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ग्राउंड रिपोर्ट

सरकार के रहमोकरम की आस में बरसों से सड़क किनारे जीवन गुजार रहे शिल्पकार

वाराणसी। रोहनिया-कैंट मार्ग पर स्थित चाँदपुर चौराहे पर वाहनों के हॉर्न की आवाज़ के बीच खट-खट की मद्धिम-सी आवाज़ भी दिन-रात सुनाई देती है। इस चौराहे पर संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर से लेकर तमाम तरह के देवी-देवताओं की छोटी-बड़ी, आधी-अधूरी प्रतिमाएँ सड़क किनारे खड़ी या जमीन पर पड़ी हुई हैं। दर्जनों लोग पत्थर को तराशकर […]

वाराणसी। रोहनिया-कैंट मार्ग पर स्थित चाँदपुर चौराहे पर वाहनों के हॉर्न की आवाज़ के बीच खट-खट की मद्धिम-सी आवाज़ भी दिन-रात सुनाई देती है। इस चौराहे पर संविधान निर्माता भीमराव अम्बेडकर से लेकर तमाम तरह के देवी-देवताओं की छोटी-बड़ी, आधी-अधूरी प्रतिमाएँ सड़क किनारे खड़ी या जमीन पर पड़ी हुई हैं। दर्जनों लोग पत्थर को तराशकर मूर्तियों का निर्माण कर रहे हैं। वहीं पर करन विश्वकर्मा तीन बाई दो फीट साइज के छह इंच मोटे एक पत्थर के ऊपर बैठकर ‘शीतला माई’ की मूर्ति बना रहे हैं। उनके साथ लगे हुए हैं विनोद कुमार, जो करन के गुरु हैं। छेनी-हथौड़ी की मार से टूटकर गिर रहे पत्थर के टुकड़ों को विनोद खराब हो चुके एक ब्रश से साफ कर रहे हैं। पत्थर पर छेनी-हथौड़ी की टकराहट से निकलने वाली यह आवाज़ शिल्पकारों की ज़िंदगी की कई कहानियाँ समेटे हुए हैं। इसी कहानी से जुड़े एक सवाल के जवाब में विनोद कहते हैं, ‘हम लोगों को नहीं मालूम रहता कि यह मूर्ति किस मंदिर या किस चौराहे पर लगेगी या किसके घर की शोभा बढ़ाएगी। इसका कारण यह है कि अधिकतर मूर्तियाँ बिचौलिए दुकानदार अपने लिए बनवाते हैं और अच्छे दामों पर बेचते हैं। कई व्यापारी तो ऐसे हैं जो यहाँ से मूर्तियाँ ले जाकर इसी बनारस शहर में यहीं के लोगों को बेचकर ठीक-ठाक मुनाफा कमाते हैं।’

‘जो मूर्तियाँ आप लोग बनाते हैं, वह तो मंदिरों और चौराहों-तिराहों सहित न जाने कितने स्थानों की शोभा बढ़ाते हैं, आपको कभी उनके लिए सम्मान मिला?’

‘नहीं।’ इस जवाब के साथ विनोद अपना सिर झुकाकर उसी खराब ब्रश से फिर पत्थर के टुकड़ों को साफ करने लगते हैं। विनोद थोड़ा निराश हो जाते हैं। वह कहते हैं, ‘हमें खुद नहीं मालूम कि हमारे द्वारा बनाई गई मूर्तियाँ किन-किन मंदिरों में लगी हैं।’ वह बताते हैं, ‘हमारी दुकान के अन्य सहयोगियों ने मिलकर हनुमान की ‘वीर मुद्रा’ वाली 21 फीट ऊँची एक प्रतिमा बनाई थी। वह प्रतापगढ़ के किसी मंदिर में स्थापित हुई है। स्थापना के दौरान सात दिवसीय ‘पाठ’ का भी आयोजन किया गया था। बहुत बड़ा कार्यक्रम हुआ था।’
‘उस आयोजन में आपको बुलाया गया था?’

