विधानमण्डल तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होनी चाहिए।
सनद रहे कि भारतीय संविधान में सरकार के तीनों अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण किया गया है। इसके तहत नागरिकों के अधिकारों का विधिवत संरक्षण सुनिश्चित करने तथा शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिए इन तीनों अंगों के मध्य पर्याप्त नियंत्रण और संतुलन की व्यवस्था की गयी है।
हमारे अपने देश में उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायलयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायपालिका के कॉलेजियम की अनुशंसाओं के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इस व्यवस्था को लेकर सवाल उठते रहे हैं और मुझे लगता है कि सवाल वाजिब ही हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पूरी तरीके से खारिज कर दिया जाए। असल में इस प्रक्रिया के माध्यम से कार्यपालिका के पूर्ण विवेकाधिकार में कटौती की गई है तथा यह सुनिश्चित करने का तरीका है कि न्यायिक नियुक्तियां राजनीतिक विचारों पर आधारित नहीं हैं।
[bs-quote quote=”कल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एसके कौल और हृषिकेश राय की खंडपीठ ने अपने फैसले से भारत में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर करारा प्रहार किया। खंडपीठ के फैसले के बाद अब राष्ट्रीय रक्षा संस्थान (एनडीए) में महिलाएं भी इंटरमिडीयट लेवल से ही प्रवेश ले सकेंगीं। इसके पहले जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्नातक स्तर पर महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया था। ” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
जजों पर शासक का दबाव न हो, इसके लिए प्रावधान किया गया है कि नियत सेवा-शर्तें- न्यायाधीशों की नियुक्ति के पश्चात् उनके वेतन, भत्ते, विशेषाधिकार इत्यादि में अलाभकारी परिवर्तन नहीं किए जा सकते है। ये व्यय संचित निधि पर भारित होते हैं- इस कारण, ये व्यय वार्षिक संसदीय मतदान से मुक्त होते हैं। किसी भी विधायिका में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा नहीं की जा सकती है, केवल उस परिस्थिति को छोड़कर जब महाभियोग का प्रस्ताव विचाराधीन हो। न्यायाधीशों को केवल संविधान में उल्लिखित आधारों पर ही हटाया जा सकता है।
न्यायपालिका को लेकर इतनी बातें दर्ज करने के पीछे एक शानदार खबर है। शानदार इसलिए कि इस खबर में मुझे भारत में समतामूलक समाज बनता दिख रहा है। मुमकिन है कि यह मेरी अतिश्योक्ति भी हो, लेकिन खुश होने का अधिकार मुझे है और मैं खुश हूं।
दरअसल, कल सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एसके कौल और हृषिकेश राय की खंडपीठ ने अपने फैसले से भारत में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर करारा प्रहार किया। खंडपीठ के फैसले के बाद अब राष्ट्रीय रक्षा संस्थान (एनडीए) में महिलाएं भी इंटरमिडीयट लेवल से ही प्रवेश ले सकेंगीं। इसके पहले जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में स्नातक स्तर पर महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का आदेश दिया था।
फिलहाल बात न्यायाधीश एसके कौल और हृषिकेश राय की खंडपीठ के फैसले की। खंडपीठ ने कुश कालरा की जनहित याचिका पर सुनवाई की। सुनवाई के दौरान अतिरिक्त महान्यायवादी (नाम पर न जाएं, ये महज सरकारी वकील होते हैं) ऐश्वर्य राय ने सरकार का पक्ष रखा। उन्होंने कोर्ट को जानकारी दी कि सेना में महिलाओं के प्रवेश के लिए पहले से दो तरीके हैं। इनमें से एक इंडियन मिलिट्री एकेडमी और दूसरा ऑफिसर्स ट्रेनिंग एकेडमी है। उनके इस कथन को खारिज करते हुए खंडपीठ ने कहा कि यही व्यवस्था एनडीए में क्यों नहीं है। क्यों केवल पुरुषों को ही एनडीए में प्रवेश का अधिकार है। सरकार को सहशिक्षा में क्या परेशानी है? इस पर अतिरिक्त महान्यायवादी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। सारा तंत्र ही ऐसा [पुरुषवादी] है। खंडपीठ ने कहा कि तंत्र सरकार बनाती है। तंत्र में बदलाव करिए और लड़कियों को एनडीए की परीक्षा में शामिल करिए।
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कितना अच्छा लगता है जब अदालतें ऐसा आदेश सुनाती हैं। आभास होता है सड़ी-गली ब्राह्मणवादी रूढियां धीरे-धीरे ही सही दम तोड़ रही हैं। इसके टूटने की गति और तेज होगी। यदि हम भारत के लोग आरएसएस जो कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता का संपोषक है, उसे सत्ता से दूर करें।
खैर, कल कोसी महाप्रलय की तेरहवीं बरसी थी। 18 अगस्त, 2008 को कुसहा (नेपाल) में कोसी नदी पर बने पूर्वी अफलक्स बांध के टूट जाने से बिहार के 18 जिले बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। चूंकि कोसी तटबंध की सुरक्षा और देख-रेख की जवाबदेही भारत सरकार (प्रत्यक्ष तौर पर बिहार सरकार की) की है, इसलिए अफलक्स बांध के टूटने के लिए बिहार सरकार को जिम्मेदार माना गया। लेकिन बिहार की नीतीश सरकार ने बड़ी चालाकी से अपने दस्तावेजों में यह दर्ज कर लिया कि चूहों के कारण तटबंध टूटा था। इसमें सरकार की कोई गलती नहीं थी। साथ ही यह भी कि कोसी महाप्रलय में कितने लोग मारे गए, इसकी कोई संख्या सरकार के पास न आज है और न पहले थी।
वर्तमान में भी कोसी सहित बिहार की लगभग सभी नदियां उफान पर हैं। आधा से अधिक बिहार बाढ़ में डूबा है। लोग किसी तरह अपना और अपने परिजनों की जान बचा रहे हैं।
कल मैं कोसी और उसके लोगों के बारे में सोच रहा था। एक कविता जेहन में आयी –
बड़े ढीठ हैं कोसी के लोग
और कोसी भी कम जिद्दी नहीं।
कोसी के लोगों को पता होता है सब कुछ
जो सरकार के फाइलों में दर्ज नहीं होता
उनके पास होता है कोसी का संदेश कि
कब समेटना है घर-बार, माल-गोरू, बाल-बच्चे।
कोसी के लोग कोसी को गाली नहीं देते
फिर चाहे डूब जाय बजरंग बली की मूर्ति
भरभराकर ढह जाय विष्णु का घर
कान में तेल डालकर सो जाय सरकार।
कोसी के लोग केवल कोसी के होते हैं
उसी की धार देखते, सुनते और गुनते हैं
और जब लौट जाती है कोसी अपनी राह
तब उसी को गुहराते और पूजते हैं।
कोसी के लोग रखते हैं खाने का उपाय
और रखते हैं चिलम और गांजे का प्रबंध
जब देर रात हहराती है कोसी बांध पर
भर लेते हैं चिलम, सुलगा लेते हैं आग।
हां, बड़े ढीठ हैं कोसी के लोग
और कोसी भी कम जिद्दी नहीं।
नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं ।
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