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संदेशखाली और आमार शोनार बांगला की सच्चाइयाँ : मोदी जी की संवेदना कहाँ है

दो लाख आबादी वाले संदेशखाली की घटनाओं का राजनैतिककरण में भाजपा ने पूरा दम लगा दिया है। मोदी से लेकर केंद्रीय मंत्रियों और राज्यपाल तक ने इसका संज्ञान लिया। लेकिन आज से 22 वर्ष पहले हुए गोधरा के दंगों को भूल जाते हैं जबकि उन दिनों मोदी खुद वहाँ मुख्यमंत्री थे। दंगे में हजारों लोगों का कत्ल हुआ, घर जला दिये गए। महिलाओं के साथ गैंगरेप हुआ।

प्रधानमंत्री द्वारा पश्चिम बंगाल में आयोजित सभा में दिखाई जाने वाली संवेदनशीलता चौंकने वाली है क्योंकि पिछले वर्ष मई से मणिपुर जल रहा है और मणिपुर में भाजपा की ही सरकार है, लेकिन प्रधानमंत्री द्वारा मणिपुर जाने तो दूर की बात है, वहाँ दंगे की आग में जल रहे लोगों और महिलाओं के साथ हुए दुष्कर्म पर संवेदना के दो शब्द नहीं निकले। इसे ही सलेक्टिव सेंसेटिविटी कहते हैं।

बंगाल के संदेशखाली में जो भी हुआ वह बहुत ही दुखद है। लेकिन जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें है, वहाँ महिलाओं पर अत्याचार के साथ निरंतर किसानों की ज़मीनों के जबरन अधिग्रहण चल रहा है। संविधान के प्रावधान (अनुसूची 5-6) के अंतर्गत झारखंड, छतीसगढ़ में आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण गैर आदिवासी नहीं कर सकते लेकिन के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मोदी ने अडानी और अंबानी को खनिज संसाधनों का खनन का ठेका सौंपा। अब वह सलेक्टिवली सेंसेटिव बन रहे हैं।

इस देश में 8.5 से 9 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। तथाकथित विकास के नाम पर 75 प्रतिशत आदिवासी लोगों को विस्थापन का शिकार बनाया गया है। इस तरह समझिए कि अगर आदिवासियों की आबादी 15 करोड़ है तो इनके विस्थापन का आंकड़ा मोदी के गृह राज्य गुजरात की आबादी के बराबर है।

दो लाख आबादी वाले संदेशखाली की घटनाओं का राजनैतिककरण में भाजपा ने पूरा दम लगा दिया है। मोदी से लेकर केंद्रीय मंत्रियों और राज्यपाल तक ने इसका संज्ञान लिया। लेकिन आज से 22 वर्ष पहले हुए गोधरा के दंगों को भूल जाते हैं जबकि उन दिनों मोदी खुद वहाँ मुख्यमंत्री थे। दंगे में हजारों लोगों का कत्ल हुआ, घर जला दिये गए। महिलाओं के साथ गैंगरेप हुआ। इतने भयानक आत्याचार के बाद आज भी बहुत से लोग अपने पैतृक गाँव तक जाने की हिम्मत नहीं कर पाये।

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मैं जन्म से मराठीभाषी हूँ, आज से 64 वर्ष (1 मई, 1960) पहले मुंबई में शिवसेना ने शुद्ध मराठी भाषी लोगों की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए गैर मराठियों, जिनमें सबसे पहले दक्षिण भारतीय निशाने पर थे, हमले किए। उन पर अपमानजनक टिप्पणी की और उनकी दुकानें तोड़ दीं। क्योंकि वे दूसरे प्रदेश से आए गैर मराठी लोग थे। आज़ादी के बाद पहली बार किसी प्रदेश में ऐसी घटना हुई थी। इसी तरह पहली बार मजदूरों की लड़ाई के दौरान राजनेता कॉमरेड कृष्णा की हत्या मुम्बई में ही हुई। इन घटनाओं को लेकर आज भी मैं बहुत लज्जित हूँ।

इन घटनाओं का लाभ तत्कालीन कांग्रेस ने समाजवादी और कम्युनिस्टों के प्रभाव को कम करने लिए किया था। इसके विपरीत औद्योगिक क्षेत्र में कामगारों के बीच समाजवादी या कम्युनिस्ट ही प्रभाव रखते थे। वहाँ सरकार के सहयोग से कारख़ाना मालिकों ने समाजवादी या कम्युनिस्ट यूनियनों की जगह कामगार सेना जैसे लुंपेन को बढ़ावा दिया।

इस तरह शिवसेना ने सबसे पहले भाषा के आधार पर राजनीति शुरू की, जिसके सर्वेसर्वा बाल ठाकरे थे, जिन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहा जाता है। गुजरात में गोधरा दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के हिस्से में यह सम्बोधन आया, जिसकी वजह से उन्होंने गुजरात से दिल्ली तक का सफर पूरा करने में कामयाबी हासिल की।