‘नहीं।’ इस जवाब के साथ वह फिर अपने काम में मगन हो जाते हैं।

चाँदपुर चौराहे पर सड़क किनारे पड़ी मूर्तियाँ।

विनोद-करन जैसे सैकड़ों मूर्तिकार चाँदपुर चौराहे पर झोंपड़ी बनाकर अपने बाप-दादा के समय से यहीं रहते आ रहे हैं। इनकी आँखों के सामने चाँदपुर चौराहा बदल गया। नहीं बदली तो सिर्फ मूर्तिकारों के जीवन की दुर्दशा। सुबह की दिनचर्या के बाद दुकान पर ग्राहकों का इंतज़ार करना। कभी-कभार आए ग्राहकों से मोल-भाव करना। तय दाम से कुछ रुपये कम करके मूर्तियों को बेच देना। मूर्तियों का दाम न जमने पर ग्राहकों का चले जाना… यह मूर्तिकारों के लिए रोज की बात हो गई है। इस बीच इन मूर्तिकारों ने परिजनों के हिसाब से काम का समय भी तय कर लिया है। सुबह छह बजे से शाम चार बजे तक मूर्तिकारी का काम होता है। ठंड के मौसम में यह समय एक घंटा आगे बढ़ जाता है। दिन की रोशनी इस काम के लिए ठीक रहती है। उसके बाद बच्चे और महिलाएँ मिलकर दुकान देखते हैं। पुरुष आराम करते हैं, उसके बाद घर का छोटा-बड़ा काम।

शिल्पकार कैलाश गिहार।

रोहनिया-कैंट मार्ग पर पत्थर की मूर्तियाँ बनाकर बेचने का काम करने वाले कैलाश गिहार का पूरा परिवार एक छोटी-सी झोंपड़ी में रहता है। सड़क का किनारा होने के कारण झोंपड़ी भी अतिक्रमण के दायरे में आती है। किस दिन इनको अपना डेरा हटाना पड़े इसका कोई भरोसा नहीं। पत्थर को तराशकर मूर्ति बनाने का हुनर इन लोगों को विरासत में मिला है। यहाँ रहने वाले शिल्पकारों के दादा और पिता भी इसी जगह रहकर पत्थर की मूर्ति बनाने का काम करते थे। पिता और दादा के जमाने में तो फिर भी सिल-बट्टा और चौका (रोटी बनाने वाला) की बिक्री ज्यादा होने से गुजारा चल जाता था, लेकिन इलेक्ट्रिक मिक्सी और आटा-चक्की आ जाने के कारण सिल-बट्टा और चौका की डिमांड भी खत्म हो गई। सरकारी इमदाद की बात तो दूर की है। हुनर की भी कोई कीमत नहीं मिल रही है। मूर्ति की कीमत उसके बनाने में लगे दिनों के हिसाब से तय होती है। पत्थर की खरीद की लागत और मूर्ति को बनाने में हर दिन छह से सात सौ रुपये की मजदूरी जोड़ी जाती है। कैलाश कहते हैं कि ‘मुझे थोड़ी सी सरकारी सहायता मिल जाए तो अपने काम को मैं बढ़ा सकता है, लेकिन अशिक्षित होने की वजह से मेरी कारीगरी की कद्र नहीं होती। काम में इतनी आमदनी नहीं होती कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सकूँ। इसी वजह से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को मूर्ति बनाने का काम विरासत में मिल रहा है, साथ ही मुफलिसी और गरीबी भी। हालत यह है कि कोई एक शिल्पकार मूर्ति बनाने में इस्तेमाल होने वाले पत्थर को अकेले खरीदने की स्थिति में नहीं है, लिहाजा सभी शिल्पकार पैसे जोड़कर पत्थर मँगवाते हैं। नवरात्र में मुख्य रूप से नव निर्मित मंदिरों में प्राण प्रतिष्ठा होने के कारण मूर्तियों की माँग ज्यादा होती है। शंकर, कृष्ण, दुर्गा, काली के साथ राम की मूर्तियाँ सबसे ज्यादा बिकती हैं। अम्बेडकर की प्रतिमाओं की बिक्री थोड़ी कम रहती है।’

पिता तो नहीं रहे लेकिन बीते पन्द्रह वर्षों में कैलाश ने अपने काम को बढ़ाया है। लेकिन पहले नोटबंदी और उसके बाद महामारी कोरोना के कारण लॉकडाउन और तमाम दूसरी तरह की समस्या व बंदिशों ने उनके काम को फिर से ज़मीन पर पटक दिया। मूर्तिकारी के लिए आए दिन नई-नई मशीनों के बढ़ रहे चलन भी कैलाश के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। कैलाश बताते हैं, ‘इन मशीनों ने हमारी आकर्षक और प्राचीन कला पर अपना कब्जा जमा लिया है। ऐसी-ऐसी मशीनें आ गई हैं कि एक दिन में बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बन जा रही हैं। वह भी रंग-रोगन के साथ, जिन्हें सुखाने के लिए भी मशीनों का ही उपयोग किया जाता है।’ वह बताते हैं, ‘चार फीट की प्रतिमा बनाने में दो से तीन मज़दूर 15 दिन का समय लेते हैं। आठ घंटे से ज़्यादा काम किसी भी मजदूर से नहीं लेते।’

मिर्ज़ापुर जिले के अहरौरा से आते हैं लाल पत्थर

कैलाश बताते हैं कि ‘लाल पत्थर पर ही मूर्तियों की नक्काशी की जाती है। इस पर नक्काशी अच्छे से हो जाती है। बनाने के दौरान ये पत्थर सफेद जरूर दिखते हैं, लेकिन पानी डालने पर इनका रंग लाल हो जाता है। मूर्तियाँ छोटी हों या बड़ी, मेहनत और अपनी कला का पूरा उपयोग हम ईमानदारी से करते हैं।’

वह बताते हैं कि ‘80 से 90 रुपये फीट के हिसाब से हम सभी लोग मिलकर पत्थर मँगवाते हैं। उसके बाद देनदारी के हिसाब से इन्हें बाँट लिया जाता है। गाड़ी में जो पत्थर टूट जाते हैं उनका उपयोग छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाने के लिए कर लिया जाता है। ये मूर्तियाँ बहुत कम ही बिक पाती हैं। लेकिन साल-डेढ़ साल में इनका नम्बर भी आ ही जाता है।’

पत्थर के टुकड़ों से बनाई गईं छोटी-छोटी मूर्तियाँ

अपनी एक कला का ज़िक्र करते हुए वह बताते हैं कि ‘कुछ दिन पहले मैंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर तीन बाई दो फीट का एक कमल का फूल बनाया था। उसकी कलाकृति सभी लोगों को आकर्षित कर रही थी, लेकिन उसके अच्छे दाम नहीं मिल पाए।’

मात्र चार घरों में हैं शौचालय

मूर्तिकारी की आकर्षक कला के माहिर इन कलाकारों की ज़िंदगी में काफी समस्याएँ हैं। यहाँ उनकी आबादी सैकड़ों की संख्या में है। कुल 87 परिवार हैं, लेकिन शौचालय मात्र चार झोंपड़ियों में बने हैं। इस समस्या की बाबत रानी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि ठंढी हो गर्मी का मौसम, वह चार बजे सुबह उठकर झोंपड़ी के पीछे के खेत में जाकर शौचालय कर आती हैं। सड़क के उस पार लगे हैंडपम्प पर शिल्पकारों के घर की अधिकतर महिलाएँ नहा लेती हैं।

‘खुले में नहाने से डर नहीं रहता?’