महाराष्ट्र के नागपुर में चंद महाराष्ट्रियन ब्राह्मणों के द्वारा वर्ष 1925 में घोर हिन्दू सांप्रदायिक संगठन आरएसएस की स्थापना की गई। इस संगठन ने हिटलर के पद-चिन्हों में चलते हुए उसका अनुकरण किया। अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ जहरीले प्रचार-प्रसार के कारण स्थापना के 23 वर्ष बाद एक स्वयंसेवक और उसके कुछ साथियों ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या की। उसके बाद पूरा देश तब से अघोषित हिंदुवादी राष्ट्र की आग में सुलग रहा था। यह बात मुझे बहुत कष्ट देती है। हमारी संस्कार शाला राष्ट्र सेवा दल और साने गुरुजी की, वैश्विक स्तर की प्रार्थना (जो कि यूएनओ की प्रार्थना होनी चाहिए) ‘सच्चा धर्म वहीं है। जो दुनिया को प्रेम करे’ का संदेश देने वाली होती थी। लेकिन इसके बाद भी शिवसेना और आरएसएस को रोकने में हम सभी प्रगतिशील विचारों के लोग, असफल रहे हैं, इसे मैं स्वीकार करता हूँ।

वर्तमान में भारत के विभिन्न हिस्सों में कहीं भूमिपुत्र के नाम पर तो कहीं खालिस्तान के नाम पर कमया ज्यादा मात्रा में लगातार असंतोष में बढ़ रहा है।

इसका सबसे प्रमुख कारण यह है कि आजादी के पचहत्तर साल बाद भी संपूर्ण देश में विषमता कम होने की जगह में बढ़ी है। आज हिंदू-मुस्लिम का ध्रुवीकरण बदस्तूर जारी है। उत्तर भारत में अल्पसंख्यक समुदाय के घरों पर बुलडोजर चलाकर उसे नष्ट किया जा रहा है। भारत के किस कानून के अनुसार यह सब जारी है? और विद्वेष और अराजकता से भरे हुये वे ही लोग कानून व्यवस्था के लिए बंगाल दौड़ लगाए जा रहे हैं।

कल हमारे देश के चुनाव आयोग ने अपनी आचार संहिता की घोषणा करते हुए कहा कि ‘चुनाव प्रचार के दौरान कोई भी दल या व्यक्ति सांप्रदायिकता के आधार पर चुनाव प्रचार नहीं कर सकता।‘

लेकिन देश का एक सत्ताधारी दल जो शत-प्रतिशत सांप्रदायिकता के ही आधार पर राजनीति कर रहा है। देश में तथाकथित उग्र हिंदू राष्ट्रवाद की हिमायती है। बीजेपी की हिंदूत्ववादी राजनीति के कारण, कहीं सिख पहचान की राजनीति हो रही है तो कहीं द्रविड़, कहीं उत्तर पूर्व या आदिवासियों तथा दलितों से लेकर बहुजन समाज अपनी पहचान  की लड़ाई लड़ रहा है।

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 मैंने आपातकाल में जेल में संघी बंदियों से बातचीत में इस बात को अनेक बार कहा  ‘कि आपकी हिंदूत्ववादी राष्ट्र की अवधारणा इस देश की जाति-व्यवस्था के कारण है। जब आहिस्ता-आहिस्ता अन्य जातियाँ भी अपनी पहचान बनाने की शुरुआत करेंगीं, तब भारत में जबरदस्त संक्रमण शुरू होगा क्योंकि कोई भी व्यक्ति या समूह बहुत लंबे समय तक अज्ञानी या अवचेतना की स्थिति में नहीं रह सकता। तब हिंदू राष्ट्रवाद के कितने टुकड़े होंगे इसे तुम लोग गिन नहीं पाओगे।‘

प्राकृतिक रूप से सम्पन्न बंगाल हो या बिहार, ओडिशा हो या उत्तर प्रदेश जहां देश के अन्य प्रदेशों की तुलना में ज्यादा  उपजाऊ ज़मीनें हैं, आजादी के पचहत्तर साल के बाद भी यहाँ की बड़ी आबादी को काम की तलाश में देश के दूसरे राज्यों में जाना पड़ रहा है। यह उन प्रदेशों में राज करने वाले लोगों की अकर्मण्यता और असफलता के लक्षण हैं।

कुछ समय पहले बंगाल के बर्धमान जिले के सिमुलिया नामक गाँव में जाने का मौका मिला। इस गाँव की आबादी दस हजार थी। वहाँ चाय की दुकान पर जमे अड्डे पर बैठकर बातचीत करते हुए एक ग्रामीण ने बताया कि, ‘हमारे गाँव की जनसंख्या दस हजार है और एक हज़ार से अधिक युवा दक्षिणी राज्यों में काम करने के लिए गए हुए हैं।‘ बर्धमान जिला बंगाल के चावल का कटोरा के रूप में मशहूर है। यह बंगाल के जिले के एक गाँव की सच्चाई है। पूरे बंगाल के हजारों मजदूर दूसरे राज्यों में कमाने जाते हैं। यह है ‘आमार शोनार बंगला।’

उस ‘शोनार बंगला’ के मनरेगा मजदूरों का भुगतान तक अटक जाता है। बेरोजगारी का आलम अंतहीन है। ऐसे में सिर्फ मुद्दों का सांप्रदायिकरण करना न केवल खतरनाक है बल्कि ‘शोनार बंगला को नारकीय’ बनाने का एक बड़ा प्रयास भी है।

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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