मौके पर मौजूद लगभग आधा दर्जन महिलाएँ बताती हैं कि ‘इसलिए हम अंधेरे में जाते हैं। ट्रकों और अन्य वाहनों की लाइट हम पर न पड़े इसलिए दो महिलाएँ साड़ी पकड़कर खड़ी रहती हैं ताकि आड़ बना रहे। इस दौरान तीन-चार महिलाएँ इकट्ठा होकर नहा लेती हैं। उसके बाद नहा चुकीं महिलाएँ साड़ी का पर्दा पकड़कर खड़ी हो जाती हैं। वहीं पर जाकर क्यों नहाया जाता है, पानी लाया भी तो जा सकता है? इस सवाल पर महिलाएँ बताती हैं कि सड़क पार करते समय कई बार हादसा हो चुका है। कई बार तो परिवारीजन मरते-मरते बचे हैं। इसलिए सड़क के उस पार से पानी लाने से अच्छा है कि वहीं जाकर नहा लिया जाए।

ग्राहकों के इंतजार में आंबेडकर और सरस्वती की प्रतिमा

पाँच रुपये शौच के पाँच रुपये नहाने के…

यह हैंडपम्प खराब हो जाने पर यहाँ की महिलाओं को चौराहे पर स्थित सामुदायिक शौचालय में जाना पड़ता है। यहाँ पर उनको नहाने और शौच के लिए पाँच-पाँच रुपये मिलाकर कुल दस रुपये देने पड़ते हैं। पुरुषों को नहाने और शौच करने यहीं पर जाना होता है। शिल्पकार लालजी कहते हैं कि यहाँ आस-पास दारू-शराब के ठेके बहुत हैं। इसलिए अपनी बेटियों को हम सुलभ शौचालय में ही भेजते हैं। खेतों में शराबियों और लफंगों का भय बना रहता है।

शिल्पकार लालजी।

‘अब तक आप लोग शौचालय व स्नानघर क्यों नहीं बना पाए?’

वह बताते हैं कि ‘यहाँ पानी बहाने की व्यवस्था ही नहीं है। इतनी कमाई भी नहीं है कि इकट्ठा 25-30 हजार लगा सकूँ। अगर कोई बनवाने की कोशिश भी करता है तो शिकायत पर इलाके का सुपरवाइजर आकर काम रुकवा देता है। लगभग एक हजार रुपये हर माह हम सिर्फ सुलभ शौचालय वाले को देते हैं। यहाँ लगभग 80 परिवार के लोग वहाँ पैसे देकर नहाने और शौच करने जाते हैं।’

शिल्पकार मिथिलेश कुमार

तीस वर्षीय मिथिलेश कुमार बारह वर्ष की उम्र से शिल्पकारी का काम करते आ रहे हैं। गरीबी के कारण पिता पढ़ाई-लिखाई नहीं करवा सकें तो मिथिलेश ने हाथ में पेंसिल-कलम की बजाए छेनी पकड़ ली। उनके गुरु बने दादा कन्हैया। अपनी उम्र के कारण दादा ने मिथिलेश को चार वर्ष तक ही शिल्पकारी सिखाई। इसी की बदौलत मिथिलेश आज अपने परिवार का गुज़र-बसर कर रहे हैं। वह बताते हैं, ‘नोटबंदी और कोरोना काल में मुझे ज़्यादा दिक्कतें हुईं। नेताओं को बस नियम बना देने से मतलब है, भुगतना हम लोगों को ही पड़ता है।’ वह बताते हैं, ‘महामारी के दौरान मेरे घर में अन्न का एक दाना तक नहीं था। दोस्तों से सूचना मिली कि एक मकान के सामने पड़ी गंदगी को साफ करने पर मुझे 150 रुपये मिलेंगे और एक समय का खाना भी। मैं उस काम के लिए घर से थोड़ी ही दूर गया था कि पीछे से आई पुलिस ने मेरे पैर में डंडा मारकर मुझे वापस भेज दिया। उस दिन के बाद मेरी घरवाली ने लॉकडाउन तक मुझे बाहर नहीं निकलने दिया।’ उस दिन शाम को कुछ लोग आए और हमें तीन दिन का राशन दिया और फोटो खींचकर चले गए।

 बिचौलियों को मिलेगा श्रम सम्मान योजना का लाभ देने का आरोप 

इन शिल्पकारों को बीते 17 सितम्बर को शुरू हुए प्रधानमंत्री विश्वकर्मा श्रम सम्मान योजना की काफी ज़रूरत है। हालांकि, इस योजना का लाभ प्राप्त करने के लिए लाभार्थियों को विभाग की आधिकारिक वेबसाइट https://www.msme.gov.in/ पर अपने आधार कार्ड, पैन कार्ड, फोटो और अपने व्यावसायिक प्रमाण पत्र के साथ अपना आवेदन प्रस्तुत करना होगा। आवेदन पत्रों की जाँच होने के बाद सभी लाभार्थियों को मुफ्त में प्रशिक्षण दिया जाएगा। प्रशिक्षण के बाद उन्हें टूल किट प्रदान किया जाएगा। इस बाबत यहाँ के लोगों ने साफ स्तर पर कहा कि ‘हम मूल रूप से शिल्पकारी करते आए हैं। हमारे द्वारा बनाई गई मूर्तियों को बेचकर ही बड़े व्यापारी हजारों-लाखों कमा रहे हैं। सरकारी तरीके से भी उन्हें पूरी व्यवस्था मिलती है। काम को बढ़ावा देने के लिए बैंक वाले लोन भी दे देते हैं। जबकि इस कला की शुरुआत करने वाला समुदाय आज भी उपेक्षा का शिकार हो रहा है।’ शिल्पकारों ने अपनी दुर्दशा बताई कि ‘हम लोग अपनी दुकान का रजिस्ट्रेशन तक नहीं करा सकते हैं। श्रम सम्मान योजना में जीएसटी, टीआईएन समेत तरह-तरह के कागज देने पर ही हमारा रजिस्ट्रेशन होगा। सरकार ने इस योजना में हमारी उपेक्षा कर दी है जिसका पूरा फायदा बिचौलिए उठा रहे हैं।’

अब तक नहीं मिला पीएम आवास

सड़क पर जीवन बसर कर रहे शिल्पकारों ने प्रधानमंत्री आवास के लिए आवेदन किया था लेकिन उनका आवेदन निरस्त हो गया। यहाँ के लोग बताते हैं कि ‘सीएससी से लेकर विभागों के चक्कर लगाते-लगाते थक गए लेकिन आज तक हमें आवास योजना का लाभ नहीं मिला। उसके लिए जमीन माँगी जा रही है, जो हमारे पास नहीं है। हम यहाँ पर 80-90 वर्षों से रह रहे हैं। इसके अलावा हमारे पास ज़मीन का एक टुकड़ा तक नहीं है। सरकार हमारी दुर्दशा पर कोई ध्यान ही नहीं देती, जबकि हम 2014 से ही भाजपा के वोटर हैं।’

इन औजारों से मूर्तियों को आकार देते हैं शिल्पकार

बहरहाल, एक समय था जब बनारस में पत्थरों में नक्काशी की कला आम हुआ करती थी। मंदिर, घर, सरकारी कार्यालयों में पत्थरों का  काम   किया जाता था। नक्काशीदार पिलर लगाए जाते थे। छत के बरामदों में नक्काशीदार पत्थर लगते थे। सड़क पर बने पुल की रेलिंग में नक्काशी का काम होता था, लेकिन समय बदलता गया और पत्थर की इस कला से लोग किनारा करते गए। बीते दो दशकों में ये कला विलुप्त होने की कगार पर पहुँच गई है। यूँ कहा जाए कि अब पत्थर पर शिल्पकारी की कला खुद पत्थर होती जा रही है। शिल्पकारों की आने वाली पीढ़ियाँ अब इसे रोजगार का साधन नहीं समझतीं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी इस कला को सीखने में कोई रुचि नहीं ले रही है। इस कला से जुड़ा समुदाय आज भी इस उम्मीद में है कि न जाने कब इन पर सरकार का रहमोकरम हो जाए!

अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग डॉट कॉम के कला संपादक हैं।

अमन विश्वकर्मा
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अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग के सहायक संपादक हैं।
